नाकामियों के बावजूद कोशिश करते रहने से मिली सफलता।।
मोहम्मद अली शिहाब, (आईएएस अधिकारी )मेरा जन्म केरल के मल्लापुरम जिले के कोंडोट्टी के पास बेहद गरीब परिवार में हुआ था। तब 80 के दशक में गांव के अन्य लड़कों की तरह मेरा भी सपना था दुकान खोलने का। तब मेरे जैसा बच्चा इससे आगे सोच भी नहीं सकता था। अस्थमा से पीड़ित मेरे पिता कोरोत अली इस काबिल नहीं थे कि परिवार का पालन-पोषण कर सकें। इसलिए मुझे कभी बांस की टोकनियां तो कभी पान के पत्ते बेचने जाना पड़ता था। इसी वजह से मैं अक्सर स्कूल से भाग जाया करता था। जब मैं 11 साल का हुआ तो पिता का 1991 में निधन हो गया और मेरी मां फातिमा पर पांच बच्चों को पालने की जिम्मेदारी आ गई। हमारी आर्थिक हालत बहुत खराब थी। भुखमरी से बचाने के लिए मेरी मां ने मजबूर होकर मुझे और मेरी दो बहनों को कोझिकोड के एक अनाथ आश्रम में छोड़ दिया। वहां मैंने दस साल बिताए यानी 21 साल का होने तक वहां रहा। इस दौरान मैंने अपनी पढ़ाई के साथ मजदूरी की, सड़क किनारे होटल में काम किया।
अनाथालय में मेरे जीवन में बदलाव आए। एक बदलाव तो यही था कि जीवन में जिस अनुशासन की कमी थी, वह आया। वहां मेरी पढ़ाई मलयालम व उर्दू भाषा में हुई। वहां संसाधन और अवसर सीमित थे। मेरा मन पढ़ाई में लगता था, इसलिए मैं लगातार आगे बढ़ता गया और 10वीं कक्षा अच्छे अंकों से पास की। उसके बाद मैं ‘पूर्व-डिग्री शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम’ में शामिल हो गया। अनाथालय के नियमानुसार रात आठ बजे बाद सभी सो जाते थे। मैं आधी रात को उठकर पढ़ता था। वह भी बेडशीट के अंदर अनाथालय की टॉर्च की कम रोशनी में, ताकि मेरे साथ वालों की नींद खराब न हो।
मैं अच्छे कॉलेज से रेगुलर ग्रेजुएशन करना चाहता था। अत: परिवार से बात करने के लिए गांव लौट आया, लेकिन गरीबी के चलते मुझे किसी का साथ नहीं मिला। खर्च चलाने के लिए मैं प्राथमिक स्कूल में पढ़ाने के साथ पीएससी की तैयारी भी करता रहा। केरल जल प्राधिकरण में चपरासी रहते हुए कालीकट विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में बीए में दाखिला ले लिया। इस तरह तीन साल तक छोटी-छोटी नौकरियों के साथ पढ़ाई जारी रखी। उस दौरान मैंने सीमित योग्यता के साथ फॉरेस्ट, रेलवे टिकट कलेक्टर, जेल वार्डन, चपरासी और क्लर्क आदि की राज्यस्तरीय लोक सेवा आयोग की 21 परीक्षाएं पास कीं। ग्रेजुएट होने तक मैं 27 वर्ष का हो चुका था।
मैं सिविल सर्विस के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता था, लेकिन मेरे भाई ने कहा कि तुमने राज्यस्तर पर पीएससी पास की है। तुम्हें सिविल सर्विस का टेस्ट देना चाहिए। पीएससी पास करने पर अखबार वालों ने पूछा कि आपका उद्देश्य क्या है? तो मेरे पास कोई जवाब नहीं था। बार-बार पूछे जाने पर मैंने कह दिया कि सिविल सर्विस करना चाहता हूं। जब यह बात अखबार के माध्यम से मेरे अनाथालय के अधिकारियों को पता चली तो वे मुझे पूरी तरह आर्थिक मदद देने को तैयार हो गए। 2009 में दिल्ली स्थित जकात फाउंडेशन ने केरल में उन उम्मीदवारों की एक परीक्षा रखी, जिसमें चुने जाने वाले छात्रों को यूपीएससी की तैयारी मुफ्त में करवाई जाती थी। मैं वह परीक्षा पास करके नई दिल्ली चला गया। मैंने वहां कोचिंग ली, लेकिन मेरे पास किताबें और अखबार खरीदने के पैसे नहीं थे। इसलिए पब्लिक लाइब्रेरी में पढ़ाई करने लगा। यही इच्छा थी कि किसी काबिल बना तो भाई-बहनों के लिए कुछ कर सकूं।
वर्ष 2007-08 में मैंने प्रीलिम्स टेस्ट दिया, तब मेरी उम्र 30 साल होने वाली थी। मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं था। इस बीच मेरी शादी हो चुकी थी। चुनौतियां खत्म होने का नाम नहीं ले रही थीं। आर्थिक तंगी से जूझते हुए, पारिवारिक जिम्मेदारी के बीच भी मैंने सिविल सर्विस की तैयारी जारी रखी। दो बार मैं असफल हो चुका था, फिर भी अपना मनोबल बनाए रखा। तीसरे प्रयास के दौरान ऐन परीक्षा के पहले मेरे बच्चे की तबीयत बिगड़ गई। मैं अस्पताल के चक्कर लगाने के साथ ही पढ़ाई भी करता रहा और परीक्षा दी। मैंने यूपीएससी की मुख्य परीक्षा अपनी मातृभाषा मलयालम में दी। 2011 में जब रिजल्ट आया तब मैं 33 वर्ष का हो रहा था। मैंने 226वीं रैंक हासिल की थी। अंग्रेजी कम आने के कारण इंटरव्यू ट्रांसलेटर की मदद से दिया। तब भी मुझे 300 में से 201 नंबर मिले जो काफी अच्छा स्कोर था। लालबहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन में ट्रेनिंग ने मुझे नौकरी के हर पहलु से अवगत कराया। हमारे कैडर (नगालैंड) की भाषा भी सिखाई गई। इस तरह अनाथालय से निकलकर मैं सबसे पहले दीमापुर जिले में असिस्टेंट कमिश्नर नियुक्त हुआ।
नवंबर 2017 में मेरा तबादला कैफाइर जिले में हो गया। इस जिले को प्रधानमंत्री और नीति आयोग ने देश के 117 महत्वाकांक्षी जिलों में से एक घोषित किया है। यह भारत के सबसे दूरस्थ और दुर्गम जिलों में से एक है। दीमापुर जाने के लिए एक पहाड़ी इलाके से अपने वाहन से भी 12 से 15 घंटे लगते हैं। इतना दुर्गम है यह इलाका। मेरा यह जिला भी अनाथालय जैसा ही है, एकदम अलग-थलग। मेरी सफलता का राज अनुशासन, कड़ी मेहनत और चुनौतियों के बीच लगातार कोशिशें करते रहना है। पढ़ाई में मेरी लगन ने भी रंग दिखाया। अगर केरल के अनाथालय से मेरे जैसा लड़का सभी बाधाओं को पार कर यह मुकाम हासिल कर सकता है तो कोई भी कर सकता है। आप पहले प्रयास में पास नहीं होते हैं तो उम्मीद न छोड़ें।
हमारी मुहिम इस तरह के बच्चों को एक प्लेटफार्म देना है ताकि किसी अनाथ गरीव असहाय भटके हुए लोगो की मदद हो सके , लेकिन अगर आप भी जीवन मे सफल होना चाहते है तो आप भी किसी की मदद करे क्या पता आपकी मदद से किसी के जीवन मे उजाला हो जाये।
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