बिहार में 1140 सरकारी स्कूल बंद होने की कगार पर हैं और सरकार कभी भी इनके अस्तित्व को खत्म करने का निर्णय ले सकती है। यह सिर्फ 1140 स्कूलों का मामला नहीं है बल्कि भविष्य का भयावह संकेत है कि चीजें किस दिशा में जा रही हैं।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम कहता है कि किसी भी सरकारी प्राइमरी स्कूल में कम से कम 40 बच्चे नामांकित होने चाहिये। इनमें से बहुत सारे ऐसे स्कूल हैं जिनमें नामांकन शून्य हो चुका है और बाकी स्कूलों में भी 10-20 बच्चे बच गए हैं। तो, इन्हें बंद करना सरकार की संवैधानिक विवशता होगी।
बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि इनमें से अधिकतर स्कूल सघन आवासीय इलाकों में हैं किन्तु एक-एक कर इनमें नामांकित बच्चों का पलायन प्राइवेट स्कूलों में हो गया।
नतीजा, ये अब वीरान हैं। दिन ब दिन यह वीरानी अन्य सरकारी प्राइमरी स्कूलों में भी बढ़ती जा रही है।
यह होना ही था। सरकारी स्कूल एक-एक कर खत्म होते जा रहे हैं और उनकी कब्रों पर प्राइवेट स्कूलों की इमारतें बुलंद होती जा रही हैं।
धारणाएं बनती गई कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती और जिन अभिभावकों को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है उन्हें प्राइवेट स्कूलों की शरण में जाना चाहिये। तो...जिन अभिभावकों के पास थोड़ा भी पैसा है, वे अपना पेट काट कर, अन्य जरूरतों को नजरअंदाज कर प्राइवेट स्कूलों की मोटी फीस भरने को विवश हुए।
यह संविधान की उस धारा का मजाक बन जाना है जिसमें कहा गया है कि 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने की जिम्मेदारी राज्य की है। संविधान अपनी जगह, यहां स्थिति यह है कि अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित अभिभावक अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा उनकी फीस, यूनिफार्म, किताबें आदि पर खर्च करने को विवश हैं। जाहिर है, छोटी आमदनी वाले लोगों के लिये यह और गरीब बन जाना है।
नामांकन के अभाव में सरकारी स्कूलों को बंद करने का सिलसिला राजस्थान से शुरु हुआ, जिसकी आग मध्य प्रदेश आदि राज्यों से होते हुए बिहार तक भी पहुंच चुकी है।
एक साजिश...जो 1990 के दशक में शुरू हुई थी, तीसरे दशक तक आते-आते निर्णायक रूप से सफल होती दिख रही है।
नवउदारवादी व्यवस्थाएं राज्य कोष से निर्धनों पर होने वाले कल्याण कारी व्यय में कटौती करने की हर संभव कोशिशें करती है। अब जब...सरकारी स्कूल एक-एक कर बंद होते जा रहे हैं तो इन पर होने वाले व्यय में भी कमी आती जाएगी। यही तो चाहती हैं व्यवस्थाएं।
कारपोरेट संचालित मीडिया की भी इसमें बड़ी भूमिका है जिसने सरकारी स्कूल के शिक्षकों को अयोग्य ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हजारों शिक्षकों में से कुछेक की अयोग्यता का इतना ढिंढोरा पीटा जाता है कि पूरा शिक्षक समुदाय संदेह के घेरे में आता दिखने लगता है। पब्लिक परसेप्शन का अपना महत्व और प्रभाव है जो सरकारी शिक्षकों के खिलाफ गया।
हमने अभी तक टीवी में ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं देखी है कि कोई रिपोर्टर किसी प्राइवेट स्कूल में जाकर वहां के शिक्षकों की योग्यता की जांच कर रहा हो, वहां की स्थितियों के खोखलेपन को उजागर कर रहा हो।
सरकारी स्कूलों का बंद होते जाना और उनकी कब्र पर निजी स्कूलों का पनपते जाना सभ्यता की कैसी पतन गाथा लिख रहा है, यह समझने की जरूरत है।
शिक्षकों के पद की मर्यादा में ह्रास इसका एक बड़ा साइड इफेक्ट होगा जो अधिकांश निजी स्कूलों में शोषण के शिकार हैं। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की अपनी गरिमा है, अपने अधिकार हैं, उनकी नौकरी में स्थायित्व है, उन्हें सम्मानजनक वेतन मिलता है। जिन्हें सम्मानजनक वेतन नहीं मिलता वे अपनी लड़ाई लड़ने के लिये स्वतंत्र हैं और कोई भी सरकार इस लड़ाई के लिये उनको दंडित नहीं कर सकती।
लेकिन...निजी स्कूलों में? क्या उनके शिक्षक अपने कम वेतन या बहुआयामी शोषण के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं? अगले ही दिन बददिमाग मालिक, जो खुद को स्कूल का 'डायरेक्टर' बता अपना कारोबार चलाता है, आवाज उठाने वाले शिक्षक को बाहर का रास्ता दिखा देगा। शिक्षक के साथ हुए इस अन्याय की कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी, न होती है।
तो...बहुत सारे युवा, जो पढ़-लिख कर शिक्षण के पेशे में आना चाहते हैं, अब अपने भविष्य को लेकर शंकित होंगे। सरकारी शिक्षकों के पद धीरे-धीरे घटते जाएंगे और उनकी जगह निजी स्कूलों में शिक्षकों के की मांग बढ़ती जाएगी।
परंतु, कितने प्रतिशत निजी स्कूल हैं जो अपने शिक्षकों को परिवार चलाने लायक वेतन देते हैं? अधिकतर स्कूलों में शिक्षकों को बहुत कम वेतन मिलता है और सरकार की कोई नियामक एजेंसी इस शोषण की खोज-खबर नहीं लेती। 80 प्रतिशत निजी स्कूल तो ऐसे हैं जिनमें शिक्षक आते-जाते रहते हैं। उनकी नौकरी का कोई स्थायित्व नहीं।
सरकारी स्कूल बंद होते जाएंगे तो सरकारी शिक्षकों के पद खत्म होते जाएंगे। ये पद उन निजी स्कूलों में शिफ्ट होते जाएंगे जो शिक्षकों को न उचित वेतन देंगे, न सम्मान, न अधिकार। इस तरह, शिक्षण एक घटिया नौकरी में शुमार होगा।
जो समाज अपने शिक्षकों को शोषित होने को अभिशप्त छोड़ देगा वह सांस्कृतिक रूप से पतित होता जाएगा। कुछ तो कारण है कि अमेरिका, यूरोप, जापान, साउथ कोरिया आदि विकसित देशों में स्कूली शिक्षा सरकार के अंतर्गत ही है और वहां के शिक्षकों का वेतन अत्यंत सम्मानजनक है।
हम एक पतनोन्मुख संस्कृति हैं जो नवउदारवाद के नकारात्मक प्रभावों से अपनी स्कूली शिक्षा और अपने शिक्षकों को नहीं बचा पा रहे। जिन बच्चों को मुफ्त में पढ़ना था, जिन्हें मुफ्त में किताबें और यूनिफार्म मिलनी थीं, उन्हें हमने संस्था के प्रति संदेह से भर दिया और वे अब इसे छोड़ कर भाग रहे हैं। उनके गरीब अभिभावक उनकी ऊंची फीस, महंगी किताबें और यूनिफार्म की व्यवस्था में हलकान हो रहे हैं।
अमेरिका बनने की राह पर चलते हुए हम अमेरिका तो नहीं बन पा रहे, भारत भी नहीं रह गए...भारत का एक घटिया संस्करण बनते जा रहे हैं...जहां व्यवस्थाएं निर्धनों का रक्त चूस कर फल-फूल रही है ।
👍👌✅✅👏👏यही हमारे भी साथ भविष्य में होना ही है, यदि हम सब राजनीति में उलझे ही रहेंगे तो दुर्गति निश्चित है👍
🙏🏻🙏🏻
कृप्या ज्यादा से ज्यादा share करें । धन्यवाद !
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