कर्तृस्वतन्त्रे प्रथमातृतीये रामो जघानाभिहतो हि तेन।।
रामं भजे कर्मणि च द्वितीया दुह्याच्पचादौ तु विभाषया सा।।
कारक हमेशा क्रिया के जनक होते हैं। क्रिया सुनते ही कौन क्या किससे ऐसी सब आकाङ्क्षा होगी, उसमें क्रिया को पैदा करने वाले कारक जवाब रूपसे आएँगे। कर्ता यानि अपनी इच्छा से कुछ क्रिया पैदा करने वाला। देवदत्त पकाता है, यहाँ देवदत्त कर्ता है। बाकी सारे कारक कर्ता पे निर्भर हैं, अगर देवदत पकाए नहीं, तो पकोड़ा कर्म न होगा, कढ़ाई करण/tool न होगी और रसाई अधिकरण/location न होगी। जब कहो कि “इन्द्र को वेद सिखाता है" तो वेद कथित और इन्द्र अकथित कर्म है, इन्द्र में चतुर्थी लगनी थी अब वैकल्पिक/optional द्वितीया भी लगेगी।
हेतौ तृतीया करणेपवग्रे सहे विकारे त्वितिलक्षणे च।
पुण्येन दृष्टः स खगेन चाहन् पित्रागतोना गत ईक्षणेन ।।
करण यानि स्वतन्त्र कर्ता जिसे इस्तेमाल करके क्रिया सिद्धि करता है, वो साधन या करण अर्थ में तृतीया हो। “खगेन अहन्” यानि बाण से मारा। कर्ता में भी तृतीया होती है वो जान चुके। अब हेतु देखो। “पुण्येन दृष्टः हरिः” हरि बड़े पुण्य से दिखे || यानि पुण्य हेतु है हरि के दर्शन में। करण कारक है अतः उसे क्रिया का जनक होना चाहिए, और व्यापार (motion) वाला होना चाहिए। लेकिन हेतु का व्यापार वाला होना या क्रियाजनक
होना जरूरी नहीं, वो निमित्त हो सकता है। दण्डेन घटः। यहाँ दण्ड घट में हेतु/निमित है। क्योंकि घट क्रिया नहीं। पुण्य से दर्शन (क्रिया) होती किन्तु पुण्य कोई दण्ड जैसी स्थूल वस्तु नहीं जिसमें व्यापार (motion) हो।
सह यानि साथ शब्द के योग में तृतीया। ये अलग type की है, यह कारक अर्थ में विभक्ति न होके एक शब्दविशेष के योग में हो रही है। अतः इसे उपपद विभक्ति (पास में पढ़ा हुआ पद - उपपद, उसी के योग में, नकि किसी अर्थविशेष में। अर्थ चाहे कुछ भी लगाओ। यह शब्द बाजू में दिख गय मतलब ये वाली विभक्ति लगाओ।) सह बाजू में दिखे तो तृतीया लगाओ = पुत्रेण सह आगतः (पुत्र के साथ आया)। इसका अर्थ साहचर्य/togetherness है।
अपवर्ग = अना गतः यानि एक दिन में सीख लिया। जब फल की प्राप्ति जल्दी होए तो तृतीया लगाओ, प्राप्ति न हो तो द्वितीया। "मासम् अधीतो नायातः” (एक महीना सीखा फिर भी नहीं
आया।)
क्रमशः...
कारक (२)
काणस्तपस्वी च जटाभिरेवम् दाने चतुर्थी रुचिप्रीयमाणे ।
समर्पणे चाथ निवेदने च तादर्थ्यकेऽलनमआदियोगे ।।
तुभ्यं ददे राम समर्पयामि ब्रवीमि पृच्छामि निवेदयामि ।
त्वं राचसे मेऽघहरे नमस्ते श्वसामि खादामि जुहोमि तुभ्यम् ।।
अक्ष्णा काणः यानि आँख से काणा, पार्दन खञ्जः यानि पाँव से लूला है, ऐसे अङ्ग के विकार अर्थ में तृतीया।
जटाभिः तापसः यानि उसकी जटा होगी तो जरूर तपस्वी होगा। ऐसे "स्वर्णेन श्रेष्ठी" यानि इतना सोना है तो जरूर कोई सेठ होगा।
चतुर्थी दान में करो- जो कर्म यानि जहाँ क्रियाफल बैठे, जैसे पकोड़े तलदो। यहाँ तलने का फल पकोड़े को मिलेगा, लेकिन जिसे कर्ता (पकाने वाला) कर्म से चाहे वो सम्प्रदान। विप्र को गाय देता है। इसमें गाय तो दी जारही है, वो कर्म है। कर्म से कौन अभिप्रेत (intended) है? विप्र, वोही सम्प्रदान। उसे दे दो। मैं जो बोलता हूँ वो मेरे शब्द हैं, शब्द ही कर्म है लेकिन यह जिसे intended हैं| वो मेरा शिष्य है जो सम्प्रदान है। शिष्याय शिक्षयामि, ब्राह्माणाय ददामि, गुरवे वदामि।
अब जिसमें रुचि/प्रीति हो, वो likable को जो like करे उसमें चतुर्थी लगाओ। प्रीयमाण (like करने वाला) गणेश है, likable (रुचि का विषय) मोदक। मोदकः रोचते गणेशाय = गणेश को मोदक पसन्द है। (अर्थात् गणेश के अन्दर मोदक रुचि को उपजाता है, अतः वो रुचि का कर्ता है। उसमें प्रथमा लगाई। रुचि जिसको हुई उसमें चतुर्थी, वो गणेश में उपजाता है, जिसमें रुचि पैदा होती उसमें चतुर्थी लगाओ)।
कृष्णाय रोचते गोपी = कृष्ण को गोपी पसन्द है। ऐसे सर्वत्र जानो। जिसमें प्रीति उपजे उसमें चतुर्थी, जो उपजाए उसमें प्रथमा।
पञ्चम्यपादानदिगादियोगे वार्याभिप्रीते भयभूतिकृत्सु ।
पतेत्तरोः प्राङ् मथुरा ततो ऋते रामाद् बिभेत्याविरभूत् कुशस्ततः ।।
पञ्चमी अपादान में। वृक्षात् पतति = वृक्ष से गिरता है। अवधि यानि देश-काल का हिसाब बोलना तो पञ्चमी, चैत्रात् प्राक् फाल्गुनः (चैत्र से पहले फाल्गुन), मथुरा प्राक् वङ्गात् (मथुरा बङ्गाल से पूर्व है)। अवधि गुणों में भी हो सकती है, चैत्रः मैत्राद् बलवत्तरः (चैत्र मैत्रसे अधिक बलवान् है)। किसी प्यार के लिए हटाने में = यवेभ्यो गां वारयति (धान से गाय को हटाता है)। किसी से भय हो तो, रामाद् बिभेति (रामसे डरता है)। किसी सेउपज हो तो रामाद् उत्पन्नो लवः (रामसे पैदा हुआ लव)। ऋते के योग में - रामाद् ऋते न मोक्षःवराम बिना मोक्ष नहीं)।
इति !
आशा है कि संस्कृतसप्ताह के 7 दिनों में इन लेखों से आपकी संस्कृत भाषा की आधारशिला निश्चय ही मजबूत हुई होगी।
धन्यवाद !
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