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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

वेदों में कर्म मार्ग का तात्पर्य क्या है? मैंने 8 श्लोकों में संक्षेप से समझाने का प्रयास किया है।


स्वर्गकामादिश्रुतिभिः कामः संशोध्यते ननु ।
यदि कामो महाबन्धः कुतस्तत् प्रेरयेत् श्रुतिः 1 ।। 
अतो मा हिंस्यादित्यनेन धर्म इष्टोदितात्मकः। 
तस्माद् इष्टानुकूलो हि कामः धर्मत्वम् आप्नुयात् ।। 2
श्येनो ह्यनिष्टजनकः कामो मा भूद् अनिष्टदः ।
कामश्चेष्टसाधनादिज्ञानापेक्षः ततः श्रुतिः ।। 3
कामो धर्मात्मको ह्येव स्याद् यथा तादृशी स्थिता ।
श्रुतिज्ञानफलं त्वेतत् कामः स्याद् इष्टदो ध्रुवम् ।। 4
सकामोपि कृतो धर्मः लाभायैवेति निश्चितम् ।
न तेन निस्त्रिदुःखत्वंं निस्त्रैगुण्यत्वम् आप्नुयात् ।। 5 
धर्माधर्मविवेकार्थम् इष्टानिष्टवचः स्थितम् ।
कामं विना न यत्नस्याद् इति कामः स ईरितः ।। 6
क्लेशदो हि भवेद् यागः भेषजं हि यथा कटु ।
तत्र बालः प्रवर्तेत तस्माद् कर्मफलश्रुतिः ।। 7
"वेदवादरताः पार्थ" हृदयं नावगच्छताम् । 
निन्दोक्ता ब्रह्मणा नूनं तस्माद् साकाम्यम् उत्सृजेत् ।। 8

स्वर्गकाम यजे इन जैसी श्रुतियों से काम का संशोधन किया जाता न है न कि सकाम कर्म में प्रवृत्त। सकाम कर्म यानि धन भाग्य पशु स्त्री पुत्र यशः ब्रह्मवर्चः लोककीर्ति ज्ञान आरोग्य जैसे इस मर्त्यलोक सम्बन्धि कामना पूर्ति के लिए या फिर स्वर्गप्राप्ति, योगसिद्धि, कुण्डलिनी जगाना जैसे परलोक सम्बन्धि कामना के लिए यज्ञ करना। वृत्त्रासुर ने इसलिए कहा "न स्वर्ग चाहिए, नाहि ब्रह्माजी का ब्रह्मलोक, नाहि चक्रवर्ती बनना है, नाहि रसातल आदि पातालों पर राज्य, नाहि योगसिद्धि नाहि जन्ममृत्यु के चक्र से छुटकारा। हे समञ्जस हरे! मुझे तो बस तुम चाहिए।" 

कामना से यज्ञ करने पर पुण्य मिलता है। वह भी बन्धन है। निरन्तर भक्ति यदि चाहिए तो सारे पाप पुण्य जैसे बाधक छूटने चाहिए तो फिर काम जब भक्ति में इतना बड़ा बन्धन है तो वेद ऐसे काम में क्यों पुरुष को डालेगा? 1 ।।

"सभी भूतों की हिंसा न करो" इससे इष्ट और उदित धर्म कहा। धर्म के दो शर्त हैं, एक तो वेद में कर्तव्यतया दिया होना (ये करो ऐसे) और दूसरा इष्ट (desired) होना। वो करने से कोई अच्छा फल मिले। इसलिए को काम इष्ट (desired) का जनक हो वोही धर्मता को प्राप्त करता है। 2 ।।

वेद में एक श्येन याग है। जो बन्दा अपने शत्रु को मारना चाहे वो श्येन याग करे ऐसा दिया है। लेकिन पहले ही बता चुके कि हिंसा न करो, और जिसका निषेध है उसे करोगे तो अनिष्ट (undesired या बुरा) फल मिलेगा। इसलिए श्येन याग में हिंसा का फल अनिष्ट है। इसलिए वेद सब जगह काम शब्द का प्रयोग करता है। और काम तो इष्टसाधनज्ञान की अपेक्षा रखता है। मतलब बन्दे को कोई काम करने की इच्छा तभी होगी जब "यह करने से मेरा भला होगा" ऐसा इष्टसाधन ज्ञान हो। जब पता हल गया कि श्येनयज्ञ तो अनिष्ट का साधन है तो मुझे हिंसा की इच्छा ही न होगी। अतः वेद काम शब्द देके हमारे कामों का संशोधन करता है, जो अच्छा है उसी धर्म की इच्छा हो और अधर्म की इच्छा न हो इसलिए। 3-4।।

सकाम वैदिककर्म भी यदि करो तो वो भी लाभ के लिए ही है यह निश्चित् है। लेकिन ऐसे सकाम कर्म से तीन दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता और जीव तीन गुणों से ऊपर नहीं उठ पाता। 5 ।।

धर्म क्या और अधर्म क्या इसका विवेक आ सके इसलिए क्या इष्ट और क्या अनिष्ट ऐसे वाक्य वेदों में हैं अर्थात् फलश्रुति फल में आसक्त करने हेतु न होकर क्या धर्म और क्या अधर्म यह बताने के लिए है। जैसे कामपद इच्छाओं के संशोधनार्थ वैसे ही फलश्रुति धर्माधर्मविवेकार्थ है। काम के बिना यत्न असम्भव है, मतलब जबतक मुझे पकाने की इच्छा न हो मेरा यत्न पकाने में होगा ही नहीं। और कोइ "तू ऐसी इच्छा कर" ऐसा बोलके मेरी इच्छाओं को जोर जबरदस्ती नियन्त्रित थोड़ी कर सकता। इसलिए सत्कर्म में इच्छा हो इसलिए अलग अलग फल का लालच दिया गया है। । 6 ।। 

यज्ञ करना बड़ा कठिन होता है। और प्रायः जितने सत्कर्म हैं वे कठिन हैं। तो कौन कठिन कार्य करना चाहेगा? इसलिए जैसे माँ कड़वी दवाई पिलाने के लिए तेज़ दिमाग तन्दुरुस्त शरीर, प्यारी लड़की आदि का बहाना दे देती है। वैसे ही यहाँ भी फलश्रुति 1 तो धर्माधर्म का ज्ञान और 2 सत्कर्म में इच्छा उपजे इसलिए दी है। 7 ।।

गीता में "वेदवादरताः" इस श्लोकों से वेदों का हृदय (तात्पर्य) न समझने वालों की निन्दा स्वयं कृष्ण ने की है। वेदवाद यानि जो मुख्य वचन हैं बस उन्हीं को देखके अर्थ निकालने वाले और हृदय (यानि तात्पर्य) न समझने वाले बस सकाम कर्म करते रहते हैं। "पुराणं हृदयं स्मृतम्" यानि पुराण वेदों का हृदय (तात्पर्य) हैं। बिना पुराण (खास भागवत पुराण जो वेद रूपी कल्पवृक्ष का गलित फल है) के वेदार्थ का उपबृंहण असम्भव है। इसलिए सकाम कर्म का त्याग ही वेदों का तात्पर्य है। निष्काम कर्म में फल में कोई आसक्ति नहीं होती अतः न कोई पाप न कोई पुण्य मिलता। सभी कर्म जब वासुदेव की प्रीति के लिए हों, तो वे वासुदेव की भक्ति में एक उपाय बन जाते हैं तबतक कर्म उपाय न होके मात्र पुण्य स्वर्ग योगसिद्धि जैसे न्यून फलों के साधन रहते हैं।

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