दूसरे ईश्वर का भय दिखाके उसका भजन करवाते हैं।
भागवत पुराण में स्पष्ट है "भगवान् हरिरीश्वरः श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताSभयम्"
जो सकल ऐश्वर्य वाले भगवान् दुःखों को हरने वाले हरि, और कर्मफल देने वाले ईश्वर हैं, उन्हीं का श्रवण कीर्तन और स्मरण करो यदि तुम्हें भय से मुक्त होना है।
हमारे अभय की प्राप्ति के लिए भक्ति का विधान होता है।
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ।"
श्रीराम विभीषण से कहते हैं, "एक बार जो मेरी शरण आकर 'मैं तेरा हूँ' बस इतना कहदे तो मैं सारे संसार से उसको अभयदान करूँगा, ये मेरा व्रत है।
यह दो श्लोक सनातन धर्म का आधार है। जहाँ जाओ वहाँ भय है हरिचरण विहाय। शरण दो तरह से हो सकती है, यातो ज्ञान हो जाए कि सारे रस्ते बन्द हैं और ईश्वर की भक्ति के शरण ही एकमात्र गति है।
यातो भगवान् का श्रवण कीर्तन और स्मरण करने बाद जब स्वतः भगवान् के चरण के अलावा कुछ और अच्छा ही न लगे, और फिर समस्त देह प्राण इन्द्रिय अन्तःकरण से उसी का वरण किया जाए क्योंकि वही वरेण्य (वरण करने योग्य है) उसी का हम ध्यान करते हैं (धीमहि)। यह दूसरी प्रकार की वैकल्पिक शरणागति हुई। एक हिसाब ये जब दूसरा रास्ता न हो तो ये चुनना, एक हिसाब ये जब दूसरे रस्ते देखने ही नहीं मुझे क्योंकि मुझे तो येही वरेण्य (सुन्दर) लगता है ये एक शरणागति।
यही वेदों का बीज गायत्री का तात्पर्य है। सविता सूर्य नहीं परम्ब्रह्म परमात्मा है। उसी का ध्यान किया जा रहा है। जो भूर् भुवः सुवः का प्रसव (origin) है। वही सविता है। भर्ग यानी जो भर्जन करे (संहार करे) और वरेण्य वह जो स्थिति करे, जो सुन्दर है, जो भक्तों का वरण करे और जिसका भक्त वरण करें। वही तत् है जो "सत्यम् परम् धीमहि" भागवत में उक्त है। वही वरेण्य हमारी बुद्धियों को (धियो में बहुवचन क्योंकि देह प्राण अन्तःकरण और समस्त इन्द्रियों सहित) प्र (प्रकृष्ट रूप से पुरुषोत्तम के सच्चिदानन्द रसात्मक स्वरूप पर्यन्त) चोदन करे (प्रेरणा करे)। वही वरेण्य हमारी बुद्धियों को प्रेरणा दे उस रसात्मक ब्रह्म पर्यन्त जाने का साधन (भक्ति) करें। उसकी शरणागति स्वीकारें।।
यही सनातन धर्मका सार है। "मैंने आज यहाँ इस गुह्यतम ज्ञान को प्रकट किया है" ऐसा कृष्णने अर्जुन से कहा। "एतद् गुह्यतमं शास्त्रम् इदमुक्तं मयानघ"। जिसे जानकर पुरुष सारे संशयों से मुक्त हो जाए। इसलिए गीता की शुरुआत अर्जुन की शरणागति "शाधि मां त्वाम् प्रपन्नम्" और अन्त कृष्ण के आशीर्बाद "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" से होति है। वहाँ भी अभयदान पापों से मुक्ति की बात कही है। वेदों में भारत में पुराणों में सभी शास्त्रों का यही सार है। इस बातको ध्यान रखना।
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