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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

ईश्वर व्यापक और साकार दोनों एक साथ कैसे हो सकता?

सूरज देखा है? 
सूरज तो बस तेजःपुञ्जरूप एक जगह स्थित होके भी अपने तेजःकिरणों द्वारा तीनों लोकों को प्रकाशित करता है।
क्या सूरज और किरण में फर्क है क्या?
तेज का घनीभूत (इखट्टा) होना ही तो सूर्य है। उसी तरह जब तेज व्यापक होक फैले, तो ये फैलाव भी तेज का ही तो होता है? सूरज भी तेज और किरण भी तेज। अतः एक ही तेज एकत्र स्थित होते हुए भी तीनों लोकों में व्यापक हुआ या नहीं?

यह व्यापकता ब्रह्म का एक गुण है, इस गुण के द्वारा एकत्र स्थित साकार ब्रह्म व्यापक हो जाता है। यह फैलाव का जो गुण है उसे एक आश्रय चाहिए, जैसे सूरज के तेज का एक आश्रय है, सूरज, और तेज का फैलना सूरज का ही एक धर्म है। उसी तरह ब्रह्म यानि के सच्चिदानन्द जब चतुर्भुज रूप वैकुण्ठ में शयन करे, यह उसका साकार रूप है। यही सच्चिदानन्द फिर अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों में व्याप्त हो जाए तो यह उसके फैलने का धर्म है। अतः वेदों ने स्पष्ट कहा है "अन्तर् बहिः.....नारायणः" अर्थात् अन्दर और बाहर यह सबकुछ में नारायण ही व्याप्य/फैलकर स्थित है। 

इसमें स्पष्ट धर्म-धर्मी-भाव वेदों ने बताया है। नारायण जो देव (धर्मी), वो खुद सर्वत्र फैला हुआ है (धर्म)। अब नारायण एक संज्ञा यानि नाम है, नाम न होता तो व्याकरण की दृष्टि से "नारायन" शब्द बनता लेकिन "नारायण" बना है वह "पूर्वपदात् संज्ञायाम् अगः" इस सूत्र से बना है अतः यह किसी देव का नाम है। 
जो सच्चिदानन्द नारायण है वोही सच्चिदानन्द जब फैले तो अक्षर ब्रह्म कहलाता है। जैसे जो तेज का घनीभाव पुञ्ज सूर्य है, जब वह फैल जाए तो उसे ही हम किरण कहते हैं। वैसे जब आनन्द का घनीभाव हो, तो वह साकारब्रह्म पुरुषोत्तम कहलाता है और जब वही साकार ब्रह्म सच्चिदानन्द फैले तो अक्षर है। 

अब कोई पूछे कि साकार तो सीमित होना चाहिए न? तो बात ऐसी है कि यदि तुम प्रकृति से जन्य पदार्थों की बात करो तो यह सच है। लेकिन ब्रह्म थोड़ी प्रकृति से जन्य है? जैसे सूर्य तैजस है वैसे ब्रह्म थोड़ी तेज से जन्य है जो प्रकृति के नियम तुम ब्रह्म में घटा रहे हो। ब्रह्म तो निर्गुण है, मतलब प्रकृति से जन्य गुणों से रहित और केवल अप्राकृत गुण सच्चिदानन्द-रूप है। ब्रह्म कोई पृथिवी जल तेज से थोड़े ही बना है। उसका आकार सच्चिदानन्द है और फैलाव भी सच्चिदानन्द है और आनन्द का अर्थ ही वह है जो अनन्त हो। अनन्तता न हो तो आनन्द ही न होगा। 

यही ब्रह्म में खासियत है कि वह परस्पर विरुद्ध धर्मों का आश्रय है। उसमें अनन्तता और सीमा दोनों एक साथ रह सकती है। जब कहते हैं ब्रह्म अनन्त है, तो जितना सब कुछ है, वो ब्रह्म के फैलाव का ही हिस्सा होना चाहिए, यदि उस घेरे के बाहर हो ब्रह्म अनन्त नहीं। जैसे पानी में बुद्बुदे होते हैं (बुद्बुदे भी जलरूप हैं) वैसे अनन्तकोटि आत्मा और जगत् ब्रह्म में ही उत्पन्न होते हैं अतः वे भी ब्रह्मरूप हैं। इससे "यह सब कुछ पुरुष है" इस वेदवाक्य का अर्थ समझ सकते हो। 

।। नारायण ।।

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