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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

वल्लभाचार्य कृत 'पुरुषोत्तमनामसहस्र' इस स्तोत्र से लिए गए श्रीराम के नाम ।।

।। श्रीरामः ।।

रघुनाथो रामचन्द्रो रामभद्रो रघुप्रियः ।। अनन्तकीर्ति: पुण्यात्मा पुण्यश्लोकैकभास्करः ||१३४।। 

रघुओं के नाथ, रामचन्द्र, रामभद्र और रघुओं के प्रिय, अनन्त कीर्ति वाले, पुण्य यानि पुण्यवालों में जो आत्मा ध्येयस्वरूप हैं, चिन्तनीय हैं वे पुण्यात्मा, पुण्य है जिनके श्लोक = कीर्ति, ऐसे यशस्वी योगियों में एक = अद्वैत चित्स्वरूप ज्ञान को प्रकाशित करने वाले, पुण्यश्लोकैकभास्कर हैं ।। 134 ।।

कोशलेन्द्रः प्रमाणात्मा सेव्यो दशरथात्मजः ॥ लक्ष्मणो भरतश्चैव शत्रुघ्नो व्यूहविग्रहः ||१३५।। 

कोशलेन्द्र, प्रमाण = सभी वेदादि शास्त्र, उनके आत्मा = सारभूत प्रतिपाद्य सच्चिदान्दस्वरूप इति प्रमाणात्मा, सेव्य, दशरथ के आत्मज हैं। वे लक्ष्मण भारत और शत्रुघ्न रूपमें लीलार्थ अपने व्यूहविग्रह प्रकट हुए हैं। 

विश्वामित्रप्रियो दान्त: ताडका-वध - मोक्षद: ।। 
वायव्यास्त्राब्धिनिक्षिप्तमारीचश्च सुबाहुहा ।।१३६।।

विश्वामित्र जिनके प्रिय हैं, अथवा विश्वामित्र के जो प्रिय हैं, दान्त राक्षसों का दमन करने वालें हैं, ताडका को वध से ही मोक्ष देने वाले हैं, वायव्य अस्त्र से समुद्र में मारीच को फेककर मारने वाले, और सुबाहु के हन्ता हैं। 

 वृषध्वज-धनुर्भङ्ग-प्राप्तसीतामहोत्सव | 
सीतापतिः भृगुपति-गर्व-पर्वत-नाशक: ॥१३७।।

वृषध्वज महादेव का धनुष् भङ्ग कर सीताजी को महोत्सव = अत्यधिक आनन्द प्राप्त कराने वाले हैं, सीता के पति नाथ हैं, भृगुपति परशुराम के गर्वपर्वत के नाशक हैं ।। 137 ।। 

अयोध्यास्थ-महाभोग-युक्त लक्ष्मी-विनोदवान् ।। 
कैकेयीवाक्यकर्ता च पितृवाक्-परिपालक: ||१३८।। 

अयोध्या में महल में होने वाले महाभोग = सभी राजकीय उपचार से सहकृत जो लक्ष्मी सीताजी का विनोद = क्रीडा है, तद्वान् हैं, कैकेयी माता के वाक्य को मानने वाले और पिता महाराज दशरथ के वचन को पालने वाले हैं ।। 138 ।।

वैराग्य-बोधकोSनन्य-सात्त्विक स्थान-बोधक: ।। 
अहल्यादुःखहारी च गुहस्वामी सलक्ष्मणः ||१३९ ।। 

अपने जीवन से सभी को वैराग्य का बोध कराने वाले, अनन्य यानि निर्जनवन में जो सात्त्विक स्थान भगवान् का सात्त्विक कन्दमूल भोजनादि और तपस्या से युक्त निवास है - उसके बोधक हैं, अहल्या के दुःख को छीनने वाले हैं यानि शापमुक्त करने वाले हैं, गुह नामक निषादराज के स्वामी हैंं और सदैव लक्ष्मण के साथ रहने वाले हैं ।। 139 ।।

चित्रकूटप्रियस्थानो दण्डकारण्यपावन: 
शरभङ्गसुतीक्ष्णादिपूजितः अगस्त्यभाग्यभूः ||१४०।।

चित्रकूट जिनका प्रिय स्थान है, दण्डकारण्य को पावन करने वाले, शरभङ्ग सुतीक्ष्ण आदि से पूजित और 
अगस्त्य के भाग्यभू, बहुत तपस्या और पुण्य से अगस्त्य ऋषि के भाग्य के फलरूपेण आविर्भूत होने वाले हैं ।। 140 ।। 

ऋषिसम्प्रार्थितकृति: विराध-वध पण्डितः ॥ छिन्न-शूर्पणखा-नास: खरदूषणघातक: ।।१४१।। 

ऋषियों के द्वारा संप्रार्थित असुरवध की प्रार्थना को करने वाले ऋषिसंप्रार्थितकृति हैं, विराध के वध में पण्डित प्रवीण हैं, शूर्पणखा की नासिका छेदने वाले और खरदूषण असुरों के घातक हैं ।। 141 ।।

एकबाणहताऽनेक-सहस्रबलराक्षसः ।। 
मारीचघाती नियतसीतासम्बन्धशोभितः ॥१४२॥ 

एक बाण से ही अनेक सहस्त्र गुना बल वाले राक्षसों को मारने वाले, मारीच के घाती और नित्य सदा सीता के सम्बन्ध से सुशोभित हैं ।। 142 ।। 

सीतावियोगनाट्यश्च जटायुर्वध-मोक्षद: ।। 
शबरीपूजितो भक्तहनुमत्प्रमुखावृतः ||१४३|| 

सीता के वियोग का नाट्य रचने वाले, जटायु के वध होने पर उसे मोक्ष देने वाले, शबरी द्वारा पूजित और भक्तों में प्रमुख हनुमान् जी जैसे श्रेष्ठ भक्तों से घिरे हुए हैं ।। 143 ।।

दुन्दुभ्यस्थिप्रहरण: सप्ततालविभेदनः ॥  
सुग्रीवराज्यदो वालिघाती सागरशोषणः ||१४४।। 
दुन्दुभि नामक असुर के अस्थियों के प्रहरण = पाद के अङ्गुष्ठ से ही योजनों दूर तक फेंक देने वाले, सात ताल वृक्षों को एक ही बाण से भेदने वाले, सुग्रीव को किष्किन्धा राज्य देने वाले, वाली के घातक और सागर को सुखा देने वाले हैं ।। 144 ।।

सेतुबन्धनकर्ता च विभीषणहितप्रदः ।। रावणादिशिरच्छेदी राक्षसाघौघ-नाशक: ।।१४५।।
सेतु के बन्धन कराने वाले, विभीषण को हित भक्ति और प्रपत्ति का दान करने वाले, रावणादियों के सर को छेदने वाले, और राक्षसों के अघ = पापों के समूह का नाश करने वाले। 

 सीताऽभय-प्रदाता च पुष्पकागमनोत्सुक: ।। अयोध्यापतिरत्यन्त-सर्वलोकसुखप्रदः ||१४६।। 

सीता को अभय देने वाले, पुष्पक विमान से अयोध्या प्रति आगमन करने में उत्सुक, अयोध्यापति, अत्यन्त अतिशयित सभी लोकों को सुख देने वाले। 

मथुरापुरनिर्माता सुकृतज्ञस्वरूपद: जनकज्ञानगम्यश्च ऐलान्तप्रकटश्रुतिः ॥१४७।।

शत्रुघ्न के स्वरूप में मथुरा के पुर के निर्माता, सुकृत पुण्य को जानने वालों को स्वरूप प्रदान करने वाले, जनक पिता के ज्ञान के गम्य विषय और इला पृथिवी तत्सम्बन्धी ऐल, उसका अन्त ऐलान्त यानि समस्त पृथिवी में जिनकी श्रुति कीर्ति प्रकट है,

रामायण रूप में गाई जाती है तो ऐसे श्रीराम हैं।।

।। यह श्रीवल्लभाचार्य द्वारा प्रणीत भागवत नवमस्कन्ध के लीलानुसारि 'पुरुषोत्तमनामसहस्र'स्तोत्र के अन्तर्गत भगवान् श्रीराम के नाम हैं ।।


।। श्रीकृष्णार्पणम् अस्तु ।।

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