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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

स्मृतियाँ क्या हैं? मनुस्मृति आदि की सटीक समझ, विषयविमर्श और विभाजन -


भाग १

वेद नित्य अपौरुषेय (ईश्वर ने भी जिनको बनाया नहीं), होते हैं। वेद का जो स्मरण मनु करते हैं हर कल्प में उसे स्मृति कहते हैं। सारे मनु विष्णु के ही अवतार होते हैं। "ऋषयो मनवो देवा....कलाः सर्वा हरेरेव" (भागवत 1.3.27)

स्मृतियों में वेद और आचार दो भाग हुए  

आचार में ऋषियों के आचार का स्मरण। न्याय और लोकव्यवहार भी इसी में आ जाते हैं। वेद आचार व्यवहार (न्याय) और लोकयात्रा को आधार बनाकर स्मृति के चार प्रकार हो सकते हैं।

इस बात को भागवत पुराण ने कहा है "धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ" (11.21.3)
अर्थ है कि यज्ञादि धर्म के प्रयोजन से, व्यवहार प्रयोजन से और जीविका आदि लोकयात्रा के प्रयोजन से, शास्त्रों में गुण दोष आदि का विधान हुआ है। 

मनु ने खुद इस बात को कहा है 

"वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः ।एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् । । 2/12 ।।"

(वेद और वेद को आधार बनाकर की हई यज्ञप्रतिपादिका नित्या स्मृति, स्मृति यानि ऋषियों के आचार को आधार बनाकर हुआ विधान, सदाचार यानि लोकयात्रा के लिए उपयुक्त ऋषियों से भिन्न सत्पुरुषों का आचरण, उसे आधार मानकर किए हुए विधान, और जो खुदको प्रिय हो यानि दूसरों के लिए वैसा आचरण करना जो खुदको प्रिय हो यह व्यवहार है, जिसमें आधार न्याय/युक्ति है। ऐसे वेद, ऋषियों के आचार, अन्य महापुरुषों के आचार और पक्षपात बिना शास्त्रानुकूल युक्ति को मानकर चार प्रकार से धर्म का लक्षण कहा गया है।)

वल्लभाचार्य ने इसे सर्व निर्णय में खोलकर समझाया है।

तदाचाराल्लोकतश्च न्यायान्नित्यानुमेयतः ।
प्रवृत्तिर्जीविका लोके व्यवहारो विशुद्धता ।। 

नित्यानुमेयवेदमूला स्मृति का स्वरूप और प्रकार ।
अनुभव के संस्कार से अनुभवसमानाकारा स्मृति उत्पन्न होती है। जैसे कल मटका देखने पर "यह मटका है" ऐसा अनुभव हुआ। स्मृति भी "यह मटका है" ऐसी ही होगी। 

ऐसे ही पूर्वजन्म कल्प आदि में वेद का अनुभव से संस्कार होते उनके उद्बुद्ध होने पर अनुभवसमानाकारा स्मृति होगी। जैसे "अष्टका कर्त्तव्या" ऐसा अनुभव हुआ था। फिर इस वेदार्थ के स्मरण से श्रुतिस्वरूप की अनुमिति लगाई जाएगी।

नित्यानुमेयवेद को मूल बनाकर की हुई स्मृति। यह स्मृति यज्ञप्रतिपादिका होती है। इसमें पाँच विषय हैं संध्योपासनादि नित्यकर्म, 16 संस्कार, श्राद्धादि, प्रायश्चित्त और पाकयज्ञ। परिचर्या आदि दिव्य और यज्ञ कर्मकाण्ड सम्बन्धी विषयों में यह स्मृति होती है। ऋषि यहाँ साक्षात् योगबल से वेदों का दर्शन करके स्मरण कर वेद के वाक्य का अनुमान कर स्मृति करते हैं, अतः इस स्मृति का प्रामाण्य वेदतुल्य है और यह स्मृति नित्या है। यह बदलती नहीं। पूर्व विभागों में देश काल अनुसार स्मृतियों में आपको परस्पर भिन्न नियम दिखेंगे। विद्वानों के सङ्ग कर धर्म का उचित निर्णय करना और धर्म की सटीक समझ देना ही स्मृतियों का मूलभूत उद्देश्य है। जो दिव्य और यज्ञ से सम्बन्धी न हो, यदि भौतिक नियम हों, वहां स्मृतियों में देश काल आदि 6 प्रकारों को ध्यान में रखकर धर्म क्या है इसका निर्णय कैसे लेना यह विस्तार से सिखाया जाता है। यह निर्णय अपने मनसे नहीं होता अनेक वर्षों के अभ्यास से होता है। लेकिन वेदमूला जो स्मृति है उसमें न कोई आचार प्रमाण न युक्ति, यहाँ कोई छूट नहीं, जैसा विधान है बिल्कुल वैसा ही पालना पडेगा और यह नित्य विधान है जैसे कि वेदो में है।

इस नित्यानुमेयवेदमूला स्मृति को पालने का फल चित्तशुद्धि है यज्ञ करने से चित्तशुद्ध होता है। और सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है।

ऋषियों के जैसे आचार और उनके द्वारा जिन बड़े राजाओं की सिद्धपुरुषों की प्रशंसा की गई उनके जैसे आचार करोगे तो सत्य अहिंसा तीर्थाटन माता पिता आदि का सम्मान पति का सम्मान हरिगुरुसेवा, अतिथिपूजन, व्रत, दान, गोरक्षा करोगे और इस प्रकार सुखशान्ति बनी रहेगी। आचार से धर्म में प्रवृत्ति होगी। इस स्मृति का मूल पुराण होते हैं, पुराणों में जैसे महापुरुषों ने आचार किए हैं, ऋषियों ने उन्हीं आचारों का स्मरण किया है अतः ये आचारमूलिका स्मृति हैं। इसका फल उस प्रकार के आचार में प्रवृत्ति है।

लोकव्यवहार को ध्यान में रखकर, ऐसे ऋषियों के और सिद्धमहापुरुषों के आचार का स्मरण कर जी नियम बने हैं वे व्यवहारमूला स्मृति कहलाती है। लोक से जीविका, जीवनयात्रा सधेगी, जीविका इसका फल है। यहाँ इस भागसे अर्थव्यवस्था, और परस्पर वनस्पति मनुष्य और पशओं में सुखशान्ति और समान सन्तुलन बना रहेगा। लोकव्यवहार कैसे करना इन सबके नियम हैं, जैसे ब्राह्मण को मांस मदिरा अन्य राजस तामस भोजन निषिद्ध है, यदि न हो तो यज्ञादि वेद का पठन पाठन में मन न लगके स्त्रीसङ्ग और व्यसन में मन लगेगा। इससे वह पढाई न करके समाज को नुक्सान पहुचाएगा और खुदकी जीविका भी न चलेगी। सभी को निःशुल्क विद्या देकर समाज में अपने अधिकार के अनुसार सभी को विद्या देगा, उसके बदले दूसरे वर्ण उसके परिवार के जरूरतों का ध्यान रखेंगे। सरकार को मुफ़्त विद्या देने के लिए लोगों का कर इस्तेमाल करना पड़ता वो न करना होगा, समाज आपस में एक दूसरे का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ेगा। आपत्काल में क्या करें, आपस में व्यवहार कैसे करें, पति-पत्नी कैसे रहें, माता पिता से कैसे रहें, परिवार में सम्पत्ति का विभाजन कैसे करें इत्यादि। ये एक सामाजिक स्तर है स्मृति का, और इसमें लोकाचार यानि के जो रीतिरिवाज गाँव जिले में या अपने आसपास चलते हैं उन्हें भी मान्यता दी गई है। 

ब्राह्मणों का जैसे लोकव्यवहार के अनुकूल नियम बनाए हैं, ऐसे सभी वर्णों में जानिए, अधिक विस्तार यहाँ न करेंगे। जैसे स्मृति ने 8 बैल से खेती करना उत्तम 6 से मध्यम और 4 से हीन माना है, बैल को कष्ट न हो इसलिए 8 बैलस खेती उत्तम पक्ष है यह व्यवहार में सन्तुलन बनाए रखने की प्रतिपादिका है। नवी ब्याही गाय का दूध 10 दिन तक नहीं लेना चाहिए , वह केवल बछड़े के लिए रखना चाहिए ऐसे भी स्मृति में वचन हैं, यह सभी व्यवहार में सन्तुलन बनाए रखने के लिए हैं। ऐसे सभी जगह जानिए।

न्याय यानि नीतिशास्त्र। इसका मूल नय या युक्ति (logic and reasoning) है, अतः यह स्मृति युक्तिमूला है। चाणक्य नीति शुक्रनीति प्रसिद्ध ही हैं। स्मृतियों पर आधारित शास्त्र ही हैं वे भी। राजनीति भी इसके अन्दर आती है। यहाँ राज्य के अनुसार नियम, कितना कर लगाना देश काल के हिसाब से नीति का अनुसरण करते हुए बनती है। अर्थशास्त्र आदि में भी इसी का आधार हैं। और देश काल हिसाब से जो धर्म के प्रतिकूल न हो तो ब्राह्मणों की सलाह लेकर नियम बनने चाहिएँ। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि युक्ति भी मनसे नहीं कर सकते स्मृति पुराण और इतिहास में जैसी युक्ति बताई है उस आधार पर ही होती है, और वैसी युक्ति ही धर्म के अनुकूल होती है, तदनुसार देश काल आदि 6 मापदण्ड के हिसाब से कब कैसा निर्णय लेना चाहिए इसकी पूरी पढाई होती है, जो धर्मशास्त्र के विद्वान् ब्राह्मण जानते हैं। उस आधार पर ही युक्ति से धर्म का निर्णय होता है। यहाँ युक्ति करने की छूट अवश्य है।

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