लखनऊ यूनिवर्सिटी में कार्यरत एक सेक्योररिटी गार्ड सूर्यकांत द्विवेदी और उनके सुपुत्र कुलदीप द्विवेदी की कहानी
सूर्यकांत स्वयं 12'वीं कक्षा तक पढ़े थे और उनका विवाह मंजू से हुआ जो महज़ 5'वीं कक्षा तक पढ़ी थी। एक सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर रहे सूर्यकांत पर चार बच्चों ( संदीप /प्रदीप/ स्वाति और कुलदीप) की ज़िम्मेवारी थी। घर के नाम पर एक कमरा था और तनख्वाह के नाम पर इतना भी नहीं मिल पाता था के गुज़र बसर हो सके।
चारों बच्चों की प्राथमिक शिक्षा एक हिंदी मीडियम स्कूल में हुई। कुलदीप के शिक्षकों ने सूर्यकांत को शुरुआत में ही सचेत कर दिया था के उनका पुत्र विलक्षण बुद्धि का स्वामी है। सातवीं कक्षा तक अव्वल रहे कुलदीप ने अल्पायु में ही मन ही मन एक ख्वाब संजो लिया था।
ख्वाब सिविल सर्विसेज़ जॉइन करने का था और देखते ही देखते यह ख्वाब कुलदीप के लिये जुनून बनता जा रहा था। पिता एक साधारण गार्ड की नौकरी करते थे और दिन भर में आते जाते आईएएस को सेल्यूट मारा करते थे। एक शाम कुलदीप ने अपने इस सपने को पिता के साथ साँजा किया तो सूर्यकांत भी गदगद हो उठे। उन्होंने कुलदीप से कहा के वह अपने सपने को पूरा करने के लिये जी जान लगा दे और वह हर पल हर कदम उसकी इस जंग में उसके साथ हैं।
कुलदीप का हौसला अब सातवें आसमान पर था। उसे लगा के वह इस जंग में अकेले नहीं हैं। पिता का साथ और आशीर्वाद दोनों साथ चल रहे हैं। परन्तु रह रह कर उनके मन में एक सवाल कौंधता रहा जिसका जवाब उनके पिता से उन्हें कभी नहीं मिलता था।
एक साधारण गार्ड की नौकरी और पूरे परिवार का बोझ सूर्यकांत आखिर उठा कैसे रहे हैं। पिता से पूछते तो टका से जवाब मिलता "इस सब की चिंता छोड़ दो । अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।"
कुलदीप ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पहले बीए और फिर एमए किया। अब सँघर्ष की घड़ी आ चुकी थी। कुलदीप ने पिता से कहा के वह सिविल सर्विसेज़ की कोचिंग के लिये दिल्ली जाना चाहते हैं।
परिवार के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे फिर भी सूर्यकांत ने हामी भर दी। कुलदीप दिल्ली के मुखर्जी नगर के 10 × 10 का एक कमरा किराये पर लेकर तैयारी में जुट गये। हर महीने तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा कुलदीप की पढ़ाई पर खर्च होने लगा। घर के आर्थिक हालात बिगड़ते तो सूर्यकांत इधर उधर से पैसों का इंतज़ाम कर लेते। सारा बोझ अपने सर पर उठाये इस पिता ने अपनी बिगड़ती आर्थिक स्थिति की भनक भी कुलदीप को नहीं होने दी।
कुलदीप अक्सर पिता से फोन कर के पूछते के घर कैसे चल रहा है। पैसा कहां से आ रहा है तो सूर्यकांत की ओर से रटा रटाया जवाब मिलता "इस सब की चिंता छोड़ दो । अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो"।
कुलदीप पहली बार यूपीएससी के पेपर में पहले दौर यानी प्रीलिम्स में ही अनुत्तीर्ण रहे। रिज़ल्ट आया तो कुलदीप हिम्मत हार गये। पिता को फोन मिलाया और बताया के मेहनत पर पानी फिर चुका है।
सूर्यकांत ने पुत्र को विचलित नहीं होने दिया। फिर से हिम्मत बंधाई और फिर तैयारी करने को कहा।
पहली बार बुरी तरह से असफल हो चुके कुलदीप फिर तैयारी में जुट गये।
उधर सूर्यकांत के लिये मुश्किलों का कोई अंत नहीं था। परन्तु एक पिता होने के नाते वह यह जानते थे के उनकी हिम्मत ही उनके बच्चों की ताकत है। अगर मुखिया ने हथियार डाल दिये तो सेना हार जायेगी।
आर्थिक स्तिथि इतनी चरमराई हुई थी के एक एक रुपये के लिये सूर्यकांत को सँघर्ष करना पड़ रहा था । कुलदीप जानते थे के उनके पिता कठिन दौर से गुज़र रहे हैं परन्तु जब भी इस विषय में बात होती तो सूर्यकांत बात टाल देते।
दूसरी बार यूपीएससी के एग्जाम दे रहे कुलदीप को एक और झटका लगा । पहला चरण यानी प्रीलिम्स में वह उत्तीर्ण हो गये पर दूसरे चरण यानी मेन्स को पार नहीं कर सके।
कुलदीप अब टूट चुके थे। दो बार की असफलता से उनकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी।
इसी बीच एक शाम पिता ने पुत्र को दोबारा कॉल किया। सूर्यकांत ने बेटे से कहा के वह उसके साथ खड़े हैं। वह सफल हो या असफल पर उन्हें गर्व है के उनके बेटे ने जी जान से प्रयास किया है। उन्हें कुलदीप पर गर्व है।
सूर्यकांत ने कुलदीप से कहा के वह एक बार फिर से प्रयास करें। यह बिल्कुल ऐसा ही था जैसे पिता अपने छोटे से बेटे को चलना सिखाता है। बार बार बच्चा गिरता है और बार बार पिता उसे उठा कर फिर चलने के लिये प्रेरित करता है।
सूर्यकांत के हिम्मत भरे शब्द एक बार फिर अपना काम कर गये। इस बार कुलदीप ने जी जान लड़ा दी। दिन रात एक कर दिये। दूसरी ओर सूर्यकांत एक एक पाई को मोहताज़ बमुश्किल घर की व्यवस्था चलाते रहे।
बाप बेटा दोनों संघर्षरत थे और समय को इस सँघर्ष का सम्मान एक दिन करना ही पड़ा।
यूपीएससी की परीक्षा का परिणाम आ चुका था ।कुलदीप उत्तीर्ण हो चुके थे।
आल इंडिया रैंक 242 के आगे एक नाम लिखा था।
"कुलदीप द्विवेदी ( सन ऑफ सूर्यकांत द्विवेदी) "
कुलदीप की बहन में बताया के जब सूर्यकांत को यह खबर मिली तो वह कुछ समय के लिये एकांत में चले गये। काफी देर तक अकेले रोते रहे।
घर का मुखिया आज भी अपने बच्चों को आंखों से निकलती अविरल अश्रुधारा नहीं दिखाना चाहता था।
कुलदीप की तपस्या पूरी हो चुकी थी। जिस सपने के पीछे वह बाल्यकाल से भाग रहे थे वह पूरा हो चुका था।
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परन्तु यह इस सत्यकथा का अंत नहीं है।
जिस दिन कुलदीप का रिजल्ट आया उससे अगले दिन गार्ड सूर्यकांत द्विवेदी फिर से यूनिफार्म पहन कर ड्यूटी पर जाने को तैयार थे। बच्चों ने कहा के यह क्या कर रहे हैं। एक आईआरएस का पिता अब क्या एक साधारण गार्ड की नौकरी करेगा।
सूर्यकांत पास खड़ी बिटिया से बोले " इसी नौकरी की बदौलत तो लड़का आईआरएस बना है। अभी मुझपर और भी जिम्मेवारियां हैं" यह कह कर वह फिर ड्यूटी पर चले गये।
पिता की भूमिका निभाते असल जीवन में ना जाने कितने किरदार देख चुका हूं जिनका सारा जीवन अपने परिवार के प्रति समर्पित रहा। ऐसे किरदार देखे हैं जो जिम्मेवारियां निभाते निभाते खत्म हो गये पर जिम्मेवारियां खत्म नहीं हुई।
क्या खूब लिखा गया है .....
The heart of Father is the masterpiece of nature...
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