रामचरित मानस का प्रथम श्रोता कौन था?
रचि महेश जिन मानस राखा। पाइ सुसमय सिवा सन भाषा।ताते रामचरितमानस वर। धरेउ नाम हियॅ हेरि हरषि हर।
उपरोक्त चैपाई के अर्थ से यह ज्ञात होता है, कि भगवान शिव ने मानस की रचना करने के पश्चात्, उसे सर्व प्रथम माता पार्वती जी को सुनाया। परन्तु
सुनु शुभ कथा भवानि, रामचरितमानस विमल।
कहा भुसुण्डि बखानि, सुना बिहग नायक गरूण।
इस सोरठे के भाव से यह सिद्व होता है, कि शिव जी के द्वारा माता पार्वती को यह कथा सुनाने के पूर्व ही, इस राम कथा को श्री कागभुसुण्डी जी महाराज ने कहा, जिसे पक्षीराज गरूण जी महाराज ने सुना था। फिर ऊपर की चैपाई में माता पार्वती जी के श्रवण की बात क्यों लिखी गयी।
उत्तर-सचमुच यह प्रश्न बड़ा गंभीर है, कि श्रीरामचरितमानस का सर्वप्रथम श्रोता किसे ठहराया जाए। मानस के रचयिता शिवजी हैं, यह बात तो बिल्कुल निर्विवाद है, परन्तु उन्होंने मानस की रचना करने के बाद सर्व प्रथम उसे कागभुसुण्डी जी को प्रदान किया अथवा माता पार्वती जी को सुनाया, इसी विषय का विचार करना है।
इस बात का निर्णय करने के लिए जब हम सम्पूर्ण मानस ग्रन्थ की छान-बीन करते हैं, तो यही पता चलता है, कि शिवजी ने जिस समय यह कथा माता पार्वती जी को सुनायी थी, उसके प्रथम ही वे स्वयं नीलगिरि पर्वत पर कागभुसुण्डी जी के आश्रम पर जाकर हंस रूप से उस कथा को सुन आये थे, और काग भुसुण्डी जी, जिन्होंने हंसरूप भगवान शिवजी को यह कथा सुनायी थी, श्री गरूण जी के प्रति यह कथन किया है, कि उन्हे यह कथा रामचरितमानस आज से सत्ताइस कल्प पहले भगवान शिवजी की कृपा से महर्षि लोमश ऋषि के द्वारा प्राप्त हुई थी। इन सभी बातों का प्रमाण श्रीरामचरितमानस में ही मौजूद है। जो निम्नलिखत हैं।
सुन शुभ कथा भवानि, रामचरितमानस विमल।
कहा भुसुण्ड बखानि सुना बिहग नायक गरूण।
सो संवाद उदार जेहिं भा आगे कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुन्दर अनघ।
उत्तरकाण्ड में पुनः शिवजी का वचन माता पार्वती के प्रति, जिसमें उनके हंस रूप होकर काग भुसुण्डी जी से कथा सुनने का प्रमाण है।
तब कछु काल मराल तनु धरि तहॅ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउॅ कैलाश।
उत्तरकाण्ड में श्री कागभुसुण्डी जी का कथन, जिसमें सत्ताइस कल्प पहले श्रीरामकथा प्राप्त होने की बात है।
इहाॅ बसत मोहि सुनु खग ईसा।
बीते कलप सात अरू बीसा।
उत्तरकाण्ड में ही दोहा क्रमांक 112 व 113 के बीच में श्री लोमश जी का वचन श्रीकागभुसुण्डी जी के प्रति
रामचरित सर गुप्त सुहावा।
शंभू प्रसाद तात मैं पावा।
तोहि निज भगत राम कर जानी।
ताते मै सब कहेउॅ बखानी।
अब इन सब के पूर्व माता पार्वती जी को कथा श्रवण कराने में जो वाक्य प्रमाण हैं वे इस प्रकार हैं-
रचि महेश निज मानस राखा।
पाइ सुसमय शिवा सन भाषा।
शंभु कीन्ह यह चरित सुहावा।
बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा।
सोई सिव कागभुसुण्डुहिं दीन्हा।
राम भगत अधिकारी चीन्हा।
तेहिं सन जगबालिग पुनि पावा।
तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।
इन चैपाइयों में ‘शिवा सन भाषा’ और ‘उमहिं सुनावा’ के पश्चात् सोइ शिव कागभुसुण्डहिं दीन्हा। पढ़ने पर यह अनुमान होने लगता है कि पहले पहल माता पार्वती जी को ही यह श्रीराम कथा रूपी महाप्रसादी प्राप्त हुई थी, इसलिए इस विरोधाभास का निराकरण करने के लिए दो बातों का आधार दिखलाते हुए निर्णय लिया जा रहा है। वे दोनो बातें निम्नलिखित हैं।
पहली बात तो यह है कि इस श्रीरामचरितमानस की रचना जब शिव जी ने की, तब वह भुसुण्डि आश्रम का निर्माण होने के सत्ताइस कल्प पहले किस कल्प में हुए अवतार चरित्र के आधार पर रचा गया था। जब हम इस प्रश्न का उत्तर तलाशते हैं, तो पता चलता है कि जिस कल्प में श्री नारद जी को मोह और उनके शाप के द्वारा भगवान विष्णु का श्रीराम रूप में अवतार हुआ था, उसी कल्प में श्रीरामचरितमानस की रचना हुई थी। इसका प्रमाण उत्तरकाण्ड की चैपाइयां है जो मानस के मुख्य हृदय में हैं, एवं जिनमें काग भुसुण्डि द्वारा श्री गरूण जी को पूरा श्रीरामचरितमानस सुनाने की बात वर्णित है।
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी।
रामचरित सर कहेसि बखानी।
पुनि नारद कर मोह अपारा।
कहेसि बहुरि रावन अवतारा।
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई।
तब शिशु चरित कहेसि मन लाई।
इसका तात्पर्य यह कि जिस श्रीरामचरितमानस को भगवान शिव ने लोमश ऋषि द्वारा काग भुसुण्डी को प्रदान किया था, उसमे रामावतार हेतु केवल नारदमोह ही था। उस चरित में नारद के शाप से ही दो शिव गण रावण और कुम्भकरण हुए थे, और जब शिवजी ने माता पार्वती जी को उस चरित्र को सुनाया है, तब अवतार हेतु कथन में नारद मोह के साथ ही साथ तीन कल्पों के तीन और हेतुओं को भी शामिल कर दिया गया। वे कारण इस प्रकार हैं। जय और विजय का रावण व कुम्भकरण होना, दूसरा जालन्धर राक्षस का रावण होना और तीसरा राजा भानुप्रताप और उनके भाई अरिमर्दन का रावण और कुम्भकरण होना।
बालकाण्ड में चार कल्पों के चारों हेतुओं का प्रमाण मौजूद है। अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान शिव ने श्रीरामचरितमानस को नारद मोह के हेतु से हुए अवतार काल में ही रचकर निज मानस में रख लिया था।
यथा रचि महेश निज मानस राखा, और उनके अनेक कल्प बाद प्रताप भानु वाले कल्प में जिस कल्प में मनु और सतरूपा दशरथ और कौशल्या हुए थे। जब सती जी को मोह हुआ और अपने पिता दक्ष के यहां शरीर त्यागकर उन्होंने पार्वती जी के स्वरूप में दूसरा जन्म ग्रहण किया। तब श्री शिवजी जी ने अवसर पाकर उनसे उस मोह की निवृत्ति के लिए उन्हें इस रामचरितमानस को सुनाया। उस समय भगवान शिव जी ने स्वरचित चरित्र के हेतु- प्रकरण सुनाना उचित समझा, जिसमें सती जी को मोह हुुआ था। साथ ही साथ उन्होंने जय-विजय और जालन्धर के हेतुओं को भी इसलिए ले लिया कि उन कल्पों में भगवान विष्णु का अवतार हुआ था, जिसके कारण सती को शंका हुई थी।
बिष्नु जो सुर हित नर तन धारी।
सोउ सर्वग्य जथा त्रिपुरारी।
अतः श्री शिव जी को उनकी वह शंका भी निवृत्त करनी थी। अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह कथा श्री कागभुसुण्डी जी को माता पार्वती जी के श्रवण काल के सत्ताइस कल्प पहले ही लोमश ऋषि के द्वारा प्राप्त हो चुकी थी। उसी कथा को श्री कागभुसुण्डी जी महाराज नीलगिरि पर्वत पर, जिसके एक योजन तक चारो ओर माया नहंी व्यापती थी, सदैव कथन किया करते थे और गरूण जी शिवजी के उपदेश से उनके पास जाकर वही कथा श्रवण की थी।
सती जी के शरीर त्याग के कारण उनसे वियोग हो जाने के काल में एक बार शिव जी ने भी नीलगिरि पर्वत पर जाकर अपने द्वारा प्रदान की गयी श्रीरामकथा को बड़े प्रेम से सुना था, और वे उसी का हवाला माता पार्वती जी को दे रहे है।
सुन शुभ कथा भवानि, रामचरितमानस विमल।
कहा भुसुण्ड बखानि सुना बिहग नायक गरूण।
दूसरी बात यह है कि यद्यपि सिवा सन भाषा और उमहिं सुनावा वाली दोनों चैपाइयां पहले पड़ी हैं, परन्तु काव्य कुशल कवि प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने अपनी अद्भूत एवं अनुपम बुद्विमत्ता से दोनों में दो शब्द ऐसे रख दिये हैं, जो कथन क्रम को स्पष्टतया विलग कर देते हैं।
पहली चैपाई में ‘पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा’ के द्वारा यह सूचित किया है कि जब ‘सुसमय’ आया तो उन्होंने अवसर के अनुकूल प्रयोजनार्थ सिवा से कथन किया। यानि कहा। इसी प्रकार दूसरी चैपाई में बहुरि शब्द देकर ‘बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा’। इसमें यह संकेत किया गया है कि बहुरि अर्थात पुनः सर्वप्रथम नहीं कृपा करके मोह निवृत्ति के लिए माता पार्वती जी को समयानुसार कथा सुनाया।
अतः वाक्यो का समन्वय होकर यह सिद्व हुआ कि भगवान शिव जी ने निज रचित श्रीरामचरितमानस श्रीकागभुसुण्डी जी महाराज को महर्षि लोमश जी के द्वारा बहुत पहले ही प्रदान कर दिया गया था और पार्वती जी को उन्होंने पीछे अवसर पाकर सुनाया।
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