"मैं जिस घर में रहता हूँ ,उस घर के पिछवाड़े कुल चार साल की एक बालिका रहती है,
जाने क्यूँ , जाने क्यूँ मेरी गर्दन से लिपट झूल ,वो मुझको सबसे प्यारा भैय्या कहती है,है नाम जिसका मदयान्तिका याकि मेहंदी ,सुनता हूँ उसने अपने पिता नहीं देखे,
उसकी जननी को त्याग कहीं बसते हैं रे,कितने कमजोर लिखे विधि ने उनके लेखे,
धरती पर उसके आने की आहट सुनकर बस दस दिन ही जननी उल्लास मना पाई,
कुंठाओं की चौसर पर सिक्कों की बाजी हारी,लेकर गर्भस्थ शिशु वापस आयी
अब एक नौकरी का बल और संबल उसका ,ये ही दो आधार जिंदगी जीने को,
अमृत रूपाय एक बेल सींचने की खातिर,वह विवश समय का तीक्ष्ण हलाहल पीने को,
वह कभी खेलती रहती है अपने घर पर, पर कभी-कभी मुझसे मिलने आ जाती है,
मैं बच्चों के कुछ गीत सुनाता हूँ उसको उल्लास भरी वो मेरे संग-संग गाती है,
सुनता हूँ इतनी सुन्दर,इतनी मादक,इतनी मोहक,इतनी प्यारी
जैसे उमंग ही स्वयं देह धर आयी हो,या देवों ने भी नर की सृजन शक्ति देख सम्मोहित हो ये अमर आरती गायी हो,
वह जैसे नयी कली चिटके उपवन महके,धरती की शय्या पर किरणों की अंगडाई
वह जैसे दूर कहीं पर बाँसुरिया बाजे,वह जैसे मंडप के द्वारे की शहनाई
वह जैसे उत्सव की शिशुता हो मूर्तिमंत्र,वह बचपन जैसे इन्द्रधनुष के रंगों का
वह जिज्ञासा जैसे किशोर हिरनी की हो,वह नर्तन जैसे सागर बीच तरंगो का
वह जैसे तुलसी के मानस की चौपाई, मैथिल,कोकिल,विद्यापति कवि का एक छन्द
वह भक्ति भरे जन्मांध सूर की एक तान,वह मीरा के पद से उठती पावन सुगंध
वह मेघदूत की पीर,कथा रामायण की,
उसके आगे लज्जित कवि कुल गुरु का मनोज
वह वर्ड्सवर्थ की लूसी का भारतीय रूप,
वह महाप्राण की ,जैसे जीवित हो सरोज
सारे सुर उसकी बोली के आगे फीके
सारी चंचलता आँखों के आगे हारी
सारा आकाश समेटे अपनी बाहों में
सब शब्द मौन हो जाएँ वह उतनी प्यारी
लेकिन जब उसके आहत का करता हूँ विचार
मैं अन्दर तक आकुलता से भर जाता हूँ,
सच कहता हूँ जितना जीवन जीता दिन भर
मैं रोज रात को उतना ही मर जाता हूँ.
मैं सोच रहा हूँ जबकि समय की कुंठाएँ,कल ग्रन्थ पुराने इसके सम्मुख बांचेंगी
कल जबकि नपुंसक पित्रों वाली जिह्वाएँ,इसके सम्मुख नंगी नाचेंगी
जब पता चलेगा कहीं किसी छत के नीचे,मेरा निर्माता पिता आज भी सोता है
इस टॉफी खेल खिलोंनो वाली दुनिया में संबंधों का ऐसा मजाक भी होता है.
जब पता चलेगा कैसे सिक्कों के कारण,मेरी माँ को पीड़ा,गाली,दुत्कार मिली
लुटकर,पिटकर,समझौतों की हद पर आकर,पैरों की ठोकर ही उसको हर बार मिली
तब हो सकता है पीर सहन ना कर पाए,मेरी सारी मुस्कानें उड़ जाएँ और वह रो दे,
जितनी सौहार्द की कोमलता संयोजित की,जग के प्रति-हिंसा के मेले में खो दे
वह दिन ना कभी आये भगवान लेकिन वह दिन आएगा ,उसको आना ही होगा
ये भोलापन ,नासमझी मन में बनी रहे लेकिन आँखों से उसको जाना ही होगा
तब भी क्या मैं कुछ नए खेल करतब कौतुब दिखलाकर इसको यूहीं बहला पाऊँगा?
तब भी क्या अपने सीने पर शीश टिका आश्वस्ति भरें हाथों से सहला पाऊंगा?
लेकिन मैं हूँ यायावर कवि ,मेरा क्या है,उस दिन मैं जाने कौन कहाँ से लोक उडूँ
या गीतों,गजलों की अपनी गठरी समेट,मैं तब तक सुर के महालोक की ओर मुडूँ
मैं अतः तुम्हारी छोटी सी मुट्ठी में आशीष भरा ये गीत सौंप कर जाता हूँ
फूलों से रंग रंगे इन पावन अधरों को बुद्धत्व भरा संगीत सौंप कर जाता हूँ
इस जगती के सारे उल्लास तुम्हारे हों,सारे पतझड़ मेरे ,मधुमास तुम्हारे हों
आँसूं की बरखा से जो धुल कर चमक उठें,ऐसे निरभ्र,निर्मल आकाश तुम्हारे हों
पीड़ा का क्या है,पीड़ा तो सबने दी है,लेकिन मेहंदी तुम केवल मुस्कानें देना
विद्वेष हलाहल पीकर अमृत छलकाना,शिव वाली परंपरा को पहचाने देना
आँसूं की बरखा से सारी कालिख धोकर उस धरा वधू की शुभ्र हथेली पर रचना
आकाश भरे जब इसकी माँग कभी मेहंदी,तब रंग गंध का वन प्रतीक तुम ही बचना||
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