अमरीका के डाल्टन नामक स्थान में 1912 से 1915 के बीच कुमारी हेलेन पार्खहर्स्ट्र ने शिक्षा की एक नई विधि प्रयुक्त की जिसे डाल्टन योजना कहते हैं।
डाल्टन योजना
यह विधि कक्षाशिक्षण के दोषों को दूर करने के लिए आविष्कृत की गई थी।
डाल्टन योजना में कक्षाभवन का स्थान प्रयोगशाला ले लेती है।
प्रत्येक विषय की एक प्रयोगशाला होती है, जिसमें उस विषय के अध्ययन के लिए पुस्तकें, चित्र, मानचित्र तथा अन्य सामग्री के अतिरिक्त सन्दर्भग्रंथ भी रहते हैं।
विषय का विशेषज्ञ अध्यापक प्रयोगशाला में बैठकर छात्रों की सहायता करता है, उनके कार्यों की जाँच तथा संशोधन करता है।
वर्ष भर का कार्य 9 या 10 भागों में बाँटक निर्धारित कार्य (असाइनमेंट) के रूप में प्रत्येक छात्र को लिखित दिया जाता है। छात्र उस निर्धारित कार्य को अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न प्रयोगशालाओं में जाकर पूरा करता है।
कार्य अन्वितियों में बँटा रहता है। जितनी अन्विति का कार्य पूरा हो जाता है उतनी का उल्लेख उसके रेखापत्र (ग्राफकार्ड) पर किया जाता है।
एक मास का कार्य पूरा हो जाने पर ही दूसरे मास का निर्धारित कार्य दिया जाता है। इस प्रकार छात्र की उन्नति उसके किए हुए कार्य पर निर्भर रहती है।
इस योजना में छात्रों को अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार कार्य करने की छूट रहती है। मूल स्रोतों से अध्ययन करने के कारण उनमें स्वावलंबन भी आ जाता है।
इस योजना के अनेक रूपांतर हुए जैसे- बटेविया, विनेटका आदि योजनाएँ। डेक्रौली योजना यद्यपि इससे पूर्व की है, फिर भी उसके सिद्धांतों में डाल्टन योजना के आधार पर परिवर्तन किए गए।
आगमन विधि
आगमन विधि कक्षा शिक्षण की महत्वपूर्ण विधि है।
इस विधि में विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण के दौरान सबसे पहले उदाहरण दिए जाते हैं तत्पश्चात सामान्य सिध्दांत का प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
आगमन विधि की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1- उदाहरण से नियम की ओर
2- स्थूल से सूक्ष्म की ओर
3- विशिष्ट से सामान्य की ओर
4- ज्ञात से अज्ञात की ओर
5- मूर्त से अमूर्त की ओर
6- प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर
आगमन विधि को प्राय: थकान वाली शिक्षण विधि माना जाता है क्योंकि इसमें शिक्षण प्रक्रिया काफी लम्बी होती है।
आगमन विधि अरस्तू ने दी थी।
निगमन विधि
कक्षा शिक्षण में निगमन विधि का महत्वपूर्ण स्थान है यह विधि विज्ञान व गणित शिक्षण के लिए अत्यंत उपयोगी है।
निगमन विधि के प्रतिपादक अरस्तू हैं।
निगमन विधि की शिक्षण के दौरान प्रस्तुत विषयवस्तु प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं
1- सूक्ष्म से स्थूल की ओर
2- सामान्य से विशिष्ट की ओर
3- अज्ञात से ज्ञात की ओर
4- प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
5- अमूर्त से मूर्त की ओर
शिक्षण की निगमन विधि में शिक्षण प्रक्रिया सामान्य से विशिष्ट की ओर उन्मुख होती है॥
इस विधि में पाठ्यचर्या का क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर होता है। विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण का क्रम अमूर्त से मूर्त की तरफ होता है। कक्षा शिक्षण प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर होता है एवं विषयवस्तु की प्रकृति अज्ञात से ज्ञात की ओर होती है।
निगमन विधि को विज्ञान व गणित शिक्षण के लिए उपयोगी माना जाता है लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं इस शिक्षण की इस विधि में विद्यार्थी रटने की प्रवृत्ति को ओर बढने लगते हैं जो शिक्षण अधिगम की गति को धीमी करता है।
आगमन निगमन विधि के जनक/प्रतिपादक अरस्तू हैं।
प्रोजेक्ट विधि
प्रोजेक्ट (योजना) विधि शिक्षण की नवीन विधि मानी जाती है।
इसका विकास शिक्षा में सामाजिक प्रवृत्ति के फलस्वरूप हुआ।
शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए जो जीवन को समर्थ बना सके।
इसके प्रवर्तक जान ड्यूबी के शिष्य डब्ल्यू0एच0 किलपैट्रिक थे।
यह विधि अनुभव केन्द्रित होती है।
यह बालकों के समाजीकरण पर विशेष बल देती है।
योजना विधि में छात्रों के जीवन से संबंधित समस्याओं को वास्तविक रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
छात्र समस्या की अनुभूति करते हैं। समस्या समाधान की योजना तैयार की जाती है।
इसके लिए अनेक सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है।
शिक्षक केवल निर्देशक / सुगमकर्ता का कार्य करता है।
छात्र स्वंय विषय वस्तु सामग्री का अध्ययन करके समस्या का समाधान करते है।
प्रोजेक्ट पद्धति का महत्व-
- विद्यालय के वातावरण को रोचक बनाने हेतु
- शिक्षार्थी द्वारा सीखे हुए ज्ञान का दैनिक जीवन में उपयोग करने हेतु
- शिक्षार्थी को सक्रिय रखने तथा विद्यालय के कार्यों में रूचि लेने हेतु
- बालक की रूचियों, प्रवृत्तियों तथा आवश्यकताओं में सामंजस्य बिठाने हेतु
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