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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

स्त्रियों और पुरुषों की विधियों में कोई अंतर क्यों होना चाहिए ?

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क्योंकि वे दोनों भिन्न हैं। दोनों पूरी तरह भिन्न हैं। विपरीत ध्रुव हैं। असल में, अधिक सही प्रश्न तो यह होगा : स्त्रियों और पुरुषों के लिए एक सी विधियां क्यों हैं?

ऐसी विधियां हैं जो स्त्री और पुरुष दोनों उपयोग करते हैं, इसलिए नहीं क्योंकि वे स्त्रियों के अनुकूल हैं, बल्कि इसलिए कि उनके लिए कोई विशेष विधियां विकसित ही नहीं हुईं। वे सदा से मनुष्यता का उपेक्षित अंग रही हैं। सब विधियां पुरुषों द्वारा विकसित हुई थीं। मूलत: पुरुष अपने ऊपर ही प्रयोग कर रहा था : वह अपनी ऊर्जा के प्रारूप, ऊर्जा-पथ के विषय में जानता था। उस पर उसने कार्य किया। और फिर वह दूसरे पुरुषों से बोल रहा था। तो सारी विधियों पुरुषों द्वारा ही विकसित की गईं, स्त्रियों के बाबत कभी नहीं सोचा गया।

स्त्रियां मस्जिद में प्रवेश नहीं कर सकतीं। असल में वे इस्लाम का हिस्सा ही नहीं हैं : मस्जिद पुरुषों के लिए है। कई वर्षों तक बुद्ध आग्रहपूर्वक स्त्रियों को दीक्षित करने से मना करते रहे। महावीर ने कई स्त्रियों को दीक्षित किया, उन्होंने कभी दीक्षा देने से इनकार तो नहीं किया, पर स्त्रियों के लिए अलग से कोई विधि विकसित नहीं की। सभी विधियां पुरुषों के लिए थीं। स्त्रियां उन्हीं से प्रयोग करती रहीं। इसीलिए तो उनके कभी चमत्कारिक प्रभाव नहीं हुए। बस जैसे-तैसे ही, ऐसा तो होना ही था।

 असल में तीन सौ धर्मों की इस संसार में कोई जरूरत नहीं है, केवल दो धर्मों की जरूरत है : एक पुरुषों के लिए और एक स्त्रियों के लिए। और इन दोनों धर्मों में आपस में किसी संघर्ष की कोई आवश्यकता नहीं है, दोनों का आपस में परिणय हो सकता है। वे दोनों एक हो जाएंगे, संघर्ष की कोई जरूरत ही नहीं है। जब स्त्री और पुरुष प्रेम में पड़कर एक इकाई की तरह जी सकते हैं तो ये दोनों धर्म भी प्रेम में पड़ सकते हैं-पड़ना ही चाहिए।

स्त्रैण चेतना की सारी तहें, सारा मनोविज्ञान, सारी मानसिकता पुरुष से भिन्न है; भिन्न ही नहीं, बल्कि विपरीत है। उदाहरण के लिए, कुंडलिनी योग। यह स्त्रियों के लिए बिलकुल नहीं है। लेकिन जब मैं यह कहूंगा तो बहुत लोग चौंकेंगे। और खासकर तो स्त्रियां चौंकेंगी। वे सोचेंगी उनके हाथ से जैसे कुछ छिन गया। कुंडलिनी योग स्त्रियों के लिए नहीं है, क्योंकि वह पुरुष के धनात्मक केंद्र पर आधारित है। वह केंद्र शिश्न के ठीक नीचे है। यह पुरुषों के' लिए है, स्त्रियों के लिए नहीं। स्त्रियों के लिए तो वह केंद्र ऋणात्मक है और ऋणात्मक केंद्र से ऊर्जा नहीं ऊर्ध्वगमन नहीं होता, ऋणात्मक केंद्र से ऊर्जा नहीं उठ सकती।

तो करीब-करीब हमेशा ही ऐसा होता है—ऐसा मेरा अनुभव है—कि जब भी स्त्रियां कहती हैं कि वे कुंडलिनी को उठता हुआ अनुभव कर रही हैं तो वे केवल कल्पना कर रही होती हैं। ऐसा हो तो नहीं सकता, लेकिन वे बहुत कल्पनाशील होती हैं, पुरुषों से अधिक कल्पनाशील होती हैं। तो यदि मैं दस स्त्रियों और दस पुरुषों के साथ प्रयोग करूं तो नौ स्त्रियों को ऊर्जा उठती हुई अनुभव होगी, जब कि केवल एक ही पुरुष को यह अनुभव होगा। यह चमत्कार है, क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता! मेरे पास वे आ जाती हैं और मैं कहता हूं 'ठीक है, हो रहा है। ' क्या कर सकते हैं? यह असंभव है, वैज्ञानिक रूप से असंभव है, क्योंकि ऊर्जा धनात्मक ध्रुव से ही गति करती है।

तो बिलकुल भिन्न विधियां विकसित होनी चाहिए बिलकुल भिन्न! लेकिन पुरुष और स्त्रियां इतने पास-पास रहते हैं कि वे भूल जाते हैं कि वे भिन्न हैं। दोनों में कुछ भी समान नहीं है। और अच्छा है कि कुछ भी समान नहीं है, इसी कारण तो वे ऊर्जा का एक वर्तुल बन पाते हैं, दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं, एक-दूसरे में समा जाते हैं। लेकिन इस समा जाने का अर्थ यह नहीं है कि वे समान हैं, वे इसीलिए समा पाते हैं क्योंकि वे समान नहीं हैं।

और जब भी दो समान तरह के शरीर और मन एक-दूसरे में समाने का प्रयास करते हैं तो वह विकृति हो जाती है। इसीलिए मैं समलैंगिकता को विकृति कहता हूं। पश्चिम में अब यह बहुत प्रचलित हो गई है। अब समलैंगिक स्वयं को बड़े विकासशील समझते हैं : उनके अपने क्लब हैं, पार्टियां हैं, संस्थान हैं, पत्रिकाएं हैं, प्रचार इत्यादि के साधन हैं। और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। कई देशों में तो उनकी संख्या चालीस प्रतिशत तक हो गई है। देर-अबेर समलैंगिकता सभी जगह एक आम बात हो जाएगी, सामान्य जीवन-शैली हो जाएगी।

अब तो अमेरिका के कई राज्यों में समलैंगिक विवाहों को मान्यता भी मिलने लगी है। यदि लोग आग्रह करें तो सरकार को स्वीकार करना ही पड़ेगा, क्योंकि उसे तो लोगों की सेवा करनी है। यदि दो पुरुष आपस में विवाह करना चाहते हैं तो किसी को व्यवधान डालने की क्या पड़ी है! ठीक है। यदि दो स्त्रियां विवाह करके एक साथ रहना चाहती हैं तो किसी को क्या पड़ी है! उनकी अपनी बात है।

लेकिन मूलत: यह बात अवैज्ञानिक है। उनकी अपनी बात है, पर अवैज्ञानिक है। यह उनकी अपनी बात है और किसी को हस्तक्षेप करने की जरूरत भी नहीं है, परंतु वे मानव ऊर्जा और उसकी गति के मौलिक प्रारूप से अनजान हैं। 

समलैंगिक कभी आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकते। 

यह बहुत कठिन है। उनकी ऊर्जा-प्रवाह की पूरी संरचना ही बिगड़ गई है, पूरी प्रक्रिया विकृत हो गई है। और अब यदि संसार में समलैंगिकता अधिक बढ़ती है तो उन्हें ध्यान की ओर ले जाने के लिए ऐसी विधियां विकसित करनी पड़ेगी जैसी पहले कभी नहीं थीं।

जब मैं कहता हूं कि पुरुष और स्त्री एक पूर्ण के दो विपरीत अंग हैं तो मेरा यह अभिप्राय है कि वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं। और उनका परिपूरक होना केवल तभी संभव है जब उनके विपरीत ध्रुव मिलें। इसकी इस तरह देखो : स्त्री के शरीर में योनि ऋणात्मक ध्रुव है और स्तन धनात्मक ध्रुव हैं। यह एक चुंबक है : स्तनों के निकट धनात्मक ध्रुव और योनि के निकट ऋणात्मक ध्रुव। पुरुष के लिए ऋणात्मक ध्रुव स्तनों पर होता है और जननेंद्रिय पर विधायक ध्रुव होता है। तो जब पुरुष और स्त्री के स्तन मिलते हैं तो ऋणात्मक और धनात्मक ध्रुवों का मिलन होता है; और जब काम-केंद्रों का संभोग में मिलन होता है तो भी ऋणात्मक और धनात्मक ध्रुवों का मिलन होता है।’अब दोनों चुंबक अपने विपरीत ध्रुवों पर मिल रहे हैं अब वर्तुल बन गया-ऊर्जा बह सकती है, गति कर सकती है।

लेकिन यह वर्तुल केवल तभी बन पाएगा जब स्त्री और पुरुष प्रेम में हैं। यदि वे प्रेम में नहीं हैं तो केवल उनके काम-केंद्रों का मिलन होगा, एक धनात्मक ध्रुव दूसरे ऋणात्मक ध्रुव से मिलेगा। ऊर्जा का आदान-प्रदान तो होगा, परंतु वह रेखाबद्ध होगा, वर्तुल नहीं बन पाएगा। यही कारण है कि प्रेम के बिना तुम कभी तृप्त नहीं हो पाते। बिना प्रेम के संभोग केवल व्यर्थ का खेल रह जाता है। कोई गहरी गति नहीं हो पाती। ऊर्जा गति करती है, लेकिन एक सीधी रेखा में-ऊर्जा का वर्तुल नहीं बनता। और जब तक वर्तुल न बने तुम एक नहीं हो सकते। जब तुम गहन प्रेम में डूबकर संभोग में उतरते हो तो स्तनों का भी मिलन होता है, अन्यथा नहीं।

इसलिए संभोग तो बहुत सरल है, लेकिन प्रेम जरा कठिन बात है। संभोग तो बस शारीरिक है, दो ऊर्जाएं मिलती हैं और शक्ति का अपव्यय होता है। इसलिए यदि केवल काम-वासना हो तो देर-अबेर तुम ऊब जाओगे : बस शक्ति व्यर्थ जाती है और मिलता कुछ भी नहीं। मिलता तो कुछ तभी है जब वर्तुल बनता है। यदि परिपूर्ण वर्तुल बन जाए तो दोनों प्रेमी संभोग के बाद अधिक ऊर्जावान, अधिक जीवंत और अधिक शक्ति-पूरित हो जाएंगे। यदि केवल संभोग ही हो तो दोनों ही स्खलित और क्षीण अनुभव करेंगे। उनकी ऊर्जा नष्ट हुई है। उनको नींद आ जाएगी, क्योंकि वे कमजोरी महसूस करेंगे।

इस एक ध्रुवीय मिलन में पुरुषों को स्त्रियों से अधिक नुकसान होता है। इसी कारण तो स्त्रिया वेश्याएं बन सकती हैं, क्योंकि पुरुष धनात्मक ध्रुव है और स्त्री ऋणात्मक ध्रुव है। ऊर्जा पुरुष से स्त्री की ओर बहती है, स्त्री से पुरुष की ओर नहीं। तो एक स्त्री एक रात में बीस से तीस बार संभोग में उतर सकती है, पुरुष नहीं, पुरुष तो दो बार भी नहीं उतर सकता। यह उम्र पर निर्भर करता है कि कैसे उसकी ऊर्जा बह रही है क्योंकि मिल तो कुछ भी नहीं रहा।

तो मेरे देखे यदि वेश्यावृत्ति बुरी है तो वेश्यावृत्ति के कारण नहीं, बल्कि इसलिए बुरी है कि उसमें वर्तुल नहीं बन पाता। तुम ऊर्जा से नहीं भर पाते। तुम्हारी शक्ति का ह्रास होता है। यदि प्रेम है तो पुरुष और स्त्री दो ध्रुवों पर मिलते हैं। पुरुष स्त्री को देता है और स्त्री पुरुष को वापस लौटा देती है। यह पारस्परिक आदान-प्रदान है।

स्त्रियों के लिए वह ध्यान अच्छा होगा जो स्तनों से शुरू हो, वह उनका धनात्मक ध्रुव है। इसके कारण बहुत कुछ अदभुत एवं असंभावित घटित होता है। पुरुष सदा एकदम से स्त्री में प्रवेश करना चाहता है। वह पूर्व-क्रीड़ा में फोर-प्ले में उत्सुक नहीं होता, क्योंकि उसका धनात्मक ध्रुव सदा तैयार रहता है। और स्त्रियों सदा ही बिना किसी पूर्व-क्रीड़ा के संभोग में उतरने से झिझकती हैं, क्योंकि उनका ऋणात्मक ध्रुव तैयार नहीं होता। और वह तैयार हो भी नहीं सकता। जब तक पुरुष स्त्री के स्तनों से प्रेम करना शुरू नहीं करता, ऋणात्मक ध्रुव तैयार नहीं होगा। वे राजी तो हो जाती हैं, लेकिन उसका सुख नहीं ले पातीं।

और पुरुष सोचता है कि संभोग का कृत्य, रतिक्रिया बड़ी सरल है। समय क्यों व्यर्थ करना? स्त्री में एकदम से प्रवेश करके कुछ ही पलों में वह स्खलित हो जाता है। लेकिन उसमें  स्त्री सम्मिलित न हो सकी, वह तैयार ही न थी।

इसीलिए तो स्त्रियों को चाह होती है कि उनके प्रेमी उनके स्तनों को स्पर्श करें। यह एक गहन चाह है। जब उनके स्तन ऊर्जा से भर उठते हैं केवल तभी उनके चुंबकीय दंड का दूसरा ध्रुव जो कि धनात्मक है, प्रतिवेदित होता है। तब वे इसमें जीवंत हो सकती हैं, भाग ले सकती हैं तब संप्रेषण हो सकता है-और तब दोनों विलीन हो सकते हैं। पूर्व-क्रीड़ा अत्यंत आवश्यक है।

 विवाह रसहीन हो जाते हैं, क्योंकि शुरू-शुरू में तो जब तुम एक नई स्त्री से मिलते हो तो पहले उसके शरीर के साथ खेलते हो तुम्हें पक्का नहीं होता कि वह सीधे ही तुम्हें प्रवेश करने देगी या नहीं, इसलिए तुम खेलते हो। तुम केवल उसे तैयार करने के लिए भूमिका बनाते हो। लेकिन जब वह तुम्हारी पत्नी हो जाती है तो तुम समझने लगते हो कि वह तो सदा ही उपलब्ध है पूर्व-कीड़ा की कोई जरूरत नहीं है। 

 पत्नियां अपने पतियों से इतनी अतृप्त इसलिए नहीं होतीं क्योंकि वे उन्हें प्रेम नहीं करते, बल्कि इसलिए होती हैं क्योंकि वे उन्हें गलत तरीके से प्रेम करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि स्त्री बिलकुल अलग ढंग से जीती है, उसका शरीर उनसे बिलकुल भिन्न, उनसे बिलकुल विपरीत ढंग से व्यवहार करता है।

 स्तनों पर यह अवधान, उनमें विलीन हो जाना, स्त्री को ध्यान में नया अनुभव देगा, अपने शरीर के प्रति एक नया अनुभव होगा, क्योंकि अब वह उस केंद्र से पूरे शरीर को स्पंदित होता हुआ अनुभव कर सकेगी। केवल स्त्री के स्तनों को प्रेम करके ही उसे एक गहन आर्गाज्य, सुख के शिखर अनुभव पर लाया जा सकता है, क्योंकि ऋणात्मक ध्रुव स्वत: प्रतिसंवेदित हो जाता है।

और भी कई बातें हैं। यदि तुम स्तनों पर ध्यान एकाग्र करना शुरू करो तो उस मार्ग का अनुसरण मत करो जो तुमने किताबों में पढ़ा है क्योंकि वह पुरुषों के लिए है। किसी नक्शे का अनुसरण मत करो, ऊर्जा को स्वयं ही गति करने दो। यह इस प्रकार घटित होगा : केवल थोड़े से सुझाव से ही तुम्हारे स्तन ऊर्जा से भर उठेंगे, ऊर्जा संप्रेषित करने लगेंगे, ऊष्ण हो जाएंगे और तत्क्षण तुम्हारी योनि प्रतिसंवेदित होगी। और तुम्हारी योनि के प्रतिसंवेदना से स्पंदित होने के बाद ही तुम्हारी कुंडलिनी कार्य करना शुरू करेगी। मार्ग अलग होगा और कुंडलिनी अलग तरह से जगेगी।

पुरुष में कुंडलिनी बड़े सक्रिय रूप से, बलपूर्वक जागती है। इसी कारण तो वे इसे सर्प का जागना कहते हैं।

 बलपूर्वक अचानक एक झटके से सर्प अपनी कुंडली खोल लेता है और कई बिंदुओं पर इसका अनुभव होता है। उन बिंदुओं को चक्र कहते हैं। जब भी कहीं प्रतिरोध होता है तो सर्प बलपूर्वक अपना मार्ग बनाता है। जैसे शिश्न योनि में प्रवेश करता है, वैसा ही मार्ग पुरुष के भीतर है। जब ऊर्जा उठती है तो वह ऐसी है मानो शिश्न भीतर गति कर रहा है।

और सर्प लिंग का प्रतीक है। वास्तव में, सीधे-सीधे इसे पुरुष जननेंद्रिय न बोलना पड़े, इसलिए उन्होंने इसे सर्प कहा है। तुमने कहानी सुनी होगी कि अदन के बगीचे में सर्प ने ईव को ज्ञान का फल खाने के लिए फुसलाया था। अब अनुसंधानकर्ता इस बात पर खोज कर रहे हैं कि वह सर्प भी बस जननेंद्रिय का ही प्रतीक है, जिसका उपयोग केवल इसलिए किया गया है कि सीधा-सीघा न कहना पड़े। असल में यह ज्ञान का फल खाने का सवाल है; यह कामुकता का प्रश्न है।

यही प्रतीक भारत में प्रयोग हुआ है : सर्प ऐसे जगता है जैसे जननेंद्रिय जाग्रत होती है, झटके से, और भीतर गति करती है।

स्त्री को ऐसा अनुभव नहीं होगा। उसका अनुभव बिलकुल विपरीत होगा, उसे ऐसा अनुभव होगा जैसा उसे पुरुष जननेंद्रिय के योनि में प्रवेश करने पर होता है-विलीन होने की अनुभूति, स्वागत का भाव, योनि खुलती हुई, स्पंदित होती, माधुर्य, ग्राहकता और प्रेमपूर्ण स्वागत-ऐसी ही घटना भीतर घटेगी। जब ऊर्जा जगती है तो वह ग्रहणशील और विश्रांत होगी, जैसे कि कोई मार्ग खुल रहा हो-वह सर्प के जागने जैसी घटना नहीं होगी, बल्कि एक मार्ग, एक द्वार के खुलने और मार्ग देने जैसी घटना होगी। यह पैसिव और निगेटिव घटना होगी। 

 पुरुषों के साथ ऐसा होता है जैसे कुछ प्रवेश कर रहा हो; स्त्रियों के साथ ऐसा नहीं होता जैसे कि कुछ प्रवेश कर रहा हो, बल्कि ऐसा होता है जैसे कि कुछ खुल रहा हो।

लेकिन पहले किसी ने इस पर कार्य नहीं किया, क्योंकि किसी ने स्त्रियों को कोई महत्व ही नहीं दिया। लेकिन भविष्य के लिए, मैं सोचता हूं कि अब यह अत्यंत आवश्यक है कि स्त्री के शरीर की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, बहुत कार्य और शोध की जरूरत है, लेकिन नैतिकतावादी और आदर्शवादी बकवासों के कारण वह कार्य कठिन है। स्त्रैण शरीर इस घटना में किस प्रकार प्रतिवेदित होगा, इस पर कार्य करना और इसकी एक रूप-रेखा तैयार करना बड़ा दुरूह कार्य है।
लेकिन मैं सोचता हूं कि ऐसा ही यह होगा : सब कुछ बिलकुल विपरीत होगा। ऐसा ही होना चाहिए। एक समान तो हो ही नहीं सकता। लेकिन आत्यंतिक घटना एक ही होगी।

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