यह तालानुकूल प्रसिद्ध संस्कृत छन्द है जिसका प्रयोग प्रायः गीतों और स्तुतियों में किया जाता है। इस छन्द की गणव्यवस्था है–फ़उलुन् फ़उलुन्फ़उलुन् फ़उलुन्
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सलगा सलगा सलगा सलगा (सकारचतुष्टय)
स्पष्ट है कि यह एक समवृत्त है। इसके हर मिसरे में चार गण, १२ मात्रायें तथा ३–३ पर चार यतियाँ होती हैं। जिसे संस्कृत के छन्दःशास्त्रियों ने ४ सगणों से युक्त "तोटक" नाम दिया है उसे फ़ारसी तथा उर्दू वालों ने "मुतदारिक मुसम्मन मख़बून (متدارک مثمّن مخبون)" इस नाम से अभिहित किया है। ध्यातव्य है कि इस छन्द को उर्दू छन्दःशास्त्र में “बह्रे हिन्दी” अर्थात् “भारतीय छन्द” के नाम से जाना जाता है। इसका कारण है कि यह मूल रूप में फ़ारसी छन्दःशास्त्र में नहीं था। यह फ़ारसी या उर्दू छन्दःशास्त्र पर स्पष्टतः भारतीय प्रभाव है।
उदाहरण–
१. चू रुख़त न बुवद गुले बाग़े इरम
चू क़दत न बुवद क़दे सर्वे चमन
२. सनमा बे ̆नुमा रुख़ो जान् बे ̆रुबा
कि तो ̆रा बुवद् ईन् बे ̆ह् अज़् आन् कि मरा (सलमान)
उपर्युक्त फ़ारसी शे,र प्रायः मसऊद सा,द सलमान (1046-1121 ई॰) का है जो लाहौर निवासी शुरुआती भारतीय फ़ारसी कवि थे। पुराने और पुरानी चलन के ईरानी फ़ारसी शाइरों में यह छन्द देखने में नहीं आया।
उर्दू में सामान्यतः इसका प्रयोग दुगुनी मात्राओं का प्रयोग करके किया जाता है। अर्थात् तब हर मिसरे में आठ गण तथा २४ मात्रायें हो जाती हैं–
उदाहरण–
१.न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम न इधर के रहे न उधर के रहे
गये दोनों जहाँ से ख़ुदा की क़सम न इधर के रहे न उधर के रहे
२.तेरे कुश्ता ए ग़म का है हाल बतर यही कहियो जो जाना हो तेरा उधर
तुझे क़ासिदे मौजे नसीमे सहर मेरे हिज्र के शब की बुक़ा की क़सम (हवस)
३. ये मुनादी है किश्वरे इश्क़ में अब कोई बुल्–हवस् उसमें रहा न करे
जो रहे भी तो साहिबे दर्द रहे कोई दर्द की उसके दवा न करे
संस्कृत का मूल तोटक छन्द एक वृत्त है। अर्थात् यह वर्णों के लघु एवं गुरु से भी नियन्त्रित होता है। जबकि इसे उर्दू में मात्रिक रूप में स्वीकार किया गया है। वस्तुतः संस्कृत इसका वृत्तीकरण होने से पहले और उसके बाद में भी लोक कण्ठ में इसकी धुन रही ही होगी। फ़ारसी में या उर्दू में यह छन्द लोक से ही लिया गया होगा। बहुत से लोक प्रसिद्ध गीतों की धुनों का अगर निरीक्षण करें तो उसमें इसी छन्द की आभा मिलेगी, जैसे “उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई अब रैन कहाँ जो सोवत है”।
माना जाता है कि सबसे पहले मीर तक़ी मीर या जा,फ़र ज़टल्ली ने इसके मात्रिक रूपों में शे,र लिखे इसलिए उर्दू वालों के बीच यह "बह्रे मीर" के नाम से भी प्रचलित है। उर्दू में मीर तक़ी मीर, नज़ीर अकबराबादी, इक़बाल, फ़ैज़,इंशा,फ़िराक़,मजरूह सुल्तानपुरी तथा इसके कुशल प्रयोक्ता हैं। ग़ालिब यद्यपि मीर के बाद मेंआते हैं लेकिन कहीं भी उन्होंने इस छन्द का प्रयोग नहीं किया। वे शिल्प की दृष्टि से बड़े ही शुद्धतावादी तथा फ़ारसी–पसन्द शाइर थे।
इसके मात्रिक प्रयोगों के कुछ उदाहरण इस तरह हैं–
१.उलटी हो गई सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया (मीर)
२.पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमाराजाने है। (मीर)
३. सबठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा (नज़ीर अकबराबादी)
४. मस्जिद तो बना ली शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने
मन अपना पुराना पापी था बरसों में नमाजी बन न सका (इक़बाल)
५. मुझसे कहा जिब्रीले जुनूँ ने ये भी वह्ये इलाही है (मजरूह)
५. किस हर्फ़ पे तूने गोशा ए लब ऐ जाने जहाँ ग़म्माज़ किया (फ़ैज़)
६. कुछ पहले इन आँखों आगे क्या क्या नज़ारा गुज़रे था
रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था (फ़ैज़)
तोटक की वार्णिकता अगर हटा दी जाए तो यह दोधक से जा मिलता है। दोधक और तोटक में मात्राएँ तो समान होती हैं लेकिन दोनों में लघु गुरु का वितरण अलग होता है। उपर्युक्त उदाहरणों को दोधक का मात्रिक रूप भी माना जा सकता है। वस्तुतः इन छन्दों की लय एक जैसी होती है। वार्णिकता का आश्रय लेकर जब इनका वृत्तीकरण किया जाता है तब ही यह अन्तर स्पष्ट हो पाता है। संस्कृत में इसका लक्षण निम्नवत् दिया गया है–
वद तोटकमब्धिसकारयुतम्।
प्रसिद्ध तोटकाष्टक – भव शङ्करदेशिक मे शरणम्, तथा बहुत से अन्य स्तोत्र इसी छन्द में निबद्ध है।
- पण्डित बलराम शुक्ल
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