वो ज्यों ही संकरे से रास्ते पर दाख़िल हुए उन्होंने अपने आप को एक चीनी इन्फ़ैंट्री कंपनी के बीच पाया. उसी समय उन्होंने देखा कि क़रीब एक दर्जन बंदूकों की नालें उन्हें घूर रही हैं.
ब्रिगेडियर दालवी ने अपनी घड़ी पर नज़र डाली. 22 अक्टूबर 1962 की सुबह के ठीक 9 बजकर 22 मिनट हुए थे. वो और उनके सात साथी चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के बंदी बन चुके थे. अब वो चेहरे पर चेचक के दाग वाले एक कड़क चीनी कैप्टन के रहम पर थे.
⭕️ब्रिगेडियर दालवी अपनी किताब 'हिमालयन ब्लंडर' में लिखते हैं, ''पिछले 66 घंटों से मैंने कुछ नहीं खाया था. मैं 10500 फ़ुट की ऊँचाई से और ऊपर 18500 फ़ुट तक चढ़ा था और फिर 10500 फ़ुट नीचे एक जलधारा की तरह उतर आया था. मैं थक कर चूर हो गया था और भूखा था. मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई थी. झाड़ियों के बीच चलते रहने और काँटेदार ढलानों पर फिसलने के कारण मेरे कपड़े तार तार हो गए थे.''
ब्रिगेडियर दालवी को चीनियों ने तिब्बत में सेथाँग कैंप में भारतीय सैनिकों से अलग बिल्कुल एकांत वास में रखा था. हमेशा महफ़िलों की शान रहने वाले दालवी कुछ दिनों में ही डिप्रेसन के शिकार हो गए थे.
चीनी कभी-कभी उनके साथ टेबिल-टेनिस, ताश और शतरंज खेलते थे. चीनियों के पास उन्हें पढ़ने देने के लिए कोई भी अंग्रेज़ी किताब नहीं थी. हफ़्तों बाद उन्हें एक कलम और लिखने के लिए कुछ कागज़ दिए गए थे.
ब्रिगेडियर दालवी
उनके बेटे माइकल दालवी बताते हैं, ''मेरे पिता उन काग़ज़ों पर उन किताबों के नाम लिखा करते थे जिन्हें वो पढ़ चुके हैं. वो उन फ़िल्मों के नाम भी लिखते थे जिन्हें वो देख चुके हैं. वो उन सारे अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के नाम लिखते थे जो उन्हें याद थे. हर हफ़्ते चीनी कमिश्नर आकर उन कागज़ों को फाड़ देता था.
खाने में उन्हें दिन के दोनों समय आलू दिया जाता था. हाँ क्रिसमस की रात को उन्हें चिकन खाने को दिया गया था. उन्होंने वो चिकन चीनी सैनिकों के साथ बाँट कर खाया था. महीने में एक बार उनके बाल काटे जाते थे. उनकी हज़ामत बनाने के लिए रोज़ एक नाई आता था. चीनियों को उन पर इतना विश्वास नहीं था कि वो उन्हें ख़ुद अपनी हज़ामत बनाने दें. अप्रैल 1963 में सारे भारतीय युद्धबंदियों को बीजिंग शिफ़्ट कर दिया गया.
चीन की जेल में ब्रिगेडियर दालवी
चीनी सरकार की कोशिश थी कि उन बंदियों को मे डे की परेड में हथकड़ियों और बेड़ियों के साथ चीनी जनता को दिखाया जाए. ब्रिगेडियर दालवी के कड़े विरोध के बाद चीनियों ने ये विचार छोड़ दिया.'
चीन की जेल में युद्धबंदी के तौर पर कर्नल के के तिवारी
कर्नल केके तिवारी की बेइज़्ज़ती
ब्रिगेडियर दालवी के तरह कर्नल के के तिवारी इतने भाग्यशाली नहीं थे.
बाद में मेजर जनरल बने कर्नल तिवारी ने अपनी मौत से पहले अपने पॉण्डिचेरी के घर में उस लड़ाई को याद करते हुए मुझे बताया था, ''एक चीनी अफ़सर ने मेरी वर्दी पर लगे रैंक को देख लिया था और वो मुझसे बहुत बेइज़्जती से पेश आ रहा था. मेरे पास ही पड़े एक घायल गोरखा सैनिक ने मुझे पहचान कर कहा, ''साब पानी.'' मैं कूद कर उसकी मदद करने के लिए आगे बढ़ा.''
''तभी चीनी सैनिक ने मुझे मारा और अपनी सीमित अंग्रेज़ी में मुझ पर चिल्लाया, 'बेवकूफ़ कर्नल बैठ जाओ. तुम क़ैदी हो. जब तक मैं तुमसे कहूँ नहीं तुम हिल नहीं सकते, वर्ना मैं तुम्हें गोली मार दूँगा.' थोड़ी देर बाद हमें नामका चू नदी के बगल में एक पतले रास्ते पर मार्च कराया गया. पहले तीन दिनों तक हमें कुछ भी खाने को नहीं दिया गया. उसके बाद पहली बार हमें उबले हुए नमकीन चावल और सूखी तली हुई मूली का खाना दिया गया.''
कर्नल के के तिवारी अपनी पत्नी मेजर कमला और बेटी लेफ़्टिनेंट उमा के साथ
पुआल को गद्दे की तरह किया इस्तेमाल
मेजर जनरल तिवारी ने मुझे आगे बताया, ''मुझे पहले दो दिनों तक एक अँधेरे और सीलन भरे कमरे में अकेले रखा गया. इसके बाद कर्नल रिख को मेरे कमरे में लाया गया जो बुरी तरह से घायल थे. हमें नाश्ता सुबह सात से साढ़े सात बजे के बीच मिलता था. दोपहर के खाने का समय था साढ़े दस से ग्यारह बजे तक. रात का खाना तीन से साढ़े तीन बजे के बीच दिया जाता था.''
''जिन घरों में हमें ठहराया गया था, उनकी खिड़कियाँ और दरवाज़े ग़ायब थे. शायद चीनियों ने उनका इस्तेमाल ईंधन के तौर पर कर लिया था. जब हमें अंदर लाया जा रहा था तो हमने देखा कि वहाँ पुआल का ढ़ेर लगा हुआ था. हमने चीनियों से पूछा कि क्या हम इनका इस्तेमाल कर सकते हैं. उन्होंने हमारी गुज़ारिश मान ली. इसके बाद तो हमने उस पुआल को गद्दे के तौर पर भी इस्तेमाल किया और कंबल के तौर पर भी.'
लता मंगेश्कर का गाना और बहादुरशाह ज़फ़र की गज़लें
चीनी जेलों में अपने दिनों को याद करते हुए मेजर जनरल तिवारी ने बताया, ''चीनी अक्सर पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर भारतीय संगीत बजाते थे. एक गाना बार-बार बजाया जाता था, वो था लता मंगेश्कर का 'आजा रे मैं तो कब से खड़ी इस पार' ये गाना सुन कर हमें घर की याद सताने लगती थी. हमें उस समय बहुत आश्चर्य हुआ जब एक दिन एक चीनी महिला ने आ कर हमें बहादुरशाह ज़फ़र की कुछ गज़लें सुनाईं. शायद ये उर्दू बोलने वाली महिला लखनऊ में कई सालों तक रही होंगी.''
1962 के युद्ध में चीन ने 3942 भारतीयों को युद्धबंदी बनाया था जबकि भारत के हाथ चीन का एक भी युद्धबंदी नहीं लगा था.
भारत ने 1951 में युद्धबंदियों से संबंधित जेनेवा समझौते पर दस्तख़त किए थे जबकि चीन ने जुलाई 1952 में इस समझौते को मान्यता दी थी.
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे सुरेंद्र चोपड़ा ने 'इंडियन जर्नल ऑफ़ पॉलिटिकल साइंस' के अक्टूबर, 1968 के अंक में 'साइनो - इंडियन बॉर्
डर कॉन्फ़्लिक्ट एंड द ट्रीटमेंट ऑफ़ प्रिज़नर ऑफ़ वार' शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने चीन में रहे एक भारतीय युद्धबंदी को कहते हुए बताया, ''जिस दिन मुझे पकड़ा गया, वहाँ मेरे साथ 15-16 और घायल सैनिक थे. उनको डॉक्टरी सहायता की तुरंत ज़रूरत थी. वो दर्द में चिल्ला रहे थे लेकिन चीनियों ने उनकी तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया. किसी भी घायल को पहले 48 घंटों में खाने के लिए कुछ भी नहीं दिया गया. उनकी दर्द भरी अपील के बावजूद उन्हें पानी की एक बूँद तक नहीं दी गई. ये जेनेवा समझौते की धारा 12-15 का घोर उल्लंघन था.'
चीनियों ने ली अतिरिक्त जानकारी
यही नहीं जेनेवा समझौते की धारा 17 के अनुसार बंदी बनाए जाने के बाद युद्धबंदी से सिर्फ़ उसका नाम, सेना रेजिमेंटल नंबर, पद नाम और जन्मतिथि पूछी जा सकती है. लेकिन चीनियों ने भारतीय युद्धबंदियों से एक फ़ॉर्म भरवाया जिसमें पूछा गया था-
1. आपके पास कितनी ज़मीन है?
2. आपके कितने घर हैं?
3. आपकी वार्षिक आय क्या है?
4. आपके परिवार में कितने सदस्य हैं?
5. आप किस राजनीतिक दल के समर्थक हैं?
6. आपने कितने देशों का दौरा किया है?
सुरेंद्र चोपड़ा लिखते हैं कि 'जब भारतीय सैनिकों ने ये जानकारी लेने का विरोध किया तो चीनियों ने कहा कि ये जानकारी आपकी अपनी सरकार ने आपकी पहचान के लिए मंगवाई है. इसके अलावा सैनिकों से सेना की तैनाती, उनके हथियारों और उनके अफ़सरों के बारे में भी पूछा गया जोकि जेनेवा समझौते का साफ़ उल्लंघन था.'
चीन के मोर्चे पर भारतीय सैनिक
जवानों को अफ़सरों की बेइज़्ज़ती के लिए उकसाया गया
जेनेवा समझौते की धारा 11 में कहा गया है कि युद्धबंदियों को दिया जाने वाला भोजन मात्रा, गुणवत्ता और भिन्नता में बंदी बनाने वाले देश के सैनिकों के समकक्ष होना चाहिए. लेकिन चीन में भारतीय युद्धबंदियों को प्रतिदिन 1400 कैलोरी से अधिक भोजन नहीं मिला जबकि वो भारत में प्रतिदिन 2500 कैलोरी भोजन के आदी थे.
भारत चीन की वो जंग जहां भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों को पछाड़ा था
इसके अलावा वरिष्ठ अधिकारियों की हर जगह बेइज़्ज़ती की गई. एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक हलफ़नामे में कहा, ''चीनियों ने हमसे बार-बार कहा कि अब हम अफ़सर नहीं रहे. उन्होंने हमारे जवानों से कहा कि उन्हें अपने अफ़सरों को सलाम करने की कोई ज़रूरत नहीं. बल्कि उन्होंने जवानों को अपने अफ़सरों के प्रति सम्मान दिखाने के लिए बढ़ावा दिया. जब भी हमारे जवान हमें सलाम करते चीनी उन पर चिल्लाते और कहते कि इनमें और तुममें कोई फ़र्क़ नहीं है. ये भी तुम्हारी तरह युद्धबंदी हैं. इसका एकमात्र उद्देश्य था हमारे सैनिकों में अनुशासनहीनता को बढ़ावा देना. हमसे हमारे जवानों के सामने राशन, ईंधन और पानी उठवाया जाता और कैंप में झाड़ू लगाने के लिए कहा जाता. कुछ जवानों पर चीनियों की इस मुहिम का असर भी पड़ा.''
ख़ून से सनी पट्टियों को धोकर दोबारा इस्तेमाल
2 राजपूत यूनिट के मेजर ओंकार नाथ दुबे को नामका छू की लड़ाई में 16 गोलियाँ लगी थीं. घायल हो जाने के बाद चीनियों ने उन्हें बंदी बना लिया था. उनके साथ 70 जवान लड़ रहे थे जिसमें से सिर्फ़ तीन जीवित बचे थे. इस समय वाराणसी में रहे मेजर दुबे को तिब्बत में ल्हासा के पास मार्माँग कैंप में युद्धबंदी के तौर पर रखा गया था.
उन दिनों को याद करते हुए मेजर ओंकारनाथ दुबे बताते हैं, ''टूटे हुए घरों में ही अस्पताल बना दिया गया था. वो नाम का ही अस्पताल था. वहाँ एक्स रे की कोई सुविधा नहीं थी. वहीं मेरे शरीर से 15 गोलियाँ निकाली गईं. जब मैं जनवरी 1963 में भारत वापस लौटा तो 16वीं गोली भारतीय सेना के डॉक्टरों ने निकाली. चीन में मेरे घाव में लगी ख़ून से सनी पट्टियों को पानी में उबालने और सुखाने के बाद दोबारा हमारे शरीर पर लगा दिया जाता था. उनके पास ताज़ी पट्टियाँ और रुई तक नहीं थी.''
मेजर ओंकार नाथ दुबे
मेजर दुबे आगे बताते हैं, ''हमें सोने के लिए एक चटाई दी गई थी जिस पर बिछाने के लिए बहुत पतला गद्दा दिया गया था. हमारी रज़ाइयाँ भी बहुत गंदी थीं और एक रज़ाई से हम कई लोग काम चलाते थे. खाना बहुत ही ख़राब था. चावल के साथ वहाँ की एक घास की सब्ज़ी दी जाती थी.'
मेजर ओंकारनाथ दुबे बताते हैं कि ''चीनियों का व्यवहार गोरखा सैनिकों के प्रति हम लोगों की तुलना में बेहतर था. उनको खाना भी हमसे बेहतर मिलता था.''
चीनी उनसे कहा करते थे कि नेपाली और चीनी भाई-भाई हैं. उन्होंने नेपाल को सीधे इन गोरखा युद्धबंदियों को वापस भेजने की पेशकश की थी जिसे नेपाल ने अस्वीकार कर दिया था.
मेजर ओंकार नाथ दुबे
हिंदीचीनी भाई-भाई का गाना
ब्रिगेडियर अमरजीत बहल 1962 में सेकेंड लेफ़्टिनेंट के पद पर काम कर रहे थे.
ब्रिगेडियर बहल ने मुझे बताया था, ''हमारी सारी गोलियाँ ख़त्म हो गई थीं. इसलिए हमें न चाहते हुए भी युद्धबंदी बनना पड़ा. चीनी सैनिकों ने मेरे सिर पर पिस्तौल का बट मारा और मेरी पिस्तौल छीन ली. फिर मुझे शेन ई युद्धबंदी शिविर में पहुंचाया गया. इस कैंप में करीब 500 युद्धबंदी थे. भारतीय जवान ही हमारा खाना बनाते थे. इसका एक फ़ायदा मुझे ये हुआ कि मुझे सुबह सुबह फीकी ब्लैक टी मिल जाती थी. खाने में हमें दोनों वक्त रोटी, चावल और मूली की सब्ज़ी ही दी जाती थी. वहाँ हर समय 'गूँज रहा है चारों ओर, हिंदी चीनी भाई भाई' - ये गाना बजता रहता था. ये गाना सुन सुन कर हमारे कान पक गए थे.''
ब्रिगेडियर बहल ने आगे कहा, 'युद्धबंदी के तौर पर सैनिकों के साथ सख्तियाँ भी होती हैं और मार पिटाई भी. मेरे साथ भी ऐसा हुआ लेकिन मैं उस समय जवान था इसलिए मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया.
चीनी सैनिक अधिकारी अनुवादक की मदद से भारतीय युद्धबंदियों से बात करते थे और उन्हें ये समझाने की कोशिश करते थे कि भारत अमरीका का पिट्ठू है लेकिन हम पर उसका कोई असर नहीं हुआ.
'फिर वो दिन भी आया जब बहल और उनके साथियों को छोड़ने का ऐलान हुआ. '
अमरजीत बहल सात महीने बाद चीनी युद्धबंदी शिविर से स्वदेश लौटे थे
बहल याद करते हैं, 'ये सुन कर हमें इतनी खुशी हुई कि समय काटे नहीं कटता था. अगले बीस दिन बीस महीने की तरह लगते थे. हमें गुमला में छोड़ा गया. सीमा पार करते ही हमने भारत की धरती को चूमा और बोला 'मातृभूमि ये देवतुल्य ये भारत भूमि हमारी.'
बहल ये बताते हुए काफ़ी भावुक हो गए और उनका गला रुंध गया. उन्होंने कहा भारत में कदम रखने के बाद उन्हें दुनिया की सबसे अच्छी चाय मिली. इसमें दूध भी था और चीनी भी और वो चाय उनके लिए अमृत की तरह थी.
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