कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला ददरी मेला गंगा की जलधारा को अविरल बनाये रखने के ऋषि-मुनियों के प्रयास का जीवंत प्रमाण है। गंगा के प्रवाह को बनाये रखने के लिये महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया था। इसके उपलक्ष्य में संत समागम से शुरू हुई परंपरा लोकमेला के रूप में आज तक विद्यमान है। इस बार 29 व 30 नवम्बर के मध्य रात्रि से बलिया में गंगा तट पर लाखों लोग आस्था की डुबकी लगाएंगे। इसके लिए प्रशासन मुस्तैद है। लोगों से कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करने की अपील की जा रही हैं। लोक आस्था के इस विशाल मेले का इतिहास बहुत प्राचीन है।
इस स्नान एवं मेले को महर्षि भृगु ने किया था प्रारम्भ
कार्तिक पूर्णिमा स्नान एवं ददरी मेले का इतिहास बताते हुए भृगु क्षेत्र महात्म्य के लेखक शिवकुमार सिंह कौशिकेय बताते हैं कि कार्तिक पूर्णिमा पर भृगु क्षेत्र में गंगा में स्नान करने पर वही पुण्य प्राप्त होता है जो पुष्कर और नैमिषारण्य तीर्थ में वास करने, साठ हजार वर्षों तक काशी में तपस्या करने से मिलता है। उन्होंने कहा कि यहां स्नान की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है। जीवनदायिनी गंगा के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से शुरू हुए इस स्नान एवं मेले को महर्षि भृगु ने प्रारम्भ किया था।
प्रचेता ब्रह्मा वीरणी के पुत्र महर्षि भृगु का मंदराचल पर हो रहे यज्ञ में ऋषिगणों ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की परीक्षा का काम सौंप दिया। इसी परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु ने क्षीर सागर में विहार कर रहे भगवान विष्णु पर पद प्रहार कर दिया। दण्ड स्वरूप महर्षि भृगु को एक दण्ड और मृगछाल देकर विमुक्त तीर्थ में विष्णु सहस्त्र नाम जप करके शाप मुक्त होने के लिये महर्षि भृगु के दादा मरीचि ऋषि ने भेजा।
इसी तट पर महर्षि भृगु ने की थी तपस्या
इस विमुक्त भूमि में ही महर्षि भृगु की कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर गयी तथा इसी गंगा तट पर उनके सूखे डंडे से कोपलें फूट पड़ी थीं। तब महर्षि ने यहीं तपस्या प्रारम्भ कर दी थी। कुछ समय बाद जब महर्षि भृगु को अपनी ज्योतिष गणना से यह ज्ञात हुआ कि कुछ काल खण्डों के बाद यहां गंगा नदी सूख जाएगी तब उन्होंने अपने शिष्य को उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित होने वाली सरयू नदी की धारा को यहां लाकर गंगा नदी के साथ संगम कराने का आदेश दिया था।
जब महर्षि भृगु के शिष्य ने अपने साथियों सहित सरयू नदी की धारा को अयोध्या से लाकर गंगा नदी से मिलाया तो घर्र-घर्र-दर्र-दर्र की आवाज निकलने लगी तब महर्षि भृगु ने यहां सरयू नदी का नाम घार्घरा यानी घाघरा और अपने शिष्य का नाम दर्दर मुनि रख दिया। उस काल खण्ड में यह बहुत बड़ा काम था अपने शिष्य के द्वारा दो नदियों के संगम कराने से हर्षित भृगु जी ने एक विशाल यज्ञ करवाया। जिसमें सारे एशिया महाद्वीप के लोगों ने भाग लिया। तब सारे लोगों ने इस संगम में स्नान किया और इस समारोह में भाग लिया। यह उत्सव महीनों चलता रहा। आज का ददरी मेला उसी परम्परा में हजारों वर्षों से चलता आ रहा है।
वर्तमान में भी दूर-दूर से आकर ऋषि-मुनि व गृहस्थ एक महीने तक कल्पवास करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन से करीब महीने भर तक मीना बाजार लगता है। जिसमें देश भर से दुकानदार आते हैं। कौशिकेय ने कहा कि महर्षि भृगु ने आज से सात हजार साल पहले गंगा की धारा को अविरल बनाये रखने के लिये जो प्रयास किया उसी कारण आज भी गंगा नदी यहां से लेकर बंगाल की खाड़ी तक प्रवाहमान है और इन क्षेत्रों में भूगर्भ जल एवं पर्यावरण संरक्षित है।
कार्तिक पूर्णिमा से पहले लगता है नंदीग्राम
ददरी मेला भारत का दूसरा सबसे बड़ा मवेशी मेला है। इसमें मुख्यतः पशुओं का क्रय-विक्रय किया जाता है। गधों की भी खरीद-विक्री होती है। सालों पहले तक गधों के मेले में रिश्ते भी तय होते थे। हालांकि, गधों की खरीद-बिक्री के साथ रिश्तों को तय करने की परंपरा अब समाप्त प्राय है।
चीनी यात्री फाहियान भी आया था ददरी मेले में
ददरी मेले की ऐतिहासिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चीनी यात्री फाहियान तक ने इस मेले का अपनी पुस्तक में जिक्र किया है, जिससे यह अन्दाजा लगाया जाता है कि फाहियान ददरी मेले में आया था।
तब राजाओं द्वारा ददरी मेले में चलाया जाता था अन्न क्षेत्र
त्रेता युग व द्वापर युग में भृगु क्षेत्र का यह भू-भाग सूर्य मण्डल के उत्तर कोशल राजवंश के अवध काशी एवं मगध वैशाली राज्यों का सीमांत क्षेत्र था, जिस पर महर्षि भृगु की शिष्य परम्परा के सन्यासियों का अधिकार था। प्रतिवर्ष होने वाले यज्ञ और ददरी मेले में इन चारों राज्यों के राजा व प्रजा आती थी। इन राजवंशों और भूपति परिवारों द्वारा अन्न क्षेत्र चलाया जाता था। इसका उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में मिलता है।
1884 से होता आया कवि सम्मेलन
ददरी मेले की एक और पहचान कवि सम्मेलन के रूप में है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पहली बार बलिया के इसी ददरी मेले के मंच पर 1884 में प्रस्तुति दी थी। उसके बाद हर साल भारतेंदु हरिश्चंद्र कला मंच पर देश के नामी-गिरामी कवियों की महफिल सजती रही है। इस समय काफी लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास भी कई बार यहां कविताएं प्रस्तुत कर चुके हैं। हालांकि, कोरोना के चलते इस बार कवि सम्मेलन का आयोजन स्थगित कर दिया गया है जिससे कविता प्रेमियों में मायूसी है।
(हिन्दुस्थान समाचार)
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