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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

गीता में समत्वयोग।।

गीता में समत्व का सर्वाधिक महत्व है । भगवान् ने इसे योग की स्वतन्त्र संज्ञा दी है—'समत्वं योग उच्यते (2:48) । संसार में विषमता है और यही विषमता दुःख का मूल है । यह विषमता किसी प्रकार संसार से मिटाई भी नहीं जा सकती हैं । दिन-रात, अन्धकार-प्रकाश, शीत-उष्ण, जन्म-मरण, सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि द्वन्द न समाप्त हुए हैं, न समाप्त होंगे। 

प्रत्येक स्थिति में भगवत् कृपा का दर्शन समत्व है । संत एकनाथ जी की पत्नी परमसाध्वी थी, इसके विपरीत संत तुकारामजी की पत्नी बड़ी ही दुर्विनीता और कर्कशा थी। मन्दिर में जाने पर एकनाथ जी भगवान् का उपकार यह कर कर मानते थे कि उन्हें स्त्री का संग नहीं सत्संग मिला है, उधर तुकारामजी कर्कशा प मिलने के कारण भगवान् का परम उपकार मानते थे । वे कहते थे कि हे भगवन् यहि आपने सुन्दरी और सुशीला पत्नी दी होती तो सारा दिन मैं उसी के पीछे लगा रहता और आपको भूल जाता । प्रतिकूलता को विचारों द्वारा अनुकूलता ढाल लेना समत्त्व दर्शन है । विचार करके देखा जाये तो कोई भी वस्तु आदि से अन्त तक आर-पार सुखार या दुःखप्रद नहीं है। सुख या अनुकूलता मिलने पर जो पहले प्रसन्नता देती हैं, में बिछुड़कर बाद में वही दुःख देती है। दुःख या प्रतिकूलता मिलने पर जो दुःख दें है तो बिछुड़कर सुख देती है। सुख दुःख में और दु:ख सुख में परिणत होता रहता है। संसार किसी के लिये न बदला है न बदलेगा । दृष्टि बदलने पर ही सृष्टि बदलेगी । को भी वस्तु पूर्णतया न सुखकर हैं, न दुःखकर है। यह मानना पड़ेगा कि जन्म-मरण, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मानापमान परस्पर पूरक हैं, दोनों आयेंगे और दोनों का समन भाव से स्वागत करना पड़ेगा। इसी समत्वभाव को मानस में इस प्रकार व्यक्त किया गया है

जनम मरन सब सुख दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय-मिलन वियोगा।। 1. काल करम बस होहिं गोसाईं । बरबस राति-दिवस की नाईं ।। सुख हरसहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ।। (मानस)

रामायण का यही 'सम' गीता का 'समत्व' है । ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग सभी साधना-पद्धतियों में समत्व का समान महत्त्व है । सखी वही है, ज्ञानी वही है, सही द्रष्टा वही है, सच्चा धार्मिक वही हैं, जिसके भावों-विचारों और दृष्टि में समता जो नष्ट होते हुए सचराचर प्राणियों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखत है, वही यथार्थ देखता है है।

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।
(गीता 13.27)

(पण्डित देवीसहाय पाण्डेयजी गीताज्ञानदीपिका पृ ४५)


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