(स्टीवन ली मेयर, एलन बेरी और मैक्स फिशर)
दैनिक भास्कर से विशेष अनुबंध के तहत
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हिमालयपर्वतशृंखला में भूटान से गुजरने वाले मार्ग डोकलाम पर चीन और भारत एक-दूसरे के सामने खड़े हुए हैं। दोनों देशों की अपनी स्थिति है, अपनी बातें और अपने-अपने दावे हैं। यह मामला केवल रोड बनाने का नहीं है। वहां भारत-चीन के अपने-अपने हित हैं। भारत उस क्षेत्र पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहता और चीन सड़क के बहाने आगे बढ़ना चाहता है। पिछला रिकॉर्ड देखें तो सीमा को लेकर भारत-चीन में संघर्ष भी हो चुका है। दोनों तरफ के वे सैनिक ऐसे देशों के हैं, जिसके लीडर विश्व मंच पर शक्ति-संपन्न दिखाई देते हैं।
अमेरिकन फॉरेन पॉलिसी काउंसिल में भारत-चीन संबंधों पर अध्ययन करने वाले स्कॉलर जेफ एम. स्मिथ कहते हैं कि बातचीत से ही समझौता का कोई रास्ता निकल सकता है। लेकिन क्या भारत-चीन का यह गतिरोध युद्ध में बदल सकता है, इस पर स्मिथ कहते हैं कि हां मैं ऐसा सोचता हूं। दोनों और के सैनिकों ने अपनी-अपनी जगहों पर पैर जमा लिए हैं, कोई पीछे खिसकने को राजी नहीं है। स्मिथ कहते हैं- यह स्थिति बिल्कुल 1962 से मिलती-जुलती है।
विवादकी स्थिति क्यों? : जमीनको लेकर इस तकरार की इबारत वर्ष 1890 के सीमा समझौते में ही लिख दी गई थी। भारत में 'ब्रिटिश काल' के शासन और चीन के आखरी 'चिंग राजवंश' ने वह समझौता किया था और उसमें अलग-अलग जगहों पर सीमाएं दिखाई गई थीं। उसके अनुसार एक बड़े हिस्से पर भूटान का नियंत्रण है, जहां भारत का उसे समर्थन और सैन्य सहयोग है - दूसरी तरफ चीन को दिखाया गया है। उसमें कुछ सीमा क्षेत्र विवादित है। डिप्लोमेट में एशियन अफेयर्स जर्नल के अंकित पन्डा कहते हैं कि सीमा चिन्हित करने की स्थिति ऐसी है जिस पर दोनों पक्षों के अपने-अपने दावे हैं।
कुछ देश चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं के कारण उससे सीधे सैन्य टकराव के लिए भी तैयार हैं। दोनों देशों के विशेषज्ञों का मानना है कि चीन के सड़क निर्माण पर भारत की प्रतिक्रिया के बड़े खतरे हो सकते हैं। हाल के महीनों में देखें तो भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी नेतृत्व क्षमता से यह प्रदर्शित किया है कि उन्हें चीन और उससेे किसी प्रकार के खतरे की कोई परवाह नहीं है।
सिलीगुड़ी कॉरिडोर भारत की नेरो स्ट्रिप है, जो करीब 32 किलोमीटर चौड़ी है। वही शेष भारत को पूर्वोत्तर से जोड़ती है। लंबे समय से भारत की चिंता का कारण यह नेरो स्ट्रिप है। भारत को आशंका है कि अगर युद्ध हुआ तो चीन इस कॉरिडोर को द्विभाजित कर सकता है। पूर्वोत्तर के उस हिस्से में 4.5 करोड़ भारतीय रहते हैं और भारत का वह हिस्सा पूरे यूनाइटेड किंगडम के बराबर है। भारत सरकार में शीर्ष स्तर के अधिकारियों ने तिब्बत सीमा पर दलाई लामा का केवल स्वागत किया, बल्कि यह भी कहा कि भारत की सीमा चीन से नहीं, बल्कि तिब्बत से मिलती है। बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा की वह अरुणाचल प्रदेश यात्रा थी, जिससे चीन का गुस्सा बढ़ गया। वह चाहता था कि भारत सरकार उस यात्रा को किसी भी तरह रद्द कर दे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
मई में भारत सरकार ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के अतिमहत्वाकांक्षी 'वन बेल्ट, वन रोड' प्रोजेक्ट के सिग्नेचर कार्यक्रम का बायकॉट कर दिया। भारत ने कहा कि उसकी मुख्य चिंताओं में संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता है, जिसका इस प्रोजेक्ट में ख्याल नहीं रखा गया है। सीमाओं को लेकर यह विवाद बढ़ने का एक और कारण वाशिंगटन में नरेंद्र मोदी की डोनाल्ड ट्रम्प से मुलाकात भी है। वहां की मुलाकात में एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव से भारत की होड़ पर मोदी ने ट्रम्प का समर्थन हासिल कर लिया।
पुस्तक '1962 : वॉर देट वाज़नॉट' के लेखक शिव कुनाल वर्मा कहते हैं- मुझे उम्मीद है कि भारतीय पक्ष अच्छी तरह जानता है कि वह क्या कर रहा है। यह हॉर्नेट के घोसले में हाथ डालने जैसी स्थिति है और वे उसके परिणाम से भलिभांति परिचित होंगे। चीनी पक्ष कह चुका है कि रोड बनाने का उनका आंतरिक मामला है क्योंकि यह चीन की आंतरिक सीमाओं में है। फिर हाल ही में चीनी विदेश मंत्री ने भारत को चेतावनी के रूप में दोहराया कि किसी भी सीमा वार्ता से पहले भारत को अपने सैनिक पीछे करने होंगे। उन्होंने थाईलैंड यात्रा के दौरान भारतीयों को सीधे संबोधित करतेे हुए कहा कि इस मुद्दे का समाधान बहुत सीधा-सा है, वह यह कि 'अपने आप से व्यवहार करें और विनम्रतापूर्वक पीछे हट जाएं'।
भूटन वर्ष 1971 में संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना था। तभी से उसके चीन के साथ किसी प्रकार के राजनयिक स्तर कं संबंध नहीं है, वह हमेशा ही भारत के करीब रहा है। खासतौर पर 20वीं सदी के मध्य में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद। काफी लंबे समय से भूटान में भारत की केंद्रीय भूमिका रही है, सालाना एक अरब डॉलर की आर्थिक सैन्य मदद भारत से भूटान को दिया जाती है। चीन
सीमा विवाद खत्म करने के लिए उसे अपनी ओर से लुभावने प्रस्ताव देने की कोशिशें करता है, जिसमें वहां भारी निवेश करके, उसकी भूमि का उपयोग करके अपना प्रभुत्व दिखाना चाहता है।
कुछ ही दिन पहले भूटान के विदेश मंत्रालय ने बयान में कहा कि चीन ने पुराने समझौता के उल्लंघन किया है, उसे अपनी जगह लौट जाना चाहिए। पूर्व आर्मी कर्नल एवं रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ अजय शुक्ला के अनुसार भूटान इस मामले की शुरुआत से ही असहज है। वह दोनों देशों की इस तकरार में बीच में आकर निशाना बनना नहीं चाहता। कुछ समय बाद चीन में कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस का बड़ा सम्मेलन है, जिसमें वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को दूसरा कार्यकाल दिया जा सकता है। विश्लेषकों के अनुसार शी जिनपिंग अपना नेतृत्व ज्यादा सशक्त दिखाने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए हो सकता है कि यह तकरार कुछ दिन और दिखाई दे।
भूटान के त्रिकोण वाली जगह डोकलाम के पठार पर भारत और चीन के सैनिक शून्य डिग्री से नीचे के तापमान में तैनात हैं। यह तैनाती सामान्य नहीं है। दोनों देश सैनिकों की वापसी पर अड़ गए हैं। यह गतिरोध सीमा क्षेत्र के अपने-अपने दावे के कारण बना है। उसका मूल कारण वर्ष 1890 का वह समझौता है, जो ब्रिटिश शासन ने चीनी राजवंश के साथ किया गया था। उसका उल्लंघन चीन कर सकता है, अपने दावों को खुद के द्वारा सही साबित करके।
दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश यात्रा, फिर नरेंद्र मोदी की वाशिंगटन यात्रा और 'वन बेल्ट, वन रोड' कार्यक्रम पर भारत के बायकॉट ने चीनी नेतृत्व को भड़काने का काम किया।
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