(डॉ. गौरीशंकर राजहंस)
हाल में जब नोबेल शांति पुरस्कार विजेता ‘ली शाओबो’ की कैंसर से असामयिक मृत्यु हो गई, तब पश्चिम की मीडिया में जोर शोर से यह आवाज उठी कि चीन में अब भी स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति पर कठोर नकेल सरकार ने डाली हुई है। ‘ली शाओबो’ को चीन की जेलों में कठोर यातनाएं दी गई थीं जिसके कारण जब लंबी अवधि के बाद उन्हें जेल से रिहा किया गया तो वे इस स्थिति में नहीं थे कि लोगों से बात भी कर सकते। जेल से निकलने के बाद डॉक्टरों ने बताया उन्हें कैंसर हो गया है।
‘ली’ की मृत्यु के बाद पश्चिम के मीडिया में यह आवाज उठ रही है कि आज भी चीन ने आम जनता को विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बिल्कुल नहीं है। 1949 में जब चीन की मुख्य भूमि पर साम्यवादियों का कब्जा हुआ था तब माओ-त्से-तुंग और चाउ एन लाई के नेतृत्व में साम्यवादी पार्टी की सरकार ने लोगों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बुरी तरह कुचल दिया था। जो भी व्यक्ति चीन की सरकार के खिलाफ आवाज उठाता था उसे ‘लेबर कैंप’ में भेज दिया जाता था, जहां उससे इतना कठोर काम कराया जाता था कि कुछ दिनों में ही उसकी मृत्यु हो जाती थी। बुद्धिजीवियों को साधारण श्रमिक की तरह सड़क और पुल बनाने का काम हर रोज 12 से 14 घंटे करना होता था। नतीजा यह होता था कि वे इस कष्ट को सहन नहीं कर पाते थे और असमय ही उनकी मृत्यु हो जाती थी।
जब चीन में ‘देंग’ सत्ता में आए तब उन्होंने निजीकरण का दौर शुरू किया और लोगों को बहुत हद तक विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी भी दी। परन्तु यह स्वतंत्रता भी बहुत सीमित थी। 2012 में जब चीन के सर्वशक्तिमान नेता ‘शी जिनफिंग’ सत्ता में आए तब उन्होंने यह घोषणा की कि चीन को अन्य देशों की तुलना में आगे बढ़ने के लिए आम जनता को ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ अवश्य मिलनी चाहिए। उन्होंने यह भी घोषणा की कि भविष्य में चीन में ‘रूल ऑफ लॉ’ होगा जिसका अर्थ है ‘कानून के मुताबिक सरकार चलेगी’ और आम जनता को न्याय मिलेगा। उन्होंने कहा कि सरकार मानवाधिकार का सम्मान करेगी और हर नागरिक को पूरी तरह समाज में समान अधिकार मिलेंगे तथा उन्हें स्वतंत्रता होगी कि वे अपने विचारों को बिना किसी भय के रख सकें। शी के इस उद्घोषणा के बाद चीन में उदारवाद की लहर एक बार फिर से उठी। सबसे अधिक प्रसन्नता उन वकीलों को हुई जो छोटे और मध्ययम वर्ग के लोगों के मुकदमों की पैरवी स्थानीय न्यायालयों में करते थे। इन वकीलों ने और उनके मुवक्किलों ने राहत की सांस ली। मगर देखते ही देखते ‘शी’ अपने वादों से मुकर गए और उन उदारवादी वकीलों को जेलों में भेजना शुरू कर दिया जो छोटे और मध्यम वर्ग की जनता के मुकदमों की न्यायालयों में पैरवी करते थे। ‘
शी’ ने कहा कि उन्होंने चीन के इतिहास का गहन अध्ययन किया है और वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यदि आम जनता और खासकर उदारवादी वकीलों को पूरी छूट दे दी जाए तो देश में अराजकता फैल जाएगी। चीन को सशक्त बनाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाना होगा। बिना हिचक के ‘शी’ ने कहा कि देश में सबसे ऊंचा स्थान कम्युनिस्ट पार्टी का है और जो पार्टी का आदेश नहीं मानेंगे उन्हें कठोर दंड दिया जाएगा।
अमेरिका के समाचारपत्रों में कुछ उदारवादी वकीलों की व्यथा-कथा प्रकाशित हुई है जो गरीब और मध्यम वर्ग की जनता का मुकदमा स्थानीय अदालतों में लड़ते थे और जिन्होंने यह पूरा प्रयास किया था कि चीन में ‘नागरिक अधिकार’ फिर से स्थापित हो जाए। इस सिलसिले में एक प्रमुख उदारवादी वकील ‘ली हेपिंग’ की कहानी अमेरिकी समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई है। ‘ली हेपिंग’ बिना किसी फीस के गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के मुकदमे स्थानीय न्यायालयों में लड़ा करते थे और खुलकर कहते थे कि चीन में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। चीन की सरकार को उनकी बातें बहुत नागवार गुजरी। ली हेपिंग को झूठा दोषारोपण करके 2015 में जेल में डाल दिया गया जहां कुछ दिनों पहले वे जमानत पर जेल से निकल पाए हैं। ‘ली हेंपिंग’ जो स्वस्थ और पहलवान की तरह दिखते थे उन्हें जेल में इतना कष्ट दिया गया कि दो वर्षो मे में वे बुजुर्ग की तरह नजर आते हैं। दबे स्वर में उन्होंने कुछ अमेरिकी संवाददाताओं को कहा कि उनके साथ जेल में सैकड़ों ऐसे वकील हैं जिन्होंने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्ष लिया था। परन्तु उन्हें चीन की निर्दयी सरकार ने कठोर दंड दिया है। कुछ लोग तो जेलों में ही मर गए। बचे खुले जो जेल से बाहर आए हैं वे अपना मुंह खोलने में डर रहे हैं।
चीन की जेलों में जो ‘विचारों की स्वतंत्रता’ की आवाज उठाने वाले वकील बंद हैं उनकी पत्नियों ने बार बार चीनी सरकार से आग्रह किया है कि उनके पति बेकसूर हैं और उन्हें शीघ्र रिहा किया जाए। पश्चिम के समाचारपत्रों में यह खबर प्रकाशित हुई है कि इनमें से अनेक महिलाओं को प्रताड़ित किया गया और उन्हें यह चेतावनी दी गई कि यदि उन्होंने मुंह खोला तो उनकी भी वही दशा होगी जो उनके पतियों की हो रही है। ‘ली हेपिंग’ को जब जेल से थोड़े दिनों के लिए रिहा किया गया तो उन्हें यह चेतावनी दी गई थी कि वे बाहर जाकर अपना मुंह नहीं खोलेंगे। दबे स्वर से उन्होंने अपने कुछ विश्वस्त मित्रों से कहा कि उन्हें महीनों तक जेल में कठोर सजा दी जाती थी। 24 घंटे में 12 घंटे उन्हें खड़ा रखा जाता था और पानी या खाना मांगने पर उनकी भरपूर पिटाई होती थी। इस कारण वे कई संगीन बीमारियों से ग्रस्त हो गए और अब उनके शरीर में इतनी ताकत नहीं है कि वे कुछ भी बोल सकें।
चीन की पुलिस सादे कपड़ों में ‘ली’ और उनके मुट्ठीभर सहयोगी जिन्हें थोड़े दिनों के लिए जमानत पर रिहा किया गया है, उनके घरों के आसपास मंडराती रहती है और इस बात की पड़ताल करती है कि कहीं ये वकील विदेशी मीडिया खासकर विदेशी समाचारपत्रों के संवाददाताओं से तो नहीं मिलते हैं। थोड़ा भी शक होने पर उन्हें फिर से जेलों में डाल दिया जाता है जहां उन्हें कठोर यंत्रणाएं भुगतनी पड़ती हैं। चीन सरकार का मानना है कि स्वतंत्र न्यायपालिका पश्चिमी देशों की उपज है। जरूरत है जनता के कल्याण की और वह तभी संभव है जब देश में कम्युनिस्ट पार्टी का राज हो। अब ऐसा लगता है कि ‘शी’ ने पहले ‘रूल ऑफ लॉ’ की जो बात कही थी वह अब पूरी तरह बेमानी हो गई है।
संक्षेप में, निकट भविष्य में चीन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक दिवास्वप्न’ बन कर रह जाएगी और लंबे अरसे तक चीन के उदारवादी लोग सरकार को उदारवादी रवैया अपनाने के लिए झुका नहीं सकेंगे। अब लंबे अरसे तक चीन की जनता यह भूल जाएगी कि वहां ‘विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी’, ‘मानवाधिकार’ या ‘नागरिक अधिकारों’ जैसी कोई बात थी।(दैनिक जागरण से आभार सहित )
(लेखक पूर्व सांसद हैं)
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