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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

शिक्षा की समस्याएं । ।

Unit 1:- प्रारंभिक शिक्षा की समस्याएं

🔥भारत में प्राथमिक शिक्षा की समस्याएं

भारत में शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख चुनौतियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। अभी भी भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता वाली प्राथमिक शिक्षा नहीं मिलती है और उनके पास कई अवसरों की कमी है। आजादी के 60 साल बाद भी भारतीय शिक्षा की गुणवत्ता में कोई बदलाव नहीं आया है। 70% भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और अभी भी शिक्षा के महत्व से अनजान हैं। भारत में अन्य देशों की तुलना में साक्षरता दर कम है।

1. अपर्याप्त इनपुट

भारतीय स्कूलों को सबसे बड़ी चुनौती अपर्याप्त इनपुट का सामना करना पड़ रहा है। अधिकांश राज्यों में, गुणवत्ता वाले शिक्षकों की कमी है। यहां तक कि पेशेवर प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए शिक्षक की कमी है। यदि शिक्षक ठीक से प्रशिक्षित हैं तो वे छात्रों की भी मदद कर सकते हैं। कम योग्य शिक्षक शिक्षण के स्तर को प्रभावित करते हैं। भारत में अध्यापन का पेशा कम आकर्षित करता है, या तो कम शिक्षा वाले लोग, गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले या इसे शौक के रूप में पढ़ाने वाले पेशे को अपनाते हैं।

शिक्षकों की मांग अधिक है और आपूर्ति कम। अभी भी कई स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी की समस्या है। आज भी भारतीय स्कूल शिक्षा के स्तर को बनाए नहीं रख रहे हैं। शिक्षक कक्षा में आता है, छात्र को पाठ्यक्रम पढ़ाता है, उज्ज्वल छात्र विषय को समझने में सक्षम हैं। लेकिन उन छात्रों के बारे में क्या है जो सिर्फ स्कूल आते हैं और शिक्षकों के शिक्षण स्तर को उठाते हैं। वे वापस रहते हैं और दो या तीन बार जारी रखते हैं या हमेशा के लिए स्कूल छोड़ देते हैं। ड्रॉपआउट छात्रों की दर भी अधिक है, वे अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। स्कूल को उन छात्रों के लिए कुछ पहल करनी चाहिए जिन्हें अतिरिक्त मदद की आवश्यकता है।

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2. अवसंरचना

ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों का बुनियादी ढांचा दयनीय स्थिति में है, भवन लगभग खंडहर हो चुके हैं, छत लीक हो रही है, शौचालय की कोई सुविधा नहीं है, कमरे बिना वेंटिलेशन के दम तोड़ रहे हैं।

3. उच्च शिक्षा लागत

कुछ अभिभावक स्कूल शिक्षा शुल्क वहन नहीं कर सकते, भले ही वे दूरस्थ क्षेत्र में या शहर में रह रहे हों। 70% भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और शिक्षा शुल्क वहन करना मुश्किल है। बहुत से भारतीय गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं।

4. शिक्षकों का वेतन और प्रोत्साहन

उन प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के लिए वेतन और प्रोत्साहन उचित है, ताकि उन्हें सही तरीके से पढ़ाने के लिए प्रेरित किया जा सके। मजदूरी इतनी कम है कि शिक्षक लगभग पदावनत हो जाते हैं और इस तरह वे अपने शिक्षण कौशल को दिखाने के लिए कोई प्रयास नहीं करना चाहते हैं। शिक्षण उन स्कूलों में समाज सेवा करने जैसा हो जाता है।

5. शिक्षा की गुणवत्ता

पूरे भारत में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता कायम नहीं है। प्राथमिक शिक्षा में अनुशासन, समय की पाबंदी और प्रेरणा की कमी है। छात्रों को स्कूलों से उचित और पूर्ण शिक्षा नहीं मिलती है, इसलिए माता-पिता निजी ट्यूशन का विकल्प चुनते हैं और इससे छात्रों पर अधिक दबाव पड़ता है। चौथी कक्षा के छात्र शायद ही पैराग्राफ पढ़ने में सक्षम हों और वे अपने स्कूल स्तर तक नहीं हैं।

6. शिक्षक और शिक्षण योग्यता

उन प्राथमिक स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों में शिक्षण कौशल और योग्यता की कमी होती है, उन स्कूलों में शिक्षण के लिए एक अच्छे शिक्षक का चयन करने का कोई ठोस आधार नहीं होता है, वास्तव में एक शिक्षक ग्रेड 1-5 से सभी कक्षाओं को संभालता है और यहां तक ​​कि शिक्षण में भी। कुछ स्कूलों में शिक्षक भी प्रिंसिपल होते हैं। कुछ शिक्षक स्वयं इतने गूंगे और अनभिज्ञ होते हैं जिसके परिणामस्वरूप छात्रों की सीखने की क्षमता में गिरावट आती है।

7. किताबें, स्टेशनरी और अन्य सुविधाएं

उन प्राथमिक स्कूलों के लिए धन की कमी है, जिससे छात्रों को आवश्यक किताबें, स्टेशनरी और अन्य शैक्षिक सामग्री नहीं मिलती है।

8. साक्षरता दर

भारत में हर राज्य की अलग-अलग भाषाएँ, अलग-अलग रीति-रिवाज़ और अलग-अलग संस्कृति हैं। कुछ समाजों में महिलाओं के लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है। इससे बच्चे शिक्षा के लाभ से भी दूर रहते हैं। यदि माता शिक्षित होती है तो निश्चित रूप से बच्चों को भी उचित शिक्षा मिलती है। बच्चों को अनपढ़ माता-पिता से प्रेरणा कम मिलती है और वे पीछे रह जाते हैं। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग अपने बच्चों को उनके कार्यस्थल पर ले जाते हैं ताकि वे अपने माता-पिता के लिए दैनिक मजदूरी कमा सकें। भारतीय स्कूलों को अनपढ़ वयस्कों को भी पढ़ाने के लिए कुछ पहल शुरू करनी चाहिए।

9. भाषा का मुद्दा

भारत में 1500 भाषाएं हैं और प्रत्येक छात्र को अपनी भाषा में पढ़ाना एक शिक्षक के लिए एक मुश्किल काम है। शहरी क्षेत्रों में माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम पसंद करते हैं, अब दूरदराज के क्षेत्रों में भी अंग्रेजी माध्यम पसंद किया जाता है। शिक्षकों को पढ़ाना और छात्रों के लिए ज्ञान को समझाना बड़ी चुनौती है। इसके कारण अभिभावक और बच्चे समझने में विफल होते हैं। कई एजुकेशनल इंस्ट्रक्टर सोचते हैं कि अगर हर छात्र को मातृभाषा में शिक्षा दी जाए तो इससे छात्रों को फायदा होता है। भारत सरकार में पूर्ण साक्षरता प्राप्त करने के लिए कुछ और पहल करनी चाहिए। सरकार को शिक्षा के महत्व के बारे में लोगों में अधिक जागरूकता पैदा करनी चाहिए। तब केवल भारत का ही एक अलग चेहरा होगा।

10. बच्चों के सीखने के कौशल

छात्रों के सीखने के कौशल को बहुत कम और कमजोर पाया जाता है, छात्रों को प्रेरित नहीं किया जाता है और सीखने के लिए कुछ भी नया नहीं है, और इसके अलावा शिक्षकों को भी शिक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं है, इसलिए छात्रों में ज्ञान और जागरूकता की कमी होती है। । कुछ ग्रामीण स्कूलों में हालत इतनी भयानक है कि पाँचवीं कक्षा के छात्रों को भी नहीं पता कि उनका नाम कैसे लिखा जाए।

11. प्राथमिक विद्यालय की संख्या कम

ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या कम है, स्कूलों की लंबी दूरी की वजह से रहने वाले क्षेत्रों से अभिभावक अपने बच्चों को स्कूलों में भेजना पसंद नहीं करते हैं। लड़कियों को पढ़ाई के लिए दूर-दूर तक जाने की अनुमति नहीं है।

 Unit 2:- माध्यमिक शिक्षा की समस्याएं

🔥माध्यमिक शिक्षा की समस्यायें एवं उनका समाधान

(Problems Secondary Education and their Remedies)

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत, माध्यमिक शिक्षा में सुधार करने हेतु विभिन्न आयोगों का गठन किया गया, जिन्होंने इस सम्बन्ध में अपने-अपने सुझावों को प्रस्तुत किया, लेकिन फिर भी विभिन्न समस्यायें माध्यमिक शिक्षा के विकास में बाधक बनी हुई हैं, जिनके कारण माध्यमिक शिक्षा दोषपूर्ण है। ये समस्यायें एवं उनके समाधान के सुझाव निम्नलिखित हैं-

(1) उद्देश्यहीनता की समस्या-

माध्यमिक विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को शिक्षण के सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी नहीं होती है और न ही इसके लिए वे कोई नियोजित प्रय न कर पाते हैं। इसी कारण वे बालकों में वांछनीय परिवर्तन करने में असफल रहते हैं। उद्देश्य न होने के कारण बालकों का भविष्य भी अधंकारमय रहता है। उद्देश्यहीनता की समस्या के समाधान के लिए माध्यमिक स्तर की शिक्षा का उद्देश्य निश्चित किया जाये तथा शिक्षा को एक स्वतंत्र इकाई बनाया जाये।

मुदालियर आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(i) व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि की जायें।

(ii) बालकों की नेतृत्व शक्ति का विकास किया जायें।

(iii) बालकों में लोकतांत्रिक नागरिकता का विकास किया जायें।

(iv) बालकों के व्यक्तित्व का विकास किया जाये।

(2) शिक्षा की दोषपूर्ण नीति-

ज्ञान को भली प्रकार से छात्रों तक पहुँचाने की शिक्षण विधियाँ महत्त्वपूर्ण साधन हैं। परन्तु आज भी हमारे देश में अधिकांश माध्यमिक विद्यालयों में परम्परागत शिक्षण विधियों का ही प्रयोग किया जाता है। नवीन शिक्षण विधियों से शिक्षक तथा छात्र दोनों ही अनभिज्ञ है।

शिक्षा की दोषपूर्ण नीति को समाप्त करने के लिए छात्र व शिक्षक को नवीन शिक्षण विधियों से परिचित कराया जाये तथा नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाये।

(3) अपर्याप्त पाठ्य-पुस्तकें-

माध्यमिक स्तर पर प्रकाशित अधिकांशत: पाठ्य-पुस्तकें ऐसी हैं, जिनसे छात्र स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं करते हैं। अवबोधनीय, सरल तथा स्पष्ट भाषा का इन पाठ्य-पुस्तकों में अभाव पाया जाता है। पाठ्य-वस्तु को वांछित रूप से न समझ पाने के कारण अधिकांश छात्र पाठ्य-वस्तु को रट लेते हैं। यदि रटे हुए प्रश्न परीक्षा में नहीं आते हैं तो वे अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।

मुदालियर तथा कोठारी आयोग ने अपर्याप्त पाठ्य-पुस्तकों में सुधार करने के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-
 
(i) पाठ्य-पुस्तकें शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होनी चाहिये।
 
(ii) पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण छात्रों की बौद्धिक योग्यता तथा कक्षा की परिस्थिति के अनुसार किया जायें।

(iii) पाठ्य-पुस्तकों की भाषा सरल तथा स्पष्ट हों।

(iv) पाठ्य-पुस्तकों के चयन, निर्माण तथा प्रकाशन के लिए एक समिति का गठन किया जाये जिसका सभापतित्व शिक्षा संचालक करें।

(4) व्यावसायीकरण की समस्या-

औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आज माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण करना अत्यन्त आवश्यक है। कोठारी आयोग के अनुसार- “इस शिक्षा को विस्तृत पैमाने पर व्यावसायिक बनाया जाये तथा 1968 तक व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की विद्यार्थी संख्या का बीस प्रतिशत व उच्चतम माध्यमिक स्तर की समग्र विद्यार्थी संख्या का पचास प्रतिशत कर दिया जायें।” परन्तु विभिन्न आयोगों द्वारा प्रस्तुत सुझावों के उपरांत भी आज शिक्षा के व्यावसायीकरण में कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए हैं।

व्यावसायीकरण की समस्या के समाधान के लिए माध्यमिक स्तर पर दो प्रकार की व्यवस्था की जायें-
 
(i) सामान्य शिक्षा तथा (ii) व्यावसायिक शिक्षा। इन दोनों स्तरों पर एक से तीन वर्ष तक व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जायें। माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण के लिए धनी व्यक्तियों से शिक्षा कर लिया जाये। छात्रों को व्यावसायिक केन्द्रों में ले जाकर उन्हें व्यावसायिक ज्ञान प्रदान किया जायें तथा व्यावसायिक शिक्षा की प्राप्ति के पश्चात् उन्हें रोजगार दिलाने का हर संभव प्रयास किया जाये।

(5) अवांछित विद्यालयों की वृद्धि-

भारत में सरकारी तथा गैर-सरकारी दोनों प्रकार के माध्यमिक विद्यालय हैं। शिक्षा विस्तार के साथ अनेक अवांछित विद्यालयों में वृद्धि हुई है। इन विद्यालयों में छात्रों से अधिक फीस ली जाती है। शिक्षकों से अधिक वेतन लिखवाकर उन्हें कम वेतन दिया जाता है।

अवांछित विद्यालयों की वृद्धि की समस्या का समाधान करने के लिए सरकार को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिये-

(i) देश के सभी अवांछनीय विद्यालय बन्द कर दिये जायें।

(ii) सरकार के द्वारा माध्यमिक शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जायें, जिससे इन विद्यालयों के प्रबंधक लाभ न उठा सकें।

(6) दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली-

माध्यमिक स्तर की परीक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। यह परीक्षा प्रणाली छात्रों में अनुशासनहीनता को बढ़ावा देती है। अधिकांश छात्र नकल की ओर आकर्षित होते हैं तथा शिक्षक भी शिक्षण के प्रति लापरवाही दिखाते हैं। प्रश्न-पत्रों में लघु तथा वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का अभाव रहता है।

दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली की समस्या के समाधान हेतु मुदालियर आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(i) बाह्य परीक्षायें कम होनी चाहिये।

(ii) बाह्य तथा आन्तरिक परीक्षाओं के कार्यों का मूल्यांकन अंकों के स्थान पर ग्रेडों द्वारा किया जाये।

(iii) परीक्षा में केवल निबन्धात्मक प्रश्न ही नहीं पूछे जायें।
 
(iv) विद्यालय में प्रत्येक छात्र का एक विद्यालय अभिलेख हो जिसमें छात्र द्वारा अनेक क्षेत्रों में प्राप्त की गयी सफलताओं का वर्णन किया जाये।

(7) विस्तार की समस्या-

हमारे देश में आज माध्यमिक विद्यालयों में छात्रों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। छात्रों की संख्या के अनुपात में विद्यालयों की संख्या कम है। इसी कारण एक-एक कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या 70 से अधिक होती जा रही है जिससे शिक्षक प्रत्येक छात्र पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। माध्यमिक शिक्षा के गुणात्मक विकास की दृष्टि से विस्तार की समस्या एक गंभीर समस्या बनी हुई है।

विस्तार की समस्या के समाधान हेतु विद्यालयों की संख्या में वृद्धि की जायें। एक-एक कक्षा में कम विद्यार्थी बैठाये जायें जिससे शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी पर ध्यान दे सकें।

(8) पाठ्यक्रम की समस्या-

माध्यमिक स्तर की शिक्षा दोषपूर्ण है। समस्त विद्यार्थी निर्धारित और परम्परागत पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा प्राप्त करते हैं। छात्रों को अपनी रूचि तथा मानसिक योग्यता के अनुसार विषय-चयन के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं जिससे वे अभिवृत्तियों तथा मौलिक विचारों के अनुरूप शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

पाठ्यक्रम की समस्या के समाधान के लिए मुदालियर आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-
 
(i) पाठ्यक्रम छात्रों को प्रेरित करने वाला होना चाहिये।

(ii) पाठ्यक्रम छात्रों की विभिन्न योग्यताओं तथा क्षमताओं का विकास करने वाला होना चाहिये।

(iii) पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिय।

(iv) पाठ्यक्रम के संपूर्ण विषयों में परस्पर सम्बन्ध होना चाहिये।

(v) छात्रों को उनकी रुचि के अनुसार विषयों के चयन का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।

(9) शिक्षकों की स्थिति-

माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षण कार्य करने वाले अनेक शिक्षक आज भी अप्रशिक्षित हैं। इनमें से अधिकांश शिक्षकों की शिक्षण कार्य में रूचि नहीं होती और जिनकी रूचि होती है वे कम वेतन के कारण अपना कार्य निष्ठापूर्वक नहीं कर पाते हैं। इन सब बातों का प्रभाव विद्यार्थियों के शैक्षिक जीवन पर पड़ता है, फलस्वरूप उनका भविष्य अंधकारपूर्ण हो जाता है।

इस समस्या के समाधान हेतु शिक्षकों को शिक्षण कार्य के लिए प्रशिक्षित किया जायें। शिक्षकों का वेतन बढ़ाया जायें जिससे उनकी इस व्यवसाय में रूचि उत्पन्न हो तथा वे अपना कार्य निष्ठापूर्वक कर सकें।

(10) सामुदायिक जीवन का अभाव-

भारत के अधिकांश माध्यमिक विद्यालयों में सामुदायिक जीवन का अभाव पाया जाता है, क्योंकि इन विद्यालयों में सामाजिक कार्यों का आयोजन नहीं किया जाता है। परिणामस्वरूप छात्रों में परस्पर प्रेम, सद्भाव और सहयोग की भावना का विकास नहीं हो पाता है और न ही उनमें सामुदायिक जीवन की भावना का विकास हो पाता है। ये विद्यालय छात्रों को उत्तम नागरिक बनाने तथा उनमें सुंसगठित सामुदायिक जीवन व्यतीत करने की भावना का विकास करने में असमर्थ हैं। परिणामस्वरूप इन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् छात्र देश के कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिक नहीं बन पाते हैं।

Unit 3:- उच्च शिक्षा की समस्या

🔥भारत में उच्च शिक्षा की समस्यायें

(Problem of Higher Education)

शिक्षा के विभिन्न स्तर हैं। इनमें से प्रत्येक स्तर के अपने उद्देश्य तथा लक्ष्य होते हैं।

प्रो० हुमायूँ कबीर के शब्दों में, “अनेक बार यह कहा गया है कि विश्वविद्यालयों में जो शिक्षा दी जाती है, वह व्यक्ति को व्यावहारिक शिक्षा प्रदान नहीं करती हैं। विशेषत: यह कहा जाता है कि विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकलने वाले विद्यार्थियों में शारीरिक श्रम तथा ग्रामीण जीवन के प्रति अरुचि हो जाती है। इस प्रकार विश्वविद्यालय एक ऐसा अभिकरण बन गया है जो गाँवों के योग्य तथा होनहार युवकों को शहर से खींच लाते हैं, लेकिन इस प्रकार गाँवों की हानि होती है, उनसे शहरों को लाभ होता है ऐसी बात नहीं है। गाँवों के छोटे-से समाज में नेता बनने के बजाय जो अत्यन्त सहजता से बन सकते थे, वे शहर की अज्ञात जनसंख्या के एक हताश और कटु भावना से भरे सदस्य बन जाते हैं।”

 
इस दृष्टि से शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्यायें हैं, जो निम्नलिखित है-

(1) दोषपूर्ण पाठ्यक्रम-

पाठ्यक्रम की समस्या, उच्च शिक्षा से सम्बन्धित एक गंभीर समस्या है। अनेक विद्यालयों में परंपरागत पाठ्यक्रम दिखाई देते हैं। उनकी पाठ्य-सामग्री से कुछ उद्देश्यों को संकेत नहीं मिल पाता और उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम भी छात्रों की रुचि, मनोवृत्ति और अभिरुचि के अनुरूप नहीं है। एन० सी० ई० आर० टी० इस सम्बन्ध में बिल्कुल अनभिज्ञ है कि किस विषय विभाग में किस स्तर पर पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया है।

(2) विस्तार की समस्या- 

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पंचवर्षीय योजनाओं एवं विकास क्रम के अंतर्गत अनेक कॉलिजो तथा विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी है। इससे दिन प्रतिदिन उच्च शिक्षा में विस्तार से अनेक दुष्परिणाम सामने आये हैं, जैसे-शिक्षित बेरोजगारी, अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या, उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट, उपयुक्त शैक्षणिक प्रशिक्षण का अभाव, प्रवेश की समस्या आदि।

(3) शिक्षा के माध्यम की समस्या- 

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी भारत में अनेक विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। आज के नवयुवक अंग्रेजी को अधिक महत्त्व दे रहे हैं, वे अंग्रेजी भाषा से होने वाली हानि तथा अहित को नहीं समझ पा रहे हैं। गाँधी जी के अनुसार-“विदेशी माध्यम ने राष्ट्र की शक्ति को क्षीण कर दिया है। उसने व्यक्तियों की आय को कम कर दिया है, उसने उन्हें जनसाधारण से अलग कर दिया है तथा इसने शिक्षा का अनावश्यक रूप से महँगी बना दिया है।”

(4) शिक्षा का गिरता हुआ स्तर-

उच्च शिक्षा के स्तर गिरने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-7

(i) कक्षा में छात्रों को अत्यधिक संख्या होना।

(ii) शिक्षकों द्वारा छात्रों पर ध्यान न देना।

(iii) पुस्तकालयों में अध्ययन की समुचित व्यवस्था न होना।

(iv) शिक्षा का व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित न होना।

(v) शिक्षकों को वेतन कम देना।

(vi) शिक्षकों द्वारा शिक्षण कार्य में रुचि न लेना।

(5) दोषयुक्त परीक्षा प्रणाली-

आज उच्च स्तर पर निबन्धात्मक परीक्षायें आयोजित की जाती है। इससे छात्रों की योग्यता के सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं मिल पाती है। इसका कारण यह है कि इन परीक्षाओं में रटकर ही छात्र उत्तीर्ण हो जाते हैं। फलस्वरूप शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती है। राधाकृष्णन् आयोग के अनुसार-“यदि हम विश्वविद्यालय शिक्षा के मात्र एक विषय में सुधार का सुझाव दें तो वह परीक्षाओं के सम्बन्ध में होगा।”

(6) मार्ग प्रदर्शन तथा समुपदेशन की समस्या-

भारतवर्ष की उल्ला शिक्षा में विद्यार्थियों के मार्ग दर्शन तथा परामर्श की कोई व्यवस्था नहीं है। परामर्श तथा मार्ग दर्शन के अभाव में अधिकतर विद्यार्थी ऐसे विषयों का चयन कर लेते हैं। जिनसे वे उचित ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उचित ज्ञान प्राप्त न कर पाने के कारण वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं। फलस्वरूप की भावना का जाती है। इस सम्बन्ध में धर्मयुग में प्रकाशित एक लेख में लिखा है- “देश में यह तो यह जानने की सुविधा बहुत कम है कि कौन बालक किस विषय का अध्ययन करने की क्षमता रखता है। इस प्रकार के परीक्षण हमारे देश में उच्च शिक्षा में नहीं है। दूसरे, अभिभावक इस तरह का परामर्श मानने को तैयार नहीं है। लड़के की सामर्थ को बिना समझे यह निश्चित कर लिया जाता है कि उसे क्या बनाएंगे?”

(7) अनुशासनहीनता की समस्या-

विश्वविद्यालयों में अनुशासनहीनता के लिए छात्र तथा शिक्षक दोनों ही उत्तरदायी हैं। प्रवेश को लेकर कुलपति का घेराव, तोड़-फोड़, आगजनी आदि घटनायें घटित होती रहती हैं, परिणामस्वरूप कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को अनिश्चित काल के लिए बंन्द करना पड़ता है। उच्च शिक्षा पर कुछ राजनीतिक तथा सामाजिक वर्गों का प्रभाव पड़ रहा है। फलस्वरूप छात्र वर्ग का अन्य वर्गों के साथ संघर्ष बढ़ रहा है। आजकल अध्यापकों से दुर्व्यव्हार, परीक्षा में नकल को लेकर होने वाली हिंसा, अनैतिकता, अनुशासनहीनता इसके ज्वलंत प्रमाण हैं।

(8) उद्देश्यहीनता की समस्या-

उद्देश्यहीनता उच्च शिक्षा की अत्यन्त गंभीर समस्या है। उद्देश्यहीनता की समस्या के कारण छात्रों का भावी जीवन अंधकारमय प्रतीत हो रहा है। आज का छात्र समाज का मात्र चेतनाहीन सदस्य बनकर ही रह गया है। इसका मुख्य कारण किसी विशिष्ट उद्देश्य से शिक्षा प्राप्त न करना है। इस सम्बन्ध में गुन्नार मिरडल ने लिखा है- “विश्वविद्यालयों की उपाधियाँ, सरकारी नौकरियों हेतु पासपोर्ट थीं। शिक्षा, शिक्षार्थियों को नौकरी हेतु न कि जीवन हेतु तैयार करने के संकीर्ण उद्देश्य से दी जाती है।”

(9) शिक्षा में विशिष्टीकरण की समस्या-

उच्च शिक्षा में विभिन्न विषयों के विशिष्टीकरण पर जोर दिया जाता है। फलस्वरूप किसी विषय में दक्षता प्राप्त करने के पश्चात् छात्रों का दृष्टिकोण अत्यन्त संकीर्ण बन जाता है। इस सम्बन्ध में श्री सैयदेन ने लिखा है-“विशिष्टीकरण में एक तरह की संकीर्णता अकाल्पनिकता होती है, जिसका परिणाम यह होता है कि विज्ञान वर्ग के शिक्षार्थियों को कला, कविता तथा सामाजिक तथा राजनैतिक समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता विज्ञान और वैज्ञानिक विधियों ने इस संसार को, जिससे वे रहते हैं, किस तरह बदल दिया है?”

(10) अनुसंधान की समस्या-

आज भारतवर्ष में ऐसे अनेक विश्वविद्यालय हैं, जिनमें अनुसंधान की समस्या अत्यधिक गंभीर समस्या है। इसका मुख्य कारण यह है कि आज विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं और कार्यशालाओं का अभाव है। आज प्रत्येक छात्र एम० ए० (स्नातकोत्तर) परीक्षा पास करने के उपरान्त अनुसंधान कार्य करना चाहता है। इसी कारण अनुसंधान की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है।

(11) छात्र संघ तथा छात्र समितियों की समस्या-

उच्च स्तर पर छात्र संघ की समस्या भी अत्यधिक गंभीर समस्या बनी हुई है। छात्र संघ, प्रधानाचार्यो तथा प्रबन्धकों के कार्यों में अपना हस्तक्षेप करते हैं। वर्तमान युग में छात्र संघ विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में अभिशाप सिद्ध हुए हैं।

Unit 4:- भारतीय शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारक

🔥शिक्षा का उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारक(shiksha ke uddeshya ko prabhavit karne wale karak)

शिक्षा का उद्देश्य व्यापक होता है तथा उनके उद्देश्य विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है जो निम्नलिखित है:

१. दार्शनिक कारक

२. सांस्कृतिक कारक

३. समाजशास्त्रीय कारक

४. आर्थिक कारक

५. राजनीतिक कारक

६. पर्यावरणीय कारक

७. नैतिक कारक

८. धार्मिक कारक

९. वैज्ञानिक तथा उद्योगिकी कारक

१०. भविष्य की मांगे


१. दार्शनिक कारक :-

विभिन्न काल में समाज का उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्यों को विभिन्न दार्शनिक सिद्धांत प्रभावित करते रहते हैं, जिसके कारण शिक्षा के उद्देश्य निरंतर बदलते रहते हैं। तथा शिक्षा के उद्देश्यों को आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित किया जाता रहता है। जैसे बौद्ध काल में भगवान बुध की दर्शनिक और धार्मिक शिक्षाएं फैली थी तथा बड़े-बड़े समाज था। शासक अशोक कनिष्ठ भी उससे प्रभावित हुए थे अत: उस समय शिक्षा का उद्देश्य बौद्ध दर्शन को प्रसारित करना था तथा हिंदू धर्म में चली आ रही जातिवाद, छुआछूत स्त्रियों के प्रति दासता अंधविश्वास का विरोध करना या मुस्लिम काल में इस्लाम धर्म के जो भी शासक हुए उनका शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रसार करना था। अतः कह सकते हैं कि जिस काल में जिस प्रकार के दार्शनिक आए तथा उन्होंने जिस प्रकार से उद्देश्य दिए उसी का प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ा।

२. सांस्कृतिक कारक :-

 प्रत्येक समाज की अपनी विशेष संस्कृति होती है, उसके विशेष आदर्श मूल्य प्रतिमान मान्यताएं रीति रिवाज और जीवन शैली होती है, नई पीढ़ी को उसमें डालने शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना जाता है। अतः शिक्षा समाजीकरण का प्रमुख साधन है, जिसके द्वारा संस्कृति के अनुसार ही गुरुकुल ओ और आश्रमों में गुरु अपने विद्यार्थी को शिक्षा देते हैं। विश्व भर में ईसाइ संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति के अनुसार ईसाई शिक्षा और मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य प्रभावित हुए 20 वी शताब्दी एवं 21वीं शताब्दी में धर्म निरपेक्षता से प्रभावी संस्कृति का विकास हुआ है उसके अनुसार यह शिक्षा का मुख्य उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता की जीवन शैली में आस्था रखना और उसके अनुसार व्यवहार एवं कार्य करना आवश्यक बन गया है।

३. समाजशास्त्रीय या सामाजिक कारक :- 

किसी भी समाज की जैसी सामाजिक व्यवस्था या स्तर होती है। उससे शिक्षा के उद्देश्य प्रभावित होते हैं। जैसे आर्य समाज में जाति व्यवस्था पनपी या ब्राह्मणों की जाति सर्वोच्च जाति मानी गई। अतः उनकी जीवनशैली आचरण आदर्श मानी गई। और शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य उनके जैसे बनना रहा। दलितों और जनजातियों की सामाजिक, आर्थिक दशा बहुत निम्न और खराब थी अतः उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया। स्वतंत्र भारत में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करना है। आज के समाज में भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। अतः शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य भेदभाव रहित समाज का निर्माण करना है। जिसे सभी का समान विकास हो।

४. आर्थिक कारक : 

मानव जीवन में धन संपत्ति का बहुत ही अधिक महत्व है अतः शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करने में आर्थिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पूंजीवाद की आर्थिक नीति व वर्ग संघर्ष उत्पन्न किया है। बल्कि जनसाधारण में आर्थिक चिंताएं असुरक्षा तथा बेरोजगारी बढ़ी है। वर्तमान वैश्वीकरण की बढ़ती हुई, प्रवृत्तियों ने आर्थिक चिंताएं एवं कष्ट बढ़ाए हैं, इन से प्रभावित होकर अब शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य नौकरी या व्यवसाय की शिक्षा देना बन गया है। अधिकतर विद्यार्थी परंपरिक विषयों जैसे दर्शन कला धर्म संस्कृति आदि को बढ़ाना नहीं चाहते बल्कि विभिन्न व्यवसाय आधारित शिक्षा जैसे MBA, MCA, ENGINEERING, B.Ed. आदि पर ज्यादा ध्यान में आर्थिक संपन्नता आ सके। और अपने आप को आर्थिक रूप से मजबूत बना सकें।

५. राजनीतिक कारक :- 

समाज के विकास में राजनीतिक दृष्टिकोण का व्यापक प्रभाव पड़ता है। किसी भी देश यह समाज के विकास में उस देश पर शासन करने वाले लोगों को राजनीतिक विचारधारा स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। यदि समाज का शासक तानाशाही प्रवृत्ति के होंगे तो निश्चय ही वे शिक्षा के उद्देश्यों को ही तानाशाही प्रवृत्ति का विकास करना रखेंगे। अर्थात् शिक्षा के माध्यम से ऐसे समाज का निर्माण करने का प्रयास करेंगे जिसमें सिर्फ शक्तिशाली लोगों का अधिकार हो। इसके विपरीत प्रजातांत्रिक समाज में राजनीतिक विचारधारा सभी का समान विकास करना है। अतः ऐसे समाज में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। यह तभी संभव है जब समाज के लोगों में राजनीतिक जागरुकता आएगी। वे अपने अधिकार तथा कर्तव्य को सही तरह से समझ सकेंगे तथा समाज का विकास में अपना संपूर्ण योगदान दे सकेंगे।

६. पर्यावरणीय कारक :- 

पिछले एक सौ वर्षो का अगर पर्यावरण का अध्ययन किया जाए तो या पता चलता है कि इसमें निरंतर कमी देखी गई है, विलासिता की प्रवृत्ति लोगों में बढ़ी है। जंगलों को तेजी से काटा जा रहा है। पशु पक्षी मर रहे हैं। नदियों में कल कारखानों की गंदगी निरंतर फेंकी जा रही है। जल और वायु भयंकर रूप से दूषित हो रहे हैं। विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपादाएं बढ़ी है। अतः सभी देशों में यह गंभीरता पूर्वक महसूस किया जा रहा है कि विद्यार्थियों को प्राकृतिक पर्यावरण के प्रति सजग बनाया जाए। उन्हें पर्यावरण को संतुलन रखना सिखाया जाए। अतः आज के शिक्षा में पर्यावरण शिक्षा को विशेष स्थान दिया गया है। जिसे बालक अपने जीवन में पर्यावरण को महत्व दे सके। पर्यावरण के संरक्षण का ज्ञान प्रबल करके ही वे पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते हैं।

७. नैतिक कारक :- 

शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में नैतिक कारक के महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्ति तथा समाज दोनों का वास्तविक तथा स्थाई कल्याण उत्तम नैतिक चरित्र से ही संभव है। बालक का नैतिक विकास करने के लिए उनकी दानवीय प्रवृत्तियों का दमन करना अति आवश्यक है। शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा बालक के मन में पुण्य के प्रति प्रेम या अच्छा के प्रति प्रेम तथा पाप घृणा उत्पन्न के प्रति प्रेम उत्पन्न किया जा सकता है। समाज के अंदर प्रेम सहानुभूति दया सद्भावना तथा प्रियता आदि सामाजिक एवं नैतिक गुणों को विकसित करके बालक को चरित्र वन बनाया जा सकता है। मानव को विनाश से बचाने के लिए उसकी नैतिक चरित्र का विकास करना प्रमुख आवश्यक है जिस देश में नागरिक बड़ों का आदर नहीं करते, सत्य नहीं बोलते तथा जो न्याय को न्याय नहीं समझते। उस देश का पतन होना निश्चित है। देश को उन्नत बनाने के लिए नागरिकों को चरित्रवान बनाना आवश्यक है। इसके लिए पाठ्यक्रम के अंतर्गत उन विषयों को प्रमुख स्थान मिलना चाहिए जो नैतिक विचारों से भरे हैं। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम में इतिहास साहित्य दर्शन महान व्यक्तियों के जीवन से संबंधित तथ्य आदि की शिक्षा पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।

८. धार्मिक कारक : 

मानव जीवन में धर्म का विशेष स्थान होता है। धर्म का मुख्य आधार विश्वास है जो मानव व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्रों को नियंत्रित करता है धर्म का निर्माण विभिन्न विषयों और संस्कारों द्वारा होता है। धर्म का मुख्य उद्देश्य नैतिक एवं धार्मिक मूल्यों की स्थापना करना है तथा व्यक्ति को भावात्मक सुरक्षा प्रदान करना है। अतः जिस समाज के धार्मिक विचारधारा जिस प्रकार से होगा वहां की शिक्षा व्यवस्था भी उसी के अनुरूप होगी। कट्टर धार्मिक समाज अपने धर्म को ही श्रेष्ठ मानता है, वे अपने धर्मों का प्रचार तथा दूसरे धर्मों के प्रति हीनता की भावना रखते हैं वे शिक्षा के माध्यम से अपने धर्म का प्रचार करते हैं। वैदिक कालीन शिक्षा धार्मिकता से ओतप्रोत थी धर्म को अधिक महत्व दिया जाता है। शिक्षा के उद्देश्य एवं पाठ्यक्रमों का निर्धारण भी धार्मिक आदर्शों के अनुरूप किया जाता है धर्मनिरपेक्ष समाज में सर्व धर्म की शिक्षा देना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है, सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखना तथा सभी धर्मों के भावनाओं को समान देना है।

९. वैज्ञानिक तथा उद्योगिकी कारक : 

20 वीं तथा 21वीं शताब्दी में विज्ञान एवं तकनीकी का बहुत अधिक विकास हुआ है पर निरंतर होता रहा है, जीवन में तर्क ज्ञान विज्ञान तकनीको प्रगति का महत्व बढ़ा है। अतः आधुनिक शिक्षा इनसे प्रभावित हो रहा है और शिक्षा के उद्देश्य इनसे निर्धारित होते हैं। समय के साथ साथ समाज तथा मनुष्य की आवश्यकता है निरंतर बढ़ती रहती है, बढ़ती मांगो को पूरा करने के लिए शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन करना आवश्यक है शिक्षा में वैज्ञानिक सोच के माध्यम से पुरानी धारणाओं को सुधारा जा सकता है। एवं सत्य तक पहुंचा जा सकता है। तकनीकी के प्रयोग से जीवन को सरल तथा सहज बनाया जा सकता है। विभिन्न क्षेत्रों में नए-नए आविष्कार किये जा सकते हैं। कम समय में अधिक उत्पादन किया जा सकता है इसके लिए शिक्षा के माध्यम से तकनीकी की प्रयोग पर बल दिया जाए। शिक्षा प्रदान करने के साधन के रूप में जनसंचार के साधन जैसे विज्ञापन, इंटरनेट, फिल्म समाचार पत्र दूरदर्शन आदि का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए।

१०. भविष्य की मांगे:

इसे विद्वानों ने भविष्य की मांगों आवश्यकताओं और असीम संभावनाओं की ओर विश्वा का ध्यान आकर्षित किया है। उनका कहना है कि भविष्य की शिक्षा को वर्तमान योग्य की पुरानी अनुपयोगी शिक्षा से बहुत भिन्न प्रकार का होना चाहिए भविष्य में व्यक्तियों की जैसी परिस्थितियां सामने आए उसके अनुसार तुरंत सही ढंग से स्वयं को समायोजित करने की क्षमता का विकास करना होगा।

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