19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के प्रारंभ में भारत में आधुनिक उद्योग-धंधों की नीव पड़ी।
1853 के पश्चात भारतीय संचार साधनों में मशीनों का प्रयोग होने लगा।
रेल लाइनों के बिछानों तथा इंजन के लिये कोयला निकालने में हजारों श्रमिकों की रोजगार मिला।
यह भारतीय श्रमिक वर्ग का प्रारंभिक काल था।
इन परिस्थितियों में रेलवे उद्योग से सम्बद्ध अन्य आयोगों का विकास भी आवश्यक था।
कोयला उद्योग का भी तेजी से विकास हुआ तथा उसने हजारों श्रमिकों को रोजगार के अवसर प्रदान किये। इसके पश्चात कपास एवं जूट उद्योग का विकास हुआ।
इंग्लैंड तथा शेष संसार में औद्योगीकरण के प्रारंभिक चरण में श्रमिक वर्ग की जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, भारतीय श्रमिक वर्ग ने भी भारत में उसी प्रकार के शोषण एवं कठिनाइयों का सामना किया।
इन कठिनाइयों में-कम मजदूरी, कार्य के लम्बे घंटे, कारखानों में आधारभूत सुविधाओं का अभाव इत्यादि प्रमुख थीं।
भारत में औपनिवेशिक शासन की उपस्थिति ने भारतीय श्रमिक आंदोलन को एक नयी विशेषता प्रदान की।
भारतीय श्रमिक वर्ग को दो परस्पर विरोधी तत्वों- उपनिवेशवादी राजनितिक शासन तथा विदेशी एवं भारतीय पूंजीपतियों के शोषण का सामना करना पड़ा।
इन परिस्थितियों के कारण भारतीय श्रमिक आंदोलन, अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष का एक हिस्सा बन गया।
#प्रारंभिक प्रयास
#प्रारंभिक राष्ट्रवादी, विशेषकर उदारवादी-
भारतीय श्रमिकों की मांगों के प्रति उदासीन थे।
ब्रिटिश स्वामित्व वाले कारखानों में कार्यरत श्रमिकों एवं भारतीयों के स्वामित्व वाले कारखानों में कार्यरत श्रमिकों को अलग-अलग मानते थे।
इनका मत था कि श्रमिक विधानों के निर्माण से भारतीयों के स्वामित्व वाले उद्योगों पर बुरा असर पड़ेगा।
वर्गीय आधार पर आदोलन में विभाजन के पक्षधर नहीं थे।
इसीलिये उक्त कारणों से 1881 तथा 1891 के कारखाना अधिनियमों का इन्होंने समर्थन नहीं किया।
इस प्रकार, श्रमिकों की दशाओं में सुधार के लिये किये गये प्रारंभिक प्रयत्न आत्म-केंद्रित थे तथा इनकी प्रकृति पृथक, वैयक्तिक एवं विशिष्ट एवं स्थानीय समस्याओं की थी।
#1870:
शशीपदा बनर्जी ने एक श्रमिक क्लब की स्थापना की तथा भारत श्रमजीवी नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया।
#1878:
सोराबर्जी शपूर्जी बंगाली ने श्रमिकों को कार्य की बेहतर दशायें उपलब्ध कराने के लिये एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे बाद में बंबई विधान परिषद ने पारित कर दिया।
#1880:
नारायण मेघाजी लोखंडे ने दीनबंधु नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया तथा ‘बंबई मिल एवं मिलहैंड एसोसिएशन' की स्थापना की।
#1899:
ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे की प्रथम हड़ताल आयोजित की गयी।
इस हड़ताल को अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ।
तिलक ने अपने समाचार-पत्रों मराठा एवं केसरी के द्वारा हड़ताल का भरपूर समर्थन किया।
इस समय देश के कई प्रख्यात राष्ट्रवादी नेताओं यथा- बिपिनचंद्र पाल एवं जी. सुब्रहमण्यम अय्यर ने भारतीय श्रमिकों की दशा में सुधार करने तथा उनके लिये नियम-कानून बनाये जाने की मांग की।
#स्वदेशी आंदोलन के दौरान
श्रमिकों ने विस्तृत राजनीतिक गतिविधियों में भागेदारी निभायी।
अश्विनी कुमार बनर्जी, प्रभात कुमार राय चौधरी, प्रेमतोष बोस एवं अपूर्व कुमार घोष ने अनेक हड़तालों का आयोजन किया।
इनकी हड़तालों के क्षेत्र थे-सरकारी मुद्रणालय, रेलवे एवं जूट उद्योग।
इस समय श्रमिक एवं व्यापार संघों की स्थापना के प्रयत्न भी किये गये किंतु उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली।
सुब्रह्मण्यम अय्यर एवं चिदम्बरम पिल्लई के नेतृत्व में तूतीकोरिन एवं तिरुनेलबेल्लि में हड़तालों का आयोजन किया गया।
बाद में इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया।
तत्कालीन सबसे बड़ी हड़ताल का आयोजन उस समय किया गया, जब बाल गंगाधर तिलक को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया।
#प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एवं उसके उपरांत
प्रथम विश्व युद्ध के दिनों एवं उसकी समाप्ति के पश्चात, दोनों समयावधि में वस्तुओं के मूल्य में अत्यधिक वृद्धि हुयी तथा निर्यात बाधा, जिससे उद्योगपतियों ने अभूतपूर्व लाभ कमाया किंतु श्रमिकों की मजदूरी न्यूनतम ही रही।
इसी बीच भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर गांधी जी का अभ्युदय हुआ।
गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का जनाधार व्यापक हुआ तथा उन्होंने श्रमिकों एवं किसानों को अपने आदोलन से सम्बद्ध करने का प्रयास किया।
इस समय श्रमिकों को व्यापार संघों (Trade union) में संगठित किये जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
#कुछ अंतरराष्ट्रीय घटनाओं यथा-
सोवियत संघ की स्थापना, कूमिन्टर्न की स्थापना तथा अंतरराष्ट्रीय श्रम संग
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