लोकतंत्र का मेला है। लोक लुभावन चित्रामों से मैदान सज़ा है। कहीं बाँसुरी तो कहीं भोंपू की चिल्ल-पों सुनाई दे रही हैं। क्या खरीदूं? कहाँ जाऊं? क्या खाऊँ? के प्रश्न हर जेहन में हैं।
वो बड़े झूले वाला दस चक्कर लगवा कर भी उतारेगा वहीं जहाँ से चढ़े थे।
कुचक्री सी एक मशीन वाला कुछ रुपये लेकर आपका भाग्य बताने का वादा भी करेगा।
खिलौने बेचने वाला आपके साथ खिलवाड़ कर आपको भी खिलौना बना सकता है।
बर्फ की चुस्की सतरंगी मिठास से भरी है, वहाँ भीड़ ज्यादा है। मौसमी का पोषक मगर कड़वा जूस पीने गाहे बगाहे कोई ग्राहक आ जाता है।
कुछ लोग एक दूसरे का पाँव कुचलते निकल रहे है। डमरूवाला बंदरिया को नचा रहा है, हमारा मनोरंजन तो हुआ पर सीखा कुछ नहीं। आत्म-विभोर गुब्बारे वाले ने रबर के आवरण में हवा भरकर बेच दी।
"हर माल दस रुपये" की घोषणा वाले ने मानो एकात्म भाव से सामाजिक लूट मचा ली।
मुंशी प्रेमचंद के 'हामिद' ने जो 'अमीना' के लिए चिमटा खरीदा था, वो तो अब मेलों में मिलना ही बंद हो गया।
मेले के मुख्यचौक में आपका भाग्य बताने की एक मशीन लगी है। कानों पर सिर्फ आप सुन सको ऐसा 'ईयर फोन' लगा कर वो बटन दबाना जिस पर मशीन बोले कि यह बटन भाग्य सुनाने का नहीं भाग्य बनाने का है।
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