कवियों का जीवन परिचय।।
1. सूरदास
पूरा नाम महाकवि सूरदास
जन्म संवत् 1540 विक्रमी (सन् 1483 ई.) अथवा संवत 1535 विक्रमी (सन् 1478 ई.)
जन्म भूमि रुनकता, आगरा
मृत्यु संवत् 1642 विक्रमी (सन् 1585 ई.) अथवा संवत् 1620 विक्रमी (सन् 1563 ई.)
मृत्यु स्थान पारसौली
अभिभावक रामदास (पिता)
कर्म भूमि ब्रज (मथुरा-आगरा)
कर्म-क्षेत्र सगुण भक्ति काव्य
मुख्य रचनाएँ सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो आदि
विषय भक्ति
भाषा ब्रज भाषा
पुरस्कार-उपाधि महाकवि
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।
सूरदास की रचनाएँ
दियौ अभय पद ठाऊँ -सूरदास
कहावत ऐसे दानी दानि -सूरदास
आछो गात अकारथ गार्यो -सूरदास
जनम अकारथ खोइसि -सूरदास
अंखियां हरि-दरसन की भूखी -सूरदास
धोखैं ही धोखैं डहकायौ -सूरदास
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं -सूरदास
दृढ इन चरण कैरो भरोसो -सूरदास
अंखियां हरि–दरसन की प्यासी -सूरदास
राखी बांधत जसोदा मैया -सूरदास
जागिए ब्रजराज कुंवर -सूरदास
आजु मैं गाई चरावन जैहों -सूरदास
ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे -सूरदास
अजहूँ चेति अचेत -सूरदास
जसोदा हरि पालनैं झुलावै -सूरदास
आजु हौं एक एक करि टरिहौं -सूरदास
चरन कमल बंदौ हरि राई -सूरदास
बृथा सु जन्म गंवैहैं -सूरदास
मधुकर! स्याम हमारे चोर -सूरदास
नटवर वेष काछे स्याम -सूरदास
अब कै माधव, मोहिं उधारि -सूरदास
नीके रहियौ जसुमति मैया -सूरदास
जसोदा, तेरो भलो हियो है माई -सूरदास
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल -सूरदास
प्रभु, मेरे औगुन न विचारौ -सूरदास
कहियौ, नंद कठोर भये -सूरदास
मेटि सकै नहिं कोइ -सूरदास
मेरी माई, हठी बालगोबिन्दा -सूरदास
अब या तनुहिं राखि कहा कीजै -सूरदास
माधव कत तोर करब बड़ाई -सूरदास
मन तोसों कोटिक बार कहीं -सूरदास
आनि सँजोग परै -सूरदास
जापर दीनानाथ ढरै -सूरदास
नैन भये बोहित के काग -सूरदास
मो परतिग्या रहै कि जाउ -सूरदास
हरि, तुम क्यों न हमारैं आये -सूरदास
गिरि जनि गिरै स्याम के कर तैं -सूरदास
प्रभु, मेरे औगुन चित न धरौ -सूरदास
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल -सूरदास
उपमा हरि तनु देखि लजानी -सूरदास
मोहन केसे हो तुम दानी -सूरदास
ऊधो, हम लायक सिख दीजै -सूरदास
भाव भगति है जाकें -सूरदास
नाथ, अनाथन की सुधि लीजै -सूरदास
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ -सूरदास
जौलौ सत्य स्वरूप न सूझत -सूरदास
मेरो कान्ह कमलदललोचन -सूरदास
तजौ मन, हरि-बिमुखनि को संग -सूरदास
सकल सुख के कारन -सूरदास
भजु मन चरन संकट-हरन -सूरदास
हम भगतनि के भगत हमारे -सूरदास
मुरली गति बिपरीत कराई -सूरदास
ऊधो, मन माने की बात -सूरदास
राखौ लाज मुरारी -सूरदास
भोरहि सहचरि कातर दिठि -सूरदास
कब तुम मोसो पतित उधारो -सूरदास
रतन-सौं जनम गँवायौ -सूरदास
कहां लौं बरनौं सुंदरताई -सूरदास
रे मन मूरख, जनम गँवायौ -सूरदास
जो पै हरिहिंन शस्त्र गहाऊं -सूरदास
कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज -सूरदास
चरन कमल बंदौ हरिराई -सूरदास
तबतें बहुरि न कोऊ आयौ -सूरदास
वृच्छन से मत ले -सूरदास
आई छाक बुलाये स्याम -सूरदास
हरि हरि हरि सुमिरन करौ -सूरदास
मन धन-धाम धरे -सूरदास
प्रीति करि काहू सुख न लह्यो -सूरदास
ऎसी प्रीति की बलि जाऊं -सूरदास
जौ बिधिना अपबस करि पाऊं -सूरदास
मोहिं प्रभु, तुमसों होड़ परी -सूरदास
कहियौ जसुमति की आसीस -सूरदास
मेरो मन अनत कहां सचु पावै -सूरदास
उधो, मन नाहीं दस बीस -सूरदास
सोभित कर नवनीत लिए -सूरदास
तिहारो दरस मोहे भावे -सूरदास
निसिदिन बरसत नैन हमारे -सूरदास
माधवजू, जो जन तैं बिगरै -सूरदास
वा पटपीत की फहरानि -सूरदास
ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं -सूरदास
संदेसो दैवकी सों कहियौ -सूरदास
फिर फिर कहा सिखावत बात -सूरदास
खेलत नंद-आंगन गोविन्द -सूरदास
ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै -सूरदास
रे मन, राम सों करि हेत -सूरदास
ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी -सूरदास
रानी तेरो चिरजीयो गोपाल -सूरदास
व्रजमंडल आनंद भयो -सूरदास
सरन गये को को न उबार्यो -सूरदास
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे -सूरदास
कहां लौं बरनौं सुंदरताई -सूरदास
बदन मनोहर गात -सूरदास
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान -सूरदास
सोइ रसना जो हरिगुन गावै -सूरदास
जोग ठगौरी ब्रज न बिकहै -सूरदास
है हरि नाम कौ आधार -सूरदास
निरगुन कौन देश कौ बासी -सूरदास
जसुमति दौरि लिये हरि कनियां -सूरदास
सबसे ऊँची प्रेम सगाई -सूरदास
प्रीति करि काहु सुख न लह्यो -सूरदास
अबिगत गति कछु कहति न आवै -सूरदास
सूरदास (अंग्रेज़ी:Surdas) हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल में कृष्ण भक्ति के भक्त कवियों में अग्रणी है। महाकवि सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। उनका जन्म मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ था। कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद
में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 विक्रमी के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 विक्रमी के आसपास मानी जाती है। सूरदास जी के पिता रामदास गायक थे। सूरदास जी के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं। आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षा दे कर कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास जी अष्टछाप कवियों में एक थे। सूरदास जी की मृत्यु गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में 1563 ईस्वी में हुई।
ऐतिहासिक उल्लेख
मुख्य लेख : सूरदास का ऐतिहासिक उल्लेख
सूरदास के बारे में 'भक्तमाल' और 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है। 'आईना-ए-अकबरी' और 'मुंशियात अब्बुल फ़ज़ल' में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे काशी (वर्तमान बनारस) के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं। जनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। 'भक्तमाल' में सूरदास की भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा उनकी अंधता का उल्लेख है। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के अनुसार सूरदास आगरा और मथुरा के बीच साधु के रूप में रहते थे। वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीला गान का उपदेश पाकर कृष्ण के चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा।
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2. कबीर
पूरा नाम संत कबीरदास
अन्य नाम कबीरा, कबीर साहब
जन्म सन 1398 (लगभग)
जन्म भूमि लहरतारा ताल, काशी
मृत्यु सन 1518 (लगभग)
मृत्यु स्थान मगहर, उत्तर प्रदेश
पालक माता-पिता नीरु और नीमा
पति/पत्नी लोई
संतान कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
कर्म भूमि काशी, बनारस
कर्म-क्षेत्र समाज सुधारक कवि
मुख्य रचनाएँ साखी, सबद और रमैनी
विषय सामाजिक
भाषा अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
शिक्षा निरक्षर
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख कबीर ग्रंथावली, कबीरपंथ, बीजक, कबीर के दोहे आदि
अन्य जानकारी कबीर का कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है।
कबीर की रचनाएँ
कथनी-करणी का अंग -कबीर
चांणक का अंग -कबीर
अवधूता युगन युगन हम योगी -कबीर
कबीर की साखियाँ -कबीर
बहुरि नहिं आवना या देस -कबीर
समरथाई का अंग -कबीर
अंखियां तो झाईं परी -कबीर
कबीर के पद -कबीर
जीवन-मृतक का अंग -कबीर
नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार -कबीर
भेष का अंग -कबीर
मधि का अंग -कबीर
उपदेश का अंग -कबीर
करम गति टारै नाहिं टरी -कबीर
भ्रम-बिधोंसवा का अंग -कबीर
पतिव्रता का अंग -कबीर
मोको कहां ढूँढे रे बन्दे -कबीर
चितावणी का अंग -कबीर
बीत गये दिन भजन बिना रे -कबीर
कामी का अंग -कबीर
मन का अंग -कबीर
जर्णा का अंग -कबीर
निरंजन धन तुम्हरो दरबार -कबीर
माया का अंग -कबीर
काहे री नलिनी तू कुमिलानी -कबीर
गुरुदेव का अंग -कबीर
नीति के दोहे -कबीर
बेसास का अंग -कबीर
केहि समुझावौ सब जग अन्धा -कबीर
मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा -कबीर
भजो रे भैया राम गोविंद हरी -कबीर
सुपने में सांइ मिले -कबीर
तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के -कबीर
मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै -कबीर
साध-असाध का अंग -कबीर
दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ -कबीर
माया महा ठगनी हम जानी -कबीर
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो -कबीर
रस का अंग -कबीर
संगति का अंग -कबीर
झीनी झीनी बीनी चदरिया -कबीर
रहना नहिं देस बिराना है -कबीर
साधो ये मुरदों का गांव -कबीर
विरह का अंग -कबीर
रे दिल गाफिल गफलत मत कर -कबीर
सुमिरण का अंग -कबीर
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में -कबीर
राम बिनु तन को ताप न जाई -कबीर
तेरा मेरा मनुवां -कबीर
साध का अंग -कबीर
घूँघट के पट -कबीर
हमन है इश्क मस्ताना -कबीर
सांच का अंग -कबीर
सूरातन का अंग -कबीर
मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया -कबीर
कबीर (अंग्रेज़ी: Kabir, जन्म- सन् 1398 काशी - मृत्यु- सन् 1518 मगहर) का नाम कबीरदास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में भी प्रसिद्ध है। ये मध्यकालीन भारत के स्वाधीनचेता महापुरुष थे और इनका परिचय, प्राय: इनके जीवनकाल से ही, इन्हें सफल साधक, भक्त कवि, मतप्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है तथा इनके नाम पर कबीरपंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। कबीरपंथी इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं और इनके संबंध में बहुत-सी चमत्कारपूर्ण कथाएँ भी सुनी जाती हैं। इनका कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। फलत: इस संबंध में तथा इनके मत के भी विषय में बहुत कुछ मतभेद पाया जाता है।
संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।
डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था।
जीवन परिचय
मुख्य लेख : कबीर का जीवन परिचय
जन्म
कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में-
हम कासी में प्रकट भये हैं,
रामानन्द चेताये।
कबीरदास
कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है-
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥
मृत्यु
कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान् उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं।
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3. तुलसीदास
पूरा नाम गोस्वामी तुलसीदास
जन्म सन 1532 (संवत- 1589)
जन्म भूमि राजापुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु सन 1623 (संवत- 1680)
मृत्यु स्थान काशी
अभिभावक आत्माराम दुबे और हुलसी
पति/पत्नी रत्नावली
कर्म भूमि बनारस
कर्म-क्षेत्र कवि, समाज सुधारक
मुख्य रचनाएँ रामचरितमानस, दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा आदि
विषय सगुण भक्ति
भाषा अवधी, हिन्दी
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख तुलसीदास जयंती
गुरु आचार्य रामानन्द
अन्य जानकारी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे।
तुलसीदास की रचनाएँ
मैं केहि कहौ बिपति अति भारी -तुलसीदास
सखि नीके कै निरखि कोऊ सुठि सुंदर बटोही -तुलसीदास
ताहि ते आयो सरन सबेरे -तुलसीदास
हरि को ललित बदन निहारु -तुलसीदास
कलि नाम काम तरु रामको -तुलसीदास
ऐसी मूढता या मन की -तुलसीदास
धनुर्धर राम -तुलसीदास
मनोहरताको मानो ऐन -तुलसीदास
काहे ते हरि मोहिं बिसारो -तुलसीदास
सखि! रघुनाथ-रूप निहारु -तुलसीदास
जौ पै जिय धरिहौ अवगुन ज़नके -तुलसीदास
हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों -तुलसीदास
भज मन रामचरन सुखदाई -तुलसीदास
केशव,कहि न जाइ -तुलसीदास
श्री रामचँद्र कृपालु भजु मन -तुलसीदास
जो मन लागै रामचरन अस -तुलसीदास
माधव! मो समान जग माहीं -तुलसीदास
कौन जतन बिनती करिये -तुलसीदास
यह बिनती रहुबीर गुसाईं -तुलसीदास
जो मोहि राम लागते मीठे -तुलसीदास
दीन-हित बिरद पुराननि गायो -तुलसीदास
जागिये कृपानिधान जानराय, रामचन्द्र -तुलसीदास
मनोरथ मनको एकै भाँति -तुलसीदास
मैं हरि, पतित पावन सुने -तुलसीदास
जानकी जीवन की बलि जैहों -तुलसीदास
तन की दुति स्याम सरोरुह -तुलसीदास
लाभ कहा मानुष-तनु पाये -तुलसीदास
अब लौं नसानी, अब न नसैहों -तुलसीदास
मेरो मन हरिजू! हठ न तजै -तुलसीदास
तऊ न मेरे अघ अवगुन गनिहैं -तुलसीदास
मैं एक, अमित बटपारा -तुलसीदास
मन माधवको नेकु निहारहि -तुलसीदास
देव! दूसरो कौन दीनको दयालु -तुलसीदास
राघौ गीध गोद करि लीन्हौ -तुलसीदास
मन पछितैहै अवसर बीते -तुलसीदास
यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो -तुलसीदास
सुन मन मूढ -तुलसीदास
और काहि माँगिये, को मागिबो निवारै -तुलसीदास
लाज न आवत दास कहावत -तुलसीदास
दूल्ह राम -तुलसीदास
मेरे रावरिये गति रघुपति है बलि जाउँ -तुलसीदास
हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै -तुलसीदास
कब देखौंगी नयन वह मधुर मूरति -तुलसीदास
रघुपति! भक्ति करत कठिनाई -तुलसीदास
बजरंग बाण -तुलसीदास
भाई! हौं अवध कहा रहि लैहौं -तुलसीदास
बिनती भरत करत कर जोरे -तुलसीदास
कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो -तुलसीदास
माधवजू मोसम मंद न कोऊ -तुलसीदास
भरोसो जाहि दूसरो सो करो -तुलसीदास
राम राम रटु, राम राम रटु -तुलसीदास
माधव, मोह-पास क्यों छूटै -तुलसीदास
रामलला नहछू -तुलसीदास
ममता तू न गई मेरे मन तें -तुलसीदास
राम-पद-पदुम पराग परी -तुलसीदास
नाहिन भजिबे जोग बियो -तुलसीदास
गोस्वामी तुलसीदास (अंग्रेज़ी: Goswami Tulsidas, जन्म- 1532 ई. - मृत्यु- 1623 ई.) हिन्दी साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र, भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि है। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक तीनों रूपों में मान्य है। श्रीराम को समर्पित ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। श्रीरामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है।
जीवन परिचय
तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश (वर्तमान बाँदा ज़िला) के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को रत्नावली की फटकार "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" सुननी पड़ी जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनके गुरु बाबा नरहरिदास थे, जिन्होंने इन्हें दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन चित्रकूट, काशी तथा अयोध्या में बीता।
तुलसीदास
तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। पत्नी के व्यंग्यबाणों से विरक्त होने की लोकप्रचलित कथा को कोई प्रमाण नहीं मिलता। तुलसी भ्रमण करते रहे और इस प्रकार समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका सीधा संपर्क हुआ। इसी दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन का परिणाम तुलसी की अमूल्य कृतियां हैं, जो उस समय के भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली, जानकीमंगल, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
शिष्य परम्परा
गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ व सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के सिद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:
गोस्वामी तुलसीदास
"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"
आदर्श सन्त कवि
उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंक्काओं का रामचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रंथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरदास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं। तुलसीदासजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।
प्रखर बुद्धि के स्वामी
भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ले गये और वहाँ संवत् 1561 माघ शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत् हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।
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4. केशव
पूरा नाम केशवदास
जन्म 1555 ई.
जन्म भूमि ओरछा, मध्य प्रदेश
मृत्यु 1617 ई.
कर्म-क्षेत्र रीतिकालीन कवि
मुख्य रचनाएँ 'रसिकप्रिया' (1591 ई.), 'कविप्रिया' और 'रामचन्द्रिका' (1601 ई.), 'विज्ञानगीता' (1610 ई.) और 'जहाँगीरजसचन्द्रिका' (1612 ई.)
विशेष योगदान हिन्दी में सर्वप्रथम केशवदास जी ने ही काव्य के विभिन्न अंगों का शास्त्रीय पद्धति से विवेचन किया।
नागरिकता भारतीय
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अन्य जानकारी आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में केशव की रचना में सूरदास, तुलसी आदि की सी सरलता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय करा कर उन्होंने आगे के लिए मार्ग खोला।
केशव अथवा केशवदास (अंग्रेज़ी:Keshavdas, जन्म: 1555 ई. - मृत्यु: 1617 ई.) हिन्दी के प्रसिद्ध रीतिकालीन कवि थे, जिनका समय भक्ति काल के अंतर्गत पड़ता है, पर जो अपनी रचना में पूर्णत: शास्त्रीय तथा रीतिबद्ध हैं। शिवसिंह सेंगर तथा ग्रियर्सन द्वारा उल्लिखित क्रमश: सन् 1567 ई. (सं. 1624) तथा 1580 ई. (सं. 1337) इनका कविताकाल है, जन्मकाल नहीं। केशव संस्कृत काव्यशास्त्र का सम्यक् परिचय कराने वाले हिन्दी के प्राचीन आचार्य और कवि थे।
जन्म
'मिश्रबन्धुविनोद' प्रथम भाग में 1555 ई. (सं. 1612) तथा 'हिन्दी नवरत्न' में 1551 ई. (सं. 1608) में अनुमानित जन्मकाल रामचन्द्र शुक्ल ने 1515 ई. (सं. 1612) जन्मकाल माना है। गौरीशंकर द्विवेदी के 'सुकवि सरोज' में उदघृत दोहों के अनुसार इनका जन्मकाल 1559 ई. (सम्वत् 1618) तथा जन्म-मास चैत्र प्रमाणित होता है। इनके पिता का नाम पण्डित काशीनाथ था, जो ओरछा नरेश मधुकरशाह के विशेष स्नेहभाजन थे। ओरछा राजदरबार में इनके परिवार का बड़ा मान-सम्मान था। केशवदास स्वयं महाराज रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मंत्री और गुरु थे। इंद्रजीत सिंह की ओर से केशव को 21 गाँव दिये गए थे। वे आत्मसम्मान के साथ विलासमय जीवन व्यतीत करते थे।
संवत् द्वादश षट् सुभग, सोदह से मधुमास।
तब कवि केसव को जनम, नगर आड़छे वास।।
लाला भगवानदीन इनकी वंश परम्परा में मान्य जन्मतिथि सम्वत 1618 (1559 ई.) के चैत्रमास की रामनवमी की पुष्टि करते हैं। तुंगारण्य के समीप बेतवा नदी के तट पर स्थित मध्यप्रदेश राज्य के ओरछा नगर में इनका जन्म हुआ था।
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