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Blood Circulation ( परिसंचरण तंत्र )।।

परिसंचरण तंत्र संबंधित प्रश्नोत्तरी ।। 1. कौन सा ‘जीवन नदी’ के रूप में जाना जाता है? उत्तर: रक्त 2. रक्त परिसंचरण की खोज की गई? ...

काव्यशास्त्र के कुछ अनिवार्य प्रश्न ।।

० काव्यदोषों की सर्वप्रथम वैज्ञानिक व्याख्या करने वाला ग्रन्थ - काव्यालंकार
० संचारी भावों की संख्या - 33
० करुणा को एकमात्र रस मानने वाले विद्वान - भवभूति
० उत्पत्ति के आधार पर शब्द के भेद हैं - 4
० भरतमुनि ने अपभ्रंश को नाम दिया - देशभाषा
० भामह ने अभ्यास के शब्द प्रयोग किया - यत्न
० काव्यहेतु को काव्यमाताएँ किसने कहा - राजशेखर
० वामन के अनुसार गुणों की संख्या है - 20
० भामह ने कुल कितने गुण माने - 03
० दंडी और भरतमुनि ने गुणों की कुल संख्या मानी है - 10
० गौड़ी रीती का प्रयोग किस गुण के साथ होता है - ओज गुण
० लाटी रीति का प्रधान गुण प्रसाद है।
० किसने रीति सम्प्रदाय को गुण सम्प्रदाय कहा - वामन
० "दोष का विपर्यय गुण है" यह किस विद्वान का कथन है - भरतमुनि
० गुणों की दो कोटियां - नागर गुण एवं ग्राम्य गुण किसने किया - आचार्य देव ने
० किसने प्रसाद गुण को ओज गुण का विरोधी माना - वामन ने
० विद्वानों  ने वाल्मीकि और व्यास के बाद तीसरा बड़ा कवि किसे स्वीकार किया - दंडी को
० सट्टक किसका एक प्रकार है - नाटक का
० काव्यमीमांसा में कुल कितने अध्याय हैं - 18

कृष्णभक्ति शाखा के कवि

मीराबाई

जीवन-परिचय–गिरिधर गोपाल के प्रेम की दीवानी मीरा का भक्त कवियों में सम्माननीय स्थान है। राजस्थान की मरुभूमि को अपने काव्य से सरसता प्रदान करने का श्रेय मीरा को ही जाता है।
मीरा का जन्म सम्वत् 1555 (सन् 1498) में मेवाड़ के ग्राम चौकड़ी में हुआ। इनके पिता राणा रत्नसिंह थे। इनके पिता प्रायः युद्धों में ही व्यस्त रहते थे। अत: मीरा को अपने पितामह का वात्सल्य मिला। मीरा को बचपन से ही कृष्ण के प्रति लगाव था। मीरा को माता का स्नेह बहुत अल्प समय ही प्राप्त हो सका। बचपन में ही माता का देहावसान हो गया। आपका विवाह राणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ। केवल एक वर्ष बाद ही पति का देहावसान हो गया। मीरा ने इस वज्राघात को भी प्रभुकृपा मानकर स्वीकार किया।
उन्होंने सारे सांसारिक सम्बन्धों से विरक्त होकर एक गिरिधर गोपाल’ को अपना लिया, ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा ने कोई।’ मीरा का अधिकांश समय अपने इष्ट की उपासना में और साधु-संगति में व्यतीत होता था। मीरा का लोक-लाज को तिलांजलि देकर सत्संग में भाग लेना परिवारीजनों को राजकुल की मर्यादा का उल्लंघन प्रतीत हुआ। मीरा को अनेक प्रकार से उत्पीड़ित किया गया। कहते हैं कि उनको विषपान के लिए भी विवश किया गया। अन्त में मीरा ने घर त्याग दिया। वह वृन्दावन चली गयीं। सम्वत् 1600 के आस-पास मीरा वृन्दावन से द्वारका चली गयीं। सम्वत् 1603 (सन् 1546) में कृष्ण की यह आराधिका द्वारकाधीश में ही विलीन हो गयीं।

रचनाएँ-मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
◆‘नरसीजी का मायरा’,
◆‘गीत-गोविन्द की टीका’,
◆‘राग-गोविन्द’ तथा
◆‘राग-सोरठ’ आदि।

रसखान:

जीवन-परिचय-रसखान के जीवन-वृत्त का परिचय उनके काव्य से ही अनुमानित करना पड़ता है। आपका जन्म सं. 1615 (सन् 1558) के आसपास दिल्ली में हुआ, ऐसा माना जाता है। आप पठान थे और आपका सम्बन्ध राजवंश से था, ऐसा संकेत आपके एक दोहे से मिलता है:
“देखि सदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा वंस की, ठसक छाँड़ि रसखान॥”
कहते हैं कि श्रीकृष्ण की छवि को देखकर ये उनके दीवाने हो गये। इन्होंने ब्रज में आकर निवास किया और गोस्वामी विठ्ठलनाथ की शिष्यता ग्रहण की। रसखान को सांसारिक प्रेम के माध्यम से कृष्ण प्रेम का द्वार मिला था। यही कारण है कि उनके काव्य में प्रेमभाव का सहज और हृदयग्राही स्वरूप प्राप्त होता है। रसखान को अपने इष्टदेव की जन्मभूमि, लीलास्थली तथा वहाँ के पशु-पक्षी, वृक्ष तथा पर्वतों तक से गहरा लगाव रहा। आपने ब्रजवास करते हुए सम्वत् 1675 (सन् 1618) में कृष्ण का सानिध्य प्राप्त किया।

रचनाएँ-रसखान की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं:
◆सुजान रसखान-यह रसखान द्वारा रचित कवित्त और सवैया छन्दों का संग्रह है। रसखान के लोकप्रिय छन्द इसी में संग्रहीत
◆प्रेम वाटिका-यह एक लघुकाय छन्द-संग्रह है। कवि ने प्रेम को ही इसके छन्दों का विषय बनाया है। इसकी अनेक उक्तियाँ अत्यन्त मार्मिक हैं।
कुम्भनदास-आप सूरदास के समकालीन कवि थे। ये स्वभाव से विरक्त और कृष्णभक्ति को ही सर्वस्व समझने वाले थे। एक बार अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी बुलाये जाने पर आपने यह पद सुनाया था-
“सन्त को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पन्हैयाँ टूटीं, बिसरि गयो हरिनाम॥”
आपने मुक्तक पदों की ही रचना की है।
परमानन्द दास-यह भी अष्टछाप के कवियों में स्थान रखते थे। इन्होंने ‘परमानन्द सागर’, ‘दानलीला’, ‘ध्रुवचरित’ तथा ‘कीर्तन’ आदि के पद रचे हैं। वियोग, वर्णन में आपको सफलता प्राप्त है।
कृष्णदास-यह भी अष्टछाप के आठ कवियों में गिने जाते हैं। ये श्रीनाथजी के मन्दिर में अधिकारी पद पर नियुक्त थे। इनके फुटकर पद ही प्राप्त होते हैं।


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