रुचि यानि अन्यकर्तृक अभिलाषा और प्रेम यानि आत्मजन्य परोद्देश तृप्ति की अभिलाषा ।
संस्कृत में दो प्रकार के धातु हैं।
आश्रयकर्तृक और विषयकर्तृक।
आश्रय यानि ठिकाना। जैसे "मैं जानता हूँ", तो यहाँ ज्ञान का आश्रय मैं हूँ, क्योंकि ज्ञान मुझमें उत्पन्न हुआ। ज्ञान अर्थ वाले सभी धातु आश्रयकर्तृक हैं क्योंकि जिसे ज्ञान हो रहा है, वही ज्ञान का आश्रय भी है। अगर "रमेश देखता है" कहा जाय तो "देखना" इसका कर्ता रमेश हुआ। क्योंकि रमेश देख रहा है, और जो देखने से वस्तु का ज्ञान उत्पन्न होगा उसका ठिकाना भी रमेश है।।
विषयकर्तृक धातु लेकिन अलग होते हैं। जैसे "मुझे पढ़ना आता है" यहाँ अर्थ ऐसा होगा "मुझमें पढ़ने का ज्ञान उत्पन्न होता है" । यह उदाहरण संस्कृत में उपयुक्त नहीं इसलिए मूल उदाहरण पे आता हूँ।
रुचि विषयंकर्तृक है। रुचि यानि पसन्दगी।
"मुझे मोदक पसन्द है" इसमें पसन्दगी का कर्ता मोदक है। (1)
पसन्दगी का विषय भी खुद मोदक है।
(2)
और पसन्दगी उपजाना क्रिया है (3)
मोदक (1), मुझमें अपने विषय की (2) पसन्दगी, उपजाता है (3)
यह अर्थ है।
इसमें जोकि मोदक पसन्दगी उपजाता है इसलिए मोदक कर्ता है, यानि मुझमें जो रुचि जगी वह स्वतः न जगी लेकिन किसी एक उपाधि या condition की वजह से जगी। मोदक में कोई ख़ास गुण होने से वह मेरी रुचि का कर्ता बना। रुचि किस विषय में जगी? मोदक ही मेरी रुचि का विषय है। जो क्रिया में विषय ही कर्ता हो तो उसे विषयकर्तृक कहेंगे। रुचि हमेशा विषयकर्तृक है।।
प्रेम आश्रयकर्तृक होता है।
"मैं कृष्ण को चाहती हूँ" यहाँ कृष्ण के लिए प्रेम प्रकट हुआ। प्रेम को प्रकट करने वाली कौन? मैं गोपी। प्रेम का आश्रय कौन? मैं गोपी ही क्योंकि मुझमें कृष्ण-विषयक प्रेम उपजा। यहाँ प्रेम का कर्ता कृष्ण नहीं गोपी है। गोपी खुदके अन्दर प्रेम को प्रकट करती है। यहाँ कृष्ण प्रेम का विषय है, वो प्रेम को पैदा नहीं कर रहा, गोपी जो प्रेम की आश्रय है वो खुद प्रकट करती है।
इसलिए प्रेम आश्रयकर्तृक है। प्रेम निरुपाधिक होता है। किसी रङ्ग रूप गुण क्रिया आदि उपाधियों से प्रकट न होकर स्वयं में अपने आप प्रकट होता है। मेरा गाडी के प्रति चाहत कोई न कोई उपाधि के कारण है, क्योंकि लाल रङ्ग है, तो यह रङ्ग की वजह से गाडी मुझमें रुचि उपजाती है। गाडी में बड़ी सीट है इसलिए पसन्द आती है।
लेकिन कृष्ण को मैं प्रेम करती हूँ इसलिए मुझे उसके होठ पसन्द हैं, उसके चाल पसन्द है, रङ्ग रूप सब पसन्द है। कृष्ण को प्रेम करने का मेरे पास कोई कारण नहीं है। यही निरुपाधिक प्रेम है जोकि प्रीति यानि प्रीयमाण की खुशी ने खुश होना है।
जब हम रुचि कहते हैं तो वह इसलिए क्योंकि मोदक गाडी आदि के उपभोग से हमारे अन्दर एक संतोष उत्पन्न होता है। उसमें हमें गाडी मित्र या मोदक के संतोष ख़ुशी या तृप्ति की परवाह नहीं। वे हमें इसलिए पसन्द हैं क्योंकि वे हममे सुखादि उपजाते हैं।
लेकिन कृष्ण गोपी को इसलिए नहीं पसन्द क्योंकि वह सुख देता। कृष्ण तो परेशान कर दिया था। माखन चुरा लेता, कपडे छीन लेता, सब तरह के कष्ट देता। गोपी तो कृष्ण को खुश करना चाहती है। उसी में उसकी खुशी है। प्रेम का अर्थ तृप्ति है, "प्रीञ् तर्पणे"। दूसरे को सन्तोष देना ही प्रीति है। प्रेम निरुपाधिक होने से आश्रयकर्तृक और रुचि सोपाधिक होने से विषयकर्तृक।।
इसे संस्कृत में ऐसे कहेंगे
"मोदको मह्यम् रोचते"
(मोदक मुझे पसन्द है)।
"अहं कृष्णं प्रीणामि"
(मैं कृष्ण को चाहती/प्रेम करती हूँ)
श्रीकृष्णर्पणम् अस्तु
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