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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

एनएसजी की सदस्यता का हकदार है भारत

(अरविंद जयतिलक)

परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश को लेकर होने वाले मतदान से ठीक पहले अमेरिका ने भारत का खुला समर्थन कर पाकिस्तान और चीन के विरोध को दरकिनार कर दिया है। उसके विदेश विभाग के उप प्रवक्ता मार्क टोनर ने दो टुक कहा है कि एनएसजी में भारत के प्रवेश का संबंध हथियारों की होड़ या परमाणु हथियारों से कुछ भी लेना-देना नहीं। यह सिर्फ परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल से जुड़ा मामला है। उधर ब्रिटेन भी भारत का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत अपने असैन्य परमाणु उद्योग के आकार और सैनिक सामग्री का प्रसार रोकने की प्रतिबद्धता के कारण इस संस्था में शामिल होने के काबिल है। उल्लेखनीय है कि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह 48 देशों का विशिष्ट क्लब है, जो नाभिकीय निरस्त्रीकरण के लिए प्रयासरत है। इसका गठन 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण की प्रतिक्रियास्वरूप ही किया गया था। इसका कोई स्थायी कार्यालय नहीं है और सभी मामलों में फैसला सर्वसम्मति के आधार पर होता है। चूंकि चंद दिनों बाद इसके वार्षिक बैठक में भारत की सदस्यता को लेकर मतदान होना है, लिहाजा चीन और पाकिस्तान ने विरोध जताते हुए मोर्चाबंदी शुरू कर दी है। पाकिस्तान ने दलील दी है कि भारत के एनएसजी में प्रवेश से इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों की होड़ बढ़ेगी जिससे स्थिति तनावपूर्ण होगी। वहीं चीन उपदेश बघार रहा है कि अगर भारत एनएसजी का सदस्य बनना चाहता है तो उसे परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर करना चाहिए।

गौरतलब है कि एनपीटी का उद्देश्य विश्व भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर अंकुश लगाना है। इसके इतिहास में जाएं तो सोवियत संघ और अमेरकिा ने परमाणु अस्त्रों के उत्पादन को सीमित करने और उनके प्रयोग एवं परीक्षण पर रोक लगाने के लिए अगस्त 1967 में अलग-अलग, परंतु एक जैसी संधियों के प्रारूप प्रस्तुत किए। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 12 जून, 1968 को इसे भारी बहुमत से स्वीकृति प्रदान कर दी और एक जुलाई, 1968 को हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत कर दी गई। इसी दिन अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ और 50 से अधिक देशों ने उस पर हस्ताक्षर किए। यह संधि पांच मार्च, 1970 से प्रभावी हो गई। इस संधि के तहत परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है जिसने एक जनवरी, 1967 से पहले परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण कर लिया हो। यही वजह है कि परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्र होने के बाद भी एनपीटी ने भारत को परमाणुशक्ति संपन्न देश की मान्यता नहीं दी है, जबकि यह सचाई है कि भारत इस संधि को प्रस्तुत करने वाला सहयोगी देश था। परमाणु प्रसार रोकने की प्रतिबद्धता के तहत भारत ने नवंबर 1965 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा तय किए गए सिद्धांतों का भी समर्थन किया, लेकिन जब 1968 में 11 सूची संधि पर हस्ताक्षर हुए तो भारत ने पाया कि यह न तो उसके द्वारा निर्धारित मापदंडों और न ही महासभा में सहमत सिद्धांतों के अनुरूप है। लिहाजा उसने एनपीटी पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। इस संधि की शर्तो पर गौर करें तो इसमें व्यवस्था दी गई है कि कोई भी परमाणु संपन्न देश अकेले या मिलकर अपने अस्त्र किसी भी राष्ट्र को नहीं देंगे। अणु शक्ति वाले देशों को आयुध वाले राष्ट्रों से किसी भी प्रकार के आणविक अस्त्र प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिए। संधि पर हस्ताक्षर करने वाला प्रत्येक राष्ट्र आणविक अस्त्रों की होड़ समाप्त करने और आणविक नि:शस्त्रीकरण को प्रभावशाली बनाने के लिए बाध्य होगा। इसके अलावा संधि में यह भी व्यवस्था है कि गैर अणुशक्ति वाले देशों को कम कीमत पर परमाणु के शांतिपूर्ण उपयोग के कारण बड़े लाभ मिल सकेंगे, लेकिन उल्लेखनीय बात यह कि इस संधि के प्रारूप पर आपत्ति दर्ज कराते हुए फांस, इटली, जर्मनी और भारत ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भारत ने तर्क दिया कि यह संधि भेदभावपूर्ण, असमानता पर आधारित एकपक्षीय और अपूर्ण है। हालांकि भारत को इस संधि पर हस्ताक्षर न करने के कारण परमाणु क्लब के सदस्यों की भारी आलोचना का सामना करना पड़ा, लेकिन भारत आज भी अपने उसी पुराने तर्क पर कायम है कि आणविक आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्षेत्रीय नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। भारत के इस तर्क से विश्व के कई देश सहमत भी हैं।

दरअसल यह संधि छोटे राष्ट्रों के हितों को सुरक्षित रखने और समयानुकूल परिवर्तन करने में सक्षम है ही नहीं। गौर करें तो इस संधि के द्वारा एक ओर तो यह प्रतिबंध लगाया गया है कि जो राष्ट्र अभी तक परमाणु बम नहीं बना सके हैं, वे भविष्य में भी नहीं बनाएंगे। दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से परमाणु विहिन राष्ट्रों को अणुशक्ति संपन्न राष्ट्र द्वारा आणविक हमले के समय जो गारंटी दी गई वह भी अपर्याप्त है।

इसके अलावा परमाणु संधि करने वाले राष्ट्रों के पास ऐसा कोई मापदंड नहीं है जिससे सैनिक कार्यो एवं असैनिक कार्यो में स्पष्ट रूप से विभाजन किया जा सके, ताकि यह शंका न रहे कि असैनिक कार्यो में किए गए अणु प्रयोग सैनिक कार्यो में प्रयुक्त हो सकेंगे। परमाणु अप्रसार संधि के अमल में आने और परमाणु प्रौद्योगिकी पर कुछ विशिष्ट देशों के अधिकार के बावजूद भी पश्चिमी देशों की व्यापारिक वृद्धि और आपसी प्रतिद्वंद्विता के कारण परमाणु तकनीकी का काफी विस्तार हुआ है। अमेरिका, सोवियत संघ, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा और चीन के बाहर कम से कम डेढ़ दर्जन देश ऐसे हैं जहां पश्चिमी देशों ने परमाणु प्रौद्योगिकी बेची और पहुंचाई है। पश्चिमी कंपनियां विकासशील देशों में तकरीबन चार दर्जन परमाणु रिएक्टर लगी चुकी हैं। यहां मौजूं सवाल यह कि जब परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर फ्रांस के हस्ताक्षर न करने के बाद भी उसे एनएसजी में प्रवेश दिया जा सकता है तो फिर भारत को क्यों नहीं? वैसे भी भारत एक शांति प्रिय देश है और उसका परमाणु अप्रसार संबंधित संस्थाओं से गहन संबंध रहा है। भारत हमेशा से परमाणु शस्त्रों के निषेध का पक्षधर रहा है। उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परमाणु प्रसार को रोकने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ध्यान देना होगा कि दो अप्रैल, 1954 के ‘स्टैंडस्टील एग्रीमेंट’ से लेकर 18 देशों के नि:शस्त्रीकरण समिति और बाद में नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन के माध्यम से उसने हमेशा एक परमाणु अस्त्रों से मुक्त विश्व गढ़ने का समर्थन किया है। इस सम्मेलनों के माध्यम से एक व्यापक और सार्वभौमिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि बनाने पर जोर दिया है।

ध्यान देना होगा कि 1963 में आंशिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि (पीटीबीटी) को अंतिम रूप प्रदान करने में भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दिसंबर 1993 में भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध संधि का }यौरा संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश किया। सच तो यह है कि भारत हमेशा ही परमाणु ऊर्जा का उपयोग हथियार बनाने के बजाय लोगों के जीवन स्तर को सुधारने और आर्थिक खुशहाली में करने का पक्षधर रहा है। भारत परमाणु अस्त्रों के पहले इस्तेमाल न करने के अपने वादे पर अभी भी कायम है, जबकि चीन-पाकिस्तान समेत सभी पश्चिमी देशों में इस पर मतभेद है। ऐसे में यह आशंका उचित नहीं कि एनएसजी में भारत को सदस्यता मिलने पर भारतीय उपमहाद्वीप में अस्थिरता फैलेगी या हथियारों की होड़ बढ़ जाएगी। सच यह है कि चीन और पाकिस्तान एनएसजी में भारत की सदस्यता का इसलिए विरोध कर रहे हैं कि अमेरिका से उनके संबंध तनावपूर्ण हैं। पाकिस्तान इसलिए भी चिढ़ा हुआ है कि एक ओर अमेरिका की प्रतिनिधि सभा ने भारत के साथ रक्षा संबंध विकासित करने और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए एक द्विदलीय समर्थन वाले बिल को मंजूरी दे दी है वहीं पाकिस्तान को आठ एफ-16 लड़ाकू विमान देने का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है। ऐसे में लाजिमी है कि पाकिस्तान और उसकेआका चीन का भारत विरोध का विलाप-प्रलाप तेज होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

शरणार्थी समस्या पर तवज्जो जरूरी

(मनीषा सिंह)
पिछले दिनों भूमध्य सागर में हुए नाव हादसों में 700 से ज्यादा लोगों की मौत की घटना का मानव इतिहास के बीते 50 साल की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदियों में दर्ज किया जाए तो कोई हैरानी नहीं होगी। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार प्रवासी शरणार्थियों को यूरोप ले जा रही कुछ नावों के पलट जाने और खराब मौसम का शिकार बन जाने की ये घटनाएं साबित कर रही हैं कि अफ्रीका से यूरोप पलायन कर रहे प्रवासियों को कितने कठिन हालात का सामना करना पड़ रहा है। पिछले कुछ ही अरसे में हिंसाग्रस्त पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका से दस लाख से ज्यादा लोगों का पलायन अपेक्षाकृत शांत और स्थिर यूरोप की तरफ हुआ है-यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र की रिफ्यूजी एजेंसी और इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन जारी कर चुकी है। पलायन की इस आपाधापी में हजारों लोगों का समुद्री रास्ते में डूबकर मर जाना या फिर गायब हो जाना मानव इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी की ओर इशारा कर रहा है। पिछले साल पलायन के प्रयास में तुर्की के तट पर बहकर आए मासूम, तीन वर्षीय मृत सीरियाई बच्चे आयलान कुर्दी की तस्वीर ने पूरी दुनिया को विचलित कर दिया था, पर इसका एक परिणाम निकला कि दुनिया का ध्यान पलायन की इस समस्या की तरफ गया। इससे पहले अनगिनत बार ऐसा हुआ है, जब अवैध ढंग से यूरोपीय देश में घुसने की कोशिश करते सैकड़ों लोग कंटेनरों या ठसाठस भरी नौका के बीच रास्ते डूबने के कारण जान गंवा चुके हैं। दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति अपना घर-बार आसानी से छोड़ने को राजी होता है, लेकिन सीरिया, इराक, यमन, लेबनान, सूडान, लीबिया, इथोपिया, सोमालिया, नाइजीरिया और अफगानिस्तान आदि दर्जनों देशों से ऐसा पलायन जारी है। इसके पीछे सिर्फ बेहतर जीवन की आस नहीं है, बल्कि खुद को और अपने परिवार की जिंदगी बचाने और किसी तरह जीवन को सुरक्षित बचा लेने की कोशिश है। जिन देशों से हजारों की संख्या में लोग पलायन कर रहे हैं, उन ज्यादातर देशों में गृह युद्ध की स्थितियां हैं। मजहब के नाम पर मारकाट जारी है। ग्रीस, इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, बुल्गारिया, साइप्रस, माल्टा आदि देशों में जैसे-तैसे पहुंचने के लिए ये लोग मानव तस्करों के शिकार भी बन रहे हैं। भारी-भरकम रकम के बदले ये तस्कर अवैध तरीकों से लोगों को कंटेनरों में भरकर या रबर की समुद्री नौकाओं में ठूंसकर रवाना करते हैं, पर रास्ते के खतरों से उन्हें बचाने का कोई जतन नहीं करते। ऐसा भी नहीं है कि जान पर खेलकर और जीवन की सारी जमापूंजी दांव पर लगाने के बाद इनकी जिंदगी सुरक्षित हो ही जाएगी। यूरोप के जिन देशों की आबादी तेजी से बढ़ रही है, वे प्रवासियों के आगमन पर खुश नहीं होंगे। ऐसे में अपनी आबादी का बढ़ता बोझ देख रहे ये देश ज्यादा लंबे समय तक प्रवासियों को अपने यहां डेरा डाले नहीं देख सकते। हालांकि जर्मनी जैसे देशों को ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। जिन देशों में जन्मदर में गिरावट हो रही है, वहां यह डर सता रहा है कि श्रमशक्ति की कमी के चलते वे अपने आर्थिक प्रतिद्वंद्वियों के सामने ठहर नहीं पाएंगे। इसलिए सस्ते श्रम की जरूरत के मद्देनजर वे प्रवासियों के लिए दरवाजे खोल सकते हैं। जर्मनी के बाद ऐसे देशों में ग्रीस, बाल्टिक के देश, हंगरी और रोमानिया शामिल हैं। हालांकि कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अधिक प्रवासियों का मतलब है सरकारी खजाने में अधिक टैक्स आना, सार्वजनिक सेवाओं स्वास्य, शिक्षा आदि का विस्तार होना। लेकिन सरकार को सार्वजनिक सेवाओं की बढ़ती हुई मांग से निपटने के लिए और ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। ऐसे में यूरोपीय देश जल्द प्रवासियों को बाहर का रास्ता दिखाने का विकल्प चुन सकते हैं। वैसे तो इन ज्यादातर देशों का अत्यधिक ठंड मौसम एक बड़ी मुश्किल है, जिसके सामने टिकना भी चुनौती ही है, पर जिंदगी की जद्दोजहद में प्रवासियों ने फिलहाल इसकी परवाह नहीं की है। यहां एक सवाल यह भी कि खुद खाड़ी के अमीर मुल्कों ने पड़ोसी देशों से पलायन कर रहे लोगों की मदद का जज्बा क्यों नहीं दिखाया? हो सकता है कि इससे वे अपनी जनसंख्या का अनुपात बिगड़ने और संसाधनों के बंटवारे जैसी समस्या से डरे हुए हों, लेकिन उनका यह रवैया खेदजनक ही है। मानव इतिहास के बीते 50 साल की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी कही जा रही इस शरणार्थी समस्या पर दुनिया को पूरी गंभीरता से विचार करना होगा।(RS)

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