पिछले दिनों भूमध्य सागर में हुए नाव हादसों में 700 से ज्यादा लोगों की मौत की घटना का मानव इतिहास के बीते 50 साल की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदियों में दर्ज किया जाए तो कोई हैरानी नहीं होगी। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार प्रवासी शरणार्थियों को यूरोप ले जा रही कुछ नावों के पलट जाने और खराब मौसम का शिकार बन जाने की ये घटनाएं साबित कर रही हैं कि अफ्रीका से यूरोप पलायन कर रहे प्रवासियों को कितने कठिन हालात का सामना करना पड़ रहा है। पिछले कुछ ही अरसे में हिंसाग्रस्त पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका से दस लाख से ज्यादा लोगों का पलायन अपेक्षाकृत शांत और स्थिर यूरोप की तरफ हुआ है-यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र की रिफ्यूजी एजेंसी और इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन जारी कर चुकी है। पलायन की इस आपाधापी में हजारों लोगों का समुद्री रास्ते में डूबकर मर जाना या फिर गायब हो जाना मानव इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी की ओर इशारा कर रहा है। पिछले साल पलायन के प्रयास में तुर्की के तट पर बहकर आए मासूम, तीन वर्षीय मृत सीरियाई बच्चे आयलान कुर्दी की तस्वीर ने पूरी दुनिया को विचलित कर दिया था, पर इसका एक परिणाम निकला कि दुनिया का ध्यान पलायन की इस समस्या की तरफ गया। इससे पहले अनगिनत बार ऐसा हुआ है, जब अवैध ढंग से यूरोपीय देश में घुसने की कोशिश करते सैकड़ों लोग कंटेनरों या ठसाठस भरी नौका के बीच रास्ते डूबने के कारण जान गंवा चुके हैं। दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति अपना घर-बार आसानी से छोड़ने को राजी होता है, लेकिन सीरिया, इराक, यमन, लेबनान, सूडान, लीबिया, इथोपिया, सोमालिया, नाइजीरिया और अफगानिस्तान आदि दर्जनों देशों से ऐसा पलायन जारी है। इसके पीछे सिर्फ बेहतर जीवन की आस नहीं है, बल्कि खुद को और अपने परिवार की जिंदगी बचाने और किसी तरह जीवन को सुरक्षित बचा लेने की कोशिश है। जिन देशों से हजारों की संख्या में लोग पलायन कर रहे हैं, उन ज्यादातर देशों में गृह युद्ध की स्थितियां हैं। मजहब के नाम पर मारकाट जारी है। ग्रीस, इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, बुल्गारिया, साइप्रस, माल्टा आदि देशों में जैसे-तैसे पहुंचने के लिए ये लोग मानव तस्करों के शिकार भी बन रहे हैं। भारी-भरकम रकम के बदले ये तस्कर अवैध तरीकों से लोगों को कंटेनरों में भरकर या रबर की समुद्री नौकाओं में ठूंसकर रवाना करते हैं, पर रास्ते के खतरों से उन्हें बचाने का कोई जतन नहीं करते। ऐसा भी नहीं है कि जान पर खेलकर और जीवन की सारी जमापूंजी दांव पर लगाने के बाद इनकी जिंदगी सुरक्षित हो ही जाएगी। यूरोप के जिन देशों की आबादी तेजी से बढ़ रही है, वे प्रवासियों के आगमन पर खुश नहीं होंगे। ऐसे में अपनी आबादी का बढ़ता बोझ देख रहे ये देश ज्यादा लंबे समय तक प्रवासियों को अपने यहां डेरा डाले नहीं देख सकते। हालांकि जर्मनी जैसे देशों को ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। जिन देशों में जन्मदर में गिरावट हो रही है, वहां यह डर सता रहा है कि श्रमशक्ति की कमी के चलते वे अपने आर्थिक प्रतिद्वंद्वियों के सामने ठहर नहीं पाएंगे। इसलिए सस्ते श्रम की जरूरत के मद्देनजर वे प्रवासियों के लिए दरवाजे खोल सकते हैं। जर्मनी के बाद ऐसे देशों में ग्रीस, बाल्टिक के देश, हंगरी और रोमानिया शामिल हैं। हालांकि कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अधिक प्रवासियों का मतलब है सरकारी खजाने में अधिक टैक्स आना, सार्वजनिक सेवाओं स्वास्य, शिक्षा आदि का विस्तार होना। लेकिन सरकार को सार्वजनिक सेवाओं की बढ़ती हुई मांग से निपटने के लिए और ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। ऐसे में यूरोपीय देश जल्द प्रवासियों को बाहर का रास्ता दिखाने का विकल्प चुन सकते हैं। वैसे तो इन ज्यादातर देशों का अत्यधिक ठंड मौसम एक बड़ी मुश्किल है, जिसके सामने टिकना भी चुनौती ही है, पर जिंदगी की जद्दोजहद में प्रवासियों ने फिलहाल इसकी परवाह नहीं की है। यहां एक सवाल यह भी कि खुद खाड़ी के अमीर मुल्कों ने पड़ोसी देशों से पलायन कर रहे लोगों की मदद का जज्बा क्यों नहीं दिखाया? हो सकता है कि इससे वे अपनी जनसंख्या का अनुपात बिगड़ने और संसाधनों के बंटवारे जैसी समस्या से डरे हुए हों, लेकिन उनका यह रवैया खेदजनक ही है। मानव इतिहास के बीते 50 साल की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी कही जा रही इस शरणार्थी समस्या पर दुनिया को पूरी गंभीरता से विचार करना होगा।(RS)
भारत-ईरान : द्विपक्षीय संबंधों में नया अध्याय
(प्रो. लल्लन प्रसाद)
अपनी हाल की ईरान यात्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां के राष्ट्रपति हसन रुहानी के साथ जिन समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं वे आर्थिक और सामरिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। तेरह वर्षो बाद भारत और ईरान फिर एक दूसरे के करीब आए हैं, दोस्ती का हाथ दोनों ओर से बढ़ा है, दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता महसूस हुई है। 2003 से ठंडे बस्ते में पड़े हुए चाबहार बंदरगाह के निर्माण का रास्ता खुल गया है। ईरान को कचे तेल का बड़ा बाजार फिर मिल गया है। पाकिस्तान में चीन द्वारा ग्वादर बंदरगाह के निर्माण का काट भी खोज लिया गया है। अफगानिस्तान से सीधे व्यापार और यातायात से चीन और पाकिस्तान दोनों के मंसूबों पर पानी फेरा जा सकता है।
चाबहार बंदरगाह की दूरी चीन द्वारा निर्मित ग्वादर बंदरगाह से मात्र 100 किलोमीटर है। भारत और ईरान इसके निर्माण के लिए 2003 में समझौता कर चुके थे, किंतु पश्चिमी देशों द्वारा ईरान पर प्रतिबंध लगा देने से इसका निर्माण कार्य शुरू नहीं हो सका था। ईरान से तेल का निर्यात भी रुक गया। ईरानी कचे तेल की गुणवत्ता भारतीय रिफाइनरियों के अनुकूल थी, किंतु प्रतिबंधित होने से आयात बंद करना पड़ा। नए समझौते के फलस्वरूप 2016-17 में चार लाख बैरल प्रतिदिन कचे तेल का भारत में आयात संभव हो सकेगा। चाबहार बंदरगाह बन जाने से जहेदान तक रेल लाइन बिछ जाएगी, जिसका निर्माण भी भारतीय रेल कंपनी इरकान करेगी। इससे समूचे ईरान की रेल व्यवस्था जोड़ी जा सकेगी और अफगानिस्तान तक यातायात का रास्ता खुल जाएगा।
इसके साथ ही भारतीय माल के निर्यात में आने वाली कठिनाइयां कम हो जाएंगी। भारत-पाकिस्तान को बाईपास करके अफगानिस्तान से खुलकर व्यापार कर पाएगा। यह रेलवे लाइन लगभग 500 किलोमीटर लंबी होगी। इसके अलावा 2009 में भारत ने 600 करोड़ रुपये की लागत से 218 किलोमीटर लंबी जो सड़क अफगानिस्तान को जोड़ने के लिए बनाई थी उसे ईरान के सड़क नेटवर्क से जोड़ दिया जाएगा। आगे यह सड़क अफगानिस्तान के देलाराम तक जाएगी। इस तरह भारत, अफगानिस्तान और ईरान सड़क, रेल और पोर्ट नेटवर्क से जुड़ जाएंगे।
चाबहार बंदरगाह के निर्माण के प्रथम चरण में भारत 3400 करोड़ रुपये देगा, जिसमें एक तिहाई के करीब क्रेडिट लाइन, जो एक्जिम बैंक ईरान के मैरीटाइम एवं पोर्ट ऑर्गनाइजेशन को देगी, शामिल है। बंदरगाह ईरान के दक्षिणी तट पर स्थित होने से ईरान के सिस्तान और बलूचिस्तान के बीच एक रीजनल टेड हब को विकसित करने में सहायक होगा। पोर्ट से जो सड़क बनेगी वह अफगानिस्तान के गारलैंड रोड नेटवर्क पर स्थित चार बड़े शहरों-हेरात, कंधार, काबुल और मजार-ए-शरीफ को जोड़ेगी। भविष्य में इस रूट को ईरान से रूस और यूरोप तक के ट्रांसपोर्ट कॉरिडर के रूप में विकसित किया जाएगा। इस पूरे प्रोजेक्ट को अंजाम तक ले जाना आसान नहीं होगा। पाकिस्तान वही हरकतें ईरान और अफगानिस्तान की सीमाओं पर करता आ रहा है जो वह कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर कर रहा है। आए दिन घुसपैठ, गोलाबारी और आतंकी हमले पाकिस्तान की ओर से होते रहे हैं, जो प्रोजेक्ट के निर्माण में बाधा डालेंगे और उसके बाद भी व्यवधान पैदा कर सकते हैं। चीन की भी इसमें मिलीभगत है। ग्वादर बंदरगाह का विकास चीन भारत को घेरने के लिए कर रहा है। इससे उसको अपना व्यापार फैलाने में मदद मिलेगी, सामरिक लाभ भी होगा। चाबहार बंदरगाह के निर्माण का भारत का फैसला चीन को नहीं भा रहा है। उसकी पर्ल ऑफ स्प्रिंग नीति का यह काट होगा।
ईरान पर तेरह वर्षो से प्रतिबंध लगे रहने के कारण भारत और ईरान के बीच कचे तेल का कारोबार रुका हुआ था। उम्मीद है अब वह फिर से पटरी पर आ जाएगा। भारत को ईरान से पहले आए हुए कचे तेल की बकाया कीमत 6.4 बिलियन डॉलर चुकानी है। इंडियन रिफाइनरी इस्सर, जो कचे तेल का आयात करती थी, ने 1.2 बिलियन डॉलर के भुगतान का तुरंत वादा करके व्यापार के लिए अछा संदेश दिया है।
चाबहार बंदरगाह के साथ जिन अन्य विषयों पर समझौते हुए उनमें द्विपक्षीय व्यापार, निवेश, लोन, इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रौद्योगिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान सम्मिलित हैं। ईरान से कचे तेल का आयात भारत की ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होगी।
ईरान को भारतीय पूंजी निवेश से सड़क, रेल और पार्ट के विकास में मदद मिलेगी। भारतीय कंपनी ओएनजीसी ने 2006 में ईरान में पारजाद गैस फील्ड की खोज की थी। उसमें उत्पादन रुका हुआ था, अब यह शुरू हो सकता है। चाबहार फ्री टेड जोन में भारतीय कंपनी नेल्को एल्युमिनियम स्मेल्टर प्लांट लगाना चाहती है, जो कि अब संभव हो सकेगा। कंपनी इस प्लांट के लिए ईरान सरकार से सस्ते दर पर गैस की अपेक्षा करती है, जिसके मिलने की पूरी संभावना है। जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट और कांडला पोर्ट मिलकर 640 मीटर के दो कंटेनर बर्थ और तीन मल्टी कार्गो बर्थ का चाबहार में निर्माण करेंगे। अफगानिस्तान और मध्य एशिया में त्रिपक्षीय परिवहन व्यवस्था भारतीय, ईरानी और अफगानिस्तानी कंपनियों और उद्योगपतियों को व्यापार बढ़ाने के नए अवसर प्रदान करेगी।
समझौते का महत्व इस बात से भी बढ़ जाता है कि दोनों देशों के नेताओं ने इस पर संवेदनशीलता दिखाई है। ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी ने इसे तीनों देशों के संबंधों में बसंत ऋतु की संज्ञा दी तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फारसी के एक हाफिज की मशहूर पंक्तियां दुहराईं जो कहती है-जुदाई के दिन खत्म हुए, इंतजार की रात खत्म हो रही है, हमारी दोस्ती हमेशा बरकरार रहेगी। विश्व के बदलते राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में यह समझौता मील का पत्थर बन सकता है। चीन भारत को घेरने का प्रयास और हिंद महासागर में पाकिस्तान की मदद से अपनी घुसपैठ तेज करने की जो रणनीति बना रहा है, उसे देखते हुए भारत को अपनी विदेश नीति को नई दिशा देने की आवश्यकता है। समझौते में भारत और ईरान के बीच सुरक्षा मामले से जुड़े मुद्दे भी शामिल हैं।
आर्थिक सहयोग दोनों देशों की आवश्यकता है। एक दशक पूर्व भारत ईरानी कचे तेल के सबसे बड़े ग्राहकों में एक था। ईरान की अर्थव्यवस्था में उसका बड़ा योगदान था। इतने दिनों के इंतजार के बाद ईरान को फिर यह अवसर मिला है। चाबहार बंदरगाह बन जाने से मुंबई से चाबहार और वहां से काबुल का रास्ता भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच आर्थिक सहयोग और व्यापार में सहायक तो होगा ही, साथ ही साथ पाकिस्तान को बाईपास करते हुए मध्य एशिया के अनेक देशों के साथ व्यापार बढ़ाने के द्वार खोलेगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग के प्रमुख रहे हैं)(DJ)
0 comments:
Post a Comment