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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

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हमारा संगीत ।।


एक दिन की बात है। कप और प्लेट मेज़ के एक कोने में सो रहे थे। अचानक! चम्मच की खटपट से उनकी नींद टूट गई। नींद टूटते ही वे चिल्लाए, "तुम्हें दिखता नहीं, हम सो रहे हैं।"

चम्मच मायूसी से बोला, "दोस्त, मैं क्या करूँ। जब जिसका मन करता है, मुझे इधर से उधर पटक देता है। मैं अपना दर्द किससे कहूँ? मेरा दर्द समझने वाला तो कोई भी नहीं है।"

कप और प्लेट को लगा कि वह सही बात कह रहा है। वे भी बोल उठे, "सही कहा, हमारा दर्द भी कम नहीं है। अचानक! हमारे ऊपर गर्म पानी डाल दिया जाता है। कभी-कभी तो उफ! ठंडा पानी भी डाल देते हैं। लोग। तुम भी तो हमारा हाल समझने की कोशिश करो।"

दोनों की बातें सुनकर मेज़ से भी नहीं रहा गया। वह बोली, "तुम सभी लोग हर वक्त मुझ पर सवार रहते हो । मेरा क्या हाल होता होगा, ये तुम लोगों को क्या पता? यह तो सही नहीं है। इसका कुछ तो हल निकलना चाहिए!" चम्मच, कप और प्लेट मिलकर शोर मचाने लगे, "हमें इंसाफ चाहिए, हमें इंसाफ चाहिए।"

तभी मालकिन किसी कारीगर को लेकर आ गईं, ज़रा देखो तो सही, ये मेज़ कई दिनों से डगमगा रही है, इसे सही कर दो, वरना सारे बर्तन गिर जाएँगे।" कारीगर ने मेज़ की पीठ पर दो कीलें ठोंक दीं। मेज़ थर्राकर रह गई। उसके जाते ही मेज़ ने रोनी सूरत बनाकर कहा, "अब बताओ किसका दुख ज्यादा है।" मेज़ की बातें सुनकर सभी को लगा कि वह सही कह रही है। उसका दुख भी कम नहीं है।

फिर तो कप, चम्मच, प्लेट... सभी खनखनाकर बजने लगे। डिश बोली, "हमें दुख में भी हँसते रहना चाहिए।" चम्मच बोला, “हमारा बजना ही तो हमारा संगीत है।"

गणित की कॉपी ।।


रोज़ की तरह माँ ने दलजीत को आवाज़ लगाई। दलजीत अभी भी बिस्तर में ही थी। आज उसका स्कूल जाने का मन नहीं था। तभी माँ को बस के हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी। माँ ने ऊँची आवाज़ में कहा, "दलजीत क्या तुम्हें आज स्कूल नहीं जाना?" दलजीत ने बिस्तर में लेटे-लेटे ही कहा, "माँ आज मेरा स्कूल जाने का मन नहीं है।" माँ दूसरा सवाल पूछ पाती उससे पहले ही स्कूल की बस दो बार हॉर्न बजाकर जा चुकी थी।

लगभग दो घंटे के बाद जब दलजीत सोकर उठी, तो वह बहुत उदास थी। माँ उसके पास गई। पर दलजीत आँखें मूँदे पड़ी रही। कुछ देर तक उसने किसी से बात तक नहीं की। माँ ने दलजीत से नाश्ता करने के लिए कहा, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। सुबह से दोपहर हो गई। इस बार माँ ने दलजीत से कहा, "तुम स्कूल तो नहीं गई, लेकिन अपना होमवर्क तो पूरा कर लो। दलजीत चुप रही. मानो उसने कुछ सुना ही न हो। चुपचाप अपने कमरे में जाकर उसने अपना बैग खोला। बैग से गणित की कॉपी निकाली। कुछ पन्नों को पलटा । एक पन्ने पर स्टार बना हुआ था। दूसरे पन्ने पर एक छोटा-सा मुस्कराता चेहरा बना हुआ था, कहीं-कहीं गलती करने पर गोले भी बने हुए थे। कॉपी के आखिरी पन्ने पर नीलम मैडम के हस्ताक्षर थे । दलजीत ने नीलम मैडम के नाम पर प्यार से हाथ फेरा। आज से उसकी सबसे प्यारी टीचर उसे स्कूल में नहीं दिखेंगी... दलजीत की आँख से एक आँसू गिरा और उसने कॉपी बंद करके गले से लगा लिया।

मेरे जैसी ।।



एक सप्ताह बाद ईद आने वाली थी। आज इतवार का दिन था इसलिए अम्मी अब्बू घर की साफ-सफाई में लगे हुए थे। बाकी दिन तो अम्मी अब्बू को दफ़्तर से फुर्सत ही नहीं मिलती थी । साफ़-सफाई में थोड़ी-बहुत मदद ज़ोया भी कर रही थी या यूँ कहें कि काम को और आगे बढ़ा रही थी। किताबों की अलमारी साफ़ करते वक़्त अब्बू ने सभी किताबें मेज़ पर रखीं। वह एक-एक किताब को साफ़ करके अलमारी में रखने लगे। ज़ोया जोकि बहुत देर से किताबों को उलट-पलट रही थी उसने अब्बू से पूछा, "अब्बू पढ़-लिखकर क्या होता है?"

"बेटा पढ़-लिखकर कलेक्टर, डॉक्टर, टीचर और भी बहुत कुछ बन सकते हैं। तुम क्या बनोगी?" अब्बू ने एक और किताब अलमारी में रखते हुए कहा । "डॉक्टर बनेगी", चारपाई पर लेटे-लेटे दादा जी ने कहा। "नहीं- नहीं टीचर बनेगी हमारी जोया ताकि अपने घर को भी वक़्त दे पाए", कुर्सी पर बैठी दादी ने कहा । "पर अब्बू मैं तो..." जोया अपनी बात पूरी कर पाती, उससे पहले ही अब्बू ने कहा, "तुम तो पढ़-लिखकर इंजीनियर बनना और मेरा अधूरा ख़्वाब पूरा करना।" "पर अब्बू मैं तो..." मैं तो क्या मेरी बच्ची तुम तो सबसे पहले अच्छा इंसान बनना।" अम्मी ने उसकी बात काटते हुए कहा । "हम्म... पर मैं क्या बनना चाहती हूँ, मुझसे भी तो कोई पूछ लीजिए," ज़ोया ने झल्लाते हुए कहा । "हाँ, बताओ तो तुम क्या बनना चाहती हो?" सभी ने एक आवाज़ में पूछा। "मैं तो, मेरे जैसी ही बनना चाहती हूँ।" जोया की यह बात सुनकर सभी एक-दूसरे की तरफ़ हैरानी से देखने लगे ।

शरारत की पुड़िया ।।


मैं आज अपने घर लौटा तो घर की हालत देखकर मेरा सिर चकरा गया। टेबल पर किताबें उल्टी-पुल्टी पड़ी थीं। कुशन जो सोफे पर रहता था, वह ज़मीन पर गिरा हुआ था । कुशन के हाथ-पैर तो होते नहीं, जो खुद नीचे गिर जाए? ज़रूर यहाँ कोई आया है और जान बूझकर ऐसा किया है।

घर के लोग बुआ की बेटी की शादी की तैयारियों में लगे हुए हैं। उन्होंने इस बात पर ध्यान भी नहीं दिया होगा कि घर कितना बिखरा हुआ है। अब इस बात का पता मुझे ही लगाना होगा कि ये सब किस की हरकत है! मेरे दिमाग़ में अभी भी यही प्रश्न चल रहा है कि आखिर ये सब किसने किया होगा? यही सोचते हुए मैंने कपड़े बदले । थोड़ा आराम किया। फिर अपना जासूसी दिमाग चलाने लगा। लेकिन कुछ पता नहीं चल पा रहा था कि ये कैसे हुआ। जब कुछ समझ में नहीं आया तो मैं बरामदे में जाकर बैठ गया।

अचानक मेरी नज़र हिलते हुए पर्दे पर पड़ी। मैं दबे क़दमों से पर्दे की तरफ बढ़ा । फिर धीरे से पर्दा हटा दिया। वहाँ एक भूरी बिल्ली थी। मुझे देखते ही वह 'म्याऊँ म्याऊँ करने लगी।

शायद वह भूखी थी। मैंने उसे कटोरी में दूध दिया।

मुझे हँसी आ गई। क्योंकि मैंने जो कुछ भी सोचा था, वैसा कुछ भी नहीं था। यह सारा काम

इसी शरारत की पुड़िया का था!

खिलौने ।।



तारा फिर से स्कूल जाने लगी। उसके लिए सब कुछ नया था • उसके स्कूल के कपड़े, शिक्षक, - किताबें, यहाँ तक कि उसके दोस्त भी । वह समझ नहीं पा रही थी कि वह इन सभी नई चीजों के बारे में कैसा महसूस कर रही है। तारा ने सोचा, "कुछ ऐसा होना आसान है जिसे आप जानते हैं और प्यार करते हैं।" इसलिए, उसने अपना पसंदीदा खिलौना अपने स्कूल बैग में रख लिया। आज सुबह तारा की माँ ने अपने बैग से अपना पसंदीदा खिलौना निकाला। यह देख तारा दुखी हो गई। उसका चेहरा उदास हो गया । वह अपनी माँ के साथ स्कूल तक चुपचाप चलती रही।

स्कूल पहुँचकर तारा एक कोने में चुपचाप बैठी रही। कई बच्चे उसके साथ खेलते थे, लेकिन आज वह उनके साथ नहीं खेली। घंटी बजी। सभी बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए। लेकिन तारा वहीं रही ।

एक शिक्षिका ने तारा को देखा और उसे अपनी कक्षा में जाने को कहा। तारा धीरे-धीरे अपनी कक्षा में चली गई, लेकिन उसने किसी से बात नहीं की। शिक्षकों और बच्चों ने उससे बात करने की कोशिश की, लेकिन तारा ने कोई जवाब नहीं दिया। कक्षा में ढेर सारे खिलौने थे । कुछ बच्चे उनके साथ खेल रहे थे। तभी एक शिक्षिका एक बड़ा बैग लेकर आईं। वह बच्चों को उपहार देने लगी। उपहार पाकर सभी बच्चे खुश हो गए। तारा ने झिझकते हुए अपना उपहार उठाया और पैकेट खोला। अंदर का नज़ारा देखकर उसका चेहरा खिल उठा। उसको आश्चर्य हुआ, उपहार उसका पसंदीदा खिलौना था- जिसे उसकी माँ ने सुबह अपने स्कूल बैग से निकाला था ।

बहुत दिनों बाद ।।



"बहुत दिन बीत गए । स्कूल में कोई हलचल नहीं है। बच्चे मानो स्कूल का रास्ता भूल गए हों। हम पर तो धूल भी जम गई है। हाँ, बीते कुछ महीनों में हमें झाड़ा-पोछा ज़रूर गया था." एक कुर्सी ने कहा। तभी दूसरी बड़ी कुर्सी बोली, "पहले तो हम हर कार्यक्रम को सुनते थे और बीच-बीच में देख भी लेते थे। मुझे तो वह नाटक अभी तक याद है, जिसमें बड़ी और छोटी कुर्सियों के ज़रिए बड़ों के बीच छोटों की बात के महत्त्व को समझाया गया था।"

यह सुनकर छोटी कुर्सी चहक कर बोली, "तभी तो मैं यहाँ हूँ। और आप सभी मेरी बात को महत्त्व नहीं देते हैं। इसी के साथ मैं एक खुशख़बरी दूँ। आप सभी सुनकर खुशी से नाचने लगेंगी।"

"तो जल्दी बताओ कैसी ख़बर सुनने को मिलेगी ?" बड़ी कुर्सियों ने कहा । "ख़बर यह है कि आने वाले सोमवार को स्कूल में वही चहल-पहल होगी और बच्चों के स्वागत के लिए एक कार्यक्रम होगा।" "ख़बर पक्की है!" छोटी कुर्सियों को साफ़ करते-करते सुरेश अंकल अपने-आप में ही बतिया रहे थे, 'बच्चे फिर स्कूल आएँगे, कुर्सियों पर बैठ जाएँगे, झूम-झूमकर नाच-नाचकर सबको गीत सुनाएँगे । सुरेश अंकल कुर्सियाँ साफ़ भी कर रहे थे और गुनगुना भी रहे थे। स्कूल दोबारा खुलने से उनके चेहरे भी खिले हुए थे । वह भी बच्चों का स्वागत करने के लिए तैयार थे।

फुटबॉल ।।



रेहाना के घर के पास बाज़ार लगा है। वह अपने भाई राशिद से कहती है, "भैया, कुछ लेकर आते हैं।" राशिद तैयार हो गया। दोनों दादी जी के पास पहुँचे। दादी जी ने उनसे पूछा, "क्या लाओगे तुम दोनों ? "

राशिद बोला, "दादी जी, मुझे मोटर कार पसंद है। मैं मोटर कार ही लूँगा। रेहाना को गुड़िया पसंद है तो इसके लिए गुड़िया ही लेंगे।" "तुम्हें कैसे पता कि मैं गुड़िया ही लूँगी ?" रिहाना ने पूछा। "क्योंकि तू गुड़िया ही है। लड़कियाँ गुड़ियों से ही खेलती हैं।" राशिद ने कहा । "ऐसे तो तू गुड्डा है और तुझे गुड्डे से ही खेलना चाहिए।" रेहाना ने कहा। राशिद को कुछ समझ में नहीं आया कि क्या कहे। उसने इतना ही कहा, "तो फिर तू क्या लेगी?"

"मैं लूँगी फुटबॉल।" कहते हुए रेहाना ने पाँव से हवा में किक लगाई और ऊपर देखा। दादी जी मुस्कराई। फिर उन्होंने दोनों को उनकी पसंद के सामान खरीदने के लिए पैसे दिए ।

आम जैसा बनूँगा !



एक बाग़ था। उसमें आम और अंजीर के पेड़ थे। बच्चे हर रोज़ बाग़ में खेलने जाते। वे आम के पेड़ पर चढ़ते और खूब मस्ती करते। रसीले आम भी तोड़कर खाते । अंजीर का पेड़ छोटा था । उसे आम की खुशहाली देखकर बहुत कुढ़न होती। वह बात-बात पर चिढ़ जाता। यही कारण था कि उस पर न तो कोई चढ़ता था और न ही कोई पक्षी उस पर अपना घाँसला ही बनाता था। अंजीर के फल पकते और गिर जाते। बच्चों ने उसे भुला दिया था।

एक दिन मधुमक्खियों का एक झुण्ड आया। उन्हें अंजीर का पेड़ बहुत पसंद आया। रानी मक्खी ने अंजीर के पेड़ पर छत्ता बनाने की योजना बनाई। लेकिन अंजीर ने कहा, "ख़बरदार ! जो तुम सब मेरे पास आईं।" मधुमक्खियों ने अपना छत्ता आम के पेड़ पर बनाना चाहा, तो आम ने उनका भरपूर स्वागत किया ।

कुछ दिन बाद एक लकड़हारा आया। वह आम का पेड़ काटने लगा, लेकिन मधुमक्खियाँ तो उसकी मित्र थीं, उन्होंने भिन-भिनाकर लकड़हारे को भगा दिया। जब लकड़हारे की नज़र अंजीर के पेड़ पर पड़ी तो वह खुश हो गया, क्योंकि उस पर कोई भी छत्ता नहीं था । लकड़हारा अंजीर का पेड़ काटने लगा। पेड़ दर्द से कराह उठा। उसने मदद माँगी, लेकिन मधुमक्खियों ने इनकार कर दिया।

तब आम ने कहा, "अंजीर भी हमारा पड़ोसी दोस्त है। उसके पके फल बहुत से पशु-पक्षियों के काम आते हैं।"

बस फिर क्या था ! मधुमक्खियाँ लकड़हारे पर पर टूट पड़ीं। लकड़हारा भाग गया ।

अंजीर ने सोचा, 'हम सब को मिलकर रहना चाहिए।"

ऐसा नहीं करना था ।।


राधा के स्कूल के रास्ते में एक नदी पड़ती थी । नदी के आस-पास खेत थे। एक खेत में कद्दू की बेल लगी थी। स्कूल से लौटते समय राधा ने सोचा, "माँ कद्दू की सब्ज़ी बहुत अच्छी बनाती हैं। क्यों न एक कद्दू लेती चलूँ?"

उसने पहले एक कद्दू तोड़ा। फिर दूसरा अब उसके दोनों हाथों में एक-एक कद्दू था । राधा के बाल बहुत लम्बे थे। उसने तीसरा कद्दू अपनी चोटी में बाँध लिया। वह घर की ओर चल पड़ी । रास्ते में राधा को प्यास लगी। उसने दोनों कद्दू नदी किनारे रखे। फिर पानी पीने के लिए झुकी । अचानक! चोटी में बँधा कद्दू आगे आ गया और ज़ोर का झटका लगा। राधा नदी में लुढ़क गई। वह डूबने लगी। उसने बहुत मुश्किल से चोटी में बँधा कद्दू खोला। जैसे-तैसे वह नदी से बाहर निकली। उसकी साँस फूल रही थी।

उसने मन ही मन सोचा, "आज तो ये कद्दू मेरी जान ही ले लेते! वैसे भी ये कद्दू मेरे नहीं थे। मुझे इन्हें नहीं तोड़ना चाहिए था !"

वह घर की ओर चल पड़ी।

समुद्र की लहरें ।।


एक दिन रोहन अपने दोस्तों के साथ समुद्र तट पर गया। मौसम खुशगवार था। समुद्र से ठंडी हवा आ रही थी। कई लोग मौज-मस्ती करने के लिए किनारे पर थे। रोहन भी अपने दोस्तों के साथ मस्ती कर रहा था।

कुछ देर बाद रोहन को भूख लग गई। उसने अपने बैग से चॉकलेट निकाली। उसने रैपर खोला और खा लिया। चॉकलेट के स्वाद का लुत्फ़ उठाने में व्यस्त रोहन ने रैपर को किनारे पर फेंक दिया। अचानक! उसने देखा कि एक तेज़ लहर किनारे पर आई और चॉकलेट के रैपर को समुद्र में बहा ले गई। रोहन ने समुद्र तट की तरफ़ देखा । समुद्र तट पर बहुत कचरा था। एक के बाद एक लहरें रेत पर उड़ती गईं। यह ऐसा था जैसे लहरें समुद्र तट को साफ़ करने और कचरे को समुद्र में फेंकने की कोशिश कर रही हों ।

रोहन ने कुछ देर सोचा। फिर वह अपने दोस्तों के पास गया और कहा, "चलो सफाई करते हैं।" सब सफाई में जुट गए। कुछ घंटों तक उन्होंने कूड़ा उठाया और कूड़ेदान में डाल दिया ।

जब सारा काम हो गया और वे सब घर के लिए निकलने लगे, तभी रोहन ने समुद्र की तरफ़ देखा । समुद्र शांत था । लहरें अब बहुत धीमी गति से बह रही थीं। अचानक! एक छोटी सी लहर आई और धीरे से रोहन के पैर को छू कर चली गई। ऐसा लगा जैसे धन्यवाद कह रही हो ।

फ़क़ीर बाबा ।।


सोनाली मेरे पड़ोस में रहती थी। हम साथ-साथ स्कूल जाते थे। स्कूल जाते समय हमें फ़क़ीर बाबा मिलते थे। उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता था। एक दिन उन्हें गाना गाते देख हम रुक गए। उनकी आवाज़ बहुत मीठी थी । गाने का अंदाज़ भी बहुत निराला था । हमने उनसे पूछा, "क्या आप हमें भी गाना सिखा सकते हैं?" फ़क़ीर बाबा ने कहा, "ज़रूर सिखाऊँगा। मैं यहीं पुरानी मज़ार के पास रहता हूँ। अगर आप लोग गाना सीखना चाहते हैं, तो आपको रोज़ वहाँ आना होगा।" उस दिन से फ़क़ीर बाबा हमारे दोस्त और गुरु दोनों बन गए। सोनाली और मैं रोज़ उनसे गाना सीखने जाने लगे। गाँव के लोग फ़क़ीर बाबा की मदद करते थे। फ़क़ीर बाबा के साथ उनका एक कुत्ता मोती भी रहता था, जो उनकी रक्षा करता था । पाँच साल के बाद हम दोनों ने अपने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली। फिर सोनाली और मैं अपने-अपने परिवार के साथ शहर चले आए। आज लगभग नौ साल के बाद मैं अपने गाँव आई, फ़क़ीर बाबा से मिलने । किसी ने बताया, "पुरानी मज़ार के पास तो कोई भी नहीं रहता है। उस मज़ार के पास अब सिर्फ मोती रहता है।"

नहीं करूँगा मज़ाक़ ।।


एक मैदान था । बल्लू बैल घास चर रहा था। बल्लू को देखकर उसकी दोस्त भनभन मक्खी वहाँ आ गई। अचानक! उसे शरारत सूझी। वह बल्लू के कान पर 'भन भन करने लगी। फिर उड़कर उसकी सींग पर जा बैठी। इस तरह वह कभी बल्लू की पीठ पर, तो कभी कान पर बैठ जाती । बल्लू आराम से घास चरता रहा । भनभन की बात पर उसने ध्यान ही नहीं दिया। इस बार भनभन बल्लू के कान पर जा भिनभिनाई, "मैं तुम्हें परेशान तो नहीं कर रही हूँ न ? लगता है, मेरा भार तुमसे सहन नहीं हो पा रहा है।" वह इतराती हुई बोली, "बस तुम कह नहीं पा रहे हो। कह दो, मैं बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी। मैं कहीं और जाकर बैठ जाऊँगी।"

बल्लू बोला, "तुम्हारे बैठने से मेरे शरीर पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। तुम बहुत छोटी और हल्की हो । तुम्हारा वज़न तो मैं आराम से सहन कर सकता हूँ। लेकिन तुम्हारी भिनभिनाहट से मैं लाचार हो जाता हूँ। फिर हँसते हुए कहा, "लेकिन याद रखना, अगर मैंने गलती से तुम्हारे ऊपर अपना एक पैर भी रख दिया, तो तुम्हारा क्या हाल होगा?" भनभन कुछ सोचने लगी। फिर कहा, "अरे! नहीं-नहीं बल्लू भैया ! ऐसा मत करना। मैं तो बस मज़ाक कर रही थी। यह कहते हुए वह खिलखिला कर हँसने लगी। उसे हँसता देखकर बल्लू भी हँसने लगा ।

सपनों की उड़ान ।।

रूही के स्कूल में गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ गई थीं। रूही बहुत खुश थी। उसकी मौसी मुंबई में रहती थीं। रूही अपने परिवार के साथ हवाई जहाज़ से मुंबई जाने वाली थी । सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। रूही बहुत खुश थी। वह पहली बार हवाई यात्रा करने जा रही थी। माँ ने कहा, "रूही, सो जाओ। सुबह जल्दी जाना है ।" रूही को रात में सपना आया। उसने देखा कि वह हवाई जहाज़ में बैठी हुई है। जहाज़ उड़ने की तैयारी में है। उसने धीरे-धीरे चलना शुरू किया। फिर तेज़ी से दौड़ने लगा। तेज़ आवाज़ कानों में गूंजने लगी । जहाज़ उड़ान भरने ही वाला था कि अचानक ज़ोर का झटका लगा। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी । सामने माँ खड़ी थीं वह रूही को जगा रही थी, "चलो रूही, जल्दी उठो जाना है कि नहीं ? " रूही आँखें मलते हुए बोली, "क्या हम जहाज़ में बैठ गए ?"

माँ ने हँसते हुए कहा, "सपनों की उड़ान छोड़ो। असली दुनिया की उड़ान अब भरनी है।" रूही उठी और मुँह-हाथ धोने चली गई ।

सभी जरूरी हैं ।।

चंटू और मंटू टीकमपुर में रहते थे। उनके पिता किसान थे। एक दिन वे खेत में गए। आकाश में एक जहाज़ उड़ रहा था। उनकी नज़र जहाज़ पर ही थी। चंटू ने गेंद आकाश की ओर उछाल दी। गेंद बहुत दूर जाकर गिरी। उनकी पालतू बिल्ली गेंद को पकड़ने दौड़ी। कुछ देर बाद चंटू और मंदू को ख़्याल आया कि बिल्ली आखिर है कहाँ? वे दौड़कर उस ओर गए। जब पास पहुँचे तो पता चला कि बिल्ली एक फन वाले ज़हरीले साँप के साथ लड़ रही है। चंटू ने एक पत्थर उठा लिया, लेकिन मंटू ने उसे मना किया और बिल्ली को अपने पास बुला लिया। चंटू बोल उठा, "अरे! वह साँप कहीं जाकर छिप गया है। उसे मार देना चाहिए था ।" मंटू बोला, "नहीं, साँप तो हमारी फसलों को नुकसान होने से बचाते हैं।" तब चंटू को ध्यान आया। वह बोला, "अरे हाँ! मैं तो भूल ही गया था कि साँप चूहों को खाकर हमारी मदद करते हैं।" अब चंटू और मंटू प्यार से अपनी बिल्ली के साथ खेलने लगे।

सूझबूझ ।।

एक दिन किसी तालाब पर एक मछुआरा शिकार करने आया। तालाब में मछलियाँ उछल-कूद कर रही

थीं। मछुआरे ने मन ही मन सोचा, 'अरे वाह! यहाँ तो ढेर सारी मछलिया है। कल में बड़ा जाल लेकर आऊँगा। उस तालाब में एक सुनहरी मछली भी थी। उसने मछुआरे की बात सुन ली। यह बात उसने दूसरी मछलियों को बताई। वे सब परेशान हो गईं।

"अब हम क्या करें? कहाँ जाएँ? सभी सोचने लगीं। सुनहरी मछली ने कहा, "पास में एक नदी है उसकी बहुत सारी मछलियाँ मेरी दोस्त हैं। हम सब वहाँ जाकर रह सकते हैं। वहाँ हमें कोई परेशान नहीं करेगा। और भी मछलियों तालाब से निकलीं एक पतले रास्ते से नदी में चली गईं।

अगले दिन मछुआरा आया। उसने बार-बार जाल फेंका, लेकिन एक भी मछली नहीं फंसी ।

मछुआरा हैरान रह गया। वह अपना सा मुँह लेकर घर लौट गया।

जीवन बदलने वाली कहानी।

एक दंपती दीपावली की ख़रीदारी करने को हड़बड़ी में था। पति ने पत्नी से कहा, "ज़ल्दी करो, मेरे पास टाईम नहीं है।" कह कर कमरे से बाहर निकल गया। तभी बाहर लॉन में बैठी माँ पर उसकी नज़र पड़ी।

कुछ सोचते हुए वापस कमरे में आया और अपनी पत्नी से बोला, "शालू, तुमने माँ से भी पूछा कि उनको दिवाली पर क्या चाहिए?

शालिनी बोली, "नहीं पूछा। अब उनको इस उम्र में क्या चाहिए होगा यार, दो वक्त की रोटी और दो जोड़ी कपड़े....... इसमें पूछने वाली क्या बात है?

यह बात नहीं है शालू...... माँ पहली बार दिवाली पर हमारे घर में रुकी हुई है। वरना तो हर बार गाँव में ही रहती हैं। तो... औपचारिकता के लिए ही पूछ लेती।

अरे इतना ही माँ पर प्यार उमड़ रहा है तो ख़ुद क्यों नहीं पूछ लेते? झल्लाकर चीखी थी शालू ...और कंधे पर हैंड बैग लटकाते हुए तेज़ी से बाहर निकल गयी।

सूरज माँ के पास जाकर बोला, "माँ, हम लोग दिवाली की ख़रीदारी के लिए बाज़ार जा रहे हैं। आपको कुछ चाहिए तो..

माँ बीच में ही बोल पड़ी, "मुझे कुछ नहीं चाहिए बेटा।"

सोच लो माँ, अगर कुछ चाहिये तो बता दीजिए.....

सूरज के बहुत ज़ोर देने पर माँ बोली, "ठीक है, तुम रुको, मैं लिख कर देती हूँ। तुम्हें और बहू को बहुत ख़रीदारी करनी है, कहीं भूल न जाओ।" कहकर सूरज की माँ अपने कमरे में चली गईं। कुछ देर बाद बाहर आईं और लिस्ट सूरज को थमा दी।......

सूरज ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए बोला, "देखा शालू, माँ को भी कुछ चाहिए था, पर बोल नहीं रही थीं। मेरे ज़िद करने पर लिस्ट बना कर दी है। इंसान जब तक ज़िंदा रहता है, रोटी और कपड़े के अलावा भी बहुत कुछ चाहिये होता है।"

अच्छा बाबा ठीक है, पर पहले मैं अपनी ज़रूरत का सारा सामान लूँगी। बाद में आप अपनी माँ की लिस्ट देखते रहना। कहकर शालिनी कार से बाहर निकल गयी।

पूरी ख़रीदारी करने के बाद शालिनी बोली, "अब मैं बहुत थक गयी हूँ, मैं कार में A/C चालू करके बैठती हूँ, आप अपनी माँ का सामान देख लो।"

अरे शालू, तुम भी रुको, फिर साथ चलते हैं, मुझे भी ज़ल्दी है।

देखता हूँ माँ ने इस दिवाली पर क्या मँगाया है? कहकर माँ की लिखी पर्ची ज़ेब से निकालता है।

बाप रे! इतनी लंबी लिस्ट, ..... पता नहीं क्या - क्या मँगाया होगा? ज़रूर अपने गाँव वाले छोटे बेटे के परिवार के लिए बहुत सारे सामान मँगाये होंगे। और बनो *श्रवण कुमार*, कहते हुए शालिनी गुस्से से सूरज की ओर देखने लगी।

पर ये क्या? सूरज की आँखों में आँसू........ और लिस्ट पकड़े हुए हाथ सूखे पत्ते की तरह हिल रहा था..... पूरा शरीर काँप रहा था।

शालिनी बहुत घबरा गयी। क्या हुआ, ऐसा क्या माँग लिया है तुम्हारी माँ ने? कहकर सूरज के हाथ से पर्ची झपट ली....

हैरान थी शालिनी भी। इतनी बड़ी पर्ची में बस चंद शब्द ही लिखे थे.....

पर्ची में लिखा था....

"बेटा सूरज मुझे दिवाली पर तो क्या किसी भी अवसर पर कुछ नहीं चाहिए। फिर भी तुम ज़िद कर रहे हो तो...... तुम्हारे शहर की किसी दुकान में अगर मिल जाए तो *फ़ुरसत के कुछ पल* मेरे लिए लेते आना.... ढलती हुई साँझ हूँ अब मैं। सूरज, मुझे गहराते अँधियारे से डर लगने लगा है, बहुत डर लगता है। पल - पल मेरी तरफ़ बढ़ रही मौत को देखकर.... जानती हूँ टाला नहीं जा सकता, शाश्वत सत्‍य है..... पर अकेलेपन से बहुत घबराहट होती है सूरज।...... तो जब तक तुम्हारे घर पर हूँ, कुछ पल बैठा कर मेरे पास, कुछ देर के लिए ही सही बाँट लिया कर मेरे बुढ़ापे का अकेलापन।.... बिन दीप जलाए ही रौशन हो जाएगी मेरी जीवन की साँझ.... कितने साल हो गए बेटा तुझे स्पर्श नहीं किया। एक बार फिर से, आ मेरी गोद में सर रख और मैं ममता भरी हथेली से सहलाऊँ तेरे सर को। एक बार फिर से इतराए मेरा हृदय मेरे अपनों को क़रीब, बहुत क़रीब पा कर....और मुस्कुरा कर मिलूँ मौत के गले। क्या पता अगली दिवाली तक रहूँ ना रहूँ.....

पर्ची की आख़िरी लाइन पढ़ते - पढ़ते शालिनी फफक-फफक कर रो पड़ी.....

ऐसी ही होती हैं माँ.....

दोस्तो, अपने घर के उन विशाल हृदय वाले लोगों, जिनको आप बूढ़े और बुढ़िया की श्रेणी में रखते हैं, वे आपके जीवन के कल्पतरु हैं। उनका यथोचित आदर-सम्मान, सेवा-सुश्रुषा और देखभाल करें। यक़ीन मानिए, आपके भी बूढ़े होने के दिन नज़दीक ही हैं।...उसकी तैयारी आज से ही कर लें। इसमें कोई शक़ नहीं, आपके अच्छे-बुरे कृत्य देर-सवेर आप ही के पास लौट कर आने हैं।।

कहानी अच्छी लगी हो तो कृपया अग्रसारित अवश्य कीजिए। शायद किसी का हृदय परिवर्तन हो जाए और..... 🙏🏼

चोर ।।

चोर

"नमस्कार सर! मुझे पहचाना??"

"कौन?" ..भाई, बता दो शरीर साथ नहीं देता मेरा।

"सर, मैं आपका स्टूडेंट..45 साल पहले का आपका विद्यार्थी।"

"ओह! अच्छा, आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है..इसलिए नही पहचान पाया..खैर..आओ, बैठो..क्या करते हो आजकल?" उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा..

"सर, मैं भी आपकी ही तरह शिक्षक बन गया हूँ।"

"वाह" यह तो अच्छी बात है लेकिन शिक्षक की पगार तो बहुत कम होती है फिर तुम क्यूं शिक्षक बने...???"

"सर, जब मैं कक्षा सातवीं में था तब हमारी कक्षा में एक घटना घटी थी..उसमें से आपने मुझे बचाया था..मैंने तभी शिक्षक बनने का निर्णय ले लिया था..वो घटना मैं आपको याद दिलाता हूँ..आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।"

"अच्छा, क्या हुआ था तब?"

"सर, सातवीं में हमारी कक्षा में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था..जबकि हम बाकी सब बहुत गरीब थे..एक दिन वह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी..कुछ याद आया सर?"

"सातवीं कक्षा???"

"हाँ सर..उस दिन मेरा मन उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पिरेड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौका देखकर वह घड़ी चुरा ली थी..उसके बाद आपका पिरेड था..उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की..आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है उसे वापस कर दो..मैं उसे सजा नही दूँगा..लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई घड़ी वापस करने की।"

"फिर आपने कमरे का दरवाजा बंद किया और हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े होने को कहा, और यह भी कहा कि आप सबकी जेब देखेंगे लेकिन जब तक घड़ी मिल नही जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नही खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा।"

"हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए..आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे..जब आप मेरे पास आये तो मेरी धड़कन तेज होने लगी..मेरी चोरी पकड़ी जानी थी..अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का ठप्पा लगने वाला था..मैं ग्लानि से भर उठा था..उसी समय जान देने का निश्चय कर लिया था लेकिन....लेकिन मेरे जेब में घड़ी मिलने के बाद भी आप लाइन के अंत तक सबकी जेब देखते रहे..और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा, "अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नही आना और जिसने भी यह चोरी की थी वह दोबारा ऐसा काम न करे..इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे.."कहते कहते उसकी आँख भर आई।

वह रुंधे गले से बोला, "आपने मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया..आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना जाहिर न होने दिया..आपने कभी मेरे साथ भेदभाव नही किया..उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं आपके जैसा शिक्षक ही बनूँगा।"

"हाँ हाँ...मुझे याद आया।" उनकी आँखों मे चमक आ गयी..फिर चकित हो बोले, "लेकिन बेटा... मैं आजतक नही जानता था कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि...जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं।"

"उफ्फ्फ"..आज जिंदगी का एक और पाठ आपसे सीख कर जा रहा हूं ...सर।"

(एक इंग्लिश कहानी का हिंदी रूपांतरण)