एक दिन की बात है। कप और प्लेट मेज़ के एक कोने में सो रहे थे। अचानक! चम्मच की खटपट से उनकी नींद टूट गई। नींद टूटते ही वे चिल्लाए, "तुम्हें दिखता नहीं, हम सो रहे हैं।"
चम्मच मायूसी से बोला, "दोस्त, मैं क्या करूँ। जब जिसका मन करता है, मुझे इधर से उधर पटक देता है। मैं अपना दर्द किससे कहूँ? मेरा दर्द समझने वाला तो कोई भी नहीं है।"
कप और प्लेट को लगा कि वह सही बात कह रहा है। वे भी बोल उठे, "सही कहा, हमारा दर्द भी कम नहीं है। अचानक! हमारे ऊपर गर्म पानी डाल दिया जाता है। कभी-कभी तो उफ! ठंडा पानी भी डाल देते हैं। लोग। तुम भी तो हमारा हाल समझने की कोशिश करो।"
दोनों की बातें सुनकर मेज़ से भी नहीं रहा गया। वह बोली, "तुम सभी लोग हर वक्त मुझ पर सवार रहते हो । मेरा क्या हाल होता होगा, ये तुम लोगों को क्या पता? यह तो सही नहीं है। इसका कुछ तो हल निकलना चाहिए!" चम्मच, कप और प्लेट मिलकर शोर मचाने लगे, "हमें इंसाफ चाहिए, हमें इंसाफ चाहिए।"
तभी मालकिन किसी कारीगर को लेकर आ गईं, ज़रा देखो तो सही, ये मेज़ कई दिनों से डगमगा रही है, इसे सही कर दो, वरना सारे बर्तन गिर जाएँगे।" कारीगर ने मेज़ की पीठ पर दो कीलें ठोंक दीं। मेज़ थर्राकर रह गई। उसके जाते ही मेज़ ने रोनी सूरत बनाकर कहा, "अब बताओ किसका दुख ज्यादा है।" मेज़ की बातें सुनकर सभी को लगा कि वह सही कह रही है। उसका दुख भी कम नहीं है।
फिर तो कप, चम्मच, प्लेट... सभी खनखनाकर बजने लगे। डिश बोली, "हमें दुख में भी हँसते रहना चाहिए।" चम्मच बोला, “हमारा बजना ही तो हमारा संगीत है।"
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