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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

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बाल विकास और मनोविज्ञान।। भाग - 4

विषय : पोषण एवं आहार

इकाई - 4

विषयांश : 
उपइकाई-1 – प्रस्तावना – उद्देश्य, पोषण का अर्थ एवं महत्व, विभिन्न आयु वर्ग व कार्य केअनुरूप संतुलित आहार, विभिन्न पोषक तत्वों की आवश्यकता एवं कार्य । 
उपइकाई-2 – कुपोषण जनित बीमारियां और उनको दूर करने के उपाय, भोजन पकाने कीविधियां एवं उनका पोषक तत्वों पर पड़ने वाला प्रभाव । 

प्रिय छात्र,
पिछली इकाई में आपने बालकों के मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं के विषय में अध्ययन किया। इस इकाई में आप संतुलित आहार विभिन्न पोषक तत्वों, कुपोषण, भोजन पकाने की विभिन्न विधियों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

प्रस्तावना
 भोजन जीवित रहने के लिये परम आवश्यक है, स्वस्थ तथा निरोगी रहने के लिये हमें संतुलित आहार लेना चाहिये। संतुलित भोजन वह भोजन है जिसमें कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज लवण, विटामिन और जल आदि उपयुक्त अनुपात में हो तथा जिनसे शारीरिक व मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो।प्रत्येक व्यक्ति के लिये संतुलित आहार अलग अलग होता है, क्योंकि व्यक्ति विशेष के शरीर में इसकी आवश्यकता अलग अलग होती है। संतुलित आहार नही लेने पर बालक का शरीरिक तथा मानसिक विकास रूक जाता है, जिससे शरीर में इनकी कमी आ जाती है। इन कमियों को दूर करने के लिये हमें अपने भोजन में सभी पोषक तत्व लेने चाहिये। 

उद्देश्य

० इस इकाई के पश्चात आप निम्न बिन्दुओं के विषय में समझ सकेंगे - 
० पोषण का अर्थ तथा महत्व 
० संतुलित आहार व कुपोषण 
० विभिन्न आयु वर्ग तथा कार्यो के लिए संतुलित आहार 
० वसा, प्रोटीन, विटामिन, खनिज लवण, कार्बोहाइड्रेट तथा जल की उपयोगिता व कार्य
० कुपोषण जनित बीमारियां तथा उनको दूर करने के उपाय 
० भोजन को पकाने की विधियां
० पकाने पर पोषक तत्वों पर प्रभाव 



पोषण का अर्थ व महत्व
मनुष्य की तीन बुनियादी आवश्यक आवश्यकतायें मानी गई है भोजन, वस्त्र और मकान किन्तु इन तीनों में से जीवित रहने के लिए भोजन की परम आवश्यकता होती है। प्रत्येक प्राणी सर्वप्रथम अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयास करता है। स्वस्थ्य व सशक्त शरीर का निर्माण उचित पोषण पर निर्भर करता है न कि आहार पर। पोषण व आहार में अंतर है, आहार ठोस व तरल पदार्थों का समग्र रूप है है जिसे हम भूख शान्त करने के लिए उपयोग में लेते हैं, परन्तु पोषण वह प्रक्रिया है जिससे भोजन शरीर को पोषक तत्व देता है या इस आहार को शरीर में आत्मसात होकर शक्ति का स्त्रोत बनना पोषणकहलाता है। डी. फी. टरनर के शब्दों में “पोषण वह सम्मिलित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा एक सजीव प्राणी अपने शरीर के रखरखाव कार्य करने व शरीर की वृद्धि के लिए आवश्यक पदार्थो को ग्रहण कर उनका प्रयोग करता है।" साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि पोषण का अर्थ वे जटिल रासायनिक प्रक्रियायें है जिनके द्वारा मनुष्य द्वारा खाये जाने वाले भोजन में से उसका शरीर आवश्यक पदार्थों को ग्रहण कर पाचन द्वारा (अभिशोषित) कर (अभिपोषक) उसका प्रयोग (चयापचय) करना है, जिससे शरीर का पोषण होता है। पोषण का अर्थ भोजन का पाचन, अभिशोषण, चयापचय है। जिसके द्वारा पोषण अर्थात शरीर निर्माण, ऊर्जा प्राप्ति तथा रोगरोधन क्षमता प्राप्त होना। यदि मनुष्य द्वारा खाया भोजन इन तीनों कार्यों को करता है, तो उसका पोषण होता है अन्यथा नहीं। पोषण का सीधा संबंध पौष्टिक तत्वों से होता है, ये पौष्टिक तत्व उन भोज्य पदार्थों में पाये जाते है जिन भोज्य पदार्थों को हम भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। 
ये पोष्टिक तत्व निम्नानुसार 6 प्रकार के होते हैं :
1. प्रोटीन    2. कार्बोहाइड्रेट्स     3. वसा    4. विटामिन    5. खनिज लवण       6. जल 

पोषण का महत्व - आहार में विभिन्न पोषक तत्व शरीर में प्रवेश करके निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य करते हैं
1. शरीर का निर्माण करना : शरीर एक विकासशील जैविकीय इकाई है। इसकी वृद्धि एवं विकास के लिए पोषण तत्वों की आवश्यकता होती है। ये हमारी हड्डियों, दांतो, मांसपेशियों, कोमल तंतुओं, रूधिर तथा अन्य शारीरिक द्रव्यों का निर्माण करते हैं। 

2. ऊतकों की मरम्मत : प्रौढ़ावस्था में शरीर की वृद्धि व विकास की प्रक्रिया तो तीव्र गति से नहीं होती है, परन्तु शरीर में ऊतकों की टूटफूट होती रहती है, जिनकी मरम्मत का कार्यभोजन तत्व प्रोटीन ही करता है।

3. शरीर को ऊर्जा प्रदान करना – शरीर की उष्मा बनाए रखने एवं शारीरिक कार्य करने के लिए,मांसपेशियों को सक्रियता प्रदान करने तथा शरीर के विभिन्न अंगों को दैनिक क्रियाओं के लिए तत्पररखने के लिए, ऊर्जा की आवश्यकता होती है। भोजन में वसा ही शरीर की इस महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति एवं शरीर को ऊर्जा प्रदान करके करता है। मानसिक श्रम करने वालों की अपेक्षा, शारीरिक श्रम करने वालों को, आहार अधिक देना होता है, क्योंकि उनकी मांसपेशियाँ अधिक क्रियाशील रहती है व उन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। 

4. रोग रोधन की क्षमता देना : यदि आहार में एक से अधिक तत्वों की कमी होगी तो शरीर के विभिन्न अंगों के कार्य संचालन में अव्यवस्था उत्पन्न होगी और परिणाम स्वरूप शरीर के स्वास्थ्य, वृद्धि व विकास पर विपरीत प्रभाव होगा। शरीर के रोगों से लड़ने की शक्ति पोषक तत्वों के भोजन में रहने से प्राप्त होती है। शरीर में होने वाली अनेक क्रियायें जैसे, हृदय का निस्पन्दन, मांसपेशियों का संकुचन, शरीर में जल की मात्रा का संतुलन, रक्त का स्कंदन, शरीर के ताप का नियंत्रण, शरीर में उत्पन्न होने वाले विषैले पदार्थो का निष्कासन आदि भोजन में उपस्थित इन पोषक तत्वों के कुछ तत्व ही करते है। 

5. विभिन्न आयुवर्ग व कार्य के अनुरूप संतुलित आहार – संतुलित आहार उस आहार को कहते है जो शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करता है, और अपेक्षाओं को तृप्त करता है, जिसमें भोजन के सभी पौष्टिक तत्व सम्मिलित हो और इन तत्वों का उचित अनुपात में व्यक्ति की आयु, लिंग और काम करने की स्थिति आदि का ध्यान रखकर निर्धारित किया गया हो या संतुलित आहार वह भोजन होता है जिसमें भोजन के समस्त पौष्टिक तत्व व्यक्ति विशेष को शरीर की मांग के अनुसार उचित मात्रा व उचित साधनों से प्राप्त हों।प्रत्येक व्यक्ति के लिए संतुलित आहार अलग अलग होता है, भोज्य पदार्थ वही होते है पर प्रत्येक व्यक्ति की पौष्टिक तत्वों की मांग अलग-अलग होने के कारण भोज्य पदार्थो की मात्रा अलग अलग हो जाती है अन्यथा एक ही रूपरेखा वाला आहार सब को देने पर वह एक व्यक्ति के लिए ही संतुलित होगा परन्तु दूसरे व्यक्ति के लिए असंतुलित होगा। शारीरिक श्रम करने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता होती है उसे ऊर्जा कहते हैं। पोषण में ऊर्जा की इकाई कैलोरी है। कैलोरी को इस प्रकार भी परिभाषित कर सकते हैं। "1 किलोग्राम पानी का तापक्रम 1°C बढ़ाने के लिए जितनी उष्मा का प्रयोग होता है उसे कैलोरी कहते है।" 

                                एक व्यक्ति के लिए कैलोरी की प्रतिदिन की आवश्यकता। 







पाठ्यगत प्रश्न प्र. 1 प्रत्येक व्यक्ति के लिए संतुलित आहार होता है। अ) कम ब) अधिक स) समान द) अलग अलग प्र. 2 पोषण में ऊर्जा को मापने की इकाई है । अ) जूल ब) कैलोरी स) अर्ग द) ग्राम प्र. 3 भोज्य पदार्थो में कौन-कौन से पोषक तत्व होते हैं ? प्र. 4 संतुलित आहार से आप क्या समझते हैं? प्र. 5 भोजन के क्या कार्य हैं? 4.5 विभिन्न पोषक तत्वों की आवश्यकता एवं कार्य : वसा : वसा से शरीर में ताप उत्पन्न होता है। इसके द्वारा शरीर को शक्ति और उर्जा प्राप्त होती है।एक ग्राम वसा में लगभग 9 कैलोरी ताप होता है। वसा, मक्खन, तेल, घी, मांस, अण्डा आदि में पाया जाता है। कार्य व महत्व 1. उच्च कैलोरी प्रदान करने के कारण वसा उन लोगों के लिए विशेष रूप से लाभकारी है जिन्हें कार्य करते समय अधिक ऊर्जा नष्ट करनी पड़ती है।
2. यह भोजन बनाने में सहायक सिद्ध होती है।
3. यह भोजन को स्वादिष्ट बनाती है।
4. वसा से शरीर में ताप उत्पन्न होता है और यह ठण्ड से बचाती है।
5. शरीर में अधिक वसा इकट्ठा होना हानिकारक है। यह अतिरिक्त वसा शारीरिक अंगों की क्रियाओं में बाधा डालती है। अधिक वसा के सेवन से कोलेस्ट्राल की मात्रा बढ़ जाती है, जिसके कारण हृदय रोग होता है। कार्बोहाईड्रेस : चावल, गेहूँ, आलू, शक्कर, फलों, दूध, मकई, गन्ना, केला, शलगम, बाजरा आदि में कार्बोहाईड्रेट्स पाया जाता है। कार्य व महत्व :
1. ये शरीर में ईंधन के रूप में जाने जाते हैं व ऊर्जा के प्रमुख साधन है।
2. कार्बोहाईड्रेट की कमी से शरीर का वजन कम जो जाता है।
3. यह सस्ता व सुपाच्य होता है।
4. शरीर के रखरखाव के लिए कार्बोहाईड्रेट्स आवश्यक है। प्रोटीन : दूध, मांस, मछली, अण्डे, अखरोट, फलियां, मटर, बादाम, मांस, मछली, गेहूं का छिलका आदि में प्रोटीन पाया जाता है। कार्य व महत्व :
1. प्रोटीन शरीर की वृद्धि एवं विकास में अपूर्व योगदान प्रदान करने वाला पोषक तत्व है।
2. प्रोटीन शरीर के प्रत्येक कोशों में प्रोटोप्लाज्म के रूप में उपस्थित होता है।
3. शरीर के तंतुओं में निरन्तर टूट फूट होती रहती है और प्रोटीन इनकी मरम्मत कर पुनः निर्माण करता है ।
4. सभी एन्जाइम प्रोटीन होते है और पाचक व उपाचयन क्रियाओं के आवश्यक प्रेरक है। खनिज लवण : कैल्शियम, मॅग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, गंधक, क्लोरीन, प्रमुख खनिज लवण है, इनकी मात्रा शरीर में पाये जाने वाले खनिज लवणों का 60 प्रतिशत से 80 प्रतिशत है। इनकी निश्चित मात्रा दैनिक आहार में नितांत आवश्यक है। कार्य व महत्व : 1. खनिज लवण अस्थियों, दांतों तथा मांसपेशियों का निर्माण करते है। 2. शरीर में अम्लों और क्षारों का संतुलन कायम रखते है। 3. पाचक अम्लों व रसों के उत्पादन में सहायता देते है। 4. रक्त जमाव निर्माण के लिए आवश्यक है। शरीर को निरोग बनाये रखने में सहायता प्रदान करते है। 5. विटामिन्स : विटामिन्स जीवन प्रदान करने वाले पदार्थ है। विटामिन प्रमुख रूप से छ: प्रकार के होते है। A, B, C, D, E तथा K
कार्य : 1. शरीर व रोगों से संघर्ष करने की क्षमता उत्पन्न करना। 2. पाचक को सक्रिय रखने के लिये आवश्यक है। 3. स्नायु संस्थान को सक्रिय बनाते हैं। 4. शरीर का समुचित विकास करने में सहायक होता है।


जल : मनुष्य जल के बिना जीवित नहीं रह सकता यह सभी रूपों में सर्वोत्तम होता है।शरीर में 75 प्रतिशतजल ही रहता है। सामान्यतः व्यक्ति को प्रतिदिन 4 से 5 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। सभीपाचक रस जलीय होते हैं। 
कार्य व महत्व :
1. यह शरीर से जहरीले पदार्थ और व्यर्थ सामग्री निकालने में सहायता करता है। 
2. यह भोजन पचाने में सहायता करता है। 
3. यह हड्डियों को शुष्क होने से बचाता है। 
4. यह कोशिकाओं को नर्म तथा लचीली अवस्था में रखता है। यह रक्त संचरण में सहायता देता है। 
5. यह शरीर में तापमान को नियमित करता है। यह शरीर को खनिज लवण प्रदान करता है।

पाठ्यगत  प्रश्न :
6. विटामिन 'ए' की कमी से होने वाला रोग है :
अ) घेघा     ब) रिकेट्स     स) बेरी – बेरी      द) रतौंधी 
7. बेरी – बेरी रोग किसकी कमी से होता है :
अ) विटामिन 'ए'    ब) विटामिन 'बी   ' स) विटामिन 'सी'      द) विटामिन 'डी' 
8. शरीर में ताप उत्पन्न करता है :
अ) जल      ब) विटामिन       स) प्रोटीन     द) वसा 
9. जल का हमारे भोजन में क्या महत्व है? 
10. वसा के स्त्रोत कौन कौन से है ? 

कुपोषण जनित बीमारियों तथा उनको दूर करने के उपाय :-
कुपोषण : अपूर्ण पोषण व कुपोषण उस दशा का नाम है जब व्यक्ति को संतुलित भोजन नहीं मिलता एवं जिससे अनियमित जीवन व्यतीत करता है। यह अवस्था व्यक्ति के शारीरिक विकास के साथ-साथ उसके मानसिक विकास को भी प्रभावित करती है। कुपोषण के कारण शरीर में विभिन्न के विकार उत्पन्न हो जाते है। इस प्रकार जो भोजन आवश्यक भोजन तत्वों के अनुरूप नहीं होता उसे कुपोषित भोजन कहते है। कुपोषण के कारण निम्न हो सकते है :-
1. घर तथा विद्यालय में शुद्ध वायु, प्रकाश, धूप, जल के न मिलने तथा गंदे वातावरण के कारण बालक कुपोषण से पीड़ित होते है। 
2. उचित मात्रा में निद्रा व विश्राम नहीं मिलने से भी बच्चे कुपोषण से पीड़ित हो जाते हैं। 
3.  कुपोषण का मुख्य कारण पौष्टिक तत्वों से युक्त भोजन का अभाव होता है। बालकों के भोजन में प्रायः प्रोटीन, कार्बोहाईड्रेट, वसा, खनिज लवण, विटामिन आदि आवश्यक तत्वों में कमी रहती है।
4. भोजन में इन तत्वों के अनुचित मात्रा होने से भी कुपोषण होता है। 
5. भोजन को उचित समय पर ग्रहण नहीं करने से भी कुपोषण होता है।

कुपोषण से होने वाली बीमारियां : 
1. विटामिन 'ए' की कमी से बच्चों में रतौंधी की समस्या, (आँखों की रोशनी में कमी की समस्या) देखी जाती है। 
2. खनिज लवणों के अभाव में अस्थियाँ व दांत अविकसित हो जाते है। 
3. अपूर्ण पोषण की अवस्था में बालक के शरीर का विकास रुक जाता है एवं आयु के अनुसार बालक की ऊँचाई एवं भार में कमी होती है। 
4. बालक जरा सा श्रम करने पर थकावट का अनुभव करने लगता है। 
5. नींद न आने की बीमारी हो जाती है।
6. विटामिन 'डी' की कमी से हड्डियों में टेढ़ापन आ जाता है जिसे रिकेट्स रोग कहते है। 
7. वसा की कमी से छात्र दिन प्रतिदिन दुर्बल होने लगता है, चेहरा चेतनहीन हो जाता है। त्वचा पीली व खुरदरी हो जाती है। 
8. विभिन्न पोषक तत्वों की कमी से बच्चा संक्रामक रोगों से अधिक ग्रसित हो जाता है। 
बच्चों में रक्त की कमी से एनीमिया हो जाती है। 
9. बैठने और खड़े होने की मुद्रा बिगड़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप शरीर में कई प्रकार के रोग हो जाते है और उचित विकास रूक जाता है।
10. कार्बोहाईड्रेट के अधिक प्रयोग से अपच, अतिसार और मधुमेह रोग हो जाते है।
11. विटामिन 'के' के अभाव में चोट लगने पर रक्त का थक्का न जमने से रक्तस्त्राव होता रहता है। 
13. विटामिन 'ई' के अभाव में स्त्रियों में गर्भपात, बांझपन तथा पुरूषों में नपुंसकता आ जाती है।

कुपोषण या बीमारियों को दूर करने के उपाय 
1. स्कूल व घर का वातावरण अधिक से अधिक साफ सुथरा होना चाहिये। रसोईघर, भोजन कक्ष व शौचालयों की सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये। 
2. स्कूलों में मध्यान्ह भोजन में पोषक तत्वों का भी प्रबंध होना चाहिये। 
3. प्रत्येक विद्यार्थी का वर्ष में एक बार वजन, लम्बाई का नाप, नेत्र, दांत आदि की जांच होना चाहिये। 
4. स्कूल के समय में सामन्यतः सभी विषयों के अध्यापकों और विशेषकर स्वास्थ्य शिक्षक द्वारा सभी श्रेणियों के छात्रों को व्यक्तिगत स्वच्छता का ज्ञान प्रदान करने पर बल देना चाहिये।
5. शिक्षकों को बच्चों को पौष्टिक खाना खाने की सलाह देना चाहिये। शिक्षकों को विद्यालय में विद्यार्थियों को टिफिन में पौष्टिक भोजन लाने को प्रेरित करना चाहिये। उनको फास्टफूड खाने की कमियां बताना चाहिये।
6. व्यक्ति के दैनिक जीवन में मानसिक कार्य, शारीरिक क्रियाकलाप, विश्राम, नींद तथा मनोरंजन सभी का उचित स्थान होना चाहिए। केवल काम व केवल आराम घातक होता है।
7. बच्चों को खेलों का महत्व समझाना चाहिये।
भोजन पकाने की विधियां एवं उनका पोषक तत्वों पर पड़ने वाला प्रभाव - भोजन पकाने की विधियां – भोजन पकाने की विधियां पीढ़ी दर पीढ़ी सुधरती जाती है। जैसे - जैसे मानव जाति प्रगति करती गई तथा उनके स्वाद में सुधार होता गया, भोज्य पदार्थों के पकाने की अनेकानेक विधियां प्रचलित होती गई। भोजन को पकाने के प्रमुख निम्नलिखित तीन उद्देश्य हैं : 1. भोज्य सामग्री को सुपाच्य बनाने के लिए भोजन को पकाते हैं। 2. पकाने में भोज्य सामग्री स्वाद, सुगंध एवं बाहृय स्वरूप की दृष्टि से आकर्षक बना दी जाती है। 3. पकाने में विभिन्न प्रकार का ताप प्रयुक्त किया जाता है। ताप से वस्तुओं को सड़ाने वाले व विषयुक्त कीटाणु नष्ट हो जाते है। पाक क्रिया से भोज्य पदार्थो में विशेषकर दूध, मांस, मछली में उपस्थित कीटाणु व कृमि नष्ट हो जाते है।
पकाने के माध्यम की दृष्टि से पाक विधियों को निम्न चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है 1. जल द्वारा 2. वाष्प द्वारा 3. चिकनाई द्वारा 4. वायु द्वारा
1. जल द्वारा (उबालना) – यह पकाने की सरल विधि है, इसमें पकायी जाने वाली वस्तु को किसी भगौने या बर्तन में जल के साथ डाल दिया जाता है। तत्पश्चात उसे चूल्हे पर रखकर तब तक उबाला जाता है जब तक कि वह पर्याप्त मुलायम न हो जाए।
2. वाष्प द्वारा - भोज्य पदार्थ वाष्प के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संपर्क में लाकर पकाया जाता हैं प्रत्यक्ष विधि के अंतर्गत कढ़ाही या भगौने में उबलते हुये जल में निकली हुई वाष्प द्वारा वस्तु को पकाया जाता है। अप्रत्यक्ष विधि में उबलते हुये जल के ऊपर दो प्लेटों के मध्य पकने की क्रिया सम्पन्न होती है। वाष्प के दबाव से भोज्य पदार्थो को पकाया जाता है, इस सिद्धांत का उपयोग प्रेशर कुकर में किया जाता है।
3. चिकनाई द्वारा - इस विधि द्वारा भोज्य वस्तु को पकाने का प्रमुख माध्यम तेल, घी तथा अन्य स्निग्ध पदार्थ होते है। इस विधि से भोज्य पदार्थ को हल्का धुंआ निकलते हुये गर्म घी या तेल में पकाया जाता है। यह सर्वाधिक शीघ्रतापूर्वक भोजन पकाने की उपयुक्त विधि है। गर्म घी या तेल में ज्यों ही भोज्य पदार्थ डाला जाता है, गर्मी के कारण ऊपरी परत कठोर हो जाती है। परिणामतः उसके अन्दर के पोषक तत्व बाहर नहीं निकल पाते और भोजन स्वादिष्ट बनता है परन्तु गरिष्ट होने के कारण शीघ्रता से नहीं पचता।

4. वायु द्वारा – भूनना, सेंकना तथा भट्टी या तंदूर में पकाते समय वायु भोज्य पदार्थ को पकाने का कार्य करती है। - भूनना - इस विधि में पकायी जाने वाली सामग्री राख या बालू के माध्यम से ताप के संपर्क में आती है। - सेकना - सेंकना, भूनना से अलग है भूनने में भोज्य सामग्री आग के प्रत्यक्ष संपर्क में नहीं आती है जबकि सेंकने में प्रत्यक्ष रूप से अंगारों के ऊपर रखकर सेंका जाता है। बैंगन, आलू इसी विधि से सेंकते है। - तंदूर या भट्टी में पकाना - इस विधि में भोज्य पदार्थ को भट्टी के अंदर रख दिया जाता है, शुष्क उष्णता के माध्यम से भोज्य सामग्री पकायी जाती है। केक आदि इसी विधि से पकाये जाते है। पोषक तत्वों पर उष्णता का प्रभाव : पकाने की प्रत्येक विधि में ताप का प्रयोग किसी न किसी रूप में अवश्य ही किया जाता है। प्रत्येक वस्तु की ताप ग्राहता पृथक-पृथक होती है और उनके आतंरिक गुणों पर ताप का पृथक-पृथक प्रभाव पड़ता है। - शर्करा पर उष्णता का प्रभाव : गर्म करने पर शक्कर तरल पदार्थ के रूप में परिवर्तित हो जाती है। अधिक गर्म करने पर इसका रंग बदल जाता है तथा यह भूरे रंग की शक्कर बन जाती है और अधिक गर्म होने पर जलकर राख का रूप ग्रहण कर लेती है। - प्रोटीन पर उष्णता का प्रभाव - प्रोटीन पकने पर जम जाता है, और कड़ा हो जाता है। अण्डा का प्रोटीन पकने पर जम जाता है। जब डबल रोटी को पकाते हैं तो गेहूं का प्रोटीन निकलकर डबल रोटी की ऊपरी सतह पर कुरकुरी तह के रूप में जम जाता है। दालों को पकाने पर प्रोटीन सुपाच्य हो जाता है और उसका पोषक मूल्य बन जाता है। - गोश्त पर पकाने का प्रभाव - जल या वाष्प के माध्यम से गोश्त को पकाये जाने पर उष्णता के परिणाम स्वरूप गोश्त के ऊपरी सहत पर प्रोटीन जम कर कड़ी परत बना लेता है। जिसके कारण गोश्त के अन्दर गर्मी पहुंचने की प्रक्रिया मंद हो जाती है। गोश्त गर्मी का कुचालक है। गोश्त के रसों के द्वारा गर्मी का संवहन नहीं होता है इसी कारण गोश्त कई घण्टों में पकता है। उबालने पर गोश्त का हिमोग्लोबिन नष्ट हो जाता है। इस कारण उसका रंग लाल से भूरे रंग में परिवर्तित हो जाता है। भूनना गोश्त पकाने की उत्तम विधि है। भूनते समय पेशीय तंतुओं के प्रोटीन और संयोजक ऊतक संकुचित हो जाते है और गोश्त की सतह पर इससे रस निकलने लगते है, जो वाष्प बन कर उड़ जाते हैं और गोश्त की सतह पर केवल खनिज एवं सार तत्व जमें रहते हैं जिस कारण गोश्त के स्वाद में बृद्धि हो जाती है। - कार्बोहाईड्रेट्स पर पकाने का प्रयास – कच्चे कार्बोज की अपेक्षा पका कार्बोज पदार्थ शीघ्र पच जाता है। कार्बोज पकाने से स्टार्च के कणों को चारों ओर का आवरण मुलायम होकर हट जाता है जिससे स्टार्च कण पानी शोषित कर फूल जाता है और मुलायम हो जाता है और भोजन सुपाच्य हो जाता है। - वसा पकाने का प्रभाव - वसा पर तेज ताप का प्रभाव पड़ता। इससे वसा के वसीय अम्ल पानी में घुलकर बाहर निकल जाते है। - खनिज लवण पकाने का प्रभाव - खनिज लवण पानी में घुलनशील होने के कारण पानी में घुलकर बाहर निकल जाते है। - सब्जियों को पकाने का प्रभाव – सब्जी पकाने का मुख्य अभिप्राय हैं, सेल्यूलोज को मुलायम करना तथा श्वेतसार के कणों को फुलाकर जैलेटिन के रूप में परिवर्तित करना। ऐसा कहा जाता है कि सब्जी को पकाने पर उसके लवणांश नष्ट हो जाते है पर सौभाग्यवश सब्जियों के कैल्शियम और लोहांश पर उष्णता का प्रभाव बहुत कम पड़ता है। कैरोटिन भी पकाने में नष्ट नहीं होता। सब्जी के हरे रंग को बनाए रखने के लिए प्रयुक्त सोडा बाई कार्बोनेट विटामिन को नष्ट कर देता है इसलिए हरी सब्जी में नहीं प्रयोग करना चाहिए। - विटामिन 'सी' अधिकांशतः जल में घुलनशील है इसलिए भोज्य पदार्थों को धोने से ताप के कारण नष्ट हो जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि ना ही इन्हें ज्यादा भिगोया जावे और ना ही अधिक पकाया जाये। आलू को बिना छीले उबालना चाहिये क्योंकि छिलके, के कारण एस्काटिक एसिड नष्ट नहीं होता है। वाष्प द्वारा सब्जियों को पकाना उपयुक्त नहीं है क्योंकि यह सब्जी पकाने की मंद क्रिया है और इससे एस्काटिक एसिड नष्ट हो जाता है। विटामिन 'बी' भी जल में घुलनशील है इसकी आधी मात्रा पकाये जाते समय ही नष्ट हो जाती है। अधिक ताप पर भोजन पकाने पर और अधिक मात्रा नष्ट हो जाती है । - फलों पर पकाने का प्रभाव - मीठे फलों को कच्चा खाना ज्यादा लाभदायक है। यदि फलों को शक्कर के साथ पकाया जाये तो लवण विटामिन आदि पकाये जाने वाले जल में मिश्रित हो जाते है तथा चीनी का कुछ अंश फल द्वारा शोषित कर लिया जाता है परंतु हम पकाने में जल का प्रयोग करते हैं इसलिए इस क्रिया में ज्यादा हानि नही होती है। - मछली पर पकाने का प्रभाव – मछली पकाने की प्रक्रिया में जो परिवर्तन होते हैं वह गोश्त के समान होते है।
इकाई सारांश : ० आहार को शरीर में आत्मसात होकर शक्ति का स्त्रोत बनाना पोषण कहलाता है। ० पोषक तत्व छह है : प्रोटीन, कार्बोहाड्रेट्स, वसा, प्रोटीन, लवण और जल ० पोषक तत्व शरीर निर्माण, उतकों की मरम्मत करने में, शरीर की ऊर्जा प्रदान करने में तथा शरीर को रोगों से लड़ने में मदद करते है।
० संतुलित आहार वह भोजन होता है जिसमें भोजन के समस्त पोष्टिक तत्व व्यक्ति विशेष के शरीर की मांग के अनुसार उचित मात्रा में उचित साधनों से प्राप्त हों। 
० कुपोषण वह स्थिति है जहाँ कुछ पौष्टिक तत्व कम तो कुछ अधिक होते है। 
० भोजन जल द्वारा, वाष्प द्वारा, चिकनाई द्वारा और वायु द्वारा पकाया जाता है। 
० खनिज लवण, विटामिन बी, विटामिन सी, पानी में घुलनशील होने से खाद्य पदार्थों के धोने से नष्ट हो जाते है। काबॉहाइड्रेड पककर सुपाच्य हो जाता है। 

आत्म परीक्षण हेतु प्रश्न - 
प्र. 1 निम्न शब्दों को संक्षेप में समझाये :
अ) पोषण 
ब) संतुलित आहार
स) कुपोषण 
प्र. 2 पोषण का अर्थ एवं महत्व समझाये । 
प्र. 3 भोजन से प्राप्त होने वाले प्रमुख पोषक तत्वों का वर्णन कीजिए। 
प्र. 4 कुपोषित बालक के लक्षण बताइये।

5 भोजन पकाने पर पोष्टिक तत्वों पर पड़ने वाले प्रभावों को समझाये ।

बाल विकास और मनोविज्ञान।। भाग - 3

विषय : बालकों का मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहार संबंधी समस्यायें। इकाई - 3 विषयांश : उपइकाई-1 – प्रस्तावना – उद्देश्य, मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ तथा बाधक तत्व। मानसिक स्वास्थ्य में सुधार हेतु घर, परिवार एवं समाज का योगदान। उपइकाई-2 - व्यवहार संबंधी समस्यायें, कारण एवं सुधार के उपाय। प्रिय छात्र, पूर्व इकाई में आपने विकास एवं उसको प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन किया। प्रस्तुत इकाई में बालकों का मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहार संबंधी समस्याओं के विषय में अध्ययन करेंगे।
  
प्रस्तावना

शिक्षा का उद्देश्य बालक का समविकास है, शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक तथामानसिक विकास होता है। शिक्षा बालक को अपने वातावरण से समायोजन करनासिखाती है। कई बालक परिवार में, विद्यालय में, समाज में असमान्य सा व्यवहार करते हैंतो वह निश्चत ही मानसिक रूप से अस्वस्थ होंगे। मानसिक स्वास्थ्य का आशय ऐसेस्वास्थ्य से है जो मानसिक रोगों तथा व्याधियों से ग्रस्त है। वास्तव में वही मन और मस्तिष्कस्वस्थ माना जा सकता है जो मानसिक संघर्षों तथा भावना ग्रंथियों से मुक्त हो। स्वस्थ मनकी पहचान आन्तरिक तथा बाह्य समायोजन से है। यदि बालक मानसिक दृष्टि से स्वस्थनहीं होगे तो उनकी रूचि पढ़ाई में नही हो सकती, वह विद्यालय नहीं आना चाहता,जिसके कारण कक्षा की पढ़ाई में उनका ध्यान केन्द्रित नहीं हो सकता और वे शिक्षणका लाभ नहीं उठा सकेंगे। प्रत्येक अध्यापक तथा अभिभावक को मानसिक स्वास्थ्यविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है जिससे वह अपने और बालकों के मानसिक स्वास्थ्यको बनाये रखने में योगदे सकें। जो बच्चे मानसिक रोगों के समायोजन दोषों से पीड़ित हों,उनकी सहायता कर सकें।



उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात आप निम्न बिन्दुओं को समझ सकेंगे।मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ तथा स्वरूपमानसिक स्वास्थ्य में बाधक तत्वमानसिक स्वास्थ्य सुधार में परिवार, विद्यालय और समाज का योगदानबालकों की व्यवहार संबंधी समस्याओं के प्रकारबालकों के व्यवहार संबंधी समस्याओं के कारण तथा समस्या सुधार के उपाय

मानसिक स्वास्थ्य : अर्थ, स्वरूप तथा बाधक तत्व मानसिक स्वास्थ्य का अर्थस्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ केवल रोग रहित शरीर होना ही नहीं बल्कि पूर्णतयाः शारीरिक,मानसिक, सामाजिक संतुलन भी है। “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है"यह कहावत बहुत महत्वपूर्ण है। मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है मानव का अपने व्यवहार मेंसंतुलन है। यह संतुलन प्रत्येक अवस्था में बना रहना चाहिये। चिन्ता व संघर्ष रहित व्यक्ति, पूर्णतः समायोजित, आत्मविश्वासी, आत्मनियंत्रित, सवेंगात्मक रूप में स्थिर, सार्थक जीवन एवं उच्च नैतिकता से पूर्ण प्रत्येक परिस्थति में समायोजन कर लेता है।उसमें मानसिक, तनाव, हताशा, आदि को सहन करने की अदम्य शक्ति होती है। जिसबालक का व्यवहार असामान्य है वह अवश्य ही मानसिक रूप से अस्वस्थ होगा। मानसिकरूपसे अस्वस्थ बालक अपने विद्यालय, साथी तथा शिक्षकों के लिये सिरदर्द बन जाताहै। बालक के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के अनेक कारण होते है अतः बालक के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कारणों का पता लगाकर उनका निदान करना अध्यापक का प्रमुख कार्य होता है। बाल विकास तथा शिक्षा के विकास के लिए शिक्षक तथा बालक का मानसिक रूप से स्वस्थ रहना शिक्षण प्रक्रिया का प्रथम कार्य है। डा. सरयूप्रसाद चौबे के शब्दों में "मानसिक रूप से स्वस्थ न रहने पर बालक का विकास कुण्ठित हो जाता है। मानसिक अस्वस्थता के कारण अनेक बालक समाज पर बोझ दिखाई देते हैं। इसीलिये हमारे जीवन में मानसिक स्वास्थ्य का महत्व शारीरिक स्वास्थ्य से कहीं कम नहीं है।

मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषाएँ

लैडेन के अनुसार - "मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ हैं - वास्तविक के धरातल पर वातावरण से सामंजस्यस्थापित करना"
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संगठन, न्यूयार्क के अनुसार - "मानसिक स्वास्थ्य का अर्थहै कि बालक अपने कार्य में, शाला में, परिवार में, सहयोगियों तथा समुदाय के साथ ठीक प्रकारसे रहे। इसका अभिप्राय प्रत्येक व्यक्ति के उस तरीके से है, जिसके द्वारा वह अपनी इच्छाओं,महत्वाकांक्षाओं, विचारों, भावनाओं और अन्तरात्मा का समन्वय करता है। जिससे वह जीवन कीउन मांगों को पूरा कर सके, जिनका की उन मांगों को पूरा कर सके, जिनका उसे सामना करना है।"
क्रो एवं क्रो के अनुसार – “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है जिसका सम्बन्ध मानव कल्याणसे है और जो मानव सम्बन्धों के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करता है।

मानसिक स्वास्थ्य का स्वरूप
हमारा मुख्य ध्येय बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखना है। अच्छे मानसिक स्वास्थ्य केबगैर बच्चों की योग्यताओं का उचित विकास सम्भव नहीं है। जिन बच्चों में भय, चिन्ता, निराशा तथाअन्य समायोजन दोषों का विकास हो जाता है उनका मन पढ़ने में नहीं लगता और सीखने में उन्नति नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त समायोजन दोष वाले बालक कई प्रकार की समस्याएँ रखते हैं।जिनको समझने और समाधान के लिए प्रत्येक अध्यापक एवं अभिभावक को मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का ज्ञान आवश्यक होगा। एक समय था जबकि बच्चे की बुद्धि, रूचि एवं मानसिक स्थिति की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उस समय शिक्षा पूर्णतया अध्यापक केन्द्रित थी और शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों को 'थ्री आर' का ज्ञान देना था। किन्तु अब शिक्षा का केन्द्र बालक बन गया है, उसकी मानसिक स्थिति, रूचि एवं अन्य योग्यताओं को आधार मानकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। बालक के मानसिक स्वास्थ्य में बाधक तत्व बालक के मानसिक स्वास्थ्य को जो तत्व क्षीण कर देते हैं अथवा प्रभाव डालते हैं, वे निम्नलिखित हैं

1. वंशानुक्रम तत्व का प्रभाव – वंशानुक्रम दोषपूर्ण होने के कारण बालक मानसिक दुर्बलता,अस्वस्थता तथा एक विशेष प्रकार की मानसिक अस्वस्थता प्राप्त करता है। अतः वंशानुक्रम प्रभाव का प्रमुख घटक है। इस प्रकार बालक समायोजन करने में कठिनाई का अनुभव करता है।

2. शारीरिक अस्वस्थता का प्रभाव – जो बालक शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहते हैं। वे सामान्य जीवन में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते। अतः शारीरिक अस्वस्थता का घटक मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता। शारीरिक स्वास्थ्य अनुकूल होने की दशा में ही मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है।

3. शारीरिक दोषो का प्रभाव – बालक के शारीरिक दोष विकलांगता अथवा किसी प्रकार शारीरिक विकृतियां बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। ऐसे बालक हीनता तथा कुण्ठाओं से ग्रसित होते हैं। इस प्रकार वे समाज से समायोजन नहीं कर पाते।

4. पारिवारिक परिस्थितियों का प्रभाव – इसमें पारिवारिक विघटन, परिवार की अनुशासनहीनता, निर्धनता, संघर्ष,माता पिता का परस्पर व्यवहार इत्यादि अनेक घटक आते हैं। इन बाधक तत्वों के कारण बालकों का मानसिक स्वास्थ्य ठीकनहीं रहता। कुछ माता पिता अपने बालकों को बहुत लाड़ दुलार देते है। उन्हें अधिक विलासी साधन उपलब्ध कराते हैं। इससे उनकी मनोवृत्ति असामान्य हो जाती है। कुछ नौकरी तथा व्यवसाय में अधिक व्यस्त रहने के कारण भली प्रकार ध्यान नहीं दे पाते अथवा बालकों को छात्रावासों में भर्ती कर देते है। प्यार के अभाव में भी बालकों का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। इन तमाम बाधक तत्वो के कारण बालक असामान्य हो जाते है। इस कारण वे परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते।

5. विद्यालयी वातावरण का प्रभाव - विद्यालयी वातावरण - जैसे, भेद भाव, छुआछूत, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अभाव, इच्छा, दमन, पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का अभाव, भय, आतंक आदि तत्व बालक के मानसिक स्वास्थ को खराब करते हैं। अनुशासन की कठोरता, दोषपूर्ण पाठ्यक्रम, नीरस शिक्षण विधियाँ, अमनोवैज्ञानिक प्रणालियाँ, परीक्षा प्रणाली का दोषपूर्ण होना, पुरस्कार वितरण में भेद भाव, कक्षा का दूषित वातावरण, जलवायु एवं प्रकाश व्यवस्था का अभाव। छोटी – छोटी त्रुटियों पर भारी दण्ड की व्यवस्था, शिक्षक का नीरस एवं कठोर व्यवहार एवं पक्षपातपूर्ण रवैया आदि बाधक तत्व बालक के मानसिक स्वास्थ्य को खराब कर देते है एवं उनकी उन्नति में बाधक होते है। बालक की रूचियो चूंकि प्रमुख होती है। अतः रूचि के अनुसार कार्य न देना भी मानसिक स्वास्थ्य की विकृति का प्रतीक है।

6. मनोरंजन तथा सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के अभाव का प्रभाव - बालक के लिये मनोरंजन जिज्ञासा युक्त तथा पसंद का होना चाहिए। मनोरजन के साधन उपलब्ध नही कराये जाते तो मानसिक रूप से अस्वस्थता का अनुभव करते है, वे निराश तथा नीरस हो जाते है। उनका वास्तविक सन्तुलन बिगड़ जाता है। अतः यह बिन्दु भी विचारणीय है।

पाठ्यगत प्रश्न -
प्र.1 मानसिक स्वास्थय का अर्थ है -
अ. वास्तविकता के धरातल पर वातावरण में सामंजस्य स्थापित करना।
ब. स्वस्थ्य मस्तिष्क        स. स्मृति का विकास          द. बुद्धि का विकास
प्र. 2 "मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है - वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से सामंजस्य स्थापित
करना''- उक्त परिभाषा किस विद्धान की है।
अ. ड्रेवर की                   ब. फ्रायड़ की
स. क्लेन की                    द. मेंस्लो की
प्र. 3. कौन सा अभिकरण मानसिक स्वास्थ्य विकास में शक्तिशाली है -
अ. परिवार             ब. सिनेमा
स. पुस्तकालय        द. सुधारालय
प्र. 4 मानसिक स्वास्थय से आप क्या समझते है ?
 घर, विद्यालय, समाज का मानसिक स्वास्थ्य सुधार में योगदान
(अ) घर का सुधार में योगदान – घर में सुधार के सुझाव निम्नलिखित है -
1. घर का वातावरण पूर्णतया, शान्तिमय होना चाहिए। बात बात पर माता पिता को लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए।

2. प्रेम, स्नेह, सहयोग, सहानुभूति, प्रेरणा तथा बच्चों की स्वाभाविक आकांक्षाओं की पूर्ति कर परिवार उनके स्वस्थ्य मानसिक विकास की सभी परिस्थितियां उपलब्ध करा सकता है।

3. परिवार स्वतंत्रता, सीमित नियंत्रण, प्रोत्साहन, प्रशंसा तथा स्वाभाविक अभिव्यक्ति के वातावरण का सृजन कर बालकों की मूलप्रवृत्तियों का उन्नयन तथा परिमार्जन कर सकता है।

4. बालकों को उनकी रूचि के अनुसार भोजन, वस्त्र, खेलकूद, मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराकर मानसिक स्वास्थ्य सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

5. माता पिता को लालन पालन करने का प्रशिक्षा होना चाहिये।

6. परिवार के समस्त सदस्यों का आचरण नैतिकतापूर्ण होना चाहिये।

7. परिवार में अच्छी पुस्तके पढने की प्रेरित करना चाहिये।

8. निर्धन परिवार के बालकों को सरकार द्वारा पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान की जाए।

9. बालकों की विभिन्न शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाय ।

(ब) विद्यालय का सुधार में योगदान -

1. विद्यालय का वातावरण स्वास्थ्यप्रद होना चाहिये।

2. विद्यालय में बालकों को विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने का अवसर प्रदान मिलने चाहिये, जिससे उनमें समाजिकता का विकास होता है।

3. यदि कक्षा अध्यापक का व्यवहार कठोर होता है तो बच्चों का मानसिक स्वास्थ बिगड़ जाता है। अध्यापक का व्यवहार नियंत्रित होना चाहिये। विद्यार्थी को हमेंशा प्रोत्साहन देना चाहिये।

4. अध्यापक का व्यक्तित्व सवेगात्मक रूप से स्थिर होना चाहिये, उसे विद्यार्थियों में भेदभाव नहीं करना चाहिये। शिक्षक को निराशावादी नहीं होना चाहिये।

5. कई बार अनूपयुक्त पाठ्यक्रम बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर देते हैं। विद्यार्थी को उसकी रूचि के अनुसार पाठ्यक्रम मिलने पर, वह खुश रहते हैं और उनका मानसिक स्वास्थ्यअच्छा रहता है।

6. वाद विवाद, कविता प्रतियोगिता तथाअन्य साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेकर बालक अपना मानसिक विकास करता है।

7. बालक को अपने विचार अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए।

8. जो शिक्षण विधियां बालको की रूचियां, स्थायी भावों, चरित्र, बुद्धि, कल्पना स्मृति आदि मानसिक शक्तियों तथा शारीरिक शक्तियों को विकसित करती है, वे बाल–केन्द्रित शिक्षण विधियां कहलाती है। जो अधिक बाल केन्द्रित होगी, वह उतनी ही बालकों के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी होंगी।

9. बालक की क्षमताओं तथा योग्यताओं को ध्यान में रखते हुए उसे समुचित निर्देशन प्राप्त करना चाहिए। यह निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक दोनों दृष्टियों से होगा। यदि बालक ऐसे विषयों का अध्ययन करेगा जो उसकी रूचि और क्षमता के अनुरूप हैं तो उसका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।

(स) समाज का मानसिक स्वास्थ्य सुधार में योगदान -

समूह एक प्रकार के समाज की इकाई होती है। बालक किसी न किसी समूह के सदस्य होते हैं और उसके

प्रति निष्ठावान होते है। बालकों के खेलने कूदने की विभिन्न क्रियायें समूह में ही होती है। ऐसी दशा में बालक

का समूह द्वारा प्रभावित होना स्वाभाविक हो जाता है समूह बालक के विकास को निम्नलिखित ढंग से सुधार

सकता है -

1. समूह बालक में अच्छी सामजिकता की भावना का विकास करता है।

2. समूह में रहकर बालक परस्पर सहयोग और सहकारिता की भावना का विकास करता है।

3. समूह बालकों को संगठन व नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है।

4. यदि समूह के अधिकांश सदस्य दुराचारी और भ्रष्ट है तो अच्छे बालक भी भ्रष्ट और दुराचारी हो जाते

5. समूह में न रहने पर बालक एकान्तीय और असामाजिक हो जाता है।

व्यवहार संबंधी समस्याओं के प्रकार

शिशु जब जन्म लेता है तब वह पूर्णतया दूसरों पर निर्भर रहता है। शैशवावस्था में वह मां के अधीन होता है। इसका प्रथम व्यवहार मां से प्रारंभ होता है। भूख लगने पर रोना, मां के संपर्क का यह प्रथम व्यवहार है। बड़ा होने पर वह परिवार तथा समाज के संपर्क में आता है। धीरे-धीरे उसमें शारीरिक, मानसिक तथा सर्वेगात्मक आवश्यकतायें विकसित होने लगती है। उसकी अन्तः क्रिया तथा वातावरण के प्रभाव के फलस्वरूप उसका व्यवहार बनता है। यदि समाज तथा परिवार की परिस्थितियां सामान्य एवं आदर्शपूर्ण होती है तो बालक का व्यवहार सामान्य बना रहता है, लेकिन यदि समाज या परिवार की समाज की परिस्थितियाँ उत्तेजनात्मक एवं असंगत होती है तो फिर बालकों का व्यवहार भी असंगत एवं समाज के लिए समस्यापूर्ण हो जाता है। इसी कारण वह परिस्थितियों से समायोजन नहीं कर पाता है तथा समायोजन की क्षमता के अभाव में बालक की व्यवहार सम्बन्धी विभिन्न समस्याएं उठ खड़ी होती है।

बालकों की व्यवहार संबंधी समस्याओं के प्रकार – बालकों की व्यवहार सम्बन्धी विभिन्न समस्याएं शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक समायोजन से सम्बन्धित होती है। यहां उनके व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं -

1. शारीरिक अवयवों पर आधारित समस्याएँ -शारीरिक अवयवों पर आधारित समस्याएँ निम्नलिखित हैं - 1. अंग मटकाना 2. अंगूठा चूसना 3. मुंह से नाखून काटना 4. कन्धे मटकाना 5. हकलाना 6. शारीरिक

2. मानसिक समस्याओं पर आधारित समस्याएं - मानसिक समस्याओं पर आधारित समस्याएँ निम्नलिखित हैं - 1. पराश्रित बने रहना 2. निर्णय लेने की अक्षमता की स्थिति 3. व्यवहार में नीरसता होना 4. अदूरदर्शिता 5. अविवेकशीलता 6. कठिनाइयों में विचलित होना 7. मानसिक विकास में अवरोधन उत्पन्न होना8. विषय में अरूचि होना 9. घमण्ड करना 10. कक्षा से भाग जाना आदि।

3. सवेंगात्मक समस्याओं पर आधारित -संवेगात्मक समस्याओं पर आधारित समस्याएँ निम्न लिखित है - 1. घबराहट का अनुभव करना       2. हठ करना      3. काल्पनिक अस्वस्थता       4. बहाना करना5. दिवास्वप्न देखना   6. नकारात्मक भाव व्यक्त करना    7. शर्मीलापन होना    8. क्रोध करना 9. चिड़चिड़ा एवं झगडालू होना आदि ।

4. सामाजिक समस्याओं पर आधारित – समाजिक समस्याओं पर आधारित समस्याऐं निम्नलिखित हैं -1. झगड़ा करना 2. हठ व अवज्ञा करना 3. चोरी करना 4. संगी साथियों के साथ कुसमायोजन करना। व्यवहार संबंधी समस्याओं के कारण – बालकों में विभिन्न प्रकार के समस्यात्मक व्यवहार पाये जाते हैं जिनके कारण अलग अलग होते है। लेकिन इनके मूल कारण प्रमुख है जो हमारे परिवार व समाज द्वारा उत्पन्न होते हैं और समायोजन में बाधक होते हैं। इन्हें हम सामान्य कारण कह सकते हैं।

1. पारिवारिक वातावरण - प्रत्येक बालक को जन्म के बाद सर्वप्रथम पारिवारिक वातावरण ही प्राप्त होता है। पारिवारिक वातावरण उसके चतुर्मुखी विकास का आधार होता है। परिवार और माता पिता यदि चाहे तो बच्चे में अधिकारिक गुणों की भरमार करसकते हैं और यदि उनकी उचित देखभाल नहीं करते है तो बच्चे का भविष्य
बिगाड़ देते हैं। परिवार बालक की प्रथम पाठशाला और मातायें आदर्श अध्यापिकाये होती हैं।

परिवार का वातावरण विभिन्न रूपो में बालको के विकास को प्रभावित करता है : -

1. जिन परिवारों का आन्तरिक वातावरण कलहपूर्ण होता है। माता पिता में परस्पर लडाई झगडा होता है वहां बच्चों का स्वस्थ विकास नहीं होता है।

2. यदि माता पिता नौकरी या अन्य किसी कारणों से अधिक समय तक घर से बाहर रहते हैं तो बालक स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं।

3. जब माता पिता अपनी सभी सन्तानों को समान लाड़ प्यार और सुविधायें नहीं देते हैं तो बालकों के व्यवहार में समस्यायें पैदा हो जाती है।

4. माता या पिता का सौतेला होने पर भी एक पक्ष से उपेक्षापूर्ण व्यवहार मिलने पर भावना ग्रंथियां बन जाती हैं और व्यवहारात्मक समस्यायें उत्पन्न हो जाती है।

5. परिवार के आर्थिक रूप से सम्पन्न होने पर बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये झूठ बोलते हैं चोरी करते हैं तथा अन्य गलत तरीकों को अपनाते हैं।

6. माता पिता के गलत आचरण होना – यदि माता पिता गलत आदतों के शिकार हैं, वे झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, नशीले पदार्थो का सेवन करते हैं तो बालकों पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है।

7. माता-पिता का अत्यधिक कठोर अनुशासन या ढीला अनुशासन दोनों ही बालकों को उद्दण्ड तथा समस्यात्मक बना देते हैं।

8. रहने का अनुपयुक्त स्थान बालकों को समस्यात्मक बना देते हैं। बालकों में क्रियाशीलता अधिक होती है। वे इच्छानुसार स्वतन्त्र रूप से कार्य करना चाहते हैं। घर पर स्थान की कमी होने पर जब उन्हें विभिन्न क्रियाओं को करने के लिये रोका टोका जाता है तो वे बैचेनी का अनुभव करते हैं। क्योंकि घर में उन्हें अपनी शक्तियों के प्रयोग करने का अवसर नहीं मिल पाता है।


2. सामाजिक वातावरण – जिस समाज का वातावरण दूषित होता है, समाज में अनैतिकता और अनाचार की बहुलता होती है वहाँ समस्यात्मक बालकों की अधिकता होती है। बालक अपने आस पास के वातावरण में जैसा व्यवहार दूसरों को करते देखते हैं वैसा ही वे स्वयं करने लगते हैं। इसके अतिरिक्त जिस समाज में बेकारी, भ्रष्टाचार और जातीय भेदभावों की प्रमुखता होती है वहां भी असमानतापूर्ण वातावरण के कारण बालकों के व्यवहार समस्यात्मक हो जाते है।

3. विद्यालय का वातावरण - विद्यालय का अनुपयुक्त वातावरण भी बालकों को समस्यात्मक बनाता हैं जैसे -

1. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम – जब पाठ्यक्रम बालकों के बौद्धिक स्तरके अनुकूल नहीं होता है, पाठ्यक्रम में बालकों की रूचि के अनुसार सहगामी क्रियायें नहीं होती है तो बालक का मन पढ़ाई में नहीं लगता है।

2. दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति - जब शिक्षक का पढ़ाया हुआ बालकों की समझ में नही आता है तो दोषपूर्ण शिक्षण विधि के कारण बालक पढने में जी चुराते है।

3. दोषपूर्ण परीक्षा पद्धति – परीक्षा पद्धति उपयुक्त न होने पर जब बालकों को अपनी परीक्षा के समुचित परिणाम नहीं मिलते हैं तो वे समस्यात्मक बन जाते हैं।

4. कठोर अनुशासन – जब विद्यालय का अनुशासन अत्यधिक कठोर होता है, बालकों को थोड़ी ही त्रुटि के लिये कठोर दण्ड दिया जाता है तो बालक अनुशासन विहीन हो जाता है।

5. गलत सहपाठी – यदि बालक के सहपाठी झूठ बोलने वाले, स्कूल से भागने वाले, जुआ खेलने वाले, सिगरेट व शराब पीने वाले होते हैं तो बालक भी वैसा बन जाता है।

4. शारीरिक अयोग्यतायें- जिन बालकों में कोई शारीरिक अयोग्यता होती है जैसे – अधिक लम्बा, मोटा, नाटा, बौना,लंगडा, लूला, अन्धा, बहरा आदि तो इन दोषों के कारण उपहास होने पर, समूह में सम्मिलित न होने पर बालकों में संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है जिससे उनका व्यवहार समस्यात्मक हो जाता है।

5. बुद्धि – बुद्धि की कमी और अधिकता दोनों ही समस्यात्मक बालकों को जन्म देती हैं। दोनों ही स्थितियों में बालक सामान्य बालकों के साथ समायोजित नहीं हो पाते हैं और उनके व्यवहार समस्यात्मक बन जाते है।

6. गन्दा साहित्य व फिल्में – जब बालक गन्दा साहित्य पढ़ते हैं और अश्लील फिल्में देखते हैं तो उनमें बहुत ही निम्न स्तरीय व्यवहारों की उत्पत्ति होती है। ये व्यवहार बालक को अनैतिक व समाज विरोधी बना देते हैं तथा उसके व्यक्तित्व को नष्ट कर देते है।

समस्यात्मक बालको का उपचार

समस्यात्मक बालकों को सुधारने के लिये निम्नलिखित प्रयास किये जा सकते हैं -

1. प्रेम व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार – देखा गया है कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर बालक समस्यात्मक बन जाते हैं अतः उन्हें सुधारने के लिये आवश्यक है कि उनके साथ प्रेम व सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया जायें।

2. आलोचना न की जाये – इन बालकों को न तो कठोर दण्ड देना चाहिये न ही अधिक डांटना फटकारना चाहिये। कठोर दण्ड और डांट फटकार से ये और अधिक उद्दण्ड हो जाते है।

3. दबी हुयी मूल प्रवृत्तियों का शोधन किया जाये – कभी कभी जब इच्छाओं का दमन हो जाता है तो भी बालकों में समस्यातमक व्यवहार उत्पन्न होते हैं अतः खेल, मनोरंजन, भ्रमण तथा मनोचिकित्सक द्वारा मूल प्रवृत्त्यिों का शोधन किया जाये।

4. आवश्यकतानुसार ही पुरस्कार और दण्ड का प्रयोग किया जाये – बालक के कार्यो के लिये उसे हतोत्साहित न किया जाये अपितु समय समय पर पुरस्कार देकर उनके आत्मविश्वास में वृद्धि की जाये।

5. स्वस्थ मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये जायें – पढ़ाई के साथ मनोरंजन भी आवश्यक है। माता पिता को चाहिये कि वे बालकों के स्वस्थ मनोरंजन में अपना योगदान दें। उन्हें समय समय पर घुमाने या पिकनिक मनाने ले जायें। घर के अन्दर भी उनके साथ उनकी रूचिके खेल खेलें, अच्छा साहित्य व पत्र पत्रिकायें दें जिससे उनका मनोरंजन हो और खाली समय का सदुयोग हो।

6. धर्म व नैतिकता की शिक्षा दी जाये – प्रत्येक धर्म के अपने कुछ सिद्धान्त व आदेश होते हैं जो बच्चों के अच्छे चरित्र निर्माण में सहायक होते हैं। माता पिता तथा शिक्षकों को चाहिये कि वे बालकों को धार्मिक व नैतिक शिक्षा दें जिससे उनमें उच्च आदर्शों का निर्माण हों।

7. सही मार्गदर्शन – माता पिता तथा शिक्षकों द्वारा बालक के प्रश्नों का तथा जिज्ञासाओं का समाधान किया जाये।

8. सामाजिक व रचनात्मक कार्यो में लगाया जाये – ऐसे बालकों के सुधार के लिये आवश्यक है कि उन्हें व्यस्त रखा जाये उन्हें सामाजिक दायित्वों तथा रचनात्मक कार्यों में लगाया जाये।

9. शारीरिक विकारों को कम करने के लिये सुविधायें दी जाये – शारीरिक रूप से अक्षम बालक हीनता का शिकार होकर समस्यात्मक बन जाते हैं। ऐसे बालको के सुधार के लिये आवश्यक है कि इनके शारीरिक विकारों को कम करने के लिये आवश्यक सुविधायें प्रदान की जाये।

10. विद्यालयों का पाठ्यक्रम बालक के अनुरूप हो – विद्यालय का वातावरण तथा पाठ्यक्रम बालक की बुद्धि, योग्यता तथारूचि के अनुकूल होना चाहिये जिससे पढ़ाई में उनका मन लगे। वे विद्यालय जाने से जी न चुरायें।

11. शिक्षक व अभिभावक समय समय पर सम्पर्क करें – समस्यात्मक बालकों को सुधारने के लिये जरूरी हैं कि माता – पिता तथा शिक्षक सप्ताह में एक बार मिलें और एक दूसरे से बालक के व्यवहार के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त करे और तदनुसार बालक को सुधारने का प्रयास करें।

12. बालक के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त करें – यदि माता पिता या शिक्षक बच्चे में कोई समस्यात्मक व्यवहार देखें तो तुरन्त ही कोई निष्कर्ष निकाल कर सुधार का प्रयास न करें अपितु कुछ समय तक बालक के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त करें तब सुधारात्मक विधि प्रयोग में लायें।

बालकों के कुछ प्रमुख व्यवहार संबंधी समस्यायें, कारण तथा उपाय
1. अंगूठा चूसना
शैशवास्था में प्रायः सभी शिशु अंगूठा चूसते हैं जो एक समान्य व मूल प्रवृत्ति हैं परन्तु 3-4 साल के बाद यह एक समस्या बन जाती है। यह एक मनोशारीरिक समस्यात्मक व्यवहार है। जब बच्चे को मां स्तनपान नहीं कराती या माता पिता से स्नेह नही मिलता या उन्हें असुरक्षा की भावना महसूस होती है, आदि कारणों से बच्चा अंगूठा चूसने लगते है।

उपाय : 1. आदत को छुड़ाने के लिये उसे मारना, डराना, तथा धमकाना नही चाहिए।
2. शिशु को दूध पिलाने के समय में नियमितता रखनी चाहिए।
3. बच्चों को पर्याप्त स्नेह देना चाहिए।
4. शिशु को लगभग 1 वर्ष तक स्तनपान करायें।

2. नाखून काटना
मानसिक अन्तर्द्वद की स्थिति में सही निर्णय न ले पाने पर, हीनभावना से ग्रसित होने पर, माता पिता द्वारा बच्चों के साथ उपेक्षा और तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करनेपर, फ्रायड़ के अनुसार “यौन इच्छाओं कीसन्तुष्टि न होने पर" बालक मुंह से नाखून काटने लगता है।
उपाय: 1. बच्चे में आत्मविश्वास जागृत करें।
2. माता – पिता या परिवार के अन्य सदस्य द्वारा बच्चे का तिरस्कार न किया जाये।
3. डांट फटकार का प्रयोग न करें।
4. आक्रमकता व तनाव कारणों को जानकर उसे दूर करने की कोशिश करें।

3. बिस्तर गीला करना
दो/तीन वर्ष के बाद भी बिस्तर में मूत्र त्याग कर देना एक समस्या बन जाता है। बालकों की शारीरिक अक्षमता, दीर्घकालीन बीमारी, अत्यधिक ठंड होने पर, नाड़ी संस्थान के पूर्ण परिपक्व न होने पर, सोते समय भयानक स्वप्न देखने पर, पाचन क्रिया दोषपूर्ण होने पर, बच्चे को अत्यधिक मारने या डांटने पर आदि कारणों से कई बार बच्चा निरन्तर गीला करने लगता है।

उपाय : 1. सोने से पूर्व बालक को मूत्र त्याग करा दें।
2. बच्चे के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार न करें।
3. बच्चे को रात्रि को हल्का सुपाच्य भोजन दें।
4. बच्चे के कमरे में हल्का प्रकाश रखें, ताकि बच्चा भयभीत न हो।
5. बच्चे को भूतप्रेत आदि की डरावनी कहानियां नही सुनाएं।

4. बालक का झूठ बोलना
 गलतियो को छुपाने के लिए, मनोरंजन के लिए, दण्ड से बचने व स्वयं सुरक्षा के लिए, आत्म प्रदर्शन के लिए, दूसरो का विश्वास पात्र बनने के लिए, स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए, स्नेह पाने, सहानभूति पाने तथा ध्यान आकर्षित करने के लिए।

उपाय 1. झूठ बोलने पर बालक को कठोर दण्ड न दें।
2. अच्छा साहित्य पढ़ने को प्रोत्साहित करें।
3. सत्य बोलने पर बालक की प्रशंसा करें।
4. माता-पिता स्वयं कभी झूठ न बोलें।
5. बालक में आत्म निर्भरता का विकास करें।

5. हकलाना
जब बालक अधिक आयु होने पर भी स्पष्ट नही बोल पाता है, अटक-अटक कर बोलता है, तो उसे हकलाना कहते है। असुरक्षा तथा हीन भावना से ग्रसित होने पर, स्नायु संस्थान में विकृति होने पर, मंदबुद्धिता या मानसिक विकृति होने पर, अत्यधिक उत्तेजना व संवेगात्मक तनाव में होने पर, अन्तः स्त्रावी ग्रंथियों की क्रियाशीलता कम या अधिक होने पर, बच्चा हकलाने लगता है।

उपाय: 1. हकलाने पर बालक का उपहास न किया जाये।
2. बालक में आत्मविश्वास व सुरक्षा की भावना पैदा की जाये।
3. बालक को सही बोलने का अभ्यास कराया जाये।
4. मानसिक विकृति होने पर मनोचिकित्सक को दिखाये।

6. चोरी करना
बड़े होने पर दूसरो की चीजो को उठा लेते हैं उसे चोरी करना कहते है, अपनी मनपसंद वस्तु प्राप्त करने के लिए, परिवार की निम्न आर्थिक स्थिति, गलत संगत के कारण, दूसरो पर प्रभुत्व जमाने की इच्छा से, परिवारिक वातावरण दूषित होने पर, बालक को चोरी करने की आदत लग सकती है।

 उपाय: 1.चोरी करने पर सबके सामने उसका अपमान नही करना चाहिए।
2. महान व्यक्तियो के प्रसंग व कहानियां सुनाकर ।
3. बच्चों को मारना-पीटना नही चाहिए।
4. माता-पिता अपने उपलब्ध साधनो से बच्चे की आवश्यकताओ को पूरा करे।
5. परिवार द्वारा नैतिकता का पाठ बच्चो को पढ़ाना चाहिए।

7. आक्रामक व्यवहार :
अन्य बालको या वयस्को को मारना-पीटना, धक्के देना, ठोकरे मारना, दांतों से काटना, गालियां देना, चिढ़ाना, तंग करना, खिलौनो को छीनना आदि आक्रामक व्यवहार के अंतर्गत आते है। असुरक्षा के भाव से, गलत संगत के कारण, परिवारिक वातावरण दूषित होने पर, दूसरो पर प्रभुत्व जमाने केलिये, अपनी संपत्ति की रक्षा के लिये, बालक कभी-कभी आक्रामक हो जाता है।

उपाय 1. बच्चों को मारना-पीटना नही चाहिये।
2. घर का वातावरण ठीक करे।
3. बच्चो के अच्छे काम की प्रशंसा करे।

8. क्रोध करना :
बालको में क्रोध उनकी इच्छा पूर्ति न होने पर या उनके कार्य में बाधा उत्पन्न होने पर जाग्रत होता है। उनके आत्मसम्मान को चोट लगने पर भी क्रोध आता है। क्रोध कभी चिढ़ या खीझ के रूप में होता है तो कभी तीव्र रोष के रूप में, जिसका परिणाम तोड़फोड़ भी हो सकता है।

उपाय: 1. क्रोध पर नियंत्रण पाने का सर्वश्रेष्ट तरीका यह है कि क्रोध को प्रेरित करने वाले व्यवहार से बचा जाए।
2. अनावश्यक विनोद चुटकी, व्यंग तथा डाँट-डपट से बचाना चाहिए। बालक के अध्ययन में कमजोरी पर उपहास नही करना चाहिए।
3. क्रोधित बालक के प्रति क्रोधित न होकर शान्त और तटस्थ भाव से उसके क्रोध के कारण जानकर उसे दूर करने का उपाय करना चाहिए।

9. कक्षा से भागने संबंधी व्यवहार :
बालक के द्वारा गृहकार्य न करने के कारण सम्बंधित विषय की कक्षा से भाग जाना। किसी-किसी शिक्षक का व्यवहार बहुत ही कठोर होता है, अतः बालक डर के कारण भाग जाता है। खेलकूद, घूमने-फिरने एवं सिनेमा आदि देखने के लिए भी बालक कक्षा से भाग जाता है। विद्यालयो में खेलकूद तथा मनोरंजन की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण भी बालक भाग जाते है।

उपाय: 1. इस दोष को दूर करने के लिए अभिभावको एवं शिक्षकों को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
2. बालको की समस्याओं का मनोवैज्ञानिक तरीकों से उपचार करने चाहिए।
3. विद्यालय का वातावरण आकर्षक बनाया जाना चाहिए।
4. शिक्षको को पढ़ाने के लिए सरस एवं प्रभावी शिक्षण विधियो का प्रयोग करना चाहिए।
5. विद्यालय में खेलकूद, वाचनालय, सांस्कृतिक एवं मनोरंजनात्मक व्यवस्था भी की जानी चाहिए।

10. गृहकार्य न करना :-
कई बालक गृह-कार्य करके नही लाते है। इससे वे पढ़ाई में पिछड़ जाते है। दिया हुआ गृहकार्य स्तर से ऊँचा, अधिक मात्रा में होने या नही समझ पाने पर बालक उसे कर नही पाता है, घर में एकान्त स्थान के अभाव में भी गृहकार्य करने में बाधा पड़ती है। विषय में अरूचि के कारण भी बालक गृहकार्य नही करता।

उपाय: 1. शिक्षक, को छात्रो को उनके मानसिक स्तर के अनुरूप बनाये।
2. गृहकार्य की मात्रा यथोचित हो।
3. घर में पढ़ने लिखने का माहौल बनाया जायें।

11. यौन विकृति :-
 यौन विकृति में हस्तमेंथुन तथा समजाति मेंथुन आते है। स्वयं के यौनअंगों को उत्तेजित कर आनन्द का अनुभव के लिये हस्तमेंथुन किया जाता है। कभी-कभी यह एक दूसरे की इन्द्रिय को उत्तेजना देने के लिए भी किया जाता है। यह प्रवृति लड़कियो की बजाय, लड़को में अधिक होती है।

उपाय: 1. किशोर बालको को यौन विषयक उचित प्रशिक्षण देना चाहिये।
2. बालको को व्यस्त रखना चाहिए तथा उन्हे एकान्त में अकेले नही छोड़ने चाहिये।

पाठ्यगत प्रश्न -
5. अंगूढा चूसना समस्यात्मक व्यवहार नही है। (सही/गलत)
6. कठोर अनुशासन समस्यात्मक व्यवहारो के समाधान का उत्तम तरीका है। (सही/ गलत)
7. समस्यात्मक बालक किसी वर्ग विशेष के नही है। (सही/ गलत)
8. समस्यात्मक व्यवहारो का निदान संभव नही है। (सही/गलत)
9. बालको के समस्यात्मक व्यवहार के लिए उत्तरदायी है।
अ. परिवार                    ब. समाज
स. विद्यालय                  द. उपर्युक्त सभी
10. अंगूठा चूसना कौन सा असमान्य व्यवहार है।
अ. मनोशारीरिक।              ब. समाजिक
स. सवेगात्मक                  द.अनुशासनविहीन

इकाई सारांश
• अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के द्वारा व्यक्ति अपनी क्षमताओं के अनुसार संतुष्ट रूप में जीवन की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए परस्पर तथा समाज के अन्य सदस्यो के साथ समायोजन बनाये रख सकते हैं।
• बालक के स्वास्थ्य पर घर का प्रभाव पड़ता है। परिवार का विघटन, माता पिता का असंगत व्यवहार, निर्धनता, उच्च आदर्श, घर का सख्त अनुशासन, परिवार में तनाव आदि घरेलु कारण है, जो बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
• विद्यालय का तनावपूर्ण वातावरण, अध्यापक का तानाशाह व्यवहार, परीक्षा प्रणाली, अनुचित पाठयक्रम आदि बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
• संवेगात्मक सुरक्षा, अच्छे शरीर, मित्रों का होना, आत्मअभिव्यक्ति, आत्मविश्वास, साहसपूर्ण कार्य, बालकेन्द्रित शिक्षण विधियां, बालकेन्द्रित पाठयक्रम, बालकों को योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार शैक्षिक तथा व्यावसायिक निदेशन, अध्यापक का निष्पक्ष व्यवहार बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करते हैं।
• भय, अँगूठा चूसना आदि शैशवकाल की समस्यायें है।
• कपड़ों में मलमूत्र करना, क्रोध करना, चोरी करना, झूठ बोलना आदि बाल्यावस्था की व्यवहारगत समस्यायें हैं।
• आवारा घूमना, मुँह से नाखून काटना, हकलाना, यौन विकृति, धूम्रपान आदि किशोरवस्था की समस्यायें हैं।
• समस्यात्मक व्यवहारों का सुधार संभव है। प्रेमसहानुभूति पूर्ण व्यवहार, आवश्यतानुसार दण्ड पुरस्कार, धर्म नैतिकता की शिक्षा, प्रोत्साहन, स्वस्थ मनोरंजन आदि के द्वारा बच्चो के व्यवहार में परिवर्तन कर सकते है।

आत्म परीक्षण प्रश्न -
प्र.1 बालकों के मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझाते हैं ? इसके स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
प्र.2 बालकों के मानसिक विकास में कौन-2 बाधक तत्व हैं ?
प्र.3 परिवार/अभिभावक का बालक के मानसिक स्वास्थ्य सुधार में क्या योगदान है ?
प्र.4 विद्यालय को बालक के मानसिक स्वास्थ्य निर्माण के लिए क्या करना चाहिए ?
प्र.5 बालक चोरी क्यों करता है तथा झूठ क्यों बोलता है ?
प्र.6 बाल व्यवहार संबंधी समस्यायें कौन-2 सी है ?
प्र.7 किन्ही दो समस्याओं के कारण व निदान बताइये ?
1. कक्षा से भागना 2. हकलाना 3. गृहकार्य न करना 4. अंगूठा चूसना
प्र.8 बालको के असमान्य व्यवहार की उत्पत्ति के सामान्य कारण बताइयें।

बाल विकास और मनोविज्ञान।। भाग - 2

विषय : विकास एवं उसको प्रभावित करने वाले कारक।।

 इकाई - 2
 विषयांश : 

प्रस्तावना – उद्देश्य, विकास का अर्थ, परिभाषा, शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सामाजिक विकास, संवेगात्मक विकास, भाषा विकास, मूल्य परक विकास।


 प्रिय छात्र,
पूर्व इकाई में आपने बाल विकास का अर्थ, उपयोगिता एवं महत्व के बारे में जानकारी प्राप्त की। प्रस्तुत इकाई में विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

 प्रस्तावना -
प्रस्तुत इकाई में आप बालक के विकास तथा उसको प्रभावित करने वाले कारक के विषय में पढ़ेगें। मनुष्य सजीव प्राणी है। सजीव या जीवित प्राणी अपने जीवन प्रसार में सक्रिय बने रहने के लिए निरन्तर गतिशील रहता है।जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में नये-नये गुणों का अविर्भाव और पुरानी विशेषताओं का लोप होता रहता है। इस प्रक्रिया में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है जिसके अन्तर्गत शारीरिक एवं मानसिक गुणों तथा विशेषतओं की नियमित उत्पत्ति देखी जाती है, इसे ही विकास कहा जाता है। विकास के कई पक्ष होते हैं जैसे - शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक व सौन्दर्यात्मक इत्यादि।
 बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेदनात्मक, भाषीय एवं मूल्य परक विकास अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया है। बालक की शारीरिक विकास की प्रक्रिया में अनेक आन्तरिक या बाहय अंगों तथा मांस पेशियों का विकास होता है। मानसिक विकास की प्रक्रिया को जटिल प्रक्रिया माना जाता है। जिसको अलग से सुनिश्चित कर पाना सम्भव नही है। अनुसंधानों पर आधारित मानदण्डों के आधार पर मानसिक विकास का पता चलता है।संवेगों का बालक के जीवन महत्वपूर्ण स्थान है। जो व्यक्ति के अस्तित्व को सन्तुलित बनाते हैं। संवेगात्मक असन्तुलन से बालक में अनेक मानसिक विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं।सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति बदलती परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करता है और अन्य व्यक्तियों के साथ संबंध बनाता है। भाषा बुद्धि के उपयोग और तर्क का एक माध्यम है। मूल्यपरक विकास बालक के सामाजिक नैतिक मूल्यों की विवेचना करता है।

 उद्देश्य -
इस इकाई का उद्देश्य बालक के विकास की प्रक्रिया के सन्दर्भ में विभिन्न विकासों एवं उसको प्रभावित करने ले कारकों का अध्ययन करना है इसमें आप - 
• विकास का अर्थ, परिभाषा एवं उसके पक्ष बता सकेंगे।
• शारीरिक विकास का क्रम एवं विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन कर सकेंगें। 
• बालक के मानसिक विकास की प्रक्रिया उसकी क्षमता योग्यता के साथ मानसिक विकास को प्रभावित करन वाले तत्वों को समझ सकेंगे। 
• सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास के आधार पर बालकों के विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन कर सकेंगे।
• भाषा एवं मूल्यपरक विकास जो बालक के व्यक्तित्व को महत्वपूर्ण स्थान देते हैं और समाज में उसकी स्थिति को बताते है को समझ सकेंगे।

 विकास का अर्थ परिभाषा एवं उसके पक्ष -
विकास एक सार्वभौतिक प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त तक अविराम गति से चलती रहती है।  विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता वरन् इसके अन्तर्गत वे सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेदनात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भावस्था से मृत्यु पर्यन्त तक निरन्तर चलते रहते हैं।
हरलॉक (Hurlock) ने विकास को परिभाषित करते हुए कहा है कि "विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह 'व्यवस्थित' तथा 'समनुगत' परिवर्तन है जिसमें कि प्रौढावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनोंका प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषतायें व योग्यतायें प्रकट होती है।"
हरलॉक की परिभाषा के अनुसार विकास व्यवस्थित तथा समनुगत परिवर्तन है अर्थात एक पक्ष में न होकर सभी पक्षों में समान व व्यवस्थित परिवर्तन विकास की सही रूप में व्याख्या करते हैं। यह परिवर्तन मृत्यु पर्यन्त तक लगातार या निरन्तर चलते रहते हैं। 
विकास के अन्तर्गत कई पक्ष सम्मिलित है जो इस प्रकार हैं -

1. शारीरिक विकास         2. क्रियात्मक विकास
3. मानसिक विकास         4. संवेगात्मक विकास
5. सामाजिक विकास       6. नैतिक विकास
7. सृजनात्मक विकास      8. सौदर्य विकास


 शारीरिक विकास एवं गामक विकास -
शारीरिक विकास से अभिप्राय बालक की शारीरिक संरचना एवं गठन में होने वाला परिवर्तन है। जिसके अन्तर्गत शारीरिक भार, लम्बाई, हड्डियों, दॉत इत्यादि में होने वाले विकास सम्मिलित है। गामक विकास शारीरिक विकास से जुड़ा प्रत्यय है जिसके अन्तर्गत मॉसपेशियों एवं हड्डियों की सक्षमता के साथ उन पर नियंत्रण सम्मिलित है। इसी के साथ विभिन्न क्रियाओं को करने के कौशलों का विकास भी इसी के अन्तर्गत माना है जैसे चलना, कूदना, सीढ़ी चढ़ना, भोजन करना, कपड़े पहनना इत्यादि । गामक कौशलों के विकास के लिए शारीरिक विकास सही रूप में होना आवश्यक है।

शारीरिक विकास के प्रमुख पक्ष इस प्रकार हैं -

(1) शरीर-रचना :- शारीरिक विकास की प्रक्रिया में अनेक अन्तरिक या बाहय अंगों तथा मॉसपेशियों का विकास होता है। परिपक्वता की विभिन्न अवस्थाओं में अभिवृद्धि की गति में अंतर होता है। शरीर की रचना स्नायु प्रणाली, श्वसन प्रणाली, पाचन संस्थान आदि की अभिवृद्धि तथा परिपक्वता एक दूसरे से सम्बन्धित है।
 सामान्य शरीरिक विकास - शारीरिक विकास सामान्यतः एक  होना चाहिए। मानसिक विकास से इसका निकट का सम्बन्ध है यह मूख्यतः चार क्षेत्रों में पाया जाता है - 
(अ) स्नायु प्रणाली    (ब) मॉस पेशियों 
(स) इन्ड्रोसन ग्रन्थियाँ     (द)शरीर का आकार ।
भिन्न शारीरिक विकास - शारीरिक विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न रूप से होता है। यह भिन्नता शरीर के कद रूप में पाई जाती है। इन्ड्रोसीन ग्रन्थियों के ठीक से कार्य न करने का सीधा प्रभाव शरीर की रचना, कद, आदि पर पड़ता है।
अभिवृद्धि चक्र – अभिवृद्धि का चक्र सदैव किसी एक नियम से नहीं चलता। किसी वर्ष विकास की गति तेज होती है और किसी वर्ष कम।

 (2) शरीर का कद :
शरीर के आकार से हमारा अभिप्राय ऊंचाई तथा भार से है। ये दोनों मिलकर विकास को निश्चित स्वरूप प्रदान करते हैं। कद - जन्म के समय बालक की लंबाई लगभग 20 इंच होती है। लड़कों की लम्बाई लड़कियों की अपेक्षा, जन्म के समय आधा इंच अधिक होती है। परिपक्वता आने तक बालक की ऊंचाई की गति में धीमापन आ जाता है। 12 वर्ष की अवस्था में सामान्य बालक 55 इंच लंबा हो जाता है। 10-14 वर्ष की आयु में लड़कियों का शारीरिक विकास तेजी से होता है। 21 वर्ष में लड़कों की ऊचाई अधिकतम सीमा तक बढ़ जाती है। बालकों की ऊंचाई के निर्धारित में वंशक्रम, प्रजाति, सामाजिक-आर्थिक स्थिति तथा रहन-सहन का प्रभाव पड़ता है।

 (3) भार :
जन्म के समय बालक का भार 5 से 8 पौंड तक होता है। पहले वर्ष के अन्त में बालक का भार जन्म के भार से पांच गुना अधिक होता है। परिपक्ता आने पर बालक का भार सामान्यतः 70 से 90 पौण्ड तक होता है। बालक का भार उसके शरीर की प्रकृति पर निर्भर करता है। तीन प्रकार के आकार होते हैं – (अ) मोटे (ब) लंबे (स) सामान्य, शरीर का भार तीनों की प्रकृति पर निर्भर करता है।

 (4) शरीर के आकार में भिन्नता :
बालक जन्म से ही शरीर के आकार की भिन्नता लिये होता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसमें यह भिन्नता अधिक प्रकट होने लगती है। जन्म का भार विकास के वर्षों में आनुपातिक रूप धारण करता है।

 (5) शारीरिक अनुपात :
जन्म के समय शरीर, प्रौढ़ शरीर के अनुपात में बहुत अंशों में भिन्न होता है। भुजाओं तथा टांगों में सर्वाधिक परिवर्तन तथा अनुपात पाया जाता है। शरीर का यह अनुपात इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं।

 (i) सिर – जन्म के बाद सिर आनुपातिक रूप से बढ़ता है। जन्म से परिपक्वता तक बालक के सिर की लम्बाई दुगुनी हो जाती है। सिर का क्षेत्र पांच वर्ष की अवस्था में 21 प्रतिशत से कम हो जाता है। 10 वर्ष में सिर, प्रौढ़ सिर का 95 प्रतिशत हो जाता है। सिर की लंबाई तथा चौड़ाई का अनुपात लड़के-लड़कियों के समान पाया जाता है। 

(ii) चेहरा - आठ वर्ष की आयु तक चेहरे का ढॉचा जन्म की तुलना में बहुत बड़ा हो जाता है। परिपक्वता तथा स्थायी दांत निकलते रहते हैं और इसी प्रक्रिया में ठोढ़ी जबड़ा, मुंह, नाक तथा इसके आन्तरिक अंग तुलनात्मक रूप से विकसित होते हैं मस्तिक का विकास द्रुतगति से होता है। आयु के विकास के साथ – साथ माथा चौड़ा होता जाता है, होंठ भर जाते हैं। 

(iii) धड़ – हाथों तथा अंगों के विकास से ही उसके धड़ का अनुपात व्यक्त होता है। धड़ के विकसित होते समय 
छाती तथा गुर्दो की हड्डियों का भी समय होता है।

(iv) भुजायें तथा टांगे - नवजात के हाथ पैर, अंगुलियाँ छोटी होती है, 14-16 वर्षों तक इनका विकास पूर्ण हो जाता है। 14-16 वर्ष की आयु तक भुजाओं का विकास होता रहता है बालक की लम्बाई तथा पैरों के आकार में अनुपात रहता है। 

(v) हड्डियाँ – बालक की हड्डियॉ, प्रौढ़ से छोटी एवं कोमल होती हैं। धीरे-धीरे उनके आकार में परिवर्तन होता है और अनेक नई हड्डियों का विकास होता है। जन्म के समय शिशु में 270 हड्डियाँ होती है। पूर्णता आने पर उसमें 350 हड्डियाँ हो जाती हैं। फिर कुछ हड्डियाँ समाप्त हो जाती हैं और पूर्ण परिपक्व अवस्था में इनकी संख्या 206 रह जाती है। 

(vi) मॉसपेशियाँ तथा वसा – आरंभ से वसा तन्तुओं की वृद्धि मांसपेशियों के तन्तुओं से अधिक तीव्र होती है। शरीर का भार मांसपेशियों द्वारा विकसित होता है। बाल्यावस्था में मांसपेशियों में जल अधिक होता है। धीरे-धीरे जल की मात्रा कम होने लगती हैऔर ठोस तन्तुओं का विकास होने लगता है, उसमें दृढता आने लगती है। वसा युक्त पदार्थों का अधिक सेवन करने से चर्बी बढ़ने लगती है। 

(vii) दांत - बच्चों में अस्थायी तथा स्थायी दांत पाये जाते हैं अस्थायी दांतों की संख्या 30 तथा स्थायी दोतों की संख्या 32 होती है। अस्थायी दांत तीसरे मास से लेकर छठे मास तक अवश्य आ जाते हैं। पांच-छ: वर्ष तक ये दांत आ जाते हैं। अस्थायी दांत के गिर जाने पर स्थायी दांत उनका स्थान ले लेते हैं। 25 वर्ष की अवस्था तक स्थायी दांत निकलते रहते है। 

 (6) आन्तरिक अवयव - शरीर के आन्तरिक अवयवों का विकास भी अनेक रूपों में होता है। यह विकास (अ) रक्त संचार, (ब) पाचन संस्थान, तथा (स) श्वसन प्रणाली में होता है। बचपन में पाचन अंग कोमल होते हैं। प्रोढावस्था में वे कठोर हो जाते हैं। स्नायु संस्थान का आकार भी आयु के विकास के साथ-साथ होता है। आन्तरिक विकास के अंतर्गत स्नायु मण्डल का संगठन, कार्य, चेतना तथा गामक क्रियाओं का संतुलन, श्वांस प्रणाली, गुदा तथा मूत्राशय का विकास भी होता है। मस्तिष्क का विकास भी आन्तरिक अवयवों के विकास के अंतर्गत ही होता है।

 शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक -
स्वास्थ विकास का निवास की उत्तम दशाओं से घनिष्ठ संबंध है। उचित या अनुचित प्रकाश सेआयोजित मनोरंजन और विश्राम, अपौष्टिक भोजन, कम हवादार निवास स्थान एवं दोषपूर्ण वंशानुक्रम के समान तत्व स्वस्थ विकास में बाधक होते हैं। 

कारकों में से अधिक महत्वपूर्ण निम्नवत है-

i) वंशानुक्रम – माता पिता के स्वास्थ और शारीरिक रचना का प्रभाव उनके बच्चों पर भी पड़ताहै। यदि वे रोगी और निर्बल हैं तो उनके बच्चे भी वैसे ही होते हैं। स्वस्थ माता-पिता की संतान का ही स्वस्थ शारीरिक विकास होता है। 

ii) वातावरण – बालक के स्वभाविक विकास में वातावरण के तत्व सहायक या बाधक होते हैं। इस प्रकार के कुछ मुख्य तत्व हैं – शुद्ध वायु, पर्याप्त धूप और स्वच्छता। तंग गलियों और बन्द मकानों में रहने वाले बालक किसी ने किसी रोग के शिकार बनकर अपने स्वास्थ्य को खो देते हैं। यदि बालक का शरीर, पहनने के वस्त्र, रहने का स्थान, खाने का भोजन आदि स्वच्छ है तो, उसका शारीरिक विकास द्रुत गति से होता चला जाता है। 

iii) पौष्टिक भोजन – पौष्टिक भोजन, थकान का सबल शत्रु और शारीरिक विकास का परम मित्र है। अतः बालक के उत्तम शारीरिक विकास के लिए उसे पौष्टिक भोजन दिया जाना आवश्यक है।

iv) नियमित दिनचर्या – नियमित दिनचर्या, उत्तम स्वास्थ्य की आधारशिला है। बालक के खाने, सोने, खेलने, पढ़ाने आदि का समय निश्चित होना चाहिए। इन सब कार्यों के नियमित समय पर होने से उसके स्वस्थ विकास में बहुत ही कम बाधायें आती हैं। 

v) निद्रा व विश्राम – शरीर के स्वस्थ विकास के लिए निद्रा और विश्राम अनिवार्य है। शिशु के लिए 12 घण्टे बाल्यावस्था और किशोरावस्था में क्रमशः लगभग 10 और 8 घण्टे की निद्रा पर्याप्त होती है। बालक को इतना विश्राम मिलना आवश्यक है, क्योकि थकान उसके विकास में बाधक सिद्ध होती है। 

vi) प्रेम – बालक के उचित शारीरिक विकास का आधार प्रेम है। यदि उसे अपने माता-पिता का प्रेम नहीं मिलता है, तो वह दुःखी रहने लगता है यदि उसके माता-पिता की अल्पायु में मृत्यु हो जाती है, तो उसे असहय कष्टों को सामना करना पड़ता है उसके शरीर का विकास हो पाना असम्भव हो जाता है। 

vii) सुरक्षा - शिशु या बालक के सम्यक विकास के लिए उसमें सुरक्षा की भावना होना अति आवश्यक है। इस सम्भावना के अभाव में वह भय का अनुभव करने लगता है और आत्म-विश्वास खो बैठता है। ये दोनों बातें उसके विकास को अवरूद्ध कर देती है। 

viii) खेल या व्यायाम – शारीरिक विकास के लिए खेल और व्यायाम के प्रति विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। छोटा शिशु पलंग पर पड़ा-पड़ा ही अपने हाथें और पैरों को चलाकर पर्याप्त व्यायाम कर लेता है, पर बालकों और किशोरों के लिए खुली हवा में खेल और व्यायाम की उचित व्यवस्था की जाना आवश्यक है। 

ix) अन्य कारक – शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ अन्य कारक है (1) रोग या दुर्घटना के कारण शरीर में उत्पन्न होने वाली विकृति या अयोग्यता (2) अच्छी और खराब जलवायु (3) दोषपूर्ण सामाजिक परम्पराएँ, जैसे –बाल-विवाह (4) गर्भिणी माता का स्वास्थ्य (5) परिवार का रहन-सहन और आर्थिक स्थिति।

पाठ्यगत प्रश्न :

प्र.1 उत्तम शारीरिक विकास का आशय स्पष्ट कीजिए? 
प्र.2 शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों के नाम बताईए ?

 मानसिक विकास -
          मानसिक विकास से अभिप्राय मानसिक शक्तियों का विकास या ज्ञान भण्डार में वृद्धि एवं उसके उपयोग से है। मानसिक शक्तियों के उदय तथा वातावरण के प्रति समायोजन की क्षमता का नाम मानसिक विकास है। मानसिक विकास में संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, अधिगम, स्मरण, अवधान, निरीक्षण, चिन्तन, तर्क, समस्या, समाधान आदि शक्तियाँ आती हैं।मानसिक विकास की प्रक्रिया जटिल होती है। इस जटिल प्रक्रियाओं के आधार पर किसी संकल्पना का निर्माण करना संभव नहीं है। अतः ये कुछ मानदण्ड है जिनसे मानसिक विकास पता चलता है। जिनमें मुख्य निम्नवत् है 

• बुद्धि में वृद्धि – बुद्धि का विकास कितने अंशों तक हुआ है, टर्मन ने अमूर्त चिन्तन की योग्यता कोबुद्धि कहा है। बुद्धि के दो रूप होते हैं : (1) आनुवंशिक सम्भाव्य योग्यता (2) अर्जित बुद्धि योग्यता। अ) बच्चों के विकास का ढंग ब) परिवेश तथा परिस्थितियाँ स) परिवेश में मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ द) मानसिक विकास का मूल्यांकन करने के लिए प्रयुक्त परिणाम का रूप । 

• मानसिक क्रियाओं में वृद्धि – मानसिक क्रियाओं में वृद्धि होने से ही मानसिक विकास का अनुमान लगाया जाता है। पन्द्रह वर्ष की आयु को मानसिक परिपक्वता का आधार मानकर बाकी वर्षों में मानसिक स्तर को पहचाना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक वृद्धि की रोक विभिन्न आयु वर्षो में होने लगती है। मानसिक क्रियाओं की वृद्धि के ज्ञान के लिये : (1) शब्द ज्ञान, (2) उपमा, (3) रिक्त पूर्ति, विपरीत शब्दों के परीक्षणों का उपयोग अधिक किया गया है। 

• भाषा विकास – मानसिक विकास का पता भाषा विकास से भी चलता है। भाषा के द्वारा ही अर्जित ग्राह्य शक्ति तथा नवीन क्रियाओं को सीखने की क्षमता विकसित होती है। प्रारंभिक वर्षों की अपेक्षा बाद के वर्षों में बालक जटिल वाक्य रचना तथा अधिक शब्दों को सीखता है। 

• संकल्पनात्मक विकास – संकल्पना के निर्माण का महत्व मानसिक विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण है। बाल्यावस्था तक बालक मांसपेशियों पर नियंत्रण तथा पदार्थां को देखने में स्थिरता को विकसित करता है। बालक जो कुछ भी चिंतन करता है, उसका आधार प्रत्यय है। वह जो देखता है, उसी पर विश्वास करता है। बुद्धि के विकास का आभास इस बात से भी चलता है कि बालक में किस प्रकार की संकल्पनायें विकसित होती है। इसी प्रकार दैनिक व्यवहार की संकल्पनायें बालक के मानसिक विकास की धोतक है (अ) स्थान तथा दिशा का ज्ञान   (ब) समय      (स) संख्या एवं  (द) संकल्पनाओं से बालक के मानसिक विकास का पता चला है।

 मानसिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक -
विभिन्न कारक मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं। उनमें से अधिक महत्वपूर्ण कारक निम्नांकित है - 

1) वंशानुक्रम – बालक, वंशानुक्रम से कुछ मानसिक गुण और योग्यताएँ प्राप्त करता है जिनमेंवातावरण किसी प्रकार का अन्तर नहीं कर सकता है। किसी व्यक्ति का उससे अधिक विकासनहीं हो सकता, जितना कि उनका वंशानुक्रम सम्भव बनाता है। 

 2) पविार का वातावरण – परिवार के वातावरण का बालक के मानसिक विकास में घनिष्ठ संबंधहै। एक अच्छा परिवार, जिसमें माता-पिता में अच्छे संबंध होते हैं, जिसमें वे अपने बच्चों की रूचियों और आवश्यकताओं को समझते हैं एवं जिसमें आनन्द एवं स्वतंत्रता का वातावरण होताहै, प्रत्येक सदस्य के मानसिक विकास में अत्यधिक योग देता है। 

 3) परिवार की सामाजिक स्थिति – उच्च सामाजिक स्थिति के परिवार के बालक का मानसिक विकास अधिक होता है। इसका कारण यह है कि उसको मानसिक विकास के जो साधन उपलब्ध होते हैं वे निम्न सामाजिक स्थिति के परिवार के बालक के लिए दुर्लभ होते हैं। 

 4) परिवार की आर्थिक स्थिति – प्रतिभाशाली बालक दरिद्र क्षेत्रों से आने के बजाय अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों से अधिक आते हैं इनका कारण यह है कि इन बालको को कुछ विशेष सुविधाएं उपलब्ध रहती है, जैसे – उचित भोजन, उपचार के पर्याप्त साधन, उत्तम शैक्षिक अवसर, आर्थिक कष्ट से सुरक्षा आदि । 

 5) माता-पिता की शिक्षा - अशिक्षित माता-पिता की अपेक्षा शिक्षित माता-पिता का बालक केमानसिक विकास पर कहीं अधिक प्रभाव पड़ता है। माता-पिता की शिक्षा, बच्चों की मानसिकयोग्यता से निश्चित रूप से संबंधित है।

6) उचित प्रकार की शिक्षा – बालक के मानसिक विकास के लिए उचित प्रकार की शिक्षा अति आवश्यक है। ऐसी शिक्षा ही उसके मानसिक गुणों और शक्तियों का विकास करती है। शिक्षा मनुष्य की शक्ति का विशेष रूप से उसकी मानसिक शक्ति का विकास करती है। 

 7) विद्यालय - अच्छा विद्यालय बालक के मानसिक विकास का वास्तविक और महत्वपूर्ण कारक है। अच्छा विद्यालय ऐसा पाठ्यक्रम प्रस्तुत करता है, जो क्षेत्रों की रूचियों और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न क्रियाओं से परिपूर्ण रहता है। ऐसा विद्यालय स्वस्थ मानसिक विकास का एक वास्तविक कारण है।

 8) शिक्षक – बालक के मानसिक विकास में शिक्षक का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। यदि शिक्षक का मानसिक विकास अच्छा है, यदि वह बालक के प्रति प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करता है और वह शिक्षण विधियों एवं उचित शिक्षण सामग्री का प्रयोग करता है तो बालक का मानसिक विकास होना स्वभावितक है। 

 9) शारीरिक स्वास्थ्य - शारीरिक स्वास्थ्य मानसिक विकास का मुख्य आधार है। निर्बल और अस्वस्थ बालक की अपेक्षा सबल और स्वस्थ बालक अधिक परिश्रम करके अपने मानसिक विकास की गति और सीमा में वृद्धि कर सकता है। इसलिए शारीरिक स्वास्थ्य पर अति प्राचीनकाल से बल दिया जा रहा है। अरस्तू का कथन है – स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क होता है। 

 10) समाज - प्रत्येक बालक का जन्म किसी न किसी समाज मे होता है। वही समाज उसके मानसिक विकास की गति और सीमा को निर्धारित करता है। यदि समाज में अच्छे विद्यालयों, पुस्तकालयों, वाचनालयों, बालभवनों, मनोरंजन के साधनों आदि की उत्तमव्यवस्था है, तो बालक का मस्तिष्क अविराम गति से विकसित होता चला जाता है। 

 पाठ्यगत प्रश्न -
प्र. 3 टर्मन ने बुद्धि को कौन सी योग्यता बताया है? 
प्र.4 बालक के मानसिक विकास में परिवार के वातावरण की क्या भूमिका है?

 सामाजिक विकास :- बालक जन्म के समय समाज निरपेक्ष होता है उम्र बढ़ने के साथ-साथ बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया हो जाती है जिसके फलस्वरूप उसमें सामाजिक गुणों का विकास होता है जो सामाजिक विकास को प्रदर्शित करता है। 

 (1) आरम्भिक सामाजिक अनुक्रियायें – शैशवावस्था में बालक का सामाजिक सम्पर्क माता तथा उसके इर्द-गिर्द का वातावरण होता है। माता के चेहरे को देखकर वह मुस्कराता है और वही उसका सामाजिक संपर्क है। बाल्यावस्था में उसका सामाजिक सम्पर्क बढ़ता रहता है और उसी तरह अनुक्रियाएं भी करता है। वह अपने पराये में अंतर करने लगता है और यहीं अन्तर करना उसके सामाजिक विकास का पहला चरण है। 

 (2) अन्य बालकों के साथ अनुक्रिया – सामाजिक विकास एकाकी तथा अनुक्रिया नहीं है। बालक अन्य बालकों के प्रति अनुक्रिया करता है। इससे उसके सुखद एवं दुखद अनुभव में वृद्धि होती है। नौ मास की आयु तक के बच्चे अनुक्रिया के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते। दो वर्ष की आयु के बच्चे लेन-देन की अनुक्रियायें करने लगते हैं। 

 (3) सामाजिक प्रतिबोध - सामाजिक विकास प्रतिबोध का होना ही सामाजिक विकास की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया में बालक स्वाभाविक तथा अर्जित सामाजिक व्यवहारों को सीखता है तथा परिस्थिति उत्पन्न होने पर उसके अनुकूल आचरण करता है। वे मुखांगों द्वाराअपनी अनुक्रिया व्यक्त करने लगते हैं। उनमें प्रतिद्वन्दिता, सहयोग अनिच्छापूर्वक कार्य करना आदि भाव विकसित होने लगते हैं। 

 (4)प्रतिरोधी व्यवहार – सामाजिक व्यवहार के विकास के साथ-साथ बालकों में प्रतिरोधी अथवा नकारात्मक व्यवहार उत्पन्न होने लगता है। नकारात्मक व्यवहार में होठों को बंद करना, सिर हिलाना, अंगों में सख्ती ले आना आदि है।। 

 (5)लड़ाई झगड़ा - जैसे-जैसे बच्चे बड़े होने लगते हैं, उनके व्यवहार में लड़ाई-झगड़ों की संख्या बढ़ने लगती है। इनके कारण जब भी बच्चे के कार्य की गति में अवरोध उत्पन्न किया, बालक लड़ने के लिये तैयार हो जाता है। यदि बड़े सामाजिक मान्यता प्राप्त विषयों से बच्चों को प्रशिक्षण देंगे तो उनमें झगड़े होने की संभावना कम होगी। 

 (6) सहानुभूति - सामाजिक विकास में सहानुभूति की विशेष भूमिका होती है। बालक में यह प्रवृत्ति सहानुभूति की परिस्थितियों में ही विकसित होती है। सहानुभूति पूर्ण व्यवहार में भी आयु तथा परिपक्वता के साथ-साथ भिन्नता पाई जाती है। 

 (7)प्रतिस्पर्धा – बालक में प्रतिस्पर्धा का विकास सामाजिक विकास के कारण होता है। अपने आगे बढ़ने में व्यक्ति सदा ही लगा रहता है। उसे अपने प्रतिद्वन्दियों से स्पर्धा करनी पड़ती है।

 (8)सहयोग – सहयोग सामाजिक विकास तथा समायोजन का मूल है। सहयोग की भावना के विकास से ही व्यक्ति में मित्र-शत्रु भाव उत्पन्न होता है। दोनों ही बालक के सामाजिक पक्ष को विकसित करने में सहयोग देते है। 
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक :- सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में से अधिक महत्वपूर्ण अधोलिखित है - 

 1. वंशानुक्रम – बालक के सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का कुछ सीमा तक प्रभाव पड़ता है। शिशु की पहली मुस्कान या उनका कोई विशिष्ट व्यवहार वंशानुक्रम से उत्पन्न होने वाला हो सकता है। 

 2. शारीरिक व मानसिक विकास – स्वस्थ और अधिक विकसित मस्तिष्क वाले बालक का सामाजिक विकास अस्वस्थ और कम विकसित मस्तिष्क वाले बालक की अपेक्षा अधिक होता है। 

 3. संवेगात्मक विकास – बालक के सामाजिक विकास का एक महत्वपूर्ण आधार उसका संवेगात्मक विकास है। क्रोध व ईर्ष्या करने वाला बालक दूसरे की घृणा का पात्र बन जाता है। उसके विपरीत प्रेम और विनोद से परिपूर्ण बालक सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। संवेगात्मक और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते है।

4. परिवार – परिवार ही स्थान है, जहाँ सबसे पहले बालक का समाजीकरण होता है परिवार के बड़े लोगों का जैसा आचरण और व्यवहार होता है, बालक वैसा ही आचरण और व्यवहार करने का प्रयत्न करता है। 

 5. पालन पोषण की विधि - माता-पिता द्वारा बालक के पालन-पोषण की विधि उसके सामाजिक विकास पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है, उदाहरणार्थ, समानता के आधार पर पाला जाने वाला बालक कहीं भी अपनी हीनता का अनुभव नहीं करता है और बहुत लाड़ प्यार से पाला जाने वाला बालक दूसरे बालकों से दूर रहना पसंद करता है। 

6. आर्थिक स्थिति - माता-पिता की आर्थिक स्थिति का बालक के सामाजिक विकास पर उचित या अनुचित प्रभाव पड़ता है, उदाहराणार्थ धनी माता-पिता का बालक पड़ोस में रहते हैं, अच्छे व्यक्तियों से मिलते जुलते हैं और अच्छे विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। निर्धन माता-पिता की सन्तान होने के कारण उनकी सन्तानों को इस प्रकार की किसी भी सुविधा के कभी दर्शन नहीं होते हैं। 

 7. सामाजिक व्यवस्था - सामाजिक व्यवस्था, बालक के सामाजिक विकास को एक निश्चित रूप और दिशा प्रदान करती है, समाज कार्य, आदर्श और प्रतिमान बालक के दृष्टिकोणों का निर्माण करते है। यही कारण है कि ग्राम और नगर, जनतंत्र और अधिनायकतंत्र में बालक का सामाजिक विकास विभिन्न प्रकार से होता है। 

 8. विद्यालय – यदि विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय है, तो बालक का सामाजिक विकास अविराम गति से उत्तम रूप ग्रहण करता चला जाता है। इसके विपरीत, यदि विद्यालय का वातावरण एकतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार दण्ड और दमन पर आधारित है तो बालक का समाजिक विकास कुण्ठित हो जाता है। 

 9. शिक्षक – बालक के सामाजिक विकास पर शिक्षक का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है यदि शिक्षक शिष्ट शांत और सहयोगी है, तो उसके छात्र भी उसी के समान व्यवहार करते हैं। योग्य शिक्षकों का सम्पर्क बालक के सामाजिक विकास पर निश्चित प्रभाव डालता है। वास्तविक सामाजिक ग्रहणशीलता और योग्यता वाले शिक्षकों से दैनिक सम्पर्क, बालक के सामाजिक विकास में अतिशय योग देता है। 

 10. खेल कूद – बालक के सामाजिक विकास में खेलकूद का विशेष स्थान है। खेल द्वारा ही वह अपनी सामाजिक प्रवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार का प्रदर्शन करता है, खेल द्वारा ही उसमें उन सामाजिक गुणों का विकास होता है। 

 11. समूह या टोली – समूह या टोली के सदस्य के रूप में बालक इतना व्यवहार-कुशल हो जाता है कि समाज में प्रवेश करने के बाद उसे किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं होता है। समूह के प्रभावों के कारण बालक सामाजिक व्यवहार का ऐसा महत्वपूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त करता है जैसा प्रौढ़ समाज द्वारा निर्धारित की गई दशाओं में उतनी सफलता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 

 12. अन्य कारण – बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले अन्य महत्वपूर्ण कारक है - संस्कृति, कैम्प – जीवन, रेडियो,सिनेमा, समाचार पत्र तथा पत्रिकायें।

पाठ्यगत प्रश्न -
प्र. 5 बालक का सामाजिक विकास किन बिन्दुओं पर आधारित होता है? । 
प्र.6 बालक की सामाजिक विकास किन-किन कारकों से प्रमाडित होता है? नाम लिखें


संवेगात्मक विकास- संवेगात्मक विकास मानव जीवन के विकास तथा उन्नति हेतु अपना विशेष महत्व रखते हैं यह विकास मानव जीवनको प्रभावित करता है। संवेग अंग्रेजी शब्द इमोशन का पर्यायवाची हैं इसका लैटिन स्वरूप इमोवियर है, जिसका अर्थ है हिला देना, उत्तेजित करना। जब भी संवेग की स्थिति आती है, व्यक्ति में बैचेनी आ जाती है। वह कुछ भी असामान्य व्यवहार प्रकट कर सकता है, हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, ऑखों से आंसू बह सकते हैं, चेहरे पर मलीनता छा सकती है, अचेतन में व्याप्त अनेक सुप्त व्यवहार जागृत हो जाते हैं।
 बोरिंग लैगफील्ड एवं फील्ड - "संवेग प्रभावशाली अनुक्रिया के समान होता है। यह शरीर की सामान्य एवं शारीरिक प्रतिक्रियाओं के रूप में व्यक्त होता है।" संवेग मानव व्यवहार का असामान्य अंग है। ये हर प्राणी में पाये जाते हैं। बाल जीवन के प्रमुख संवेग इस प्रकार है- हर्ष, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध, उत्सुकता इत्यादि । इनमें हर्ष, प्रेम, ईर्ष्या, भय, क्रोध, घृणा अवांछनीय संवेग है। यह अवांछनीय संवेग शरीर पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं। संवेग उत्पन्न होने की स्थिति में बाहय व आन्तरिक रूप से शरीर में परिवर्तन होते हैं जो संवेग की दशा प्रदर्शित करते हैं।

संवेग की दो दशायें होती है - आन्तरिक तथा बाह्य । इन दोनो का संबंध शरीर की भिन्न क्रियाओं में परिवर्तन करने से होता है। 

(i) बाह्य शारीरिक परिवर्तन – इन परिवर्तनों के अंतर्गत (चेहरे की मुद्रा का बदलना, हास्य, रूदन, प्रेम आदि के भाव, स्वर में परिवर्तन, शरीर के आसनों में परिवर्तन जैसे- हाथ पैर फेंकना आदि आते हैं। संवेगों की दशायें व्यक्ति की शारीरिक प्रकृति पर निर्भर करती है। 

(ii) आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन - इन परिवर्तनों के अंतर्गत श्वांस, नाड़ी, हृदय तथा रक्त की गति में परिवर्तन हो जाता है। रक्त की रासायनिक क्रिया बदल जाती है। पाचन-क्रिया गडबड़ा जाती है। ग्रन्थियों तथा त्वचा की प्रतिक्रिया बदल जाती है। मानव जीवन में संवेगों का अत्याधिक महत्व है। यदि संवेगों का विकास संतुलित रूप में नहीं होता है तो व्यक्ति का सम्पर्ण व्यक्तित्व विघटित हो जाता है। अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो जाती है। संवेगों से ही व्यक्ति में निर्माण तथा ध्वंस की भावनायें उत्पन्न होती है। किशोर किशोरियां अपनी आकृति के प्रति चैतन्य रहते हैं। इसके लिए वे समय पर क्रोध ईर्ष्या तथा प्रतिस्पर्धा और उच्च संवेगों का खुलकर प्रयोग करते हैं। संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है - 

i) थकान - अधिक थकान बालक के संवेगात्क व्यवहार को प्रभावित करती है। जब बालक थका हुआ होता है, तब उसमें क्रोध या चिड़चिडेपन के समान अवांछनीय संवेगात्क व्यवहार की प्रवृत्ति होती है। 

ii) स्वास्थ्य – बालक के स्वास्थ्य की दशा का उसकी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं से घनिष्ठ संबंध होता है। अच्छे स्वास्थ्य वाले बालकों की अपेक्षा बहुत बीमार रहने वाले बालकों के संवेगात्मक व्यवहार में अधिक अस्थिरता रहती है। 

iii) मानसिक योग्यता - अधिक मानसिक योग्यता वाले बालकों का संवेगात्मक विकास अधिक विस्तृत होता है। वे भविष्य के सुखों और दुःखों, भयों और अपत्तियों को अनुभव कर सकते हैं। साधारणतया निम्नतर मानसिक स्तरों केबालकों में उसी आयु के प्रतिभाशाली बालकों की अपेक्षा संवेगात्मक नियंत्रण कम होता है। 

iv) अभिलाषा – माता-पिता को अपने बालक से बड़ी आशायें होती है स्वयं बालक में कोई न कोई अभिलाषा होती है। यदि उसकी अभिलाषा पूर्ण नही होती है, तो वह निराशा के सागर में डुबकियाँ लगाने लगता है। साथ ही उसे अपने माता-पिता की कटु आलोचना सुननी पड़ती है। ऐसी स्थिती में उसमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है। कोई भी बात जो बालक के आत्मविश्वास को कम करती है, उसके द्वारा समझे जाने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसकी चिन्तित और भयभीत रहने की प्रवृत्ति में वृद्धि कर सकती है। 

v) परिवार – बालक का परिवार उसके संवेगात्मक विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है : 1) यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेगात्मक होते हैं, तो बालक भी उसी प्रकार का हो जाता है। 2) यदि परिवार मे शांति, सुरक्षाऔर आनन्द के कारण उत्तेजना उत्पन्न नही करती है, तो बालक के संवेगात्मक विकास का रूप संतुलित होता है। 
 3) यदि परिवार में लड़ाई झगड़े होना, मिलने जुलने वालो का बहुत आना और मनोरंजन का कार्यक्रम बनते रहना साधारण घटनाये है तो बालक के संवेगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है। 

vi) माता-पिता का दृष्टिकोण – बालक के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है। बच्चों की उपेक्षा करना, बहुत समय तक घर से बाहर रहना, बच्चों के बारे में आवश्यकता से अधिक चिन्तित रहना, बच्चों को अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी कार्य करने की आज्ञा न देना और बच्चों कोघर के सब सदस्यों के प्रेम का पात्र बनाना, माता-पिता की ये सब बातें बच्चों में अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार को बढ़ाती हैं।

vii) सामाजिक स्थिति – बालकों की सामाजिक स्थिति उनके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। सामाजिक स्थिति और संवेगात्मक स्थिरता में घनिष्ठ संबंध होता है। निम्न सामाजिक स्थिति के बालकों में उच्च सामाजिक स्थिति के बालकों की अपेक्षा असंतुलन और अधिक संवगात्मक अस्थिरता होती है। 

viii) सामाजिक स्वीकृति – यदि बालक को अपने कार्यो की सामाजिक स्वीकृति नही मिलती है, तो उसके संवेगात्मक व्यवहार में उग्रता या शिथिलता आ जाती है। 

ix) निर्धनता - निर्धनता बालक के अनेक अशोभनीय संवेगों को स्थायी और शक्तिशाली रूप प्रदान कर देती है। वह विद्यालय में धनी, बालकों की वेश-भूषा देखता है, उनके आनन्दपूर्ण जीवन की कहानियाँ सुनता है, फलस्वरूप,उसमें द्वेष और ईर्ष्या के संवेग सशक्त रूपधारण करके उस पर अपना सतत् अधिकार स्थापित कर सकता है। 

x) विद्यालय - विद्यालय का बालक के संवेगात्मक विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। यदि विद्यालय में कार्यक्रम उसके संवेगों के अनुकूल होते हैं, तो उसे उनमें आनन्द का अनुभव होता है। इसके विपरीत, यदि उसे विद्यालय के कार्यक्रमों में असफल होने या अपने दोषों के प्रकटीकरण का भय होता है, उसमें घृणा, क्रोध और चिडचिड़ापन का स्थायी निवास हो जाता है। 

xi) शिक्षक – शिक्षक का बालक के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। वह उसमें अच्छी आदतों का निर्माण करके और अच्छे आदर्शो का अनुसरण करने की इच्छा उत्पन्न करके, अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने की क्षमता का विकास कर सकता है। 

xii) अन्य कारक - बालक के संवेगात्मक विकास पर अवांछनीय प्रभाव डालने वाले कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारक हैं – अत्यधिक कार्य, कार्य में अनावश्यक बाधा और अपमानजनक व्यवहार।

 पाठ्यगत प्रश्न -
प्र.7 संवेग से आप क्या समझते हैं ?
प्र.8 संवेगात्मक विकास का बालक के विकास में क्या महत्व है? 


 भाषा विकास -
भाषा का विकास बौद्धिक विकास की सर्वाधिक उत्तम कसौटी मानी जाती है बच्चे को सर्वप्रथम भाषा का ज्ञान परिवार से होता है। तत्पश्चात् विद्यालय तथा समाज के सम्पर्क में आने पर उनका भाषायी ज्ञान बढ़ता है।जन्म के समय शिशु क्रन्दन करता है। यही उसकी पहली भाषा होती है। 25 सप्ताह का शिशु जिस प्रकार ध्वनियॉ निकालता है, उसमें स्वरों की संख्या अधिक होती है। 10 मास की अवस्था में शिशु पहला शब्द बोलता है, जिसे वह बार-बार दोहराता है। एक वर्ष तक शिशु की भाषा समझना कठिन होता है। छोटे शिशु पानी की लिये 'मम' कहते है। शैशावस्था में भाषा विकास जिस ढंग से होता है, उस पर परिवार की संस्कृति तथा सभ्यता का प्रभाव पड़ता है।जन्म से 8 मास तक शब्दों की संख्या शून्य होती है। 6 वर्ष पूर्ण होते होते उसके शब्दों की संख्या लगभग 2500 के करीब हो जाती है।शिशु की भाषा पर उसकी बुद्धि तथा विद्यालय का वातावरण भी अपनी भूमिका प्रस्तुत करते हैं। एनास्ट्सी ने कहा कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का भाषा-विकास शैशवकाल में अधिक होता है।आयु के साथ-साथ बालकों के सीखने की गति में भी वृद्धि होती है। बाल्यकाल में बालक, शब्द से लेकर वाक्य विन्यास तक की सभी क्रियाएँ सीख लेता है। लड़कियों की भाषा का विकास लड़कों की अपेक्षा अधिक तेजी से होती है। सीशोर ने अपने अध्ययन में बताया कि बालक में भाषा का विकास आयु के अनुसार किस प्रकार विकसित होता है।

 सारणी :- सीशोर के अनुसार भाषा विकास 

आयु (वर्ष में)                 शब्द    

       4                             5,600
       5                             9,600
       6                             14,700
       7                             21,200
       8                             26,300
      10                            34,300 


 भाषा के विकास में समुदाय, घर, विद्यालय, परिवार की आर्थिक, सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव अत्याधिक 
पड़ता है। वस्तुओं को देखकर उसका प्रत्यय – ज्ञान – स्थूल से सूक्ष्म की ओर विकसित होता है। उसी प्रकार ज्ञान 
भी मूर्त से अमूर्त की ओर होता है।किशोरावस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तनों से जो संवेग उत्पन्न होते हैं, भाषा का विकास भी उनसे प्रभावित होता है। किशोरों में साहित्य पढ़ने की रूचि उत्पन्न हो जाती है। उनमें कल्पना शक्ति का विकास होने से वे कवि, कहानीकार, चित्रकार बनकर कविता, कहानी तथा चित्र के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते है।किशोरवस्था में लिखे प्रेम-पत्रों की भाषा में भावुकता मिश्रण होने से भाषा–सौन्दर्य प्रस्फुटिक होता है।किशारों का शब्दकोष भी विस्तृत होता जाता है। किशोर कई बार गुप्त भाषा को भी विकसित करते हैं। यह भाषा कुछ प्रतीकों के माध्यम से लिखी जाती है। भाषा के माध्यम से किशोर की संकल्पनाओं का विकास होता है। ये संकल्पनायें उसके जीवन की तैयारी का प्रतीक होती है।भाषा के विकास का चिन्तन पर भी प्रभाव पड़ता है। किशोरावस्था तक व्यक्ति जीवन में भाषा का प्रयोग किस प्रकार किया जाये, कैसे किया जावे,, आदि रहस्यों को जान लेता है।

 भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक -

 1) स्वास्थ्य – लम्बी बीमारी के कारण बालक भाषा विकास में पिछड़ जाता है, इसका कारण है – भाषा की सम्पर्कजन्यता। बीमारी के दौरान बालक समाज के सम्पर्क में कम रहता है, अतः इस स्थिति का प्रभाव बालक के भाषा के विकास पर पड़ना स्वाभाविक है। कम सनुने वाले बालकों का भाषा विकास अवरूद्ध हो जाता है।ऐसे बालकों का शब्द भण्डार भी कम होता है। इसका कारण है- बालक भाषा को अनुकरण के माध्यम से सीखता है। स्वास्थ्य के ठीक न होने के कारण उसे अनुकरण के अवसर नहीं मिलते। 

 2) बुद्धि – बुद्धि तथा भाषा का गहरा संबंध होता है। भाषा के स्तर से ही बुद्धि के स्तर का पता चलता है। भाषा विकास तथा बुद्धि-लब्धि का घनिष्ठ संबंध होता है। चूंकि आरंभिक अवस्था में भाषा विकास बुद्धि का धोतक है, इसलिए अभिभावकों का दायित्व और भी बढ़ जाता है। 

 3) हकलाना – हकलाना वाणी दोष है। हकलाना मानसिक अवस्था के कारण होता है। बालक जब स्वभाविक रूप से शब्दोच्चारण पर जोर नहीं देता, तब उच्चारण संबंधी तन्त्र को अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। फेफडों में हवा नहीं रहती, ऐसी स्थिति में उच्चारण में दोष उत्पन्न होता है। 

 4) सामाजिक आर्थिक स्तर – व्यापारी वर्ग, श्रमिक वर्ग तथा बुद्धीजीवी वर्ग के बच्चों की भाषा का अध्ययन करके यह परिणाम निकाला गया है कि भिन्न वर्गों के बालकों की शब्दावली वाक्य-विन्यास आदि में भिन्नता पाई जाती है। उच्च वर्ग के बालकों के आपसी संबंध भी उसी प्रकार के लोगों से रहते हैं और वे सुसंस्कृत शब्दावली युक्त लोक-व्यवहार की भाषा बोलते हैं। जहाँ पर परिवारों का सामाजिक आर्थिक स्तर नीचा होता है, वहाँ पर बालकों की भाषा का विकास द्रुत नहीं होता। 

 5) यौंन - लड़कियाँ, लड़कों की अपेक्षा शीघ्र ही ध्वनि संकेत ग्रहण करती हैं। लड़कियों का संबंध तथा समाजीकरण माता से अधिक होता है। अतः उसी संपर्क से लड़कियों की भाषा में अन्तर आने लगता है। वाणी दोष लड़कियों की अपेक्षा लड़कों में अधिक पाये जाते हैं। इसका कारण लड़कों में संवेगात्मक असुरक्षा बताया है। 

 6) पारिवारिक सम्बन्ध – अनाथालयों, छात्रावासों तथा परिवारों में पले बच्चों के अध्ययन से पता चला कि भाषा सीखने तथा प्रभावित करने में पारिवारिक सम्बन्धों का विशेष महत्व है। संस्थाओं के बच्चों का संवेगात्मक सम्पर्क परिवार के सदस्यों से नहीं हो पाता, इसलिए वे भाषा सीखने में देरी लगाते हैं। 

 7) एकाधिक भाषा – जब कभी बालक को मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा सीखनी पड़ती है तो वह उसे सरलता से नहीं सीख पाता। विभाषा सीखने के समय उसका सामान्य भाषा विकास विलम्बित हो जाता है। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने वाले बालकों की भाषा में अस्पष्टता, चिन्तन में अवरोध और प्रत्ययों में असमानता पाई जाती है।

 पाठ्यगत प्रश्न - 
प्र 1 बालक में भाषा विकास के मुख्य आधार कौन से हैं ? 
प्र 2 भाषा विकास के प्रभावक तत्वों की विवेचना करें ?

 मूल्य परक विकास

बालक अपने वातावरण में कई व्यक्तियों एवं वस्तुओं से घिरा रहता है। विकास क्रम से वह धीरे-धीरे इनके सम्पर्क में आने लगता है। तथा इनसे संबंध स्थापित करने लगता है। इन संबंधों के कारण वह सुख-दुख का अनुभव करने लगता है। फलस्वरूप वातावरण में उपस्थित शक्तियों तथा विभिन्न वस्तुओं के प्रति इसके भीतर मनोवृत्तियों का निर्माण होने लगता है। जब बालक कुछ बडा हो जाता है, तब अपने परिवार, समुदाय एवं समाज के द्वारा अपनायी हुई नैतिक भावनाओं, आदर्शों या मूल्यों को भी ग्रहण करने लगता है यह प्रक्रिया एक क्रमिक प्रक्रिया होती है तथा इस दौरान बालक को यह चेतना भी नहीं रहती है कि वह सामाजिक आदर्शों को सीख रहा है। धीरे-धीरे बालक का अधिकांश व्यवहार उसके परिवार, विद्यालय एवं समुदाय द्वारा स्वीकृत नैतिक मूल्यों के नियंत्रण में आ जाता है। सामाजिक नैतिक मूल्यों को अपना कर ही बालक अपने परिवार अथवा समुदाय की वास्तविक सदस्यता प्राप्त कर पाता है।मूल्य, व्यक्ति की वह नैतिक शक्ति है, जिसकी मदद से वह अच्छे बुरे एवं उचित-अनुचित में अन्तर समझ पाता है।
बालक आपने जीवन प्रसार में जिस परिवार, पाठशाला तथा समाज का सदस्य बनता है उनके कुछ विशेष सामाजिक और नैतिक मूल्य एवं आदर्श होते है। बालक को इन सामाजिक मानों के अनुरूप बनना पडता है तथा उन्हीं के द्वारा निर्देशित आचरण करने पड़ते हैं। अतः सामाजिक तथा नैतिक मूल्य बालक के सम्पूर्ण आचरण के 
निर्धारक माने जाते हैं एवं उनका उसके व्यवहार पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न तरह के मूल्य विकसित होते हैं। यही नहीं एक ही बालक के परिवार एवं उसके समुदाय के मूल्यों में भी अन्तर पाया जाता है।मनोवैज्ञानिकों ने बालक के नैतिक विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाऐं निर्धारित की है। फिर भी एक ही आयु के बालकों में नैतिक विकास में भिन्नता देखी जाती है। 
नवजात शिशु – नवजात शिशु में नैतिकता संबंधी भावना अविकसित होती है। 
प्रथम तीन वर्ष – प्रांरभिक वर्षों में बालक आत्मकेन्द्रित होता है। उसका प्रयोग व्यवहार संवेगजनक होता है। वह नैतिकता को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। 
 तीन से छः वर्ष की आयु - इस आयु में नैतिकता का पूरा पूरा विकास नहीं होता है। उसका व्यवहार अब भी प्रौढ़ व्यक्तियों की प्रशंसा तथा निन्दा पर निर्भर करता है। बालक अभी 'झूठ' तथा सच की पहचान नहीं कर सकता। छ: वर्ष की आयु में बालक में ध्वंसात्मक प्रवृत्ति जोर पकड़ लेती है। इस अवस्था के बालक प्राथमिक पाठशाला के छात्र होते हैं। उनके व्यवहार में अभी भी संवेगात्मकता का पर्याप्त अंश रहता है। नौ से बारह वर्ष की आयु में वह अच्छाई तथा बुराई को समझने लगता है। किशोरावस्था से पहले बालक नैतिक विकास की दृष्टि से अभी भी अपरिपक्व होता है।प्रौढ़ों के उपदेशों की बजाय वह उनके व्यावहारिक जीवन से ज्यादा प्रभावित होता है।

 मूल्य परक विकास को प्रभावित करने वाले कारक -व्यक्ति की नैतिकता का आधार "आध्यात्मिक" है, यह अविकसित दशा में बालक में विद्यमान रहती हैं। बालक के विकास को प्रभावित करने वाले तत्व –

1. परिवार – बालक के नैतिक विकास में परिवार का वातावरण, अपने से बड़ों का उदाहरण तथा माता-पिता के संस्कारों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। चरित्र की कुछ विशेषताएँ बालक में जन्म से ही छिपी रहती हैं। रूप-गुण के अनुरूप अपने माता पिता से चरित्र की विशेषताओं की छाप उस पर अवश्य पड़ती है। 

जिस परिवार में माता पिता में परस्पर सहयोग और प्रेम रहता है, वहाँ अन्य बालक-बालिकाएं भी सहयोग और स्नेह से रहते है। जिस घर में शान्ति और व्यवस्था हे, वहाँ बालक के चरित्र का विकास सहज रूप में होता है। 

 2. विद्यालय - परिवार से बाहर बालक के चरित्र-विकास में जितना प्रभाव विद्यालय का पड़ता है, उतना प्रभाव किसी और संस्था का नहीं पड़ता। बालक 5-6 वर्ष की आयु से ही पाठशाला जाने लगता है। वहाँ वह बड़े समूह में कई घण्टों के लिये निरन्तर कई वर्ष तक रहता है। खेल के द्वारा, अनुशासन के द्वारा तथा सामूहिक प्रयोजनाओं के द्वारा बालक में एक आदर्श नागरिक के गुणों का विकास किया जाता है। अध्यापक निरन्तर बालकों के व्यवहार का निरीक्षण करते हैं और उसकी चरित्र सम्बन्धी त्रुटियों को सुधारने का प्रयास करते हैं। अध्यापक प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से ही बालक के चरित्र पर अपना प्रभाव डालता है। बालक में अनुकरण की प्रवृत्ति होती है। अध्यापक उसके सामने एक आदर्श होता है। 

 3. मित्रमण्डली – बालक बहुत समय अपने मित्रों के साथ बिताता हैं उसके चरित्र पर मित्रों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता हैं यदि बालक के मित्र अच्छे होंगे तो वह चरित्रवान बनेगा परन्तु बुरे बालकों की संगति में उसका चरित्र दूषित हो जाता है। अतएव् माता-पिता को चाहिए कि वे बालकों को अच्छे संगी-साथियों के साथ खेलने के लिये प्रोत्साहन दें। 

 4. धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएँ – भारत एक धर्म-प्रधान राष्ट्र है। अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा यहाँ धार्मिक गतिविधियों की संख्या बहुत अधिक है। आर्य समाज, सनातन धर्म, ब्रह्म समाज, राधास्वामी सत्संग, गुरूद्वारा समिति, वेदान्त समिति जैसी कई धार्मिक संस्थाएँ अपने-अपने तरीके से धर्म-प्रचार का कार्य कर रही हैं। परिवार का सम्बन्ध जिस भी धार्मिक संस्था से होगा, उसके बच्चों पर उसका प्रभाव अच्छा पड़ेगा। 

 5. साहित्य – बालक के चारित्रिक विकास में साहित्य बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता हैं बालक को कहानियाँ बड़ी अच्छी लगती हैं। अच्छी कहानियाँ बालक में उदारता, दया, त्याग, परोपकार तथा देशभक्ति की भावना भर सकती है। सभी देशों में आज बहुत-सी कहानियाँ उपलब्ध हैं जिसे बालक को सदाचारी बनाया जा सकता है जो बालक के चरित्र को ऊँचा उठा सकती है। 

 6. इतिहास – चरित्र-गठन में इतिहस के अध्ययन का बड़ा महत्व हैं। माता जीजाबाई ने शिवाजी को बाल्यावस्था में रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुना-सुनाकर वीर बना दिया। अध्यापकों को चाहिए कि वे भारतीय इतिहास के प्रमुख वीर पुरूषों की गाथाएँ स्मरण रखें और समय-समय पर बालकों को सुनाया करें। व्यक्ति हमेशा अपने से बड़े का अनुकरण करने को तत्पर रहता है। यदि उसके सम्मुख कोई सुयोग्य आदर्श रखा जायेगा तो वह उस आदर्श को प्राप्त करने की चेष्टा अवश्य करेगा। 

 7. चलचित्र - चलचित्र का सम्बन्ध हमारी नेत्रेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय – दोनों से है, अतएव् इसका प्रभाव बहुत अधिक है। लड़के प्रधान नायक के रहन-सहन, वेशभूषा तथा खान-पान की नकल करते हैं। इसी प्रकार लड़कियां हर बात में प्रधान नायिका के आचरण का अनुकरण करती हैं। इस दृष्टि से यदि चलचित्र के आदर्श गुणों का चित्रण रहेगा तो दर्शक आदर्श की बातें सीखेंगे।बाल-चित्रों के निर्माण में अभी उपेक्षा बरती जा रही है। सरकार कोइ इस ओर सचेष्ट होना होगा। जहाँ अश्लील तथा यौन भावनाओं को उभारने वाले चित्रों पर प्रतिबंध लगाया जाये वहाँ अच्छे चित्रों के निर्माण की ओर भी समुचित ध्यान दे, जिन्हें प्रत्येक बालक देख सकें। 

 8. दूरदर्शन - दूरदर्शन भी चलचित्र के समान हमारी नेत्रेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय दोनों को प्रभावित करता है। चलचित्र को देखने के लिए छविगृह में जाना होता है परन्तु दूरदर्शन तो घर में ही देखा जा सकता है, अतः इसका प्रभाव चलचित्र से कहीं अधिक होता है।
दूरदर्शन शिक्षा तथा सामाजिक चेतना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। खेलों का दृश्य विवरण, संगीत तथा नृत्य के कार्यक्रम, विज्ञान-सम्बन्धी कार्यक्रम, भारतीय स्वतंत्रता का संग्राम जैसे कार्यक्रम इस दिशा में बड़े उपयोगी हैं।

 पाठ्यगत प्रश्न -
प्र. 11 मूल्य परक विकास से आप क्या समझते हैं ? 
प्र. 12 मूल्य परक विकास किस प्रकार प्रभावित हैं ?

 इकाई सारांश - 
• किसी भी प्राणी के विकास की प्रक्रिया का आरंभ गर्भाधान के बाद ही प्रांरभ हो जाता है। जो कि जीवन पर्यन्त चलता रहता है। यह एक सार्वभौमिक है। 
• विकास केवल शारीरिक वृद्धि को ही नहीं बताता वरन् प्राणी में होने वाले सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक संवेगात्मक विकास भी सम्मिलित होते हैं। इसके अतिरिक्त भाषायी एवं मूल्य परक विकास भी इसी प्रक्रिया का अंग है। 
• विकास की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तन समान नहीं होते हैं भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। 
• प्रारंभिक अवस्था में विकास की गति तेज होती है। बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में और भी तेज हो जाती है, किन्तु किशोरावस्था के बाद मन्द हो जाती है।
• विकास को परिवर्तनों की श्रृंखला कहा जाता है। इन परिवर्तनों में कोई न कोई क्रम अवश्य होता है आगे होने 
वाला परिवर्तन पूर्व परिवर्तन पर आधारित होता है। 
• बालक के शारीरिक विकास के अन्तर्गत भार, लम्बाई, सिर, हड्डियों, दांत आदि का विकास होता है और यह विकास वंशानुक्रम, वातावरण, भोजन, दिनचर्या, विश्राम, प्रेम सुरक्षा एवं खेल जैसे तत्वों से प्रभावित होते हैं। 
• शारीरिक विकास के अतिरिक्त मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया भी साथ साथ लती है। यह सभी बालकों में भिन्न होती है। 
• भाषीय एवं मूल्यपरक विकास विभिन्न अवस्थाओं के साथ बालक में दिखाई देते हैं। प्रत्येक अवस्था में
विकास दूसरे से भिन्न होता है। 

आत्म परीक्षण प्रश्न -
प्र 1 विकास से आप क्या समझते हैं ? 
प्र 2 प्राणी के जीवन में विकास का क्या महत्व है ? 
प्र 3 विकास अवस्थानुसार होता है टिप्पणी कीजिए। 
प्र 4 शारीरिक विकास में वंशानुक्रम एवं वातावरण किस प्रकार प्रभाव डालता है ? लिखिए। 
प्र 5 शैश्वावस्था में हड्डियों का विकास किस प्रकार होता है ? 
प्र 6 सामाजिक विकास में विद्यालय तथा शिक्षक का क्या योगदान है ? 
प्र 7 विभिन्न अवस्थाओं में भाषीय विकास पर प्रभाव डालिए। 
प्र 8 नैतिक या मूल्यपरक विकास को कौन-कौन से तत्व प्रभावित करते हैं ?


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