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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

बाल विकास और मनोविज्ञान।। भाग -1

विषयांश - प्रस्तावना, उद्देश्य, बाल विकास का अर्थ, बाल विकास के अध्ययन की उपयोगिता एवं महत्व। शैशवास्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था का महत्व एवं विशेषताएं। प्रिय छात्र, इस पाठ में हम बाल विकास और मनोविज्ञान विषयक अध्ययन करेंगे। प्रस्तावना : बालक का विकास भ्रूणावस्था से ही प्रारम्भ होता है। विकास की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। बालक के जन्म से पूर्व तथा पश्चात् जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे सब बालक विकास के ही अंग हैं। मानव विकास की सर्वप्रथम अवस्था शैशवावस्था है। इसकी अवधि जन्म से 5 वर्ष मानी जाती है इसे मानव जीवन का आधार भी कहा जाता है। 6 वर्ष से 12 वर्ष की अवस्था बाल अवस्था कही जाती है इसे व्यक्ति के जीवन की निर्माणकारी अवस्था भी कहते हैं। इस समय जो आदतें व ढंग विकसित हो जाते हैं उसे आगे चलकर बदलना मुश्किल हो जाता है। इसे जीवन का अनोखा काल भी कहा जाता है। किशोरावस्था 12-18 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवस्था में बालक में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास में कॉतिकारी परिवर्तन होते हैं। इसे विकास की प्रकिया का सबसे कठिन काल कहा जाता है। उद्देश्य : इस इकाई का उद्देश्य बालक के विकास और उसके मनोविज्ञान के संदर्भ में गहन अध्ययन करना है इस इकाई में आप -
  • बाल विकास के अर्थ को परिभाषाओं और विभिन्न मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार विस्तृत रूप से समझ सकेंगे।
  • बाल विकास के अध्ययन और महत्व को समझ सकेंगे।
  • विकास की विभिन्न अवस्थाओं के बारे में विस्तृत रूप से अध्ययन कर सकेंगे।
  • विकास की विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताओं एवं उसके महत्व को समझ सकेंगे।
  • विकास की विभिन्न अवस्थाओं में शिक्षा के स्वरूप को भलीभॉति समझ सकेंगे।
  • बाल विकास का अर्थ परिभाषा, उपयोगिता एवं महत्व
बाल विकास का अर्थ : आज के युग में ज्ञान-विज्ञान के विकसित होने के कारण मानव विकास को लिपिबद्ध कर लिया जाता है। मानव विकास के इतिहास में ज्ञान-विज्ञान की अनेक नई शाखाओं का विकास हुआ है। व्यक्ति के गर्भ में आने से लेकर मृत्यु तक के विकास के अनेक नवीन पहलुओं को मनोविज्ञान प्रस्तुत करता है।गर्भाधान से लेकर जन्म तक व्यक्ति में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं जिन्हें भ्रूणावस्था का शारीरिक विकास माना जाता है। जन्म के बाद यह कुछ विशिष्ट परिवर्तनों की ओर संकेत करता है, जैसे-गति, भाषा, संवेग और सामाजिकता के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। विकास का यह कम वातावरण से प्रभावित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह सफलता प्राप्त करने के लिए बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करे। इन अवस्थाओं के कारण बालक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार वह अपनी कार्य-प्रणाली को विकसित कर सकता है।विकास का अर्थ केवल बड़े होने या कद भार बढ़ने से नहीं है, विकास में परिपक्वता की ओर बढ़ने का निश्चित कम होता है। यह एक प्रगतिशील श्रृंखला होती है। प्रगति का अर्थ भी दिशा बोध युक्त होता है। यह दिशा बोध आगे भी होता है पीछे भी। विकास का अर्थ परिवर्तन है परिवर्तन एक प्रक्रिया है, जो हर समय चलती रहती है। इसमें केवल शरीर के अंगों का विकास ही नहीं होता वरन् सामाजिक, सांवेगिक अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों को भी सम्मलित किया जाता है। यह परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं। मात्रत्मक परिवर्तन और गुणात्मक परिवर्तन । परिभाषा : विभिन्न मनोविज्ञानिकों ने विकास की परिभाषा अपने मतानुसार भिन्न-भिन्न दी है। मुनेरो के अनुसार "परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था, जिसमें बच्चा भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है" गैलन के अनुसार "विकास सामान्य प्रयत्न से अधिक महत्व की चीज है विकास का अवलोकन किया जा सकता है एवं किसी सीमा तक इसका मूल्यांकन एवं मापन भी किया जा सकता है। इसका मापन तथा मूल्यांकन तीन रूपों में किया जा सकता है-
(अ) शरीर निर्माण
(ब) शरीर शास्त्रीय
(स) व्यवहारिक व्यवहार चिन्ह विकास के स्तर एवं शक्तियों के विस्तृत रचना करते हैं। हरलॉक के अनुसार "विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं है वस्तुतः यह तो व्यवस्थित एवं समानुपात प्रगतिशील कम है तो परिवक्वता की प्राप्ति में सहायक होता है"। जेम्स ड्रेवर के अनुसार "विकास वह दशा है तो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप से व्यक्त होती है। यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ अवस्था तक होता है। यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रगति का मापदण्ड है और इसका आरम्भ शून्य से होता है"। विकास के अध्ययन की उपयोगिता : (1) बाल पोषण का ज्ञान : बाल विकास के अध्ययन ने समाज के समक्ष दो पहलू प्रस्तुत किये हैं पहला व्यवहारिक दूसरा सैद्धांतिक। समाज में प्रत्येक शिक्षक व अभिभावक के लिए दोनों पक्षों का ज्ञान होना अति आवश्यक है। बाल विकास का कमिक ज्ञान भावी, माता-पिता तथा उसके संरक्षकों को होगा तो वह उसकी उचित देखभाल कर सकेंगे। मातृत्व, पितृत्व, दायित्व जैसे आधारभूत प्रश्नों का उत्तर बाल विकास के गंभीर अध्ययन से ही प्राप्त होता है। (2) बालक का सामान्य व्यवहार : बाल विकास का प्रमुख लक्ष्य है, कि बालक का विकास इस तरह हो कि उसमें सामान्य व्यवहार ही दिखाई दें। बालक का मानसिक तथा शारीरिक विकास सामान्य हो। बाल विकास का यह अध्ययन अभिभावकों को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि उनके बालकों का व्यवहार एवं विकास सामान्य होगा तभी वे समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं। (3) बालकों का विश्वास : प्रायः देखा जाता है कि बालक माता-पिता से झूठ बोलते हैं ऐसी स्थिति में बालक अपने माता-पिता का विश्वास खो बैठता है। बाल विकास का अध्ययन माता-पिता को सामाजिक निर्देशन देता है, और उन परिस्थितियों तथा उपायों की ओर ध्यान दिलाता है, जिसके फलस्वरूप माता-पिता तथा बालक के बीच सद्भाव विकसित होता है। (4) विकास की अवस्थाओं का ज्ञान : बाल विकास के अध्ययन से माता-पिता को यह ज्ञात होता है कि विभिन्न अवस्थाओं में बालकों में कौन-कौन से शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक तथा भाषा सम्बंधित परिवर्तन होते हैं और किस प्रकार बालक शैशव से प्रौढ़ अवस्था तक विकसित होता है। (5) सामाजीकरण का ज्ञान : बालक का सामाजीकरण उसके जीवन की महत्वपूर्ण घटना है अन्य व्यक्तियों के साथ उसका व्यवहार तथा समायोजन जैसे गतिविधियों को समझने के लिए बाल विकास का अध्ययन आवश्यक है। तभी वह समाज के लिए उपयोगी बनता है। (6) बालक का व्यक्तित्व : बाल विकास के अध्ययन से बालक के व्यक्तित्व का विकास सरलता से किया जा सकता है। बालक में अनेक क्षमताएं एवं शक्तियां पाई जाती हैं तभी उचित दिशा में विकसित होती है। जब बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान अभिभावक को होता है। (7) खेल और बालक : अभिभावक को बाल विकास का अध्ययन यह बताता है कि खेलों को बालक के विकास की प्रक्रिया में किस प्रकार रखा जाए कि उसका संतुलित विकास हो। (8) स्वास्थ्य : बालक का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य उसके विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण है जिन बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य खराब होता है वह मानसिक रूप से भी अस्वस्थ्य पाए जाते हैं इसकी जानकारी भी बाल विकास के अध्ययन से ही मिलती है। (9) शैक्षिक प्रक्रिया : माता-पिता भी बालक के शैक्षिक विकास के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितना कि शिक्षक। बालक की शिक्षा की प्रक्रिया में रूचि, अभिरूचि, योग्यता, क्षमता आदि का विशेष महत्व है। इसीलिए पाठ्यक्रम बालक की आयु, बुद्धि तथा परिवेश के अनुसार बनने लगे हैं। (10) वैयक्तिक भेदों पर बल : एक माता-पिता के दो बालकों में समानता नहीं पाई जाती है अतः बालकों को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता होती है। बाल विकास के अध्ययन से विभिन्न प्रकार के शिक्षण पद्धतियों को आवश्यकतानुसार अपनाया जा सकता है।

बाल विकास अध्ययन का महत्व :

व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया नैसर्गिक, स्वाभाविक और प्राकृतिक है। गर्भावस्था में बालक का विकास कम प्रारंभ हो जाता है। जन्म से लेकर किशोरावस्था तक विकास की गति अत्यधिक तीव्र होती है, यद्यपि किशोरावस्था के पश्चात् विकास की गति में उतनी तीव्रता नहीं रहती। व्यक्ति के विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसकी विकास प्रक्रिया पर समुचित ध्यान दिया जाये। विकास की विभिन्न अवस्थाओं में उसे इस प्रकार का शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण प्रदान किया जाये, जिसमें बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक आदि विकास ठीक प्रकार से हो सके। विकास के विभिन्न सिद्धांतों और अवस्थाओं का ज्ञान माता-पिता और शिक्षक के लिए बड़ा उपयोगी है। उनके बालक को उचित वातावरण प्राप्त हो, उसे सन्तुलित भोजन मिले, अच्छी संगति मिले, उसे खेलने की स्वतंत्रता हो, उसे उचित मात्रा में स्नेह प्राप्त हो, उसे सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार मिले, उसकी जिज्ञासा की सन्तुष्टि हो, उसे आत्म-प्रदर्शन के अवसर मिलें, उसके संवेगों का दमन न हो और उसमें पराजय की भावना, अर्द्वन्द और हीनता की भावना का विकास न हो। अतः माता-पिता के लिए बालक की विकास–प्रक्रिया का ज्ञान अत्यंत आवश्यकता है, जिससे वह यह ध्यान रख सके कि उनका बालक विकास की किसी अवस्था में पिछड़ तो नहीं रहा है। शिक्षा का मुख्य कार्य बालक के विकास में सहायता देना है। अतः शिक्षक को बालक के विकास की अवस्थाओं का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। शिक्षक बालक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार अपने पाठ्यक्रम की व्यवस्था कर सकता है, सहगामी क्रियाओं का आयोजन कर सकता है और अपनी शिक्षण पद्धति को विकसित कर सकता है। बारह वर्ष की आयु वाले बालक का पाठ्यक्रम पांच वर्ष की आयु वाले बालक के पाठ्यक्रम से भिन्न होगा। इसलिए विकास के सिद्धांतों से परिचित शिक्षक ही उनके अनुकूल पाठ्यक्रम का अध्ययन करा सकता है। अतः स्पष्ट है कि विकास के विभिन्न सिद्धांतों और अवस्थाओं के ज्ञान से ही शिक्षक का दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक और गत्यात्मक हो सकता है। पाठगत प्रश्न : प्र.1 विकास की प्रक्रिया से क्या तात्पर्य है? प्र.2 मुनरो ने विकास की क्या परिभाषा दी है? प्र.3 बाल विकास की मुख्य अवस्थाओं पर प्रकाश डालिए? विकास की अवस्थाएं, विशेषताएं, महत्व एवं शिक्षा : (अ) शैशवावस्था :- बालक के जन्म के पश्चात् से पांच वर्ष की अवस्था शैशवावस्था कहलाती है। यह अवस्था बालक का निर्माण काल है। इसी में बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक का जितना अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है उतना ही अधिक उत्तम उसका विकास और जीवन होता है। जन्म के उपरांत नवजात शिशु के भार, अंगों और गतिविधियों में पांच वर्ष की अवस्था तक परिवर्तन दिखाई देते है। विकास के साथ-साथ इनमें स्थायित्व आने लगता है। शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएं : शैशवावस्था की विशेषताएं इस प्रकार हैं :- 1. शारीरिक विकास में तीव्रता - शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षों में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, आन्तरिक अंगों, मांसपेशियों आदि का कमिक विकास होता है। 2. मानसिक कियाओं की तीव्रता – शिशु की मानसिक कियाओं जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियां कार्य करने लगती है। 3. सीखने की प्रकिया में तीव्रता – शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है और वह अनेक आवश्यक बातों को सीख लेता है। 4. कल्पना की सजीवता – चार वर्ष के बालक के सम्बंध में एक अति महत्वपूर्ण बात है उसकी कल्पना की सजीवता। वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं कर पाता है। फलस्वरूप, वह असत्यभाषी जान पड़ता है। वह अपने शोध, प्रबंधन, कल्पनाएं करने लगता है। 5. दूसरों पर निर्भरता - जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। 6. आत्म प्रेम की भावना – शिशु अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा और किसी को न मिले यदि और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता है तो उसे उससे ईर्ष्या हो जाती है। 7. नैतिकता का विकास – शिशु में अच्छी और बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द आता है। 8. मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार – शिशु के अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृत्तियां होती हैं। यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुंह में रख लेता है। 9. सामाजिक भावना का विकास - इस अवस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। छोटे भाईयों, बहिनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 6 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपनी वस्तुओं में दूसरों को साझीदार बनाता है। 10. दूसरे बालकों में रूचि या अरूचि – शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रूचि या अरूचि उत्पन्न हो जाती है। बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रूचि व्यक्त करने लगता है। आरंभ में इस रूचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, पर शीघ्र ही यह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेती है और रूचि एवं अरूचि के रूप में प्रकट होने लगती है। 11. संवेगों का प्रदर्शन - दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है। बाल-मनोवैज्ञानिकों ने शिशु के मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं- भय, कोध, प्रेम और पीड़ा। 12. काम–प्रवृत्ति – बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शिशु में काम–प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है, पर वयस्कों के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान करना और यौनागों पर हाथ रखना बालक की काम-प्रवृत्ति के सूचक हैं। 13. दोहराने की प्रवृत्ति – शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसमें शब्दों और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। 14. जिज्ञासा की प्रवृत्ति – शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है। वह अपने खिलौने का विभिन्न प्रकार से प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसके भागों को अलग-अलग कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न बातों और वस्तुओं के बारे में "क्यों" और "कैसे" के प्रश्न पूछता है। 15. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति - शिशु में अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन आदि के कार्यों और व्यवहार का अनुकरण करता है। 16. अकेले व साथ खेलने की प्रवृत्ति – शिशु में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है "बहुत ही छोटा शिशु खेलता है। अन्त में वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में महान् आनन्द का अनुभव करता है"।

शैशवावस्था का महत्व :

इस अवस्था में शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। व्यक्ति को जो कुछ बनना होता है वह आरंभ के चार-पांच वर्षों में ही बन जाता है। व्यक्ति का जितना मानसिक विकास होता है। उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है। शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की अन्य किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है यह अवस्था ही वह आधार है, जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। अतः इस अवस्था में शिशु को जितना उत्तम निर्देशन दिया जायेगा उसका उतना ही उत्तम विकास होगा। कई मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं के संदर्भ में अनेकों विस्तृत अध्ययन किये और निष्कर्ष निकाला कि सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। शैशवावस्था के महत्व के सम्बंध में कुछ विद्धानों ने अपने विचार निम्नवत प्रस्तुत किये। ऐडलर के अनुसार "बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में इसका क्या स्थान है"। गुडएनफ "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है"।

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वस्प :

(1) शिशु अपने विकास के लिए शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण चाहता है। अतः घर और विद्यालय में उसे इस प्रकार का वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए। (2)शिशु अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। माता-पिता और शिक्षक को उसे डांटना या पीटना नहीं चाहिए। इसके विपरीत, उन्हें उसके प्रति सदैव प्रेम, शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। (3)बालक सबके विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त करना चाहता है। माता-पिता और शिक्षक को उसके प्रश्नों के उत्तर देकर, उसकी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए। (4)शिशु कल्पना के जगत में विचरण करता है। अतः उसे ऐसे बालक को ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे वास्तविकता के निकट लाये। (5)आत्म-निर्भरता से शिशु को स्वयं सीखने, काम करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। अतः उसको स्वतंत्रता प्रदान करके, आत्म-निर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए। (6)शिशु में अनेक निहित गुण होते हैं। अतः उसे इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे उसमें इन गुणों का विकास हो। (7)शैशवावस्था के अन्तिम भाग में शिशु दूसरे बालकों के साथ मिलना-जुलना और खेलना पसन्द करता है। उसे इन बातों का अवसर दिया जाना चाहिए, ताकि उसमें सामाजिक भावना का विकास हो। (8)शिशु में आत्म-प्रदर्शन की भावना होती है। अतः उसे ऐसे कार्य करने के अवसर दिये जाने चाहिए, जिसके द्वारा वह अपनी इस भावना को व्यक्त कर सके। (9)शिशु में मानसिक क्रियाओं की तीव्रता होती है अतः उसे सोचने-विचारने के अधिक से अधिक अवसर दिये जाने चाहिए। (10) शिशु के माता-पिता और शिक्षक को इस सारगर्भित वाक्य को सदैव स्मरण रखना चाहिए। अतः उसे उसमें सत्य बोलने, बड़ों का आदर करने, समय पर काम करने और इसी प्रकार की अन्य अच्छी आदतों का निर्माण करना चाहिए। (11) शिशु के व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृत्तियां होती हैं। अतः उनका दमन न करके सम्भव विधियों से प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। (12) बालक कुछ मूल प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है, जो उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। अतः उसे उनके अनुसार कार्य करके शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। (13) शिशु को खेल द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका कारण बताते हुए स्ट्रंग का कहना है कि "शिशु अपने और अपने संसार के बारे में अधिकांश बातें खेल द्वारा सीखता है"। (14) शिशु की शिक्षा में कहानियों और सचित्र पुस्तकों का विशिष्ट स्थान होना चाहिए। "पांच वर्ष का शिशु कहानी सुनते समय उससे संबंधित चित्रों को पुस्तक में देखना पसन्द करता है" | (15) शिशु की ज्ञानेन्द्रियों और कमेंन्द्रियों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। "बालक के हाथ, पैर और नेत्र उसके प्रारंभिक शिक्षक हैं। इन्हीं के द्वारा वह पांच वर्ष में ही पहचान सकता है, सोच सकता है और याद कर सकता है। पाठगत् प्रश्न : प्र.4 शैशवावस्था बालक का कौन सा काल कहलाती है? (अ) अनोखा काल (ब) निर्माण काल (स) सन्धि काल प्र.5 शैशवावस्था कब से कब तक मानी गयी है? । (अ) जन्म से पाँच वर्ष (ब) 13 से 18 वर्ष (स) 6 से 12 वर्ष प्र.6 "मनुष्य को जो कुछ बनाना होता है वह चार-पांच वर्षों में बन जाता है" किसने कहा? (अ) स्ट्रेग (ब) फायड (स) न्यूमैन (ब) बाल्यावस्था :

(ब) बाल्यावस्था :

वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। फ्रायड यद्यपि यह मानते हैं कि बालक का विकास पांच वर्ष की आयु तक हो जाता है, लेकिन बाल्यावस्था विकास की प्रक्रिया को गति प्राप्त करती है और एक परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है। शैशवावस्था के बाद बाल्यावास्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रूचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है। इस अवस्था में बालक में अनेक अनोखे परिवर्तन होते हैं। 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव बहुत उग्र होता है। 7 वर्ष की आयु में वह उदासीन होता है और अकेले रहना पसन्द करता है। 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों में सामाजिक सम्बंध स्थापित करने की भावना बहुत प्रबल होती है। 0 से 12 वर्ष तक की आयु में विद्यालय का उसके लिए कोई आकर्षण नहीं रहता है। वह कोई नियमित कार्य करके, कोई महान और रोमांचकारी कार्य करना चाहता है। बाल्यावस्था की विशेषताएं : १. विकास में स्थिरता :- 6 से 7 वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती हैं। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व और वह स्वयं वयस्क-सा जान पड़ता है। २. मानसिक योग्यताओं में वृद्धि :- बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्त्यिों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है। ३. जिज्ञासा की प्रबलता :- बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। ४. वास्तविक ज्ञान का विकास :- इस अवस्था में बालक, शैशवावस्था के काल्पनिक जगत का परित्याग करके वास्तविक जगत में प्रवेश करता है। वह उसकी प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। ५. रचनात्मक कार्यों में रूचि :- बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है। वह साधारणतः घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है, जैसे-बगीचे में काम करना या औजारों से लकड़ी की वस्तुएँ बनाना। ६. सहयोग की भावना :- बालक विद्यालय के छात्रों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। अतः उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे–सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि। ७. नैतिक गुणों का विकास :- इस अवस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है। ८. बर्हिमुखी व्यक्तित्व :- शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है। बाल्यावस्था में उसका व्यक्तित्व बर्हिमुखी हो जाता है, क्योंकि बाह्य जगत में उसकी रूचि उत्पन्न हो जाती है। ९. संवेगों पर नियंत्रण :- बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता है। वह उन भावनाओं का दमन करता है, जिनको उसके माता-पिता और बड़े लोग पसन्द नहीं करते हैं। १0. संग्रहीकरण की प्रवृत्ति :- बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा पाई जाती है। बालक विशेष रूप से कांच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थरों के टुकड़ों का संचय करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुड़ियों और कपड़ों के टुकड़ों का संग्रह करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। ११. बालकों में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है। विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती हैं। १२. काम प्रवृत्ति :- बालक में काम प्रवृत्ति की न्यूनता होती है। वह अपना समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने में व्यतीत करता है। १३. सामूहिक प्रवृत्ति :- बालक की सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है। बालक की सामूहिक खेलों में अत्याधिक रूचि होती है। वह 6 या 7 वर्ष की आयु में छोटे समूहों में खेलता है। १४. रूचियों में परिवर्तन :- बालक की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वे स्थायी रूप धारण न करके वातावरण के साथ परिवर्तित होती रहती हैं। बाल्यावस्था का महत्व : बाल्यावस्था का काल 6 से 12 वर्ष माना जाता है। इस अवस्था में बालकों तथा बालिकाओं के कद, भार में, उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। इस अवस्था में हड्डियों में मजबूती तथा दृढ़ता आती है, दाँतों में स्थायीत्व आने लगता है। बाल्यावस्था में मानसिक विकास भी तीव्र होती है। वह अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए अनेकों प्रश्न करता है उसकी रूचि विस्तार पाने लगती है। सूक्ष्म चिंतन का आरम्भ हो जाता है। बाल्यावस्था में बालक विद्यालय में प्रवेश ले चुका होता है। परिवार के अलावा अन्य लोगों के साथ उसकी सामाजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इस अवस्था में विषमलिंगीय आकर्षण दिखाई देने लगता है। धीरे-धीरे बालकों का शब्दकोश भी विस्तृत हो सकता है।इस अवस्था में बालकों में आत्मनिर्भरता की भावना विकसित होने लगती है। उनकी आदतों, रूचियों, मनोवृत्ति तथा रहन-सहन आदि में पर्याप्त भिन्नता स्पष्ट होने लगती है। बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप : बाल्यावस्था शैक्षिक दृष्टि से बालक के निर्माण की अवस्था है। ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन ले लिखा है "बाल्यावस्था वह समय है, जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है।" उसका दायित्व बालक के शिक्षक, माता-पिता और समाज पर है। अतः उसकी शिक्षा का स्वरूप निश्चित करते समय, उन्हें निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए - (1) स्ट्रैग ने अपने अध्ययन के आधार पर कहा कि "इस अवस्था में बालकों की भाषा में बहुत रूचि होती है।" अतः इस बात पर बल दिया जाना आवश्यक है कि बालक, भाषा का अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करें। (2)बालक के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन आवश्यक है, जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और उसके लिए लाभप्रद भी हो। जैसे-अंकगणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, चित्रकला, सुलेख, पत्र लेखन और निबन्ध रचना आदि। (3)बालकों की रूचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है। अत: उसकी पुस्तकों की विषय-सामग्री में रोचकता और विभिन्नता होनी चाहिए। (4)इस अवस्था में बालक की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। अतः पाठ्य-विषय और शिक्षण विधि में उसकी रूचियों के अनुसार परिवर्तन किया जाना चाहिए। (5)बालक में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिससे उसकी इस प्रवृत्ति की तुष्टि हो। (6)बालक में समूह में रहने की प्रबल प्रवृत्ति होती है। वह अन्य बालकों से मिलना-जुलना और उनके साथ कार्य करना या खेलना चाहता है। उसे इन बातों का अवसर देने के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों और सामूहिक खेलों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए। (7)बालक की रचनात्मक कार्यों में विशेष रूचि होती है। अतः विद्यालय में विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था की जानी चाहिए। (8)बालक की विभिन्न मानसिक रूचियों को सन्तुष्ट करके उसकी सुप्त शक्तियों का अधिकतम विकास किया जा सकता है। इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए विद्यालय में अधिक से अधिक पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं का संचालन किया जाना चाहिए। (9)लगभग 9 वर्ष की आयु में बालक में निरूद्देश्य इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। उसकी इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन और स्काउटिंग को उसकी शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए। पाठगत प्रश्न : प्र.7 बाल विकास की किस अवस्था में अनोखे परिवर्तन होते हैं? (अ) किशोरावस्था (ब) बाल्यावस्था (स) शैशवावस्था प्र.8 बाल्यावस्था को कौन सा काल कहा गया है? प्र.9 बालक के सर्वांगीण विकास का दायित्व किन पर होता है?

(स) किशारोवस्था :

मानव जीवन के विकास की प्रक्रिया में किशोरावस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। बाल्यावस्था समाप्त होती है और किशोरावस्था प्रारम्भ होती है। यह अवस्था युवावस्था अथवा परिपक्वावस्था तक रहती है। यह सतत् प्रकिया है। इसे बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का सन्धि काल कहते हैं। बाल्यावस्था के समापन अर्थात् 13 वर्ष की आयु से किशोरावस्था आरंभ होती है। इस अवस्था को तूफान एवं संवेगों की अवस्था कहा गया है। 11-12 वर्ष की आयु से बालक की नसों में ज्वार उठना आरम्भ होता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएं: (1) विकासात्मक विशेषता -: किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। इस काल में किशोर के शरीर में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, जैसे–भार और लम्बाई में तीव्र वृद्धि, मांसपेशियों और शारीरिक ढाँचे में दृढ़ता, किशोर में दाढ़ी और मूंछ की रोमावलियों एवं किशोरियों में प्रथम मासिक स्राव के दर्शन आदि। (2) कल्पना की बाहुल्यता -: किशोर के मस्तिष्क का लगभग सभी दिशाओं में विकास होता है। उसमें विशेष रूप से अग्रलिखित मानसिक गुण पाये जाते हैं- कल्पना और दिवास्वप्नों की बहुलता, बुद्धि का अधिकतम विकास, सोचने-समझने और तर्क करने की शक्ति में वृद्धि, विरोधी मानसिक दशायें। किसी समूह का सदस्य होते हुए भी किशोर केवल एक या दो बालकों से घनिष्ठ सम्बंध रखता है, जो उसके परम मित्र होते हैं। (3) संवेगों में अस्थिरता -: किशोर में आवेगों और संवेगों की बहुत प्रबलता होती है। यही कारण है कि वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है, क्योंकि किशोर बहुत कुछ शिशु के समान होता है। उसके व्यवहार में इतनी उद्विग्नता आ जाती है कि वह शिशु के समान अन्य व्यक्तियों और वातावरणसे समायोजन नहीं कर पाता है। (4) स्वतंत्रता की भावना -: किशोर में शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता की प्रबल भावना होती है। वह बड़ों के आदेशों अन्धविश्वासों के बन्धनों में न बंधकर स्वतंत्र जीवन व्यतीत करना चाहता है। अतः यदि उस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाया जाता है, तो उसमें विद्रोह की भावना विकसित होती है। (5) काम भावना में परिपक्वता -: कामेन्द्रियों की परिपक्वता और कामशक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। इस अवस्था के पूर्व काल में बालकों और बालिकाओं में विषम लिंगों के प्रति आकर्षण होता (6) समूह का महत्व :- किशोर जिस समूह का सदस्य होता है उसको वह अपने परिवार और विद्यालय से अधिक महत्वपूर्ण समझता है। (7) रूचियों में परिवर्तन एवं स्थायीत्व -: 15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है पर उसके बाद उनकी रूचियों में स्थिरता आ जाती है। बालकों को खेलकूद और व्यायाम में विशेष रूचि होती है। उनके विपरीत बालिकाओं में बढ़ाई-बुनाई, नृत्य और संगीत के प्रति विशेष आकर्षण होता है। (8) समाजसेवा की भावना -: किशोर में समाज सेवा की अति तीव्र भावना होती है। किशोरावस्था के आरंभ में बालकों को धर्म और ईश्वर में आस्था नहीं होती है पर धीरे-धीरे उनमें धर्म में विश्वास उत्पन्न हो जाता है और वे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने लगते हैं। (9) जीवन दर्शन का निर्माण - किशोरावस्था से पूर्व बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में नाना प्रकार के प्रश्न पूंछता है। किशोर होने पर वह स्वयं इन बातों पर विचार करने लगता है और फलस्वरूप अपने जीवन दर्शन का निर्माण करता है। किशोरावस्था में बालक में अपने जीवन-दर्शन नये अनुभवों की इच्छा, निराशा, असफलता, प्रेम के अभाव आदि के कारण अपराध प्रवृत्ति का विकास होता है। (10) व्यवसाय के प्रति चिन्तित -: किशोर में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और प्रौढ़ों के समान निश्चित स्थिति प्राप्त करने की अत्यधिक अभिलाषा होती है। किशोरावस्था में बालक अपने भावी व्यवसाय को चुनने के लिए चिन्तित रहता है। किशोरावस्था का महत्व : किशोरावस्था जीवन का वह समय है, जहां से एक अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक विकास एक चरम सीमा की ओर अग्रसर होता है। शारीरिक रूप से एक बालक किशोर बनता है जब उसमें वय सन्धि अवस्था प्रारंभ होती है और उसमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता प्रारंभ हो जाती है। यह अवस्था 12-13 से 18 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। इस अवस्था के आरंभ होने की आयु लिंग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति एवं स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। भारत में यह अवस्था 12 वर्ष से ही आरम्भ मानी जाती है। किशोरावस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इस समय किशोर के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं। स्टेनले हॉल ने कहा है कि "किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।" किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप : किशोरावस्था आरम्भ होने के समय से ही शिक्षा को एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया जाना अनिवार्य है। इस शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए, इस पर हम प्रकाश डाल रहे हैं, यथा- (1) किशोरावस्था में शरीर में अनेक कांतिकारी परिवर्तन होते हैं, जिनको उचित शिक्षा प्रदान करके शरीर को सबल और सुडौल बनाने का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। अतः उसे निम्नलिखित का आयोजन करना चाहिए- (1) शारीरिक और स्वास्थ्य- शिक्षा, (2) विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम, (3) सभी प्रकार के खेलकूद आदि। (2) किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रूचियों, रूझानों, दृष्टिकोणों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। (1) कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालयीन विषय (2) प्राकृतिक, ऐतिहासिक आदि स्थानों का भ्रमण (3) उसकी रूचियों, कल्पनाओं और दिवास्वप्नों को साकार बनाने के लिए प्रहसन, भाषण, वाद-विवाद, कविता लेखन, साहित्यिक गोष्ठी, पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ आदि। किशोर अनेक प्रकार के संवेगों से संघर्ष करता है। अतः शिक्षा में इस प्रकार के विषयों और पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए, जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तरीकरण और उत्तम संवेगों का विकास कर सकें। इस उद्देश्य से कला, विज्ञान, साहित्य, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की सुन्दर व्यवस्था की जानी चाहिए। (4) विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार और सम्बंधों के पाठ सीख सकें। सामूहिक कियाएं, सामूहिक खेल और स्काउटिंग अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। (5) विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की अयवस्था की जानी चाहिए जिससे किशोरों की व्यक्तिगत मांगों को पूर्ण किया जा सके। (6) किशोर अपने भावी जीवन में किसी न किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है, पर वह यह नहीं जानता है कि कौन सा व्यवसाय उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त होगा। विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुउद्देशीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई है। (7) किशोर अपने जीवन-दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। (8) किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों में निरन्तर द्वन्द्व होता रहता है। अतः उसे उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अन्तर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके। (9) किशोर बालकों और बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का सम्बंध उनकी काम–प्रवृत्ति से होता है। यौन शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है। (10) बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी अति आवश्यक है। "लिंग भेद के कारण और इस विचार से कि बालकों और बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी चाहिए।' (11) किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। अतः उसे शिक्षा देने के लिए परम्परागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। (12) किशोर को न तो बालक समझना चाहिए और न उसके प्रति बालक का सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, उसके प्रति वयस्क का सा व्यवहार किया जाना चाहिए। (13) किशोर में उचित महत्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। उसकी इस इच्छा को पूर्णकरने के लिए उसे उत्तरदायित्व के कार्य दिये जाने चाहिए। किशोर में अपराध करने की प्रवृत्ति का मुख्य कारण है – निराशा। विद्यालय, उसको अपने उपयोगिता का अनुभव कराके उसकी निराशा को कम कर सकता है और इस प्रकार उसकी अपराध प्रवृत्ति को कम कर सकता है। (14) बालक स्वयं किसी बात का निर्णय नहीं कर पाता है और चाहता है कि कोई उसे इस कार्य में निर्देशन और परामर्श दे। यह उत्तरदायित्व उसके अध्यापकों और अभिभावकों को लेना चाहिए। पाठगत प्रश्न : प्र.10 बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य के काल को क्या कहते हैं? प्र.11 किशोरावस्था काल कब से कब तक माना जाता है? प्र.12 "किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है" कथन किस विद्वान का है? इकाई सारांश : • विकास का जीवन में अत्यंत महत्व है, विकास की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। • बालक के जन्म से पूर्व एवं पश्चात् जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं वे सभी विकास की प्रक्रिया का ही अंग है। विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत बालक के विकास की मुख्य तीन अवस्थाएं मानी जाती हैं। शैशवावस्था, बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था। • बालक के विकास की प्रक्रिया का ज्ञान शिक्षक माता-पिता एवं समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है। ताकि वे बालक समुचित विकास में अपना योगदान दे सकें। • शैशवावस्था-बालक के विकास का निर्माण काल भी कहा जाता है। यह जन्म से पांच वर्ष तक मानी जाती है। इसी अवस्था में बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। • शैशवावस्था के पश्चात् बालक की बाल्यावस्था प्रारंभ हो जाती है। इसे विकास की अवस्था का अनोखा काल भी कहते हैं। इसको 6 से 12 वर्ष तक माना गया है। • किशोरावस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष मानी जाती है। इसे विकास की अवस्थाएं में सबसे कठिन काल के नाम से जाना जाता है। इसमें बालक में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन बहुत तेजी से होते हैं। • किशोरावस्था को वय सन्धि काल से भी जाना जाता है। इसमें बालक में सन्तानोत्पत्ति की क्षमता का विकास होता है। • बालक के जन्म के पश्चात् से विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत विभिन्न अवस्थाओं में शिक्षा का स्वरूप सुनिश्चित किया जाना अत्यंत आवश्यक है। बालक की भिन्नाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा की व्यवस्था उपलब्ध कराना शिक्षक, अभिभावक एवं समाज का दायित्व होता है। आत्म परीक्षण प्रश्न : प्र.1 बाल विकास का क्या अर्थ है। कोई उपयुक्त परिभाषा द्वारा स्पष्ट कीजिए? प्र.2 बाल विकास की उपयोगिता को स्पष्ट करें? प्र.3 बाल विकास के अध्ययन के महत्व पर प्रकाश डालें? प्र.4 विकास की मुख्य कौन-कौन सी अवस्थाएं हैं? प्र.5 शैशवस्था की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए? प्र.6 बाल्यावस्था को "अनोखा काल" क्यों कहा जाता है इसके महत्व को स्पष्ट कीजिए? प्र.7 किशोरावस्था की विशेषताएं कौन-कौन सी हैं? प्र.8 किशोरावस्था में बालक के लिए शिक्षा का स्वरूप किस प्रकार का होना चाहिए?

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Padhayi Adda (पढ़ाई का नया दौर)

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