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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

बाल विकास और मनोविज्ञान।। भाग - 2

विषय : विकास एवं उसको प्रभावित करने वाले कारक।।

 इकाई - 2
 विषयांश : 

प्रस्तावना – उद्देश्य, विकास का अर्थ, परिभाषा, शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सामाजिक विकास, संवेगात्मक विकास, भाषा विकास, मूल्य परक विकास।


 प्रिय छात्र,
पूर्व इकाई में आपने बाल विकास का अर्थ, उपयोगिता एवं महत्व के बारे में जानकारी प्राप्त की। प्रस्तुत इकाई में विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

 प्रस्तावना -
प्रस्तुत इकाई में आप बालक के विकास तथा उसको प्रभावित करने वाले कारक के विषय में पढ़ेगें। मनुष्य सजीव प्राणी है। सजीव या जीवित प्राणी अपने जीवन प्रसार में सक्रिय बने रहने के लिए निरन्तर गतिशील रहता है।जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में नये-नये गुणों का अविर्भाव और पुरानी विशेषताओं का लोप होता रहता है। इस प्रक्रिया में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है जिसके अन्तर्गत शारीरिक एवं मानसिक गुणों तथा विशेषतओं की नियमित उत्पत्ति देखी जाती है, इसे ही विकास कहा जाता है। विकास के कई पक्ष होते हैं जैसे - शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक व सौन्दर्यात्मक इत्यादि।
 बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेदनात्मक, भाषीय एवं मूल्य परक विकास अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया है। बालक की शारीरिक विकास की प्रक्रिया में अनेक आन्तरिक या बाहय अंगों तथा मांस पेशियों का विकास होता है। मानसिक विकास की प्रक्रिया को जटिल प्रक्रिया माना जाता है। जिसको अलग से सुनिश्चित कर पाना सम्भव नही है। अनुसंधानों पर आधारित मानदण्डों के आधार पर मानसिक विकास का पता चलता है।संवेगों का बालक के जीवन महत्वपूर्ण स्थान है। जो व्यक्ति के अस्तित्व को सन्तुलित बनाते हैं। संवेगात्मक असन्तुलन से बालक में अनेक मानसिक विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं।सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति बदलती परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करता है और अन्य व्यक्तियों के साथ संबंध बनाता है। भाषा बुद्धि के उपयोग और तर्क का एक माध्यम है। मूल्यपरक विकास बालक के सामाजिक नैतिक मूल्यों की विवेचना करता है।

 उद्देश्य -
इस इकाई का उद्देश्य बालक के विकास की प्रक्रिया के सन्दर्भ में विभिन्न विकासों एवं उसको प्रभावित करने ले कारकों का अध्ययन करना है इसमें आप - 
• विकास का अर्थ, परिभाषा एवं उसके पक्ष बता सकेंगे।
• शारीरिक विकास का क्रम एवं विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन कर सकेंगें। 
• बालक के मानसिक विकास की प्रक्रिया उसकी क्षमता योग्यता के साथ मानसिक विकास को प्रभावित करन वाले तत्वों को समझ सकेंगे। 
• सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास के आधार पर बालकों के विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन कर सकेंगे।
• भाषा एवं मूल्यपरक विकास जो बालक के व्यक्तित्व को महत्वपूर्ण स्थान देते हैं और समाज में उसकी स्थिति को बताते है को समझ सकेंगे।

 विकास का अर्थ परिभाषा एवं उसके पक्ष -
विकास एक सार्वभौतिक प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त तक अविराम गति से चलती रहती है।  विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता वरन् इसके अन्तर्गत वे सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेदनात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भावस्था से मृत्यु पर्यन्त तक निरन्तर चलते रहते हैं।
हरलॉक (Hurlock) ने विकास को परिभाषित करते हुए कहा है कि "विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह 'व्यवस्थित' तथा 'समनुगत' परिवर्तन है जिसमें कि प्रौढावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनोंका प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषतायें व योग्यतायें प्रकट होती है।"
हरलॉक की परिभाषा के अनुसार विकास व्यवस्थित तथा समनुगत परिवर्तन है अर्थात एक पक्ष में न होकर सभी पक्षों में समान व व्यवस्थित परिवर्तन विकास की सही रूप में व्याख्या करते हैं। यह परिवर्तन मृत्यु पर्यन्त तक लगातार या निरन्तर चलते रहते हैं। 
विकास के अन्तर्गत कई पक्ष सम्मिलित है जो इस प्रकार हैं -

1. शारीरिक विकास         2. क्रियात्मक विकास
3. मानसिक विकास         4. संवेगात्मक विकास
5. सामाजिक विकास       6. नैतिक विकास
7. सृजनात्मक विकास      8. सौदर्य विकास


 शारीरिक विकास एवं गामक विकास -
शारीरिक विकास से अभिप्राय बालक की शारीरिक संरचना एवं गठन में होने वाला परिवर्तन है। जिसके अन्तर्गत शारीरिक भार, लम्बाई, हड्डियों, दॉत इत्यादि में होने वाले विकास सम्मिलित है। गामक विकास शारीरिक विकास से जुड़ा प्रत्यय है जिसके अन्तर्गत मॉसपेशियों एवं हड्डियों की सक्षमता के साथ उन पर नियंत्रण सम्मिलित है। इसी के साथ विभिन्न क्रियाओं को करने के कौशलों का विकास भी इसी के अन्तर्गत माना है जैसे चलना, कूदना, सीढ़ी चढ़ना, भोजन करना, कपड़े पहनना इत्यादि । गामक कौशलों के विकास के लिए शारीरिक विकास सही रूप में होना आवश्यक है।

शारीरिक विकास के प्रमुख पक्ष इस प्रकार हैं -

(1) शरीर-रचना :- शारीरिक विकास की प्रक्रिया में अनेक अन्तरिक या बाहय अंगों तथा मॉसपेशियों का विकास होता है। परिपक्वता की विभिन्न अवस्थाओं में अभिवृद्धि की गति में अंतर होता है। शरीर की रचना स्नायु प्रणाली, श्वसन प्रणाली, पाचन संस्थान आदि की अभिवृद्धि तथा परिपक्वता एक दूसरे से सम्बन्धित है।
 सामान्य शरीरिक विकास - शारीरिक विकास सामान्यतः एक  होना चाहिए। मानसिक विकास से इसका निकट का सम्बन्ध है यह मूख्यतः चार क्षेत्रों में पाया जाता है - 
(अ) स्नायु प्रणाली    (ब) मॉस पेशियों 
(स) इन्ड्रोसन ग्रन्थियाँ     (द)शरीर का आकार ।
भिन्न शारीरिक विकास - शारीरिक विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न रूप से होता है। यह भिन्नता शरीर के कद रूप में पाई जाती है। इन्ड्रोसीन ग्रन्थियों के ठीक से कार्य न करने का सीधा प्रभाव शरीर की रचना, कद, आदि पर पड़ता है।
अभिवृद्धि चक्र – अभिवृद्धि का चक्र सदैव किसी एक नियम से नहीं चलता। किसी वर्ष विकास की गति तेज होती है और किसी वर्ष कम।

 (2) शरीर का कद :
शरीर के आकार से हमारा अभिप्राय ऊंचाई तथा भार से है। ये दोनों मिलकर विकास को निश्चित स्वरूप प्रदान करते हैं। कद - जन्म के समय बालक की लंबाई लगभग 20 इंच होती है। लड़कों की लम्बाई लड़कियों की अपेक्षा, जन्म के समय आधा इंच अधिक होती है। परिपक्वता आने तक बालक की ऊंचाई की गति में धीमापन आ जाता है। 12 वर्ष की अवस्था में सामान्य बालक 55 इंच लंबा हो जाता है। 10-14 वर्ष की आयु में लड़कियों का शारीरिक विकास तेजी से होता है। 21 वर्ष में लड़कों की ऊचाई अधिकतम सीमा तक बढ़ जाती है। बालकों की ऊंचाई के निर्धारित में वंशक्रम, प्रजाति, सामाजिक-आर्थिक स्थिति तथा रहन-सहन का प्रभाव पड़ता है।

 (3) भार :
जन्म के समय बालक का भार 5 से 8 पौंड तक होता है। पहले वर्ष के अन्त में बालक का भार जन्म के भार से पांच गुना अधिक होता है। परिपक्ता आने पर बालक का भार सामान्यतः 70 से 90 पौण्ड तक होता है। बालक का भार उसके शरीर की प्रकृति पर निर्भर करता है। तीन प्रकार के आकार होते हैं – (अ) मोटे (ब) लंबे (स) सामान्य, शरीर का भार तीनों की प्रकृति पर निर्भर करता है।

 (4) शरीर के आकार में भिन्नता :
बालक जन्म से ही शरीर के आकार की भिन्नता लिये होता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसमें यह भिन्नता अधिक प्रकट होने लगती है। जन्म का भार विकास के वर्षों में आनुपातिक रूप धारण करता है।

 (5) शारीरिक अनुपात :
जन्म के समय शरीर, प्रौढ़ शरीर के अनुपात में बहुत अंशों में भिन्न होता है। भुजाओं तथा टांगों में सर्वाधिक परिवर्तन तथा अनुपात पाया जाता है। शरीर का यह अनुपात इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं।

 (i) सिर – जन्म के बाद सिर आनुपातिक रूप से बढ़ता है। जन्म से परिपक्वता तक बालक के सिर की लम्बाई दुगुनी हो जाती है। सिर का क्षेत्र पांच वर्ष की अवस्था में 21 प्रतिशत से कम हो जाता है। 10 वर्ष में सिर, प्रौढ़ सिर का 95 प्रतिशत हो जाता है। सिर की लंबाई तथा चौड़ाई का अनुपात लड़के-लड़कियों के समान पाया जाता है। 

(ii) चेहरा - आठ वर्ष की आयु तक चेहरे का ढॉचा जन्म की तुलना में बहुत बड़ा हो जाता है। परिपक्वता तथा स्थायी दांत निकलते रहते हैं और इसी प्रक्रिया में ठोढ़ी जबड़ा, मुंह, नाक तथा इसके आन्तरिक अंग तुलनात्मक रूप से विकसित होते हैं मस्तिक का विकास द्रुतगति से होता है। आयु के विकास के साथ – साथ माथा चौड़ा होता जाता है, होंठ भर जाते हैं। 

(iii) धड़ – हाथों तथा अंगों के विकास से ही उसके धड़ का अनुपात व्यक्त होता है। धड़ के विकसित होते समय 
छाती तथा गुर्दो की हड्डियों का भी समय होता है।

(iv) भुजायें तथा टांगे - नवजात के हाथ पैर, अंगुलियाँ छोटी होती है, 14-16 वर्षों तक इनका विकास पूर्ण हो जाता है। 14-16 वर्ष की आयु तक भुजाओं का विकास होता रहता है बालक की लम्बाई तथा पैरों के आकार में अनुपात रहता है। 

(v) हड्डियाँ – बालक की हड्डियॉ, प्रौढ़ से छोटी एवं कोमल होती हैं। धीरे-धीरे उनके आकार में परिवर्तन होता है और अनेक नई हड्डियों का विकास होता है। जन्म के समय शिशु में 270 हड्डियाँ होती है। पूर्णता आने पर उसमें 350 हड्डियाँ हो जाती हैं। फिर कुछ हड्डियाँ समाप्त हो जाती हैं और पूर्ण परिपक्व अवस्था में इनकी संख्या 206 रह जाती है। 

(vi) मॉसपेशियाँ तथा वसा – आरंभ से वसा तन्तुओं की वृद्धि मांसपेशियों के तन्तुओं से अधिक तीव्र होती है। शरीर का भार मांसपेशियों द्वारा विकसित होता है। बाल्यावस्था में मांसपेशियों में जल अधिक होता है। धीरे-धीरे जल की मात्रा कम होने लगती हैऔर ठोस तन्तुओं का विकास होने लगता है, उसमें दृढता आने लगती है। वसा युक्त पदार्थों का अधिक सेवन करने से चर्बी बढ़ने लगती है। 

(vii) दांत - बच्चों में अस्थायी तथा स्थायी दांत पाये जाते हैं अस्थायी दांतों की संख्या 30 तथा स्थायी दोतों की संख्या 32 होती है। अस्थायी दांत तीसरे मास से लेकर छठे मास तक अवश्य आ जाते हैं। पांच-छ: वर्ष तक ये दांत आ जाते हैं। अस्थायी दांत के गिर जाने पर स्थायी दांत उनका स्थान ले लेते हैं। 25 वर्ष की अवस्था तक स्थायी दांत निकलते रहते है। 

 (6) आन्तरिक अवयव - शरीर के आन्तरिक अवयवों का विकास भी अनेक रूपों में होता है। यह विकास (अ) रक्त संचार, (ब) पाचन संस्थान, तथा (स) श्वसन प्रणाली में होता है। बचपन में पाचन अंग कोमल होते हैं। प्रोढावस्था में वे कठोर हो जाते हैं। स्नायु संस्थान का आकार भी आयु के विकास के साथ-साथ होता है। आन्तरिक विकास के अंतर्गत स्नायु मण्डल का संगठन, कार्य, चेतना तथा गामक क्रियाओं का संतुलन, श्वांस प्रणाली, गुदा तथा मूत्राशय का विकास भी होता है। मस्तिष्क का विकास भी आन्तरिक अवयवों के विकास के अंतर्गत ही होता है।

 शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक -
स्वास्थ विकास का निवास की उत्तम दशाओं से घनिष्ठ संबंध है। उचित या अनुचित प्रकाश सेआयोजित मनोरंजन और विश्राम, अपौष्टिक भोजन, कम हवादार निवास स्थान एवं दोषपूर्ण वंशानुक्रम के समान तत्व स्वस्थ विकास में बाधक होते हैं। 

कारकों में से अधिक महत्वपूर्ण निम्नवत है-

i) वंशानुक्रम – माता पिता के स्वास्थ और शारीरिक रचना का प्रभाव उनके बच्चों पर भी पड़ताहै। यदि वे रोगी और निर्बल हैं तो उनके बच्चे भी वैसे ही होते हैं। स्वस्थ माता-पिता की संतान का ही स्वस्थ शारीरिक विकास होता है। 

ii) वातावरण – बालक के स्वभाविक विकास में वातावरण के तत्व सहायक या बाधक होते हैं। इस प्रकार के कुछ मुख्य तत्व हैं – शुद्ध वायु, पर्याप्त धूप और स्वच्छता। तंग गलियों और बन्द मकानों में रहने वाले बालक किसी ने किसी रोग के शिकार बनकर अपने स्वास्थ्य को खो देते हैं। यदि बालक का शरीर, पहनने के वस्त्र, रहने का स्थान, खाने का भोजन आदि स्वच्छ है तो, उसका शारीरिक विकास द्रुत गति से होता चला जाता है। 

iii) पौष्टिक भोजन – पौष्टिक भोजन, थकान का सबल शत्रु और शारीरिक विकास का परम मित्र है। अतः बालक के उत्तम शारीरिक विकास के लिए उसे पौष्टिक भोजन दिया जाना आवश्यक है।

iv) नियमित दिनचर्या – नियमित दिनचर्या, उत्तम स्वास्थ्य की आधारशिला है। बालक के खाने, सोने, खेलने, पढ़ाने आदि का समय निश्चित होना चाहिए। इन सब कार्यों के नियमित समय पर होने से उसके स्वस्थ विकास में बहुत ही कम बाधायें आती हैं। 

v) निद्रा व विश्राम – शरीर के स्वस्थ विकास के लिए निद्रा और विश्राम अनिवार्य है। शिशु के लिए 12 घण्टे बाल्यावस्था और किशोरावस्था में क्रमशः लगभग 10 और 8 घण्टे की निद्रा पर्याप्त होती है। बालक को इतना विश्राम मिलना आवश्यक है, क्योकि थकान उसके विकास में बाधक सिद्ध होती है। 

vi) प्रेम – बालक के उचित शारीरिक विकास का आधार प्रेम है। यदि उसे अपने माता-पिता का प्रेम नहीं मिलता है, तो वह दुःखी रहने लगता है यदि उसके माता-पिता की अल्पायु में मृत्यु हो जाती है, तो उसे असहय कष्टों को सामना करना पड़ता है उसके शरीर का विकास हो पाना असम्भव हो जाता है। 

vii) सुरक्षा - शिशु या बालक के सम्यक विकास के लिए उसमें सुरक्षा की भावना होना अति आवश्यक है। इस सम्भावना के अभाव में वह भय का अनुभव करने लगता है और आत्म-विश्वास खो बैठता है। ये दोनों बातें उसके विकास को अवरूद्ध कर देती है। 

viii) खेल या व्यायाम – शारीरिक विकास के लिए खेल और व्यायाम के प्रति विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। छोटा शिशु पलंग पर पड़ा-पड़ा ही अपने हाथें और पैरों को चलाकर पर्याप्त व्यायाम कर लेता है, पर बालकों और किशोरों के लिए खुली हवा में खेल और व्यायाम की उचित व्यवस्था की जाना आवश्यक है। 

ix) अन्य कारक – शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ अन्य कारक है (1) रोग या दुर्घटना के कारण शरीर में उत्पन्न होने वाली विकृति या अयोग्यता (2) अच्छी और खराब जलवायु (3) दोषपूर्ण सामाजिक परम्पराएँ, जैसे –बाल-विवाह (4) गर्भिणी माता का स्वास्थ्य (5) परिवार का रहन-सहन और आर्थिक स्थिति।

पाठ्यगत प्रश्न :

प्र.1 उत्तम शारीरिक विकास का आशय स्पष्ट कीजिए? 
प्र.2 शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों के नाम बताईए ?

 मानसिक विकास -
          मानसिक विकास से अभिप्राय मानसिक शक्तियों का विकास या ज्ञान भण्डार में वृद्धि एवं उसके उपयोग से है। मानसिक शक्तियों के उदय तथा वातावरण के प्रति समायोजन की क्षमता का नाम मानसिक विकास है। मानसिक विकास में संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, अधिगम, स्मरण, अवधान, निरीक्षण, चिन्तन, तर्क, समस्या, समाधान आदि शक्तियाँ आती हैं।मानसिक विकास की प्रक्रिया जटिल होती है। इस जटिल प्रक्रियाओं के आधार पर किसी संकल्पना का निर्माण करना संभव नहीं है। अतः ये कुछ मानदण्ड है जिनसे मानसिक विकास पता चलता है। जिनमें मुख्य निम्नवत् है 

• बुद्धि में वृद्धि – बुद्धि का विकास कितने अंशों तक हुआ है, टर्मन ने अमूर्त चिन्तन की योग्यता कोबुद्धि कहा है। बुद्धि के दो रूप होते हैं : (1) आनुवंशिक सम्भाव्य योग्यता (2) अर्जित बुद्धि योग्यता। अ) बच्चों के विकास का ढंग ब) परिवेश तथा परिस्थितियाँ स) परिवेश में मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ द) मानसिक विकास का मूल्यांकन करने के लिए प्रयुक्त परिणाम का रूप । 

• मानसिक क्रियाओं में वृद्धि – मानसिक क्रियाओं में वृद्धि होने से ही मानसिक विकास का अनुमान लगाया जाता है। पन्द्रह वर्ष की आयु को मानसिक परिपक्वता का आधार मानकर बाकी वर्षों में मानसिक स्तर को पहचाना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक वृद्धि की रोक विभिन्न आयु वर्षो में होने लगती है। मानसिक क्रियाओं की वृद्धि के ज्ञान के लिये : (1) शब्द ज्ञान, (2) उपमा, (3) रिक्त पूर्ति, विपरीत शब्दों के परीक्षणों का उपयोग अधिक किया गया है। 

• भाषा विकास – मानसिक विकास का पता भाषा विकास से भी चलता है। भाषा के द्वारा ही अर्जित ग्राह्य शक्ति तथा नवीन क्रियाओं को सीखने की क्षमता विकसित होती है। प्रारंभिक वर्षों की अपेक्षा बाद के वर्षों में बालक जटिल वाक्य रचना तथा अधिक शब्दों को सीखता है। 

• संकल्पनात्मक विकास – संकल्पना के निर्माण का महत्व मानसिक विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण है। बाल्यावस्था तक बालक मांसपेशियों पर नियंत्रण तथा पदार्थां को देखने में स्थिरता को विकसित करता है। बालक जो कुछ भी चिंतन करता है, उसका आधार प्रत्यय है। वह जो देखता है, उसी पर विश्वास करता है। बुद्धि के विकास का आभास इस बात से भी चलता है कि बालक में किस प्रकार की संकल्पनायें विकसित होती है। इसी प्रकार दैनिक व्यवहार की संकल्पनायें बालक के मानसिक विकास की धोतक है (अ) स्थान तथा दिशा का ज्ञान   (ब) समय      (स) संख्या एवं  (द) संकल्पनाओं से बालक के मानसिक विकास का पता चला है।

 मानसिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक -
विभिन्न कारक मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं। उनमें से अधिक महत्वपूर्ण कारक निम्नांकित है - 

1) वंशानुक्रम – बालक, वंशानुक्रम से कुछ मानसिक गुण और योग्यताएँ प्राप्त करता है जिनमेंवातावरण किसी प्रकार का अन्तर नहीं कर सकता है। किसी व्यक्ति का उससे अधिक विकासनहीं हो सकता, जितना कि उनका वंशानुक्रम सम्भव बनाता है। 

 2) पविार का वातावरण – परिवार के वातावरण का बालक के मानसिक विकास में घनिष्ठ संबंधहै। एक अच्छा परिवार, जिसमें माता-पिता में अच्छे संबंध होते हैं, जिसमें वे अपने बच्चों की रूचियों और आवश्यकताओं को समझते हैं एवं जिसमें आनन्द एवं स्वतंत्रता का वातावरण होताहै, प्रत्येक सदस्य के मानसिक विकास में अत्यधिक योग देता है। 

 3) परिवार की सामाजिक स्थिति – उच्च सामाजिक स्थिति के परिवार के बालक का मानसिक विकास अधिक होता है। इसका कारण यह है कि उसको मानसिक विकास के जो साधन उपलब्ध होते हैं वे निम्न सामाजिक स्थिति के परिवार के बालक के लिए दुर्लभ होते हैं। 

 4) परिवार की आर्थिक स्थिति – प्रतिभाशाली बालक दरिद्र क्षेत्रों से आने के बजाय अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों से अधिक आते हैं इनका कारण यह है कि इन बालको को कुछ विशेष सुविधाएं उपलब्ध रहती है, जैसे – उचित भोजन, उपचार के पर्याप्त साधन, उत्तम शैक्षिक अवसर, आर्थिक कष्ट से सुरक्षा आदि । 

 5) माता-पिता की शिक्षा - अशिक्षित माता-पिता की अपेक्षा शिक्षित माता-पिता का बालक केमानसिक विकास पर कहीं अधिक प्रभाव पड़ता है। माता-पिता की शिक्षा, बच्चों की मानसिकयोग्यता से निश्चित रूप से संबंधित है।

6) उचित प्रकार की शिक्षा – बालक के मानसिक विकास के लिए उचित प्रकार की शिक्षा अति आवश्यक है। ऐसी शिक्षा ही उसके मानसिक गुणों और शक्तियों का विकास करती है। शिक्षा मनुष्य की शक्ति का विशेष रूप से उसकी मानसिक शक्ति का विकास करती है। 

 7) विद्यालय - अच्छा विद्यालय बालक के मानसिक विकास का वास्तविक और महत्वपूर्ण कारक है। अच्छा विद्यालय ऐसा पाठ्यक्रम प्रस्तुत करता है, जो क्षेत्रों की रूचियों और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न क्रियाओं से परिपूर्ण रहता है। ऐसा विद्यालय स्वस्थ मानसिक विकास का एक वास्तविक कारण है।

 8) शिक्षक – बालक के मानसिक विकास में शिक्षक का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। यदि शिक्षक का मानसिक विकास अच्छा है, यदि वह बालक के प्रति प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करता है और वह शिक्षण विधियों एवं उचित शिक्षण सामग्री का प्रयोग करता है तो बालक का मानसिक विकास होना स्वभावितक है। 

 9) शारीरिक स्वास्थ्य - शारीरिक स्वास्थ्य मानसिक विकास का मुख्य आधार है। निर्बल और अस्वस्थ बालक की अपेक्षा सबल और स्वस्थ बालक अधिक परिश्रम करके अपने मानसिक विकास की गति और सीमा में वृद्धि कर सकता है। इसलिए शारीरिक स्वास्थ्य पर अति प्राचीनकाल से बल दिया जा रहा है। अरस्तू का कथन है – स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क होता है। 

 10) समाज - प्रत्येक बालक का जन्म किसी न किसी समाज मे होता है। वही समाज उसके मानसिक विकास की गति और सीमा को निर्धारित करता है। यदि समाज में अच्छे विद्यालयों, पुस्तकालयों, वाचनालयों, बालभवनों, मनोरंजन के साधनों आदि की उत्तमव्यवस्था है, तो बालक का मस्तिष्क अविराम गति से विकसित होता चला जाता है। 

 पाठ्यगत प्रश्न -
प्र. 3 टर्मन ने बुद्धि को कौन सी योग्यता बताया है? 
प्र.4 बालक के मानसिक विकास में परिवार के वातावरण की क्या भूमिका है?

 सामाजिक विकास :- बालक जन्म के समय समाज निरपेक्ष होता है उम्र बढ़ने के साथ-साथ बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया हो जाती है जिसके फलस्वरूप उसमें सामाजिक गुणों का विकास होता है जो सामाजिक विकास को प्रदर्शित करता है। 

 (1) आरम्भिक सामाजिक अनुक्रियायें – शैशवावस्था में बालक का सामाजिक सम्पर्क माता तथा उसके इर्द-गिर्द का वातावरण होता है। माता के चेहरे को देखकर वह मुस्कराता है और वही उसका सामाजिक संपर्क है। बाल्यावस्था में उसका सामाजिक सम्पर्क बढ़ता रहता है और उसी तरह अनुक्रियाएं भी करता है। वह अपने पराये में अंतर करने लगता है और यहीं अन्तर करना उसके सामाजिक विकास का पहला चरण है। 

 (2) अन्य बालकों के साथ अनुक्रिया – सामाजिक विकास एकाकी तथा अनुक्रिया नहीं है। बालक अन्य बालकों के प्रति अनुक्रिया करता है। इससे उसके सुखद एवं दुखद अनुभव में वृद्धि होती है। नौ मास की आयु तक के बच्चे अनुक्रिया के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते। दो वर्ष की आयु के बच्चे लेन-देन की अनुक्रियायें करने लगते हैं। 

 (3) सामाजिक प्रतिबोध - सामाजिक विकास प्रतिबोध का होना ही सामाजिक विकास की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया में बालक स्वाभाविक तथा अर्जित सामाजिक व्यवहारों को सीखता है तथा परिस्थिति उत्पन्न होने पर उसके अनुकूल आचरण करता है। वे मुखांगों द्वाराअपनी अनुक्रिया व्यक्त करने लगते हैं। उनमें प्रतिद्वन्दिता, सहयोग अनिच्छापूर्वक कार्य करना आदि भाव विकसित होने लगते हैं। 

 (4)प्रतिरोधी व्यवहार – सामाजिक व्यवहार के विकास के साथ-साथ बालकों में प्रतिरोधी अथवा नकारात्मक व्यवहार उत्पन्न होने लगता है। नकारात्मक व्यवहार में होठों को बंद करना, सिर हिलाना, अंगों में सख्ती ले आना आदि है।। 

 (5)लड़ाई झगड़ा - जैसे-जैसे बच्चे बड़े होने लगते हैं, उनके व्यवहार में लड़ाई-झगड़ों की संख्या बढ़ने लगती है। इनके कारण जब भी बच्चे के कार्य की गति में अवरोध उत्पन्न किया, बालक लड़ने के लिये तैयार हो जाता है। यदि बड़े सामाजिक मान्यता प्राप्त विषयों से बच्चों को प्रशिक्षण देंगे तो उनमें झगड़े होने की संभावना कम होगी। 

 (6) सहानुभूति - सामाजिक विकास में सहानुभूति की विशेष भूमिका होती है। बालक में यह प्रवृत्ति सहानुभूति की परिस्थितियों में ही विकसित होती है। सहानुभूति पूर्ण व्यवहार में भी आयु तथा परिपक्वता के साथ-साथ भिन्नता पाई जाती है। 

 (7)प्रतिस्पर्धा – बालक में प्रतिस्पर्धा का विकास सामाजिक विकास के कारण होता है। अपने आगे बढ़ने में व्यक्ति सदा ही लगा रहता है। उसे अपने प्रतिद्वन्दियों से स्पर्धा करनी पड़ती है।

 (8)सहयोग – सहयोग सामाजिक विकास तथा समायोजन का मूल है। सहयोग की भावना के विकास से ही व्यक्ति में मित्र-शत्रु भाव उत्पन्न होता है। दोनों ही बालक के सामाजिक पक्ष को विकसित करने में सहयोग देते है। 
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक :- सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में से अधिक महत्वपूर्ण अधोलिखित है - 

 1. वंशानुक्रम – बालक के सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का कुछ सीमा तक प्रभाव पड़ता है। शिशु की पहली मुस्कान या उनका कोई विशिष्ट व्यवहार वंशानुक्रम से उत्पन्न होने वाला हो सकता है। 

 2. शारीरिक व मानसिक विकास – स्वस्थ और अधिक विकसित मस्तिष्क वाले बालक का सामाजिक विकास अस्वस्थ और कम विकसित मस्तिष्क वाले बालक की अपेक्षा अधिक होता है। 

 3. संवेगात्मक विकास – बालक के सामाजिक विकास का एक महत्वपूर्ण आधार उसका संवेगात्मक विकास है। क्रोध व ईर्ष्या करने वाला बालक दूसरे की घृणा का पात्र बन जाता है। उसके विपरीत प्रेम और विनोद से परिपूर्ण बालक सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। संवेगात्मक और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते है।

4. परिवार – परिवार ही स्थान है, जहाँ सबसे पहले बालक का समाजीकरण होता है परिवार के बड़े लोगों का जैसा आचरण और व्यवहार होता है, बालक वैसा ही आचरण और व्यवहार करने का प्रयत्न करता है। 

 5. पालन पोषण की विधि - माता-पिता द्वारा बालक के पालन-पोषण की विधि उसके सामाजिक विकास पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है, उदाहरणार्थ, समानता के आधार पर पाला जाने वाला बालक कहीं भी अपनी हीनता का अनुभव नहीं करता है और बहुत लाड़ प्यार से पाला जाने वाला बालक दूसरे बालकों से दूर रहना पसंद करता है। 

6. आर्थिक स्थिति - माता-पिता की आर्थिक स्थिति का बालक के सामाजिक विकास पर उचित या अनुचित प्रभाव पड़ता है, उदाहराणार्थ धनी माता-पिता का बालक पड़ोस में रहते हैं, अच्छे व्यक्तियों से मिलते जुलते हैं और अच्छे विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। निर्धन माता-पिता की सन्तान होने के कारण उनकी सन्तानों को इस प्रकार की किसी भी सुविधा के कभी दर्शन नहीं होते हैं। 

 7. सामाजिक व्यवस्था - सामाजिक व्यवस्था, बालक के सामाजिक विकास को एक निश्चित रूप और दिशा प्रदान करती है, समाज कार्य, आदर्श और प्रतिमान बालक के दृष्टिकोणों का निर्माण करते है। यही कारण है कि ग्राम और नगर, जनतंत्र और अधिनायकतंत्र में बालक का सामाजिक विकास विभिन्न प्रकार से होता है। 

 8. विद्यालय – यदि विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय है, तो बालक का सामाजिक विकास अविराम गति से उत्तम रूप ग्रहण करता चला जाता है। इसके विपरीत, यदि विद्यालय का वातावरण एकतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार दण्ड और दमन पर आधारित है तो बालक का समाजिक विकास कुण्ठित हो जाता है। 

 9. शिक्षक – बालक के सामाजिक विकास पर शिक्षक का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है यदि शिक्षक शिष्ट शांत और सहयोगी है, तो उसके छात्र भी उसी के समान व्यवहार करते हैं। योग्य शिक्षकों का सम्पर्क बालक के सामाजिक विकास पर निश्चित प्रभाव डालता है। वास्तविक सामाजिक ग्रहणशीलता और योग्यता वाले शिक्षकों से दैनिक सम्पर्क, बालक के सामाजिक विकास में अतिशय योग देता है। 

 10. खेल कूद – बालक के सामाजिक विकास में खेलकूद का विशेष स्थान है। खेल द्वारा ही वह अपनी सामाजिक प्रवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार का प्रदर्शन करता है, खेल द्वारा ही उसमें उन सामाजिक गुणों का विकास होता है। 

 11. समूह या टोली – समूह या टोली के सदस्य के रूप में बालक इतना व्यवहार-कुशल हो जाता है कि समाज में प्रवेश करने के बाद उसे किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं होता है। समूह के प्रभावों के कारण बालक सामाजिक व्यवहार का ऐसा महत्वपूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त करता है जैसा प्रौढ़ समाज द्वारा निर्धारित की गई दशाओं में उतनी सफलता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 

 12. अन्य कारण – बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले अन्य महत्वपूर्ण कारक है - संस्कृति, कैम्प – जीवन, रेडियो,सिनेमा, समाचार पत्र तथा पत्रिकायें।

पाठ्यगत प्रश्न -
प्र. 5 बालक का सामाजिक विकास किन बिन्दुओं पर आधारित होता है? । 
प्र.6 बालक की सामाजिक विकास किन-किन कारकों से प्रमाडित होता है? नाम लिखें


संवेगात्मक विकास- संवेगात्मक विकास मानव जीवन के विकास तथा उन्नति हेतु अपना विशेष महत्व रखते हैं यह विकास मानव जीवनको प्रभावित करता है। संवेग अंग्रेजी शब्द इमोशन का पर्यायवाची हैं इसका लैटिन स्वरूप इमोवियर है, जिसका अर्थ है हिला देना, उत्तेजित करना। जब भी संवेग की स्थिति आती है, व्यक्ति में बैचेनी आ जाती है। वह कुछ भी असामान्य व्यवहार प्रकट कर सकता है, हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, ऑखों से आंसू बह सकते हैं, चेहरे पर मलीनता छा सकती है, अचेतन में व्याप्त अनेक सुप्त व्यवहार जागृत हो जाते हैं।
 बोरिंग लैगफील्ड एवं फील्ड - "संवेग प्रभावशाली अनुक्रिया के समान होता है। यह शरीर की सामान्य एवं शारीरिक प्रतिक्रियाओं के रूप में व्यक्त होता है।" संवेग मानव व्यवहार का असामान्य अंग है। ये हर प्राणी में पाये जाते हैं। बाल जीवन के प्रमुख संवेग इस प्रकार है- हर्ष, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध, उत्सुकता इत्यादि । इनमें हर्ष, प्रेम, ईर्ष्या, भय, क्रोध, घृणा अवांछनीय संवेग है। यह अवांछनीय संवेग शरीर पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं। संवेग उत्पन्न होने की स्थिति में बाहय व आन्तरिक रूप से शरीर में परिवर्तन होते हैं जो संवेग की दशा प्रदर्शित करते हैं।

संवेग की दो दशायें होती है - आन्तरिक तथा बाह्य । इन दोनो का संबंध शरीर की भिन्न क्रियाओं में परिवर्तन करने से होता है। 

(i) बाह्य शारीरिक परिवर्तन – इन परिवर्तनों के अंतर्गत (चेहरे की मुद्रा का बदलना, हास्य, रूदन, प्रेम आदि के भाव, स्वर में परिवर्तन, शरीर के आसनों में परिवर्तन जैसे- हाथ पैर फेंकना आदि आते हैं। संवेगों की दशायें व्यक्ति की शारीरिक प्रकृति पर निर्भर करती है। 

(ii) आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन - इन परिवर्तनों के अंतर्गत श्वांस, नाड़ी, हृदय तथा रक्त की गति में परिवर्तन हो जाता है। रक्त की रासायनिक क्रिया बदल जाती है। पाचन-क्रिया गडबड़ा जाती है। ग्रन्थियों तथा त्वचा की प्रतिक्रिया बदल जाती है। मानव जीवन में संवेगों का अत्याधिक महत्व है। यदि संवेगों का विकास संतुलित रूप में नहीं होता है तो व्यक्ति का सम्पर्ण व्यक्तित्व विघटित हो जाता है। अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो जाती है। संवेगों से ही व्यक्ति में निर्माण तथा ध्वंस की भावनायें उत्पन्न होती है। किशोर किशोरियां अपनी आकृति के प्रति चैतन्य रहते हैं। इसके लिए वे समय पर क्रोध ईर्ष्या तथा प्रतिस्पर्धा और उच्च संवेगों का खुलकर प्रयोग करते हैं। संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है - 

i) थकान - अधिक थकान बालक के संवेगात्क व्यवहार को प्रभावित करती है। जब बालक थका हुआ होता है, तब उसमें क्रोध या चिड़चिडेपन के समान अवांछनीय संवेगात्क व्यवहार की प्रवृत्ति होती है। 

ii) स्वास्थ्य – बालक के स्वास्थ्य की दशा का उसकी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं से घनिष्ठ संबंध होता है। अच्छे स्वास्थ्य वाले बालकों की अपेक्षा बहुत बीमार रहने वाले बालकों के संवेगात्मक व्यवहार में अधिक अस्थिरता रहती है। 

iii) मानसिक योग्यता - अधिक मानसिक योग्यता वाले बालकों का संवेगात्मक विकास अधिक विस्तृत होता है। वे भविष्य के सुखों और दुःखों, भयों और अपत्तियों को अनुभव कर सकते हैं। साधारणतया निम्नतर मानसिक स्तरों केबालकों में उसी आयु के प्रतिभाशाली बालकों की अपेक्षा संवेगात्मक नियंत्रण कम होता है। 

iv) अभिलाषा – माता-पिता को अपने बालक से बड़ी आशायें होती है स्वयं बालक में कोई न कोई अभिलाषा होती है। यदि उसकी अभिलाषा पूर्ण नही होती है, तो वह निराशा के सागर में डुबकियाँ लगाने लगता है। साथ ही उसे अपने माता-पिता की कटु आलोचना सुननी पड़ती है। ऐसी स्थिती में उसमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है। कोई भी बात जो बालक के आत्मविश्वास को कम करती है, उसके द्वारा समझे जाने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसकी चिन्तित और भयभीत रहने की प्रवृत्ति में वृद्धि कर सकती है। 

v) परिवार – बालक का परिवार उसके संवेगात्मक विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है : 1) यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेगात्मक होते हैं, तो बालक भी उसी प्रकार का हो जाता है। 2) यदि परिवार मे शांति, सुरक्षाऔर आनन्द के कारण उत्तेजना उत्पन्न नही करती है, तो बालक के संवेगात्मक विकास का रूप संतुलित होता है। 
 3) यदि परिवार में लड़ाई झगड़े होना, मिलने जुलने वालो का बहुत आना और मनोरंजन का कार्यक्रम बनते रहना साधारण घटनाये है तो बालक के संवेगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है। 

vi) माता-पिता का दृष्टिकोण – बालक के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है। बच्चों की उपेक्षा करना, बहुत समय तक घर से बाहर रहना, बच्चों के बारे में आवश्यकता से अधिक चिन्तित रहना, बच्चों को अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी कार्य करने की आज्ञा न देना और बच्चों कोघर के सब सदस्यों के प्रेम का पात्र बनाना, माता-पिता की ये सब बातें बच्चों में अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार को बढ़ाती हैं।

vii) सामाजिक स्थिति – बालकों की सामाजिक स्थिति उनके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। सामाजिक स्थिति और संवेगात्मक स्थिरता में घनिष्ठ संबंध होता है। निम्न सामाजिक स्थिति के बालकों में उच्च सामाजिक स्थिति के बालकों की अपेक्षा असंतुलन और अधिक संवगात्मक अस्थिरता होती है। 

viii) सामाजिक स्वीकृति – यदि बालक को अपने कार्यो की सामाजिक स्वीकृति नही मिलती है, तो उसके संवेगात्मक व्यवहार में उग्रता या शिथिलता आ जाती है। 

ix) निर्धनता - निर्धनता बालक के अनेक अशोभनीय संवेगों को स्थायी और शक्तिशाली रूप प्रदान कर देती है। वह विद्यालय में धनी, बालकों की वेश-भूषा देखता है, उनके आनन्दपूर्ण जीवन की कहानियाँ सुनता है, फलस्वरूप,उसमें द्वेष और ईर्ष्या के संवेग सशक्त रूपधारण करके उस पर अपना सतत् अधिकार स्थापित कर सकता है। 

x) विद्यालय - विद्यालय का बालक के संवेगात्मक विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। यदि विद्यालय में कार्यक्रम उसके संवेगों के अनुकूल होते हैं, तो उसे उनमें आनन्द का अनुभव होता है। इसके विपरीत, यदि उसे विद्यालय के कार्यक्रमों में असफल होने या अपने दोषों के प्रकटीकरण का भय होता है, उसमें घृणा, क्रोध और चिडचिड़ापन का स्थायी निवास हो जाता है। 

xi) शिक्षक – शिक्षक का बालक के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। वह उसमें अच्छी आदतों का निर्माण करके और अच्छे आदर्शो का अनुसरण करने की इच्छा उत्पन्न करके, अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने की क्षमता का विकास कर सकता है। 

xii) अन्य कारक - बालक के संवेगात्मक विकास पर अवांछनीय प्रभाव डालने वाले कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारक हैं – अत्यधिक कार्य, कार्य में अनावश्यक बाधा और अपमानजनक व्यवहार।

 पाठ्यगत प्रश्न -
प्र.7 संवेग से आप क्या समझते हैं ?
प्र.8 संवेगात्मक विकास का बालक के विकास में क्या महत्व है? 


 भाषा विकास -
भाषा का विकास बौद्धिक विकास की सर्वाधिक उत्तम कसौटी मानी जाती है बच्चे को सर्वप्रथम भाषा का ज्ञान परिवार से होता है। तत्पश्चात् विद्यालय तथा समाज के सम्पर्क में आने पर उनका भाषायी ज्ञान बढ़ता है।जन्म के समय शिशु क्रन्दन करता है। यही उसकी पहली भाषा होती है। 25 सप्ताह का शिशु जिस प्रकार ध्वनियॉ निकालता है, उसमें स्वरों की संख्या अधिक होती है। 10 मास की अवस्था में शिशु पहला शब्द बोलता है, जिसे वह बार-बार दोहराता है। एक वर्ष तक शिशु की भाषा समझना कठिन होता है। छोटे शिशु पानी की लिये 'मम' कहते है। शैशावस्था में भाषा विकास जिस ढंग से होता है, उस पर परिवार की संस्कृति तथा सभ्यता का प्रभाव पड़ता है।जन्म से 8 मास तक शब्दों की संख्या शून्य होती है। 6 वर्ष पूर्ण होते होते उसके शब्दों की संख्या लगभग 2500 के करीब हो जाती है।शिशु की भाषा पर उसकी बुद्धि तथा विद्यालय का वातावरण भी अपनी भूमिका प्रस्तुत करते हैं। एनास्ट्सी ने कहा कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का भाषा-विकास शैशवकाल में अधिक होता है।आयु के साथ-साथ बालकों के सीखने की गति में भी वृद्धि होती है। बाल्यकाल में बालक, शब्द से लेकर वाक्य विन्यास तक की सभी क्रियाएँ सीख लेता है। लड़कियों की भाषा का विकास लड़कों की अपेक्षा अधिक तेजी से होती है। सीशोर ने अपने अध्ययन में बताया कि बालक में भाषा का विकास आयु के अनुसार किस प्रकार विकसित होता है।

 सारणी :- सीशोर के अनुसार भाषा विकास 

आयु (वर्ष में)                 शब्द    

       4                             5,600
       5                             9,600
       6                             14,700
       7                             21,200
       8                             26,300
      10                            34,300 


 भाषा के विकास में समुदाय, घर, विद्यालय, परिवार की आर्थिक, सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव अत्याधिक 
पड़ता है। वस्तुओं को देखकर उसका प्रत्यय – ज्ञान – स्थूल से सूक्ष्म की ओर विकसित होता है। उसी प्रकार ज्ञान 
भी मूर्त से अमूर्त की ओर होता है।किशोरावस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तनों से जो संवेग उत्पन्न होते हैं, भाषा का विकास भी उनसे प्रभावित होता है। किशोरों में साहित्य पढ़ने की रूचि उत्पन्न हो जाती है। उनमें कल्पना शक्ति का विकास होने से वे कवि, कहानीकार, चित्रकार बनकर कविता, कहानी तथा चित्र के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते है।किशोरवस्था में लिखे प्रेम-पत्रों की भाषा में भावुकता मिश्रण होने से भाषा–सौन्दर्य प्रस्फुटिक होता है।किशारों का शब्दकोष भी विस्तृत होता जाता है। किशोर कई बार गुप्त भाषा को भी विकसित करते हैं। यह भाषा कुछ प्रतीकों के माध्यम से लिखी जाती है। भाषा के माध्यम से किशोर की संकल्पनाओं का विकास होता है। ये संकल्पनायें उसके जीवन की तैयारी का प्रतीक होती है।भाषा के विकास का चिन्तन पर भी प्रभाव पड़ता है। किशोरावस्था तक व्यक्ति जीवन में भाषा का प्रयोग किस प्रकार किया जाये, कैसे किया जावे,, आदि रहस्यों को जान लेता है।

 भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक -

 1) स्वास्थ्य – लम्बी बीमारी के कारण बालक भाषा विकास में पिछड़ जाता है, इसका कारण है – भाषा की सम्पर्कजन्यता। बीमारी के दौरान बालक समाज के सम्पर्क में कम रहता है, अतः इस स्थिति का प्रभाव बालक के भाषा के विकास पर पड़ना स्वाभाविक है। कम सनुने वाले बालकों का भाषा विकास अवरूद्ध हो जाता है।ऐसे बालकों का शब्द भण्डार भी कम होता है। इसका कारण है- बालक भाषा को अनुकरण के माध्यम से सीखता है। स्वास्थ्य के ठीक न होने के कारण उसे अनुकरण के अवसर नहीं मिलते। 

 2) बुद्धि – बुद्धि तथा भाषा का गहरा संबंध होता है। भाषा के स्तर से ही बुद्धि के स्तर का पता चलता है। भाषा विकास तथा बुद्धि-लब्धि का घनिष्ठ संबंध होता है। चूंकि आरंभिक अवस्था में भाषा विकास बुद्धि का धोतक है, इसलिए अभिभावकों का दायित्व और भी बढ़ जाता है। 

 3) हकलाना – हकलाना वाणी दोष है। हकलाना मानसिक अवस्था के कारण होता है। बालक जब स्वभाविक रूप से शब्दोच्चारण पर जोर नहीं देता, तब उच्चारण संबंधी तन्त्र को अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। फेफडों में हवा नहीं रहती, ऐसी स्थिति में उच्चारण में दोष उत्पन्न होता है। 

 4) सामाजिक आर्थिक स्तर – व्यापारी वर्ग, श्रमिक वर्ग तथा बुद्धीजीवी वर्ग के बच्चों की भाषा का अध्ययन करके यह परिणाम निकाला गया है कि भिन्न वर्गों के बालकों की शब्दावली वाक्य-विन्यास आदि में भिन्नता पाई जाती है। उच्च वर्ग के बालकों के आपसी संबंध भी उसी प्रकार के लोगों से रहते हैं और वे सुसंस्कृत शब्दावली युक्त लोक-व्यवहार की भाषा बोलते हैं। जहाँ पर परिवारों का सामाजिक आर्थिक स्तर नीचा होता है, वहाँ पर बालकों की भाषा का विकास द्रुत नहीं होता। 

 5) यौंन - लड़कियाँ, लड़कों की अपेक्षा शीघ्र ही ध्वनि संकेत ग्रहण करती हैं। लड़कियों का संबंध तथा समाजीकरण माता से अधिक होता है। अतः उसी संपर्क से लड़कियों की भाषा में अन्तर आने लगता है। वाणी दोष लड़कियों की अपेक्षा लड़कों में अधिक पाये जाते हैं। इसका कारण लड़कों में संवेगात्मक असुरक्षा बताया है। 

 6) पारिवारिक सम्बन्ध – अनाथालयों, छात्रावासों तथा परिवारों में पले बच्चों के अध्ययन से पता चला कि भाषा सीखने तथा प्रभावित करने में पारिवारिक सम्बन्धों का विशेष महत्व है। संस्थाओं के बच्चों का संवेगात्मक सम्पर्क परिवार के सदस्यों से नहीं हो पाता, इसलिए वे भाषा सीखने में देरी लगाते हैं। 

 7) एकाधिक भाषा – जब कभी बालक को मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा सीखनी पड़ती है तो वह उसे सरलता से नहीं सीख पाता। विभाषा सीखने के समय उसका सामान्य भाषा विकास विलम्बित हो जाता है। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने वाले बालकों की भाषा में अस्पष्टता, चिन्तन में अवरोध और प्रत्ययों में असमानता पाई जाती है।

 पाठ्यगत प्रश्न - 
प्र 1 बालक में भाषा विकास के मुख्य आधार कौन से हैं ? 
प्र 2 भाषा विकास के प्रभावक तत्वों की विवेचना करें ?

 मूल्य परक विकास

बालक अपने वातावरण में कई व्यक्तियों एवं वस्तुओं से घिरा रहता है। विकास क्रम से वह धीरे-धीरे इनके सम्पर्क में आने लगता है। तथा इनसे संबंध स्थापित करने लगता है। इन संबंधों के कारण वह सुख-दुख का अनुभव करने लगता है। फलस्वरूप वातावरण में उपस्थित शक्तियों तथा विभिन्न वस्तुओं के प्रति इसके भीतर मनोवृत्तियों का निर्माण होने लगता है। जब बालक कुछ बडा हो जाता है, तब अपने परिवार, समुदाय एवं समाज के द्वारा अपनायी हुई नैतिक भावनाओं, आदर्शों या मूल्यों को भी ग्रहण करने लगता है यह प्रक्रिया एक क्रमिक प्रक्रिया होती है तथा इस दौरान बालक को यह चेतना भी नहीं रहती है कि वह सामाजिक आदर्शों को सीख रहा है। धीरे-धीरे बालक का अधिकांश व्यवहार उसके परिवार, विद्यालय एवं समुदाय द्वारा स्वीकृत नैतिक मूल्यों के नियंत्रण में आ जाता है। सामाजिक नैतिक मूल्यों को अपना कर ही बालक अपने परिवार अथवा समुदाय की वास्तविक सदस्यता प्राप्त कर पाता है।मूल्य, व्यक्ति की वह नैतिक शक्ति है, जिसकी मदद से वह अच्छे बुरे एवं उचित-अनुचित में अन्तर समझ पाता है।
बालक आपने जीवन प्रसार में जिस परिवार, पाठशाला तथा समाज का सदस्य बनता है उनके कुछ विशेष सामाजिक और नैतिक मूल्य एवं आदर्श होते है। बालक को इन सामाजिक मानों के अनुरूप बनना पडता है तथा उन्हीं के द्वारा निर्देशित आचरण करने पड़ते हैं। अतः सामाजिक तथा नैतिक मूल्य बालक के सम्पूर्ण आचरण के 
निर्धारक माने जाते हैं एवं उनका उसके व्यवहार पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न तरह के मूल्य विकसित होते हैं। यही नहीं एक ही बालक के परिवार एवं उसके समुदाय के मूल्यों में भी अन्तर पाया जाता है।मनोवैज्ञानिकों ने बालक के नैतिक विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाऐं निर्धारित की है। फिर भी एक ही आयु के बालकों में नैतिक विकास में भिन्नता देखी जाती है। 
नवजात शिशु – नवजात शिशु में नैतिकता संबंधी भावना अविकसित होती है। 
प्रथम तीन वर्ष – प्रांरभिक वर्षों में बालक आत्मकेन्द्रित होता है। उसका प्रयोग व्यवहार संवेगजनक होता है। वह नैतिकता को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। 
 तीन से छः वर्ष की आयु - इस आयु में नैतिकता का पूरा पूरा विकास नहीं होता है। उसका व्यवहार अब भी प्रौढ़ व्यक्तियों की प्रशंसा तथा निन्दा पर निर्भर करता है। बालक अभी 'झूठ' तथा सच की पहचान नहीं कर सकता। छ: वर्ष की आयु में बालक में ध्वंसात्मक प्रवृत्ति जोर पकड़ लेती है। इस अवस्था के बालक प्राथमिक पाठशाला के छात्र होते हैं। उनके व्यवहार में अभी भी संवेगात्मकता का पर्याप्त अंश रहता है। नौ से बारह वर्ष की आयु में वह अच्छाई तथा बुराई को समझने लगता है। किशोरावस्था से पहले बालक नैतिक विकास की दृष्टि से अभी भी अपरिपक्व होता है।प्रौढ़ों के उपदेशों की बजाय वह उनके व्यावहारिक जीवन से ज्यादा प्रभावित होता है।

 मूल्य परक विकास को प्रभावित करने वाले कारक -व्यक्ति की नैतिकता का आधार "आध्यात्मिक" है, यह अविकसित दशा में बालक में विद्यमान रहती हैं। बालक के विकास को प्रभावित करने वाले तत्व –

1. परिवार – बालक के नैतिक विकास में परिवार का वातावरण, अपने से बड़ों का उदाहरण तथा माता-पिता के संस्कारों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। चरित्र की कुछ विशेषताएँ बालक में जन्म से ही छिपी रहती हैं। रूप-गुण के अनुरूप अपने माता पिता से चरित्र की विशेषताओं की छाप उस पर अवश्य पड़ती है। 

जिस परिवार में माता पिता में परस्पर सहयोग और प्रेम रहता है, वहाँ अन्य बालक-बालिकाएं भी सहयोग और स्नेह से रहते है। जिस घर में शान्ति और व्यवस्था हे, वहाँ बालक के चरित्र का विकास सहज रूप में होता है। 

 2. विद्यालय - परिवार से बाहर बालक के चरित्र-विकास में जितना प्रभाव विद्यालय का पड़ता है, उतना प्रभाव किसी और संस्था का नहीं पड़ता। बालक 5-6 वर्ष की आयु से ही पाठशाला जाने लगता है। वहाँ वह बड़े समूह में कई घण्टों के लिये निरन्तर कई वर्ष तक रहता है। खेल के द्वारा, अनुशासन के द्वारा तथा सामूहिक प्रयोजनाओं के द्वारा बालक में एक आदर्श नागरिक के गुणों का विकास किया जाता है। अध्यापक निरन्तर बालकों के व्यवहार का निरीक्षण करते हैं और उसकी चरित्र सम्बन्धी त्रुटियों को सुधारने का प्रयास करते हैं। अध्यापक प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से ही बालक के चरित्र पर अपना प्रभाव डालता है। बालक में अनुकरण की प्रवृत्ति होती है। अध्यापक उसके सामने एक आदर्श होता है। 

 3. मित्रमण्डली – बालक बहुत समय अपने मित्रों के साथ बिताता हैं उसके चरित्र पर मित्रों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता हैं यदि बालक के मित्र अच्छे होंगे तो वह चरित्रवान बनेगा परन्तु बुरे बालकों की संगति में उसका चरित्र दूषित हो जाता है। अतएव् माता-पिता को चाहिए कि वे बालकों को अच्छे संगी-साथियों के साथ खेलने के लिये प्रोत्साहन दें। 

 4. धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएँ – भारत एक धर्म-प्रधान राष्ट्र है। अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा यहाँ धार्मिक गतिविधियों की संख्या बहुत अधिक है। आर्य समाज, सनातन धर्म, ब्रह्म समाज, राधास्वामी सत्संग, गुरूद्वारा समिति, वेदान्त समिति जैसी कई धार्मिक संस्थाएँ अपने-अपने तरीके से धर्म-प्रचार का कार्य कर रही हैं। परिवार का सम्बन्ध जिस भी धार्मिक संस्था से होगा, उसके बच्चों पर उसका प्रभाव अच्छा पड़ेगा। 

 5. साहित्य – बालक के चारित्रिक विकास में साहित्य बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता हैं बालक को कहानियाँ बड़ी अच्छी लगती हैं। अच्छी कहानियाँ बालक में उदारता, दया, त्याग, परोपकार तथा देशभक्ति की भावना भर सकती है। सभी देशों में आज बहुत-सी कहानियाँ उपलब्ध हैं जिसे बालक को सदाचारी बनाया जा सकता है जो बालक के चरित्र को ऊँचा उठा सकती है। 

 6. इतिहास – चरित्र-गठन में इतिहस के अध्ययन का बड़ा महत्व हैं। माता जीजाबाई ने शिवाजी को बाल्यावस्था में रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुना-सुनाकर वीर बना दिया। अध्यापकों को चाहिए कि वे भारतीय इतिहास के प्रमुख वीर पुरूषों की गाथाएँ स्मरण रखें और समय-समय पर बालकों को सुनाया करें। व्यक्ति हमेशा अपने से बड़े का अनुकरण करने को तत्पर रहता है। यदि उसके सम्मुख कोई सुयोग्य आदर्श रखा जायेगा तो वह उस आदर्श को प्राप्त करने की चेष्टा अवश्य करेगा। 

 7. चलचित्र - चलचित्र का सम्बन्ध हमारी नेत्रेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय – दोनों से है, अतएव् इसका प्रभाव बहुत अधिक है। लड़के प्रधान नायक के रहन-सहन, वेशभूषा तथा खान-पान की नकल करते हैं। इसी प्रकार लड़कियां हर बात में प्रधान नायिका के आचरण का अनुकरण करती हैं। इस दृष्टि से यदि चलचित्र के आदर्श गुणों का चित्रण रहेगा तो दर्शक आदर्श की बातें सीखेंगे।बाल-चित्रों के निर्माण में अभी उपेक्षा बरती जा रही है। सरकार कोइ इस ओर सचेष्ट होना होगा। जहाँ अश्लील तथा यौन भावनाओं को उभारने वाले चित्रों पर प्रतिबंध लगाया जाये वहाँ अच्छे चित्रों के निर्माण की ओर भी समुचित ध्यान दे, जिन्हें प्रत्येक बालक देख सकें। 

 8. दूरदर्शन - दूरदर्शन भी चलचित्र के समान हमारी नेत्रेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय दोनों को प्रभावित करता है। चलचित्र को देखने के लिए छविगृह में जाना होता है परन्तु दूरदर्शन तो घर में ही देखा जा सकता है, अतः इसका प्रभाव चलचित्र से कहीं अधिक होता है।
दूरदर्शन शिक्षा तथा सामाजिक चेतना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। खेलों का दृश्य विवरण, संगीत तथा नृत्य के कार्यक्रम, विज्ञान-सम्बन्धी कार्यक्रम, भारतीय स्वतंत्रता का संग्राम जैसे कार्यक्रम इस दिशा में बड़े उपयोगी हैं।

 पाठ्यगत प्रश्न -
प्र. 11 मूल्य परक विकास से आप क्या समझते हैं ? 
प्र. 12 मूल्य परक विकास किस प्रकार प्रभावित हैं ?

 इकाई सारांश - 
• किसी भी प्राणी के विकास की प्रक्रिया का आरंभ गर्भाधान के बाद ही प्रांरभ हो जाता है। जो कि जीवन पर्यन्त चलता रहता है। यह एक सार्वभौमिक है। 
• विकास केवल शारीरिक वृद्धि को ही नहीं बताता वरन् प्राणी में होने वाले सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक संवेगात्मक विकास भी सम्मिलित होते हैं। इसके अतिरिक्त भाषायी एवं मूल्य परक विकास भी इसी प्रक्रिया का अंग है। 
• विकास की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तन समान नहीं होते हैं भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। 
• प्रारंभिक अवस्था में विकास की गति तेज होती है। बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में और भी तेज हो जाती है, किन्तु किशोरावस्था के बाद मन्द हो जाती है।
• विकास को परिवर्तनों की श्रृंखला कहा जाता है। इन परिवर्तनों में कोई न कोई क्रम अवश्य होता है आगे होने 
वाला परिवर्तन पूर्व परिवर्तन पर आधारित होता है। 
• बालक के शारीरिक विकास के अन्तर्गत भार, लम्बाई, सिर, हड्डियों, दांत आदि का विकास होता है और यह विकास वंशानुक्रम, वातावरण, भोजन, दिनचर्या, विश्राम, प्रेम सुरक्षा एवं खेल जैसे तत्वों से प्रभावित होते हैं। 
• शारीरिक विकास के अतिरिक्त मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया भी साथ साथ लती है। यह सभी बालकों में भिन्न होती है। 
• भाषीय एवं मूल्यपरक विकास विभिन्न अवस्थाओं के साथ बालक में दिखाई देते हैं। प्रत्येक अवस्था में
विकास दूसरे से भिन्न होता है। 

आत्म परीक्षण प्रश्न -
प्र 1 विकास से आप क्या समझते हैं ? 
प्र 2 प्राणी के जीवन में विकास का क्या महत्व है ? 
प्र 3 विकास अवस्थानुसार होता है टिप्पणी कीजिए। 
प्र 4 शारीरिक विकास में वंशानुक्रम एवं वातावरण किस प्रकार प्रभाव डालता है ? लिखिए। 
प्र 5 शैश्वावस्था में हड्डियों का विकास किस प्रकार होता है ? 
प्र 6 सामाजिक विकास में विद्यालय तथा शिक्षक का क्या योगदान है ? 
प्र 7 विभिन्न अवस्थाओं में भाषीय विकास पर प्रभाव डालिए। 
प्र 8 नैतिक या मूल्यपरक विकास को कौन-कौन से तत्व प्रभावित करते हैं ?


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