भाषा भावों और विचारों को व्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन है। हम भावों व विचारों को बोलकर या लिखकर व्यक्त करते हैं। इस प्रकार भाषा के दो रूप हमारे सामने आते हैं -
(1 ) उच्चरित रूप
(2 ) लिखित रूप
उच्चरित रूप ही भाषा का मूल रूप होता है,तथा लिखित रूप गौण एवं आश्रित। भाषा का उच्चरित रूप मुपरूप होने के बावजूद भी क्षणिक होताहै क्यों की बोलकर दिया गया सन्देश सामने उपस्थित लोगों तक ही सीमित रहता है। वह बोले जाने के कुछ क्षणों पश्चात ही नष्ट हो जाता है।
जबकि लिखित रूप में दिया गया सन्देश समय की सीमाओं को लांघकर स्थायी रूप धारण कर लेता है। यह भावी पीढ़ियों के लिए उपलब्ध रहता है। लिखित रूप को स्थायी एवं व्यापक बनाने के लिए लेखन व्यवस्था की आवश्यकता होती है लेखन व्यवस्था के अंतर्गत भाषा एक रूप बानी रहे, यह अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए लिपि चिन्हों, उनके संयोजन, शब्द की वर्तिनी और विराम चिन्ह आदि की जरुरत पड़ती है। यह भाषा के लिखित रूप को स्थायी रखते हैं। चाहे व्यव्हार में थोड़ा-बहुत बदलाव ही क्यों न आ जाये।
(1 ) उच्चरित रूप
(2 ) लिखित रूप
उच्चरित रूप ही भाषा का मूल रूप होता है,तथा लिखित रूप गौण एवं आश्रित। भाषा का उच्चरित रूप मुपरूप होने के बावजूद भी क्षणिक होताहै क्यों की बोलकर दिया गया सन्देश सामने उपस्थित लोगों तक ही सीमित रहता है। वह बोले जाने के कुछ क्षणों पश्चात ही नष्ट हो जाता है।
जबकि लिखित रूप में दिया गया सन्देश समय की सीमाओं को लांघकर स्थायी रूप धारण कर लेता है। यह भावी पीढ़ियों के लिए उपलब्ध रहता है। लिखित रूप को स्थायी एवं व्यापक बनाने के लिए लेखन व्यवस्था की आवश्यकता होती है लेखन व्यवस्था के अंतर्गत भाषा एक रूप बानी रहे, यह अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए लिपि चिन्हों, उनके संयोजन, शब्द की वर्तिनी और विराम चिन्ह आदि की जरुरत पड़ती है। यह भाषा के लिखित रूप को स्थायी रखते हैं। चाहे व्यव्हार में थोड़ा-बहुत बदलाव ही क्यों न आ जाये।
वर्तिनी
वर्तिनी शब्द का शाब्दिक अर्थ है पीछे-पीछे चलना। लेखन व्यवस्था में वर्तिनी शब्द स्टार पर शब्द की ध्वनियों का अनुवर्तन करती है। वर्तिनी ही लिपि-चिन्हों के रूप और उनके संयोजन को निर्धारित करती है।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में हिंदी गद्य के प्रयोग के साथ ही लेखकों और सम्पादकों ने स्थानीय परम्पराओं और रूढ़ियों के अनूरूप शब्दों की वर्तनियों को अपनाया जिससे वर्तिनी में अनेकरूपता दिखाई देने लगी। इस अनेकरूपता को समाप्त करने के लिए तथा भाषा के लिखित रूप को समरूपता प्रदान करने के लिए कुछ कदम उठाये गए। ये कदम इस प्रकार हैं-
संयुक्त वर्ण/ संयुक्ताक्षर (Conjuct Letters ) - जब दो या दो से अधिक व्यंजनों के बीच में कोई स्वर न हो और वे परस्पर मिल जाएँ, तब वे संयुक्त वर्ण कहलाते हैं। जैसे - क्लेश, सत्य, वर्ग, रत्न, स्वर्ग।
हिंदी वर्णमाला में तीन संयुक्त वर्ण सर्वाधिक प्रयोग किये जाते हैं। ये वर्ण हैं -
क्ष - क् + ष (क्षण, क्षेत्र, क्षेपक, क्षमा )
त्र - त् + र (त्रेता, त्रिफला, त्रिभुज, त्रिगुण )
ज्ञ - ज् + ञ ( ज्ञात, ज्ञापन, यज्ञ )
द्वित्व ( Double Letters ) - एक जैसे दो व्यंजनों के मेल को द्वित्व कहते हैं। जैसे - गन्ना, पत्ता, पक्का, बच्चा, कट्टर, धक्का, चक्का, रस्सी, लट्टू आदि।
व्यंजनों को संयुक्त करने की विधि
व्यंजन दो प्रकार के होते हैं।
(क) पाई वाले व्यंजन ये हैं =
ख ग घ। च ज ञ। त थ ध न। ण।
प ब भ म। य ल व। श ष स।
ये पाई वाले व्यंजन जब स्वररहित होकर किसी दूसरे व्यंजन से मिलते हैं तो इनकी पाई हैट जाती हैं। जैसे =
ख + य = ख्य - ख्याति, विख्यात।
ग + न = ग्न - मग्न, लग्न, भग्न।
घ + न = घ्न - विघ्न, शत्रुघ्न।
च् + छ = च्छ - अच्छा, मच्छर, स्वच्छ।
इसी प्रकार भाग्य, ज्योति, ध्यान, प्यार, न्याय, कल्याण, सञ्जय, घंटा, अभिन्न, प्यास, सभ्य, जल्दी, व्यायाम, निश्चल, स्वर आदि।
अन्य व्यंजन - क और फ के संयुक्ताक्षर
(अ) ङ, ट, ड, द और ह के संयुक्त अक्षर हल् चिन्ह लगाकर ही बनाये जाएँ, जैसे - वाङ्ग्मय, लट्टू, बुड्ढ़ा, आदि।
(ब) र के प्रचलित तीन रूप निम्नलिखित हैं -
प्रकार, धर्म, राष्ट्र।
(स) श्र का प्रचलित रूप ही अपनाया जाना चाहिए तथा त + र के संयुक्त रूप त्र या त्र का प्रयोग किया जाये।
(ब) र के प्रचलित तीन रूप निम्नलिखित हैं -
प्रकार, धर्म, राष्ट्र।
(स) श्र का प्रचलित रूप ही अपनाया जाना चाहिए तथा त + र के संयुक्त रूप त्र या त्र का प्रयोग किया जाये।
(द) तत्सम संयुक्ताक्षर पुराणी शैली में लिखे जा सकते हैं, जैसे - विद्या, विद्वान, बुद्धि आदि।
विभक्ति चिन्ह
(क) विभक्ति- चिन्ह संज्ञा शब्दों से अलग लिखे जाएँ, जैसे- नेताजी ने, जनता को,राज्य की तथा छात्र के द्वारा, स्त्री को, छत पर, दूध में।
सर्वनाम के साथ विभक्ति -चिन्ह मिलकर लिखे जाएँ, जैसे -उसने, उसको, उससे, उसपर, मैंने, मुझसे, उन्होंने, तुमने, आदि।
(ख) यदि सर्वनाम के साथ दो विभक्ति चिन्ह हों, तो पहला मिलकर और दूसरा अलग लिखना चाहिए। जैसे - उसके लिए, उनमें से, इनमें से, सबके द्वारा, उनके लिए।
(ग) यदि सर्वनाम और विभक्ति के बिच में हो, भी, तो, तक, मात्र, भर आदि निपात हो तो विभक्ति को सर्वनाम से अलग लिखना चाहिए। जैसे - आप ही के लिए, मुझ तक को, अपने तक को।
क्रियापद - संयुक्त क्रियाओं में सम्मिलित सभी क्रियाओं को अलग - अलग लिखा जाना चाहिए। जैसे- पढ़ा करता है, जा सकते हो, खेला करता है, कर सकता है, पढ़ा करता था, घूमता फिरेगा, बढ़ते चले जाओ, उठ कर बैठा है।
हाइफन (योजक ) - हाइफन का प्रयोग भाषा में स्पष्टता के लिए किया जाता है। हाइफन का प्रयोग करने के लिए निम्नलिखित नियम बनाये गए हैं -
(क) द्वन्द समास में पदों के मध्य हाइफन (योजक) रखा जाये। जैसे- अंगद-रावण-संवाद, लोटा-डोरी, चल-चलन, उल्टा-सीधा, शिव-पार्वती, दिन-रात, माता-पिता, खाना-पीना, चली-दमन, लम्बा-चौड़ा आदि।
(ख) तुलनवाचक सा, सी, से के पहले हाइफन लगाना चाहिए। जैसे- श्रवण-सा पुत्र, तुम-सा, बाण-से तीखा, पत्थर-सा दिल.
(ग)तत्सम समास में भी हाइफन का प्रयोग उस स्थान पर होना चाहिए जहाँ उसके आभाव भ्रम होने की सम्भावना हो। जैसे - भू-तत्व
अव्यय - तक, साथ, पास, निकट आदि अव्यय सदा अलग लिखने चाहिए। जैसे- आपके साथ, उसके पास, यहाँ तक, तुम्हारे निकट।आप ही के लिए, गज भर कपडा, देश भर, मुझे जाने तो दो, काम भी नहीं बना, मात्रा दस आदमी, आप तक भी।
सम्मानार्थक अव्यय - श्री और जी अव्यय भी पृथक लिखे जाने चाहिए। जैसे- मदनलाल जी, महात्मा जी, श्री चंदूलाल जी आदि।
सम्मानार्थक अव्यय - श्री और जी अव्यय भी पृथक लिखे जाने चाहिए। जैसे- मदनलाल जी, महात्मा जी, श्री चंदूलाल जी आदि।
श्रुतिमूलक य, व
(क) लिखित रूप में जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है, वहाँ पर क्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों में 'ए' का प्रयोग किया जाये। जैसे -उठाये गए, राम के लिए, होना चाहिए, रखे गए सामान की सूचि बनाई जाए।
(ख) जिस स्थत्न पर 'य' श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन होकर शब्द का मूल हो वहाँ पर उसके स्थान पर 'ए' का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं है, जैसे- स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व, स्वास्थ्य, आय, व्यय, मान्य, अत्यधिक।
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