विभीषण : एक सत्य उपासक विद्रोही
विभीषण का साहस समझ सकने की योग्यता हममें अभी तक नहीं आई है इसीलिए हमारे नामों में इंद्रजीत तो कदाचित मिल भी जाएगा पर विभीषण कभी नहीं मिलता है।विभीषण को समझने के लिए सत्य में अदम्य निष्ठा चाहिए।
हजारों वर्षों में जिस पौराणिक चरित्र के साथ हमने सर्वाधिक अन्याय और कपटपूर्ण व्यवहार किया है वो विभीषण है।
हमने अपने स्वार्थ के लिए अपने बड़े भाई को मरवाने वाले सुग्रीव को क्षमा कर दिया।
दशानन रावण तक हमारे देश में पूजनीय हो गया।
महाभारत में ईर्ष्या का प्रतीक कर्ण भी हमारी सहानुभूति का पात्र हो गया जिसने धर्म और सत्य पर दुर्योधन के उपकारों को वरीयता दी और न केवल महाभारत के युद्ध में अधर्म के पक्ष से लड़ा अपितु द्रौपदी के चीरहरण पर विरोध करने के बजाय उछल उछल कर दुश्शासन व दुर्योधन का प्रोत्साहन करता रहा।
शकुनि के लिए सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी भी देखे जा सकते हैं।
किंतु विभीषण को सम्मान देने वाला आजतक कोई नहीं दिखाई दिया सिवाय एक व्यक्ति के, ओशो_रजनीश।
अपने प्रवचनों में ओशो रजनीश ने विभीषण की सत्य निष्ठा की प्रशंसा की है।
यदि कोई देख सके तो देखे कि विभीषण किस स्वार्थ के चलते राम के साथ हुए???
उन्होंने अपने भाई को पतन व सर्वनाश का पथ त्यागने का परामर्श दिया। बार बार अपमानित होने पर भी सत्य को हर संबंध पर वरीयता दी।
उस समय सत्य जानते हुए भी मेघनाद इत्यादि महावीर या तो चुप रहे या विभीषण का उपहास उड़ाने में लगे रहे।
किंतु विभीषण अपनी सत्य निष्ठा पर अटल रहे।
अंततः रावण ने लात मारकर विभीषण को बाहर कर दिया तो विभीषण के लिए अपनी निष्ठा के अतिरिक्त अन्य क्या विकल्प रहा चुनने को???
राम के साथ जितने भी आए उनमें सर्वाधिक सत्यनिष्ठ विभीषण हैं।
हम सत्य की बात करते हैं और उसके पथ पर चलने की बड़ी बड़ी डींगें मारते हैं।
किंतु विभीषण जिस तरह से सत्य के पथ पर चले, हम उसका अनुसरण तो दूर उस कदम को हृदय से सम्मानित भी नहीं कर पाए।
एक सत्य का खोजी क्या होता है???
वो जीवित ही अग्नि में प्रवेश को भी आतुर रहता है। और वो अग्नि सत्य है।
उस अग्नि में उसका सर्वस्व भस्म हो जाता है।
उसका मान, सम्मान, ज्ञान, पहचान, संबंध, अपेक्षाएँ, इच्छाएँ, धारणाएँ, व्यक्तित्व और यहाँ तक कि उसका समग्र अस्तित्व ही सत्य की उस धधकती अग्नि में भस्म हो जाता है।
परंतु, वो कभी पलटकर नहीं देखता। वो किसी को बताता भी नहीं कि उसने कितना महान त्याग किया।
वो बस भस्मशेष रह जाता है।
जो विभीषण ने किया वो आजतक कोई नहीं कर सका। भगवान का परमप्रिय शिष्य अर्जुन भी पचासों प्रश्न पूछने के बाद समर्पित हुआ।
विभीषण को एक क्षण नहीं लगा अपने संसार को त्याग कर राम के चरणों में बैठते।
कोई तर्क नहीं, कोई जिज्ञासा नहीं, कोई आश्वासन भी नहीं। बस एक आलंबन.... सत्य।
ऐसे परम विद्रोही संत को समझने योग्य युग भी आएगा। अभी तक तो ये आशा ही है।
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