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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

कवि मैथिलीशरण गुप्त।।


राष्ट्रकवि मैथिलीशरण ।।

➡️गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 में यूपी के झांसी ज़िले में चिरगाँव में हुआ था। 

➡️उन्होंने अपनी कविताओं में खड़ी बोली का खूब इस्तेमाल किया। 

➡️उनका महाकाव्य साकेत हिन्दी साहित्य के लिए एक मील का पत्थर है। 

➡️जयद्रथ वध, भारत-भरती, यशोधराउनकी मशहूर रचनाएं हैं। 

➡️पद्मविभूषण सम्मान से नवाज़े इस कवि ने 12 दिसंबर 1964 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

➡️मैथिलीशरण गुप्त की अविस्मरणीय कविता

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।।

कवि मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि हैं। जिन्होंने पुराणों में उपेक्षित पात्रों को अपने लेखन का आधार बनाया। और इनके द्वारा रचित महाकाव्य साकेत हिंदी साहित्य की एक अनूठी रचना है। और इसी रचना से छायावाद की भूमिका तैयार होती है। साकेत में सौमित्र की पत्नी उर्मिला के मन को समझने और समझाने का प्रयास किया है। साकेत का अष्टम सर्ग चित्रकूट प्रसंग से संबंधित है। चित्रकूट में जब सभी परिवारी जन एक दूसरे से मिलते हैं तो उसी समय चतुराई से माता सीता उर्मिला का लक्ष्मण से मिलन करवाती है। तब दोनों पति-पत्नी के मध्य है उन क्षणों में जो मौखिक संवाद हुआ उस संवाद को गुप्तजी ने बड़े ही सहज सरल और विनीत भाव से पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।

मेरे उपवन के हरिण, आज वन चारी
मैं बांध ना लूंगी तुम्हें, तजो भय हारी

उर्मिला कहती है की उर्मिला रूपी उपवन में विचरण करने वाला सौमित्र रूपी हिरण आज वनचारी हो गया है। लक्ष्मण संकोच में है, उर्मिला उन्हें अपने साथ ले जाने की बात ना करेगी अब तो मैं उनसे क्या कहूंगा इससे पहले लक्ष्मण कुछ कहते उर्मिला कहती हैं मुझसे डरो नहीं मैं तुम्हें 1 जाने से नहीं रोकूंगी आपके कर्तव्य मैं वादा नहीं डालूंगी। इतना बड़ा बलिदान रघुकुल की रानी ही दे सकती है।

उर्मिला कहती है
हां स्वामी! कहना था क्या क्या
कह ना सकी कर्मों का दोष
पर जिस में संतोष तुम्हें हो 
मुझे उसी में है संतोष

साकेत के अष्टम सर्ग का यह अंश गुप्त जी की नारी के प्रति कोमल भावना कितनी प्रकार थी इसका अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है।
इसी प्रकार यशोधरा नामक रचना में राष्ट्रकवि गुप्त जी ने यशोधरा के मन को पाठकों के सामने बड़ी ही सहजता से व्यक्त किया है।

सिद्धि हेतु स्वामी गए यह गौरव की बात 
पर चोरी चोरी गई यही बड़ा व्या घात
.........
मैंने दूध पिला कर पाला
 सोती छोड़ गया पर मुझको वह मेरा मतवाला 
............
सखी प्रियतम है वन में 
किंतु कौन इस मन में
.......
पधारो भव भव के भगवान
रख ली मेरी लज्जा तुमने आओ अत्र भवान।
नाथ विजय है यही तुम्हारी 
दिया तुच्छ गौरव भारी
अपनाई मुझ सी लघु नारी
होकर महा महान
..........

तुम भिक्षक बन कर आए थे गोपा क्या देती स्वामी 
था अनूरूप एक राहुल ही रहे सदा यह अनुगामी 
मेरे दुख में भरा विश्व सुख क्यों न भरूं मै हामी
बुद्धम शरणम धर्मं शरणं संघम शरणम गच्छामि।

 गुप्त जी हिंदी साहित्य में ही नहीं बल्कि हर एक पाठक के हृदय में अमिट छाप छोड़ते हैं। आज गुप्त जी की पुण्यतिथि पर हम सब उनके चरण कमलों की वंदना करते हैं। और हम सब उनके द्वारा रचित साहित्य का अमृतपान करते हुए अपने जीवन को सुंदर, सहज और सरल बनाने का प्रयत्न करते हैं।
       परिस्थिति के अनुसार माता कैकेयी की अवस्था को देखकर श्री राम के माध्यम से गुप्त जी कहते हैं

सौ बार धन्य वह एक लाल की माई
जिस जननी ने है जना भरत सा भाई।

उसी प्रकार से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के माता-पिता भी धन्य हैं जिन्होंने मा हिंदी के ऐसे बेटे को जन्म दिया।


Mere upvan ke harin

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