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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

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गुरू नानक : एक परिचय

गुरु नानक
अंग्रेज़ी
: Guru Nanak ,
जन्म: 15 अप्रैल 1469,
जन्म स्थान : तलवंडी पंजाब
मृत्यु: 22 सितंबर  1539 भारत

सिक्खों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) थे। इनके अनुयायी इन्हें 'गुरु नानक', 'बाबा नानक' और 'नानकशाह' नामों से संबोधित करते हैं। गुरु नानक 20 अगस्त , 1507 को सिक्खों के प्रथम गुरु बने थे। वे इस पद पर 22 सितम्बर, 1539 तक रहे।

परिचय
पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में 15 अप्रैल , 1469 को एक किसान के घर गुरु नानक उत्पन्न हुए। यह स्थान लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है। अब यह 'नानकाना साहब' कहलाता है। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था। उनके पिता खत्री जाति एवं बेदी वंश के थे। वे कृषि और साधारण व्यापार करते थे और गाँव के पटवारी भी थे। गुरु नानक देव की बाल्यावस्था गाँव में व्यतीत हुई। बाल्यावस्था से ही उनमें असाधारणता और विचित्रता थी। उनके साथी जब खेल-कूद में अपना समय व्यतीत करते तो वे नेत्र बन्द कर आत्म-चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। इनकी इस प्रवृत्ति से उनके पिता कालू चिन्तित रहते थे।

आरंभिक जीवन
सात वर्ष की आयु में वे पढ़ने के लिए गोपाल अध्यापक के पास भेजे गये। एक दिन जब वे पढ़ाई से विरक्त हो, अन्तर्मुख होकर आत्म-चिन्तन में निमग्न थे, अध्यापक ने पूछा- पढ़ क्यों नहीं रहे हो? गुरु नानक का उत्तर था- मैं सारी विद्याएँ और वेद-शास्त्र जानता हूँ। गुरु नानक देव ने कहा- मुझे तो सांसारिक पढ़ाई की अपेक्षा परमात्मा की पढ़ाई अधिक आनन्दायिनी प्रतीत होती है, यह कहकर निम्नलिखित वाणी का उच्चारण किया- मोह को जलाकर (उसे) घिसकर स्याही बनाओ, बुद्धि को ही श्रेष्ठ काग़ज़ बनाओ, प्रेम की क़लम बनाओ और चित्त को लेखक। गुरु से पूछ कर विचारपूर्वक लिखो (कि उस परमात्मा का) न तो अन्त है और न सीमा है। इस पर अध्यापक जी आश्चर्यान्वित हो गये और उन्होंने गुरु नानक को पहुँचा हुआ फ़क़ीर समझकर कहा- तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। इसके पश्चात् गुरु नानक ने स्कूल छोड़ दिया। वे अपना अधिकांश समय मनन, ध्यानासन, ध्यान एवं सत्संग में व्यतीत करने लगे। गुरु नानक से सम्बन्धित सभी जन्म साखियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधु-महत्माओं का सत्संग किया था। उनमें से बहुत से ऐसे थे, जो धर्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। अन्त: साक्ष्य के आधार पर यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि गुरु नानक ने फ़ारसी का भी अध्ययन किया था। ' गुरु ग्रन्थ साहब ' में गुरु नानक द्वारा कुछ पद ऐसे रचे गये हैं, जिनमें फ़ारसी शब्दों का आधिक्य है।

बचपन
गुरु नानक की अन्तर्मुंखी-प्रवृत्ति तथा विरक्ति-भावना से उनके पिता कालू चिन्तित रहा करते थे। नानक को विक्षिप्त समझकर कालू ने उन्हें भैंसे चराने का काम दिया। भैंसे चराते-चराते नानक जी सो गये। भैंसें एक किसान के खेत में चली गयीं और उन्होंने उसकी फ़सल चर डाली। किसान ने इसका उलाहना दिया किन्तु जब उसका खेत देखा गया, तो सभी आश्चर्य में पड़े गये। फ़सल का एक पौधा भी नहीं चरा गया था। 9 वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। यज्ञोपवीत के अवसर पर उन्होंने पण्डित से कहा - दया कपास हो, सन्तोष सूत हो, संयम गाँठ हो, (और) सत्य उस जनेउ की पूरन हो। यही जीव के लिए (आध्यात्मिक) जनेऊ है। ऐ पाण्डे यदि इस प्रकार का जनेऊ तुम्हारे पास हो, तो मेरे गले में पहना दो, यह जनेऊ न तो टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न यह जलता है और न यह खोता ही है।

राजा राम मोहन रॉय (1772 - 1833)

 🔹 वह सती, बहुविवाह, बाल विवाह, मूर्तिपूजा, जाति व्यवस्था के विरोधी थे और विधवा पुनर्विवाह का प्रचार करते थे।

🔹 उन्होंने तर्कवाद और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर जोर दिया।

🔹 वह सभी मनुष्यों की सामाजिक समानता में विश्वास करते थे।

🔹 उन्होंने अंग्रेजी में पश्चिमी वैज्ञानिक शिक्षा में भारतीयों को शिक्षित करने के लिए कई स्कूल शुरू किए।

🔹 वह हिंदू धर्म के कथित बहुवाद के खिलाफ था। उन्होंने धर्मशास्त्रों में दिए गए एकेश्वरवाद की वकालत की।

🔹 उन्होंने ईसाई और इस्लाम का भी अध्ययन किया।

🔹 उन्होंने वेदों और पाँच उपनिषदों का बंगाली में अनुवाद किया।

🔹 उन्होंने एक बंगाली साप्ताहिक अखबार सांबाद कौमुदी की शुरुआत की, जिसने नियमित रूप से सती को बर्बर और हिंदू धर्म के सिद्धांतों के खिलाफ बताया।

🔹 1828 में, उन्होंने ब्रह्म सभा की स्थापना की जिसे बाद में ब्रह्म समाज का नाम दिया गया। उन्होंने आत्मीय सभा की भी स्थापना की थी।

🔹 ब्रह्म समाज का मुख्य उद्देश्य सनातन भगवान की पूजा था। यह पुरोहिती, अनुष्ठान और बलिदान के खिलाफ था। यह प्रार्थना, ध्यान और शास्त्रों के पढ़ने पर केंद्रित था।

🔹 यह आधुनिक भारत में पहला बौद्धिक सुधार आंदोलन था जहाँ सामाजिक बुराइयों का अभ्यास किया गया था और उन्हें समाज से हटाने के लिए किए गए प्रयासों की निंदा की गई थी।

🔹 इसने भारत में तर्कवाद और प्रबोधन का उदय किया जिसने अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवादी आंदोलन में योगदान दिया।

🔹 ब्रह्म समाज सभी धर्मों की एकता में विश्वास करता था।

🔹 उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए काम किया। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा की वकालत की।

🔹 उनके प्रयासों से 1829 में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने सती प्रथा को समाप्त कर दिया।

🔹 वह एक सच्चे मानवतावादी और लोकतंत्रवादी थे।

🔹 उन्होंने ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ भी बात की, विशेषकर प्रेस स्वतंत्रता पर प्रतिबंध।

🔹 राजा राम मोहन राय और उनके ब्रह्म समाज ने उस समय भारतीय समाज को जागृत करने वाले दबाव के मुद्दों को जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देश में हुए सभी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आंदोलनों के अग्रदूत भी थे।

🔹 वह मुगल राजा अकबर शाह द्वितीय (बहादुर शाह के पिता) के राजदूत के रूप में इंग्लैंड गए, जहां एक बीमारी से उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें अकबर II द्वारा 'राजा' की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
 

Raja Ram Mohan Roy (1772 – 1833)

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🔹 He was opposed to Sati, polygamy, child marriage, idolatry, the caste system, and propagated widow remarriage.
🔹 He stressed on rationalism and modern scientific approach.
🔹 He believed in social equality of all human beings.
🔹 He started many schools to educate Indians in Western scientific education in English.
🔹 He was against the perceived polytheism of Hinduism. He advocated monotheism as given in the scriptures.
🔹 He studied Christianity and Islam as well.
🔹 He translated the Vedas and five of the Upanishads into Bengali.
🔹 He started the Sambad Kaumudi, a Bengali weekly newspaper which regularly denounced Sati as barbaric and against the tenets of Hinduism.
🔹 In 1828, he founded the Brahmo Sabha which was later renamed Brahmo Samaj. He had also founded the Atmiya Sabha.
🔹 Brahmo Samaj’s chief aim was the worship of the eternal god. It was against priesthood, rituals and sacrifices. It focused on prayers, meditation and reading of the scriptures.
🔹 It was the first intellectual reform movement in modern India where social evils then practised were condemned and efforts made to remove them from society.
🔹 It led to the emergence of rationalism and enlightenment in India which indirectly contributed to the nationalist movement.
🔹 The Brahmo Samaj believed in the unity of all religions.
🔹 He worked for the improvement in the position of women. He advocated widow remarriage and education of women.
🔹 His efforts led to the abolition of Sati in 1829 by Lord William Bentinck, the then Governor-General of India.
🔹 He was a true humanist and democrat.
🔹 He also spoke against the unjust policies of the British government especially the restrictions on press freedom.
🔹 Raja Ram Mohan Roy and his Brahmo Samaj played a vital role in awakening Indian society to the pressing issues plaguing society at that time and also was the forerunner of all social, religious and political movements that happened in the country since.
🔹 He visited England as an ambassador of the Mughal king Akbar Shah II (father of Bahadur Shah) where he died of a disease. He was awarded the title ‘Raja’ by Akbar II.

सूरदास ।।

सूरदास का परिचय
 
जन्मकाल – 1478 ई. (1535 वि.)
जन्मस्थान – 1. डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार इनका जन्म दिल्ली के निकट ’सीही’ नामक ग्राम में एक ’सारस्वत ब्राह्मण’ परिवार में हुआ था।
 
विशेष : आधुनिक शोधों के अनुसार इनका जन्मस्थान मथुरा के निकट ’रुनकता’ नामक ग्राम माना गया है।
नोट:- परीक्षा में दोनों विकल्प एक साथ होने पर ’सीही’ को ही सही उत्तर मानना चाहिए।
 
⇒ मृत्युकाल – 1583 ई. (1640 वि.) मृत्युस्थान – ’पारसोली’ गाँव
⇔गुरु का नाम – वल्लाभाचार्य
⇒ गुरु से भेंट (दीक्षा ग्रहण) – 1509-10 ई. में (पारसोली नामक गाँव में)
⇔ भक्ति पद्धति – ये प्रारम्भ में ’दास्य’ एवं ’विनय’ भाव पद्धति से लेखन कार्य करते थे, परन्तु बाद में गुरु वल्लभाचार्य की आज्ञा पर इन्होंने ’सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य’ भाव पद्धति को अपनाया।
(विनय और दास्य ट्रिकः विदा कर दिया )
⇒ काव्य भाषा – ब्रज
 
 प्रमुख रचनाएँ –
3. इसका सर्वप्रथम प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा करवाया गया था।
3. सूरसारावली
 
नोट:- यह इनकी विवादित या अप्रामाणिक रचना मानी जाती है।
विशेष – डाॅ. दीनदयाल गुप्त ने इनके द्वारा रचित पच्चीस पुस्तकों का उल्लेख किया है, जिनमें से निम्न सात पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका हैं:-
1. सूरसागर
2. साहित्य लहरी
3. सूरसारावली
4. सूरपचीसी
5. सूररामायण
6. सूरसाठी
7. राधारसकेली
 
विशेष तथ्य (Surdas in Hindi)
1. सूरदास जी को ’खंजननयन, भावाधिपति, वात्सल्य रस सम्राट्, जीवनोत्सव का कवि पुष्टिमार्ग का जहाज’ आदि नामों (विशेषणों ) से भी पुकारा जाता है।
2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनको ’वात्सल्य रस सम्राट्’ एवं ’जीवनोत्सव का कवि’ कहा है।
3. गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इनकी मृत्यु के समय इनको ’पुष्टिमार्ग का जहाज’ कहकर पुकारा था। इनकी मृत्यु पर उन्होंने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था:-
’’पुष्टिमार्ग को जहाज जात है सो जाको कछु लेना होय सो लेउ।’’
4. हिन्दी साहित्य जगत् में ’भ्रमरगीत’ परम्परा का समावेश सूरदास(Surdas) द्वारा ही किया हुआ माना जाता है।
5. ’सूरोच्छिष्र्ट जगत्सर्वम्’ अर्थात् आचार्य शुक्ल के अनुसार इनके परवर्ती कवि सूरदासजी की जूठन का ही प्रयोग करते हैं, क्योंकि साहित्य जगत् में ऐसा कोई शब्द और विषय नहीं है, जो इनके काव्य में प्रयुक्त नहीं हुआ हो।
6. कुछ इतिहासकारों के अनुसार ये चंदबरदाई के वंशज कवि माने गये हैं।
7. आचार्य शुक्ल ने कहा है, ’’सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदण्ड पुष्टिमार्ग ही है।’’
8. सूरदास जी ने भक्ति पद्धति के ग्यारह रूपों का वर्णन किया है।
9. संस्कृत साहित्य में महाकवि ’माघ’ की प्रशंसा में यह श्लोक पढ़ा जाता हैं –
’’उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थगौरवम्।
दण्डिनः पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।’’
इसी श्लोक के भाव को ग्रहण करके ’सूर’ की स्तुति में भी किसी हिन्दी कवि ने यह पद लिखा हैं –
’’उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बल वीर।
केशव अर्थ गँभीर को, सूर तीन गुण धीर।।’’
10. हिन्दी साहित्य जगत् में सूरदासजी सूर्य के समान, तुलसीदासजी चन्द्रमा के समान, केशवदासजी तारे के समान तथा अन्य सभी कवि जुगनुओं (खद्योत) के समान यहाँ-वहाँ प्रकाश फैलाने वाले माने जाते हैं। यथा –
’’सूर सूर तुलसी ससि, उडूगन केशवदास।
और कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकास।।’’
11. सूर(Surdas) के भावचित्रण में वात्सल्य भाव को श्रेष्ठ कहा जाता है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है, ’’सूर अपनी आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना छान आये हैं।’’
 
सूरदास के बारे में महत्त्वपूर्ण कथन –
🔸 रामचंद्र शुक्ल – सूर में जितनी भाव विभोरता है, उतनी वाग्विदग्धता भी।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदण्ड पुष्टिमार्ग ही है।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – सूरसागर किसी चली आती हुई गीत काव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – ऐसा लगता है कि यशोदा, यशोदा न रहीं मानों सूर हो गईं और सूर, सूर न रहे, यशोदा हो गए।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – सूर का संयोग वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं हैं, प्रेम संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा हैं जिसमें अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई पङता।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – सूर को उपमा देने की झक सी चढ़ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा कहते चले जाते है।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – शृंगार रस का ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य दूसरा नहीं है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – बाल चेष्ठा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बङा भण्डार और कहीं नहीं है, जितना बङा सूरसागर में है।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – शैशव से लेकर कौमार्य अवस्था तक के क्रम से लगे हुए न जाने कितने चित्र मौजूद हैं। उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है, कवि ने बालकों की अंतःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेकों बाल भावों की सुन्दर स्वाभाविक व्यंजना है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – बाल सौन्दर्य एवं स्वभाव के चित्रण में जितनी सफलता सूर को मिली है उतनी अन्य किसी को नहीं। वे अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना झांक आये।
🔸 हजारी प्रसाद द्विवेदी – सूरसागर में इतने अधिक राग हैं कि उन्हें देखकर समस्त जीवन संगीत साधना में अर्पित कर देने वाले आज के संगीतज्ञों को भी दाँतों तले उंगली दबानी पङती है।
🔹 हजारी प्रसाद द्विवेदी – सबसे बङी विशेषता सूरदास की यह है कि उन्होंने काव्य में अप्रयुक्त एक भाषा को इतना सुन्दर, मधुर और आकर्षक बना दिया कि लगभग चार सौ वर्षों तक उत्तर-पश्चिम भारत की कविता का सारा राग-विराग, प्रेम प्रतीति, भजन भाव उसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त हुआ।
🔸 हजारी प्रसाद द्विवेदी – सूरदास जब अपने काव्य विषय का वर्णन शुरु करते हैं, तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोङकर उनके पीछे-पीछे दौङा करता है, उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रुपकों की वर्षा होने लगती है।
🔹 हजारी प्रसाद द्विवेदी – हम बाललीला से भी बढ़कर जो गुण सूरदास में पाते हैं, वह है उनका मातृ हृदय चित्रण। माता के कोमल हृदय में बैठने की अद्भुत शक्ति है, इस अन्धे में।
🔸 हजारी प्रसाद द्विवेदी –सूरदास ही ब्रजभाषा के प्रथम कवि हैं और लीलागान का महान समुद्र ’सूरसागर’ ही उसका प्रथम काव्य है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – सूर की बङी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना ’प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते।
🔸 रामचंद्र शुक्ल –आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ कृष्ण की प्रेमलीला कीर्तन करने उठी, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झंकार अंधे कवि सूरदास की वीणा की थी।
🔹 शिवकुमार मिश्र – सूर की भक्ति कविता वैराग्य, निवृत्ति अथवा परलोक की चिंता नहीं करती बल्कि वह जीवन के प्रति असीम अनुराग, लोकजीवन के प्रति अप्रतिहत निष्ठा तथा प्रवृत्तिपरक जीवन पर बल देती है।
🔸 रामस्वरूप चतुर्वेदी – सूरदास ने अपने काव्य के लिए जो जीवन क्षेत्र चुना है वह सीमित है, पर इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता व्यापक हैं, इसका मुख्य कारण यह है कि उनका क्षेत्र गृहस्थ जीवन और परिवार से जुङा है।
🔹 बलराम तिवारी – सूर का प्रेम लोक व्यवहार के बीच से जन्म लेता है।
🔸 मैनेजर पाण्डेय – प्रेम जितना गहरा होगा, संयोग का सुख जितना अधिक होगा, प्रेम के खण्डित होने का दर्द और वियोग की वेदना भी उतनी ही अधिक होगी। गोपियों का प्रेम उपरी नहीं है, इसलिए अलगाव का दर्द अधिक गहरा है। गोपियों की विरह व्यंजना में उनकी आत्मा की चीख प्रकट हुई है।
🔹 नंददुलारे वाजपेयी – सूर ने समूचे प्रसंग को एक अनूठे विरह काव्य का रूप दिया है, जिसमें आदि से अंत तक ब्रज के दुःख की कथा कहीं गयी हैं।
🔸 द्वारिका प्रसाद सक्सेना – सूर ने बालकों के हृदयस्थ मनोभावों को, बुद्धि चातुर्य, स्पद्र्धा, खोज, प्रतिद्वंद्वता, अपराध करके उसे छिपाने और उसके बारे में कुशलतापूर्वक सफाई देने आदि प्रवृत्ति के भी बङे हृदयग्राही चित्र अंकित किए है।
🔹 हरबंशलाल शर्मा – सूर का वात्सल्य भाव विश्व साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
🔸 रामकुमार वर्मा – बालकृष्ण के शैशव में, श्री कृष्ण के मचलने में तथा माता यशोदा के दुलार में हम विश्वव्यापी माता-पुत्र प्रेम देखते है।
 
हिंदी-साहित्य में कृष्णभक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सूरदास का स्थान मूर्द्धन्य उनका जीवनवृत्त उनकी अपनी कृतियों से आंशिक रूप में और बाह्य साक्ष्य के आधार पर अधिक उपलब्ध होता है। इसके लिए ’भक्तमाल’ (नाभादास), ’चोरासी वैष्णवन की वार्ता’ (गोकुलनाथ), ’वल्लभदिग्विजय’ (यदुनाथ) तथा ’निजवार्ता’ का आधार लिया जाता है।
श्री हरिरायकृत भावप्रकाशवाली ’चोरासी वैष्णवन की वार्ता’ में लिखा है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के निकट ब्रज की ओर स्थित ’सीही’ नामक गांव में सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इसके अतिरिक्त सूर के जन्मस्थान के विषय में और कोई संकेत नहीं मिलता।
इस वार्ता में सूर का चरित गऊघाट से आंरभ होता है, जहां वे वैराग्य लेने के बाद निवास करते हैं। यहीं श्री वल्लभाचार्य से उनका साक्षात्कार हुआ था। अधिकांश विद्वानों ने सीही गांव को ही सूरदास का जन्मस्थान माना है।
सूरदास का जन्मकाल 1478 ई. स्थिर किया जाता हैै। उनके जन्मांध होने या बाद में अंधत्व प्राप्त करनें के विषय में अनेक किंवदंतियां एवं प्रवाद फैलेे हुए हैं। वार्ता-ग्रंथों के अनुसार 1509-1510 ई. के आसपास उनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई और तभीं उन्होंने शिष्यत्व ग्रहण किया।
 
अकबर से भी उनकी भेंट उल्लेख मिलता है। वल्लभाचार्य के शिष्य बननें के बाद वे चंद्रसरोवर के समीप पारसोली गांव में रहने लगे थे; वहीें 1583 ई. में उनका देहावसान हुआ। उनकी मृत्यु पर गो. विट्ठलनाथ ने शोकार्त्त हो कर कहा था:-“पुष्टिमारग को जहाज जात है सो जाको कछु लेना होय सो लेउ।“
सूरदास की शिक्षा आदि के विषय में किसी ग्रंथ में कहीं कोई नहीं मिलता ; केवल इतना ही हरिराय जी ने लिखा है कि गांव से चार कोस दूर रह कर पद-रचना में लीन रहते थे और गानविद्या में प्रवीण थे। भक्त-मंडली उनके पद सुनने एकत्र हो जाती थी।
उनके पद विनय और दैन्य भाव के होते थे, किंतु श्री वल्लभाचार्य के संपर्क में आने पर उन्हीं की प्रेरणा से सूरदास ने दास्य भाव और विनय के पद लिखना बंद कर दिया तथा सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भाव की पद रचना करने लगे। डाॅ. दीनदयालु गुप्त ने उनके द्वारा रचित पच्चीस पुस्तकों की सूचना दी है, जिनमें सूरसागर , सूरसारावली , साहित्यलहरी , सूरपचीसी , सूररामायण , सूरसाठी और राधारसकेलि प्रकाशित हो चुकी हैं।
वस्तुतः ’सूरसागर’ और ’साहित्यलहरी’ ही उनकी श्रेष्ठ कृतियां हैं। ’सूरसारावली’ को अनेक विद्वान अप्रामाणित मानते हैं, किंतु ऐसे विद्वान भी हैं, जो इसे ’सूरसागर’ का सार अथवा उसकी विषयसूची मान कर इसकी प्रमाणिकता के पक्ष में हैं। ’सूरसागर’ की रचना ’भागवत’ की पद्धति पर द्वादश स्कंधों में हुई है।
’साहित्यलहरी’ सूरदास के सुप्रसिद्ध दृष्टकूट पदों का संग्रह है। इसमें अर्थगोपन-शैली में राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है, साथ ही अंलकार-निरूपण की दृष्टि से भी इस ग्रंथ का महत्त्व है।
 
सूर-काव्य का मुख्य विषय कृष्णभक्ति है।’भागवत’ पुराण को उपजीव्य मान कर उन्होंने राधा-कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन ’सूरसागर’ में किया है। ’भागवत’ के द्वादश स्कंधों से अनुरूपता के कारण कुछ विद्वान इसे ’भागवत’ का अनुवाद समझने की भूल कर बैठते हैं, किंतु वस्तुत: सूर के पदों का क्रम स्वंतत्र है।
वैसे, उनके मन में ’भागवत’ पुराण की पूर्ण निष्ठा है। उन्होंने कृष्ण-चरित्र के उन भावात्मक स्थलों को चुना है, जिनमें उनकी अंतरात्मा की गहरी अनुभूति पैठ सकी हैै।
उन्होंने श्रीकृष्ण के शैशव और कैशोर वय की विविध लीलाओं का चयन किया है, संभवत: यह सांप्रदायिक दृष्टि से किया गया हो। सूर की दृष्टि कृष्ण के लोेकरंजक रूप पर ही अधिक रही है, उनके द्वारा दुष्ट-दलन आदि का वर्णन सामान्य रूप से ही किया जाता है।
लीला-वर्णन में कवि का ध्यान मुख्यत: भाव-चित्रण पर रहा है। विनय और दैन्य-प्रदर्शन के प्रसंग में जो पद सूर ने लिखे हैं, उनमें भी उच्चकोटि के भावों का समावेश है।
सूर के भाव-चित्रण में वात्सल्य भाव को श्रेष्ठतम कहा जाता है। बाल-भाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के प्रेम-भावों के चित्रण में सूर अपना सानी नहीं रखते। बालक को विविध चेष्टाओं और विनोदों के क्रीङास्थल मातृहृदय की अभिलाषाओं, उत्कंठाओं और भावनाओं के वर्णन में सूरदास हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरते हैं।
वात्सल्य भाव के पदों की विशेषता यह है कि उनको पढ़ कर पाठक जीवन की नीरस और जटिल समस्याओं को भूल कर उनमें मग्न हो जाता है। दूसरी ओर भक्ति के साथ शृंगार को जोङ कर उसके संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रवासजनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रंसग तो सूर के काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। इस अन्योेक्ति एवं उपालंभकाव्य में गोपी-उद्वव-संवाद को पढ़ कर सूर की प्रतिभा और मेधा का परिचय प्राप्त होता है। सूरदास के भ्रमरगीत में केवल दार्शनिकता और अध्यात्मिक मार्ग का उल्लेख नहीं है, वरन् उसमें काव्य के सभी श्रेष्ठ उपकरण उपलब्ध होते हैं। सगुण भक्ति का ऐसा सबल प्रतिपादन अन्यत्र देखने में नहीं आता।
इस प्रकार सूर-काव्य में प्रकृति-सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बालचरित्र के विविध प्रंसगों, कीङाओं, गोचारण, रास आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता हैं। रूपचित्रण के लिए नख-शिख-वर्णन को सूर ने अनेक बार स्वीकार किया है। ब्रज के पर्वों, त्योहारों, वर्षोत्सवों आदि का भी वर्णन उनकी रचनाओं में है।
सूर की समस्त रचना को पदरचना कहना ही समीचीन हैं। ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रजभाषा अपने युग में काव्यभाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रात्मकता, आलंकारिता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकत्मकता तथा बिंबत्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान हैं।
ब्रजभाषा को ग्रामीण जनपद से हटा कर उन्होंने नगर और ग्राम के संधिस्थल पर ला बिठाया था। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग करने पर भी उनकी मूल प्रवृति ब्रजभाषा को सुंदर और सुगम बनाये रखने की ओर ही थी। ब्रजभाषा की ठेठ माधुरी यदि संस्कृत, अरबी-फारसी के शब्दों के साथ सजीव शैली में जीवित रही है, तो
 
वह केवल सूर की भाषा में ही है। अवधी और पूरबी हिंदी के भी शब्द उनकी भाषा में ही हैं।
कतिपय विदेश शब्द भी यत्र- तत्र उपलब्ध हो जाते हैं। भाषा की सजीवता के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों का पुट उनकी भाषा का सौंदर्य है। भ्रमरगीत के पदों में तो अनेक लोकोक्तियां मणिकांचन-संयोग की तरह अनुस्यूत हैं। भाषा में प्रवाह बनाये रखने के लिए लय और संगीत पर कवि का सतत ध्यान रहा है।
राग-रागिनियों के स्वर-ताल में बंधी हुई शब्दावली जैसी सरस भाव-व्यंजना करती है, वैसी सामान्य पदावली नहीं कर सकती। वर्णनमैत्री और संगीतात्मकता सूर की ब्रजभाषा के अलंकरण हैं।
सूरदास का जीवन परिचय 
सूर की भक्तिपद्धति का मेरुदंड पुष्टिमार्गीय भक्ति है। भागवान की भक्त पर कृपा का नाम ही पोषण है:’पोषण तदनुग्रहः’। पोषण के भाव स्पष्ट करने के लिए भक्ति के दो रूप बताये गये हैं-साधन – रूप और साध्य-रूप। साधन-भक्ति में भक्ति भक्त को प्रयत्न करना होता है, किंतु साध्य-रूप में भक्त सब-कुछ विसर्जित करके भगवान की शरण में अपने को छोङ देता है।
पुष्टिमार्गीय भक्ति को अपनाने के बाद प्रभु स्वयं अपने भक्त का ध्यान रखते हैं, भक्त तो अनुग्रह पर भरोसा करके शांत बैठ जाता है। इस मार्ग में भगवान के अनुग्रह पर ही सर्वाधिक बल दिया जाता है। भगवान का अनुग्रह ही भक्त का कल्याण करके उसे इस लोक से मुक्त करने में सफल होता है:-
जा पर दीनानाथ ढरै।
सोइ कुलीन बङौ सुंन्दर सोइ जा पर कृपा करै। सूर पतित तरि जाय तनक में जो प्रभु नेक ढरै।।
भगवत्कृपा की प्राप्ति के लिए सूर की भक्तिपद्धति में अनुग्रह का ही प्राधान्य है-ज्ञान, योग, कर्म, यहां यहां तक कि उपासना भी निरर्थक समझी जाती है।
 
सूरदास के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ:-
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(1) सूरदास ने अपने भ्रमर गीत में निर्गुण ब्रह्म का खंडन किया है।
(2) भ्रमरगीत में गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाया गया है।
(3) भ्रमरगीत में उद्धव व गोपियों के माध्यम से ज्ञान को प्रेम के आगे नतमस्तक होते हुए बताया गया है, ज्ञान के स्थान पर प्रेम को सर्वोपरि कहा गया है।
(4) भ्रमरगीत में गोपियों द्वारा व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(5) भ्रमरगीत में उपालंभ की प्रधानता है।
(6) भ्रमरगीत में ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है। यह मधुर और सरस है।
(7) भ्रमरगीत प्रेमलक्षणा भक्ति को अपनाता है। इसलिए इसमें मर्यादा की अवहेलना की गई है।
(8) भ्रमरगीत में संगीतात्मकता का गुण विद्यमा

गोरख प्रसाद, गणितज्ञ : 𝙶𝙾𝚁𝙰𝙺𝙷 𝙿𝚁𝙰𝚂𝙰𝙳 📐

📌 गोरख प्रसाद, गणितज्ञ, हिंदी विश्वकोश के संपादक तथा हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ और बहुप्रतिभ लेखक।

गोरखप्रसाद (28 मार्च 1896 - 5 मई 1961) गणितज्ञ, हिंदी विश्वकोश के संपादक तथा हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ और बहुप्रतिभ लेखक थे। उन्होने प्रयाग विश्वविद्यालय में १९२५ से १९५७ तक गणित का अध्यापन किया।

✍ जीवन परिचय :

श्री गोरख प्रसाद का जन्म 28 मार्च 1896 ई. को गोरखपुर में हुआ था। सन्‌ 1918 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इन्होंने एम.एस-सी. परीक्षा उत्तीर्ण की। ये डॉ॰ गणेशप्रसाद के प्रिय शिष्य थे। उनके साथ इन्होंने सन्‌ 1920 तक अनुसंधान कार्य किया। महामना पं॰ मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से ऐडिनबरा गए और सन्‌ 1924 में गणित की गवेषणाओं पर वहाँ के विश्वविद्यालय से डी.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। 21 जुलाई 1925 ई. से प्रयाग विश्वविद्यालय के गणित विभाग में रीडर के पद पर कार्य किया। वहाँ से 20 दिसम्बर 1957 ई. को पदमुक्त होकर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा संयोजित हिंदी विश्वकोश का संपादन भार ग्रहण किया। हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1931 ई. में 'फोटोग्राफी' ग्रंथ पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला। संवत्‌ 1989 (सन्‌ 1932-33 ई.) में काशी नागरीप्रचारिणी सभा से उनकी पुस्तक 'सौर परिवार' पर डॉ॰ छन्नूलाल पुरस्कार, ग्रीब्ज़ पदक तथा रेडिचे पदक मिले।

इनका संबंध अनेक साहित्यिक एवं वैज्ञानिक संस्थाओं से था। सन्‌ 1952 से 1959 तक विज्ञान परिषद् (प्रयाग) के उपसभापति और सन्‌ 1960 से मृत्युपर्यन्त उसके सभापति रहे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के परीक्षामंत्री भी कई वर्ष रहे। काशी में हिन्दी सहित्य सम्मेलन के 28वें अधिवेशन में विज्ञान परिषद् के अध्यक्ष थे। बनारस मैथमैटिकल सोसायटी के भी अध्यक्ष थे।

5 मई 1961 ई. को वाराणसी में अपने नौकर की प्राणरक्षा के प्रयत्न में इनकी भी जलसमाधि हो गई।

📚 कृतियाँ– उनकी कुछ मुख्य पुस्तकें :

फलसंरक्षण (1937), उपयोगी नुस्खे, तर्कीबें और हुनर (1939), लकड़ी पर पालिश (1940), घरेलू डाक्टर (1940), तैरना (1944) तथा सरल विज्ञानसागर (1946) हैं। ज्योतिष और खगोल के ये प्रकांड विद्वान्‌ थे। इनपर इनकी 'नीहारिका' (1954), 'आकाश की सैर' (1936), सूर्य (1959), सूर्यसारिणी (1948), चंद्रसारिणी (1945) और 'भारतीय ज्योतिष का इतिहास' (1956) पुस्तकें हैं। अंग्रेजी में गणित पर बी. एस-सी. स्तर के कई पाठ्य ग्रंथ हैं, जिनमें अवकलन गणित (Differential Calculus), तथा समाकलन गणित (Integral Calculus) हैं।

हावर्ड गार्डनर (अमेरिका)

बहुआयामी बुद्धि सिद्धांत/ बहुबुद्धि सिद्धांत:-

 ▪️Book:- Frames of mind- the theory of multiple intelligences (1983)

🔹यह सिद्धांत पाठ्यक्रम निर्माण व निर्देश को नियोजित करने में मदद करता है।

 🔸यह सिद्धांत सामान्य बुद्धि का विरोध करते हुए स्वतंत्र रूप से 9 प्रकार की बुद्धि के महत्व को बताता है।

▪️प्रारंभ में सात प्रकार की, 1998 में आठ, 2000 में 9 प्रकार बताएं।


1. तर्कपूर्ण/गणितीय बुद्धि/वैज्ञानिक/संख्यात्मक योग्यता:- वैज्ञानिक चिंतन एवं समस्या समाधान की योग्यता जैस:-वैज्ञानिकों, गणितीय शास्त्रियों, दार्शनिकों व नोबेल पुरस्कार विजेता।

2. भाषात्मक बुद्धि/शाब्दिक बुद्धि/वाक् योग्यता:- भाषा के प्रति संवेदनशीलता, कवि, पत्रकार, वकील, लेखक, गीतकार, व्याख्याता में होगी।

3.संगीतात्मक बुद्धि:- वाद्य यंत्र बजाने वाले जैसे सारंगी वादक, अलगोजा वादक, बांसुरी वादक में , न की गाने वाले में ।

4. स्थानात्मक/दैहिक योग्यता:- दृश्य बिम्ब तथा प्रतिरूप निर्माण कौशल की योग्यता हैं।
इसका संबंध दिशा संबंधी ज्ञान से होता है जैसे पायलट, वस्तुकार, मूर्तिकार, सर्वेक्षक, शतरंज खिलाड़ी।

5. शारीरिक गति बुद्धि:- शारीरिक संचालक - नर्तकी, धावक, सर्जन, अभिनेता, जिमनास्टिक ।

6. प्राकृतिक बुद्धि:- पर्यावरण की प्राकृतिक विशेषताओं के प्रति संवेदनशील जैसे- शिकारी, किसान, वनस्पति विज्ञानी, पर्यटक ।

7. अन्त:व्यक्तिगत/व्यक्तिगत आत्मन बुद्धि:- स्वयं को जानने की योग्यता रखने वाले जैसे- संत, योगी, महात्मा, दार्शनिक।

8. अन्तर व्यक्तिगत/व्यक्तिगत अन्य:- दूसरों को जानने की योग्यता रखने वाला जैसे- दुकानदार, राजनेता, डॉक्टर, वैज्ञानिक।

9. अस्तित्ववाद बुद्धि:- मानव जीवन के रहस्यों को जानने की इच्छा रखने वाले जैसे- तत्व विज्ञानी।

थियोडोर बास्करन ने सैंक्चुअरी लाइफटाइम सर्विस अवार्ड 2020 जीता।


✅ एस. थियोडोर बास्करन जो एक लेखक, इतिहासकार, प्रकृतिवादी और एक कार्यकर्ता हैं, ने सैंक्चुअरी लाइफटाइम सर्विस अवार्ड, 2020 जीता है। इस पुरस्कार की स्थापना सैंक्चुअरी नेचर फाउंडेशन द्वारा की गई थी।

▪️ मुख्य बिंदु:

थियोडोर बास्करन को वन्यजीव संरक्षण के प्रति समर्पण के मद्देनजर इस पुरस्कार के लिए चुना गया है। उन्होंने अंग्रेजी और तमिल में पर्यावरण संरक्षण के बारे में लिखने के लिए चुन गया है।

▪️ एस. थियोडोर बास्करन :

• उनका जन्म 1940 में तमिलनाडु में हुआ था।
• वह एक भारतीय फिल्म इतिहासकार और एक वन्यजीव संरक्षणवादी हैं। उन्होंने सेंट जोहन्स कॉलेज, पलायमकोट्टई में अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की थी।
• उन्होंने वर्ष 1960 में मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से इतिहास में बीए (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की।
• उन्होंने तमिलनाडु राज्य अभिलेखागार में शोधकर्ता के रूप में काम किया।
• बाद में, वर्ष 1964 में, वह भारतीय डाक सेवा में विभागीय अधीक्षक के रूप में शामिल हुए।
• उन्होंने शिलांग में 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान “युद्ध प्रयासों के लिए विशेष अधिकारी” के रूप में भी काम किया।

▪️ पुस्तकें :

अंग्रेजी भाषा में उनकी कुछ पुस्तकों में शामिल हैं- डांस ऑफ़ द सार्स: एसेज ऑफ़ ए वांडरिंग नेचुरलिस्ट; बुक ऑफ़ इंडियन डॉग्स, डे विद शमा : एसेज ऑन नेचर।

भविष्य का वैज्ञानिक या एक एलियन- निकोला टेस्ला?

जानिए आज विशेष 📋📈

✅ निकोला टेस्ला 👇

✔️ जिस बिजली के बल्ब के आविष्कार ने दुनिया के सामने आधुनिक विज्ञान की ताकत का लोहा मनवाया उसके आविष्कारक की महानता को उसके दौर में ही चुनौती मिल गई थी। दरअसल, हम बात कर रहे हैं महान वैज्ञानिक निकोला टेस्ला की। विद्युत विज्ञान की दुनिया में पिता सदृश समादर पाने वाले थॉमस अल्वा एडिसन को उनके जीवन में ही न सिर्फ सैद्धांतिक बल्कि नैतिक चुनौती के साथ वो बहुत श्रद्धा के साथ एडिसन के पास पहुंचे थे।

✔️ 1884 में टेस्ला जब ऑस्ट्रिया से न्यूयॉर्क पहुंचे तो उनके पास एडिसन के ही एक पूर्व सहयोगी का सिफारिशी पत्र था। एडिसन को संबोधित इस पत्र में लिखा था, 'मैं इस दुनिया के दो महान लोगों को जानता हूं। इनमें से एक तुम (एडिसन) हो और दूसरा यह व्यक्ति (टेस्ला)।'

✅ विज्ञान का शोक👇
✔️ दिलचस्प यह कि टेस्ला के साथ काम करने के दौरान ही एडिसन के आगे यह साफ होने लगा था वह न सिर्फ दुनिया के एक ऐसे मस्तिष्क के साथ काम कर रहा है, जो समय की दूरी को विज्ञान से पाटने की काबिलियत रखता है। बात ऊर्जा के विकल्प या इसके सतत स्रोत को लेकर भविष्यदर्शी बात करने की हो या फिर तरंगों के जरिए विस्तार और नियंत्रण के नियमन की, टेस्ला ये सारी बातें उस दौर में सैद्धांतिक प्रामाणिकता के साथ कह रहे थे, जब बिजली के दो तारों से एक बल्ब के जलने को महान आविष्कार ठहराया जा रहा था। 

✔️ इसे विश्व इतिहास का दुर्भाग्य कहें या विज्ञान जगत का शोक कि टेस्ला को अपने साथ लिए विज्ञान कमाई और प्रचार का जरिया था या फिर ऐसे लोग जिनके लिए टेस्ला हमेशा रहस्यमयी या अविश्वसनीय बने रहे। एक ऐसे दौर में जहां एक तरफ तो उत्तर आधुनिकता की चौंध है, वहीं दूसरी तरफ ज्ञान-विज्ञान और दर्शन की समझ इस ऊंचाई पर पहुंच गई है कि ईश्वर के अंत की घोषणा के बाद दुनिया को सत्य से आगे सत्येत्तर (पोस्ट ट्रथ) होने-देखने की हड़बड़ी है, टेस्ला के बारे में बातें करना जरूरी भी है और दिलचस्प भी।

✅ अध्यात्म और विज्ञान👇
✔️ जो लोग इतिहास और भविष्य के बीच शताब्दियों के सबक को याद करना जरूरी समझते हैं, उनके लिए भी यह चमत्कृत कर देने वाली बात है कि डेढ़ सदी पहले दुनिया में एक ऐसा शख्स जन्म ले चुका था, जिसके दिमाग के बारे में कहा गया कि वह कैमरे की तरह काम करता है। आठ भाषाओं पर बराबर की महारत रखने वाले टेस्ला कल्पना और विज्ञान को एक सतह पर ला खड़ा करने वाले शख्सियत थे।

✔️ वे एक तरफ विवेकानंद जैसे संत से मिलकर अध्यात्म और विज्ञान के सत्य को एकीकृत देखने की सूक्ष्म समझ तक पहुंच गए थे, वहीं दूसरी तरफ बिंदु और ब्रह्मांड के वैदांतिक सूत्र को वैज्ञानिक सम्मति देने की ललक से भर उठे थे। अगर यह सब समय से और सहजता से संपन्न होता तो अध्यात्म और विज्ञान का ध्रुवीय अलगाव आज एकीकृत सिद्धांत का नाम होता।

✅ कई आविष्कार👇
✔️ 10 जलाई 1856 को जन्म लेने वाले टेस्ला ऑस्ट्रियाई नागरिक थे, लेकिन बाद में उन्होंने अमेरिका की नागरिकता ले ली थी। टेस्ला ही वो शख्स थे जिन्होंने एसी करंट का आविष्कार किया। एडिसन ने डीसी (डायरेक्ट करंट) का आविष्कार जरूर किया था, लेकिन डीसी करंट के साथ मुश्किल यह थी कि वह लंबी दूरी तक नहीं भेजा जा सकता था। इसलिए टेस्ला का दुनियाभर में बिजली की आपूर्ति होती है।

✔️ इसी तरह 1898 में टेस्ला ने एक नाव बनाई जो रिमोट से चलती थी। यह आविष्कार अपने वक्त से इतना आगे का था कि लोगों को लगा कि टेस्ला ने प्रशिक्षित जानवर को उसके अंदर डाल रखा है। यही वह आविष्कार था जो आज तीन 'एडवांस टेकनीक' में काम आता है। दुनिया का पहला रोबोट, दुनिया की पहली गाइडेड मिसाइल और दुनिया का पहला रिमोट कंट्रोल, ये तीनों आविष्कार टेस्ला ने एक ही प्रयोग में कर डाले थे।

✔️ टेस्ला को भविष्य का वैज्ञानिक कहा जाता है। उनसे जुड़े अध्ययन बताते हैं कि उन्होंने 1926 में ही स्मार्टफोन का खयाल बुन लिया था। टेस्ला ही थे जिन्होंने पहला पनबिजली स्टेशन बनाया। उन्होंने ही सिद्धांत दिया कि रेडियो तरंगें पूरी दुनिया में भेजी जा सकती हैं। उन्होंने 'रेडियो कॉइल' का भी आविष्कार किया और इसी तकनीक पर आज रेडियो, टेलिफोन, सेलफोन और टीवी चलते हैं।

✅ धोखा और असहयोग👇
✔️ टेस्ला अपने जीवन में किस तरह संदेह, धोखा और असहयोग के शिकार होते गए, इसके एकाधिक प्रसंग हैं। मसलन, टेस्ला एक 'ग्लोबल वायरलेस कम्यूनिकेशन सिस्टम' तैयार करना चाहते थे। योजना एक बड़े इलेक्ट्रिक टावर से पूरी दुनिया के साथ सूचनाएं साझा करने और दुनिया को मुफ्त बिजली देने की थी। इसके लिए उन्हें निवेशकों के एक समूह से पैसे मिल गए थे। पर जब लांग आइसलैंड में प्रयोगशाला और बड़ा ट्रांसमिशन टॉवर बनाने का काम शुरू किया तो निवेशकों को उनकी योजना पर संदेह होने लगा। उन्हीं दिनों एडिसन की तरह

मार्कोनी ने भी टेस्ला के लिए आगे की राह मुश्किल कर दी और अपने लिए अवसरवादी अनुकूलता हासिल की।
 
✔️ मार्कोनी ने एंडू कार्नेगी और थॉमस एडिसन के वित्तीय सहयोग से अपनी रेडियो टेक्नोलॉजी में काफी तरक्की की। ऐसे में टेस्ला के पास अपनी परियोजना को बीच में ही छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। 1917 में टेस्ला को दीवालिया घोषित कर दिया गया। उनका बनाया टॉवर तोड़ दिया गया और मलबे से बकाया कर्ज की वसूली की गई।

✔️ जीवन के अंतिम कुछ वर्ष टेस्ला ने न्यूयॉर्क के एक होटल में बिताए। सात जनवरी 1943 को उनका निधन हो गया। उनकी मौत के बाद अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने मार्कोनी के कुछ अहम पेटेंट अमान्य कर दिए और टेस्ला के रेडियो से जुडे आविष्कारों को बाद में मान्यता मिली।



✅ मिथकीय पुरुष 👇
✔️ टेस्ला के बारे में आज बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है और ज्यों-ज्यों उनके बारे में नई जानकारियां और शोध सामने आ रहे हैं, उनके साथ यह तथ्य भी रेखांकित हो रहा है कि विज्ञान की दुनिया अपनी नैतिकता बहुत पहले खो चुकी थी। लिहाजा, शोध और आविष्कार के कारण यशस्वी करार दिए जाने का इतिहास प्रतिभा से खिलवाड़ का भी इतिहास है।

✔️ इस महान वैज्ञानिक से से जुड़े मिथकों का दायरा कितना बड़ा और रहस्यमयी है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि टेस्ला इस धरती के वासी थे ही नहीं। वे एक एलियन थे या यह भी कि वे एलियंस के साथ बात करते थे, उन्हें लेकर इस तरह का भ्रम या मान्यता उनके जीवित रहते ही प्रचलित हो चुकी थी।

✔️ जीवन के अंतिम दिनों में टेस्ला कबूतरों से बातें करते थे। खासतौर पर एक सफेद मादा कबूतर से। वे उस कबूतर पर मोहित हो चुके थे। उस कबूतर ने टेस्ला की बांहों में ही अंतिम सांस ली। टेस्ला ने तब घोषणा की कि वह जान गया है कि उसने इस जिंदगी का अपना काम संपन्न कर लिया है।

ज्ञानचंद्र घोष : प्रसिद्ध वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता।।

(14 सितम्बर 1894 – 21 जनवरी 1959)

पुरुलिया, पश्चिम बंगाल में 14 सितम्बर 1894 में जन्में ज्ञानचंद्र घोष भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों में से एक थे।

▪️ शिक्षा :-
• वर्ष 1915 – एम.एस.सी. प्रेसिडेंसी कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय (वर्तमान कोलकाता)
• वर्ष 1918 – डी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की।

▪️ विदेश में :-
• वर्ष 1919 में ज्ञान चंद्र घोष ने यूरोप में प्रोफ़ेसर डोनान (इंग्लैंड) और डॉ. नर्स्ट व डॉ. हेवर (जर्मनी) के अधीन कार्य किया।

▪️ कार्यक्षेत्र :-
• प्रोफेसर – साइंस कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
• वर्ष 1921 – ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नियुक्त।
• वर्ष 1939 – डायरेक्टर, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस, बेंगलोर।

▪️ प्रसिद्ध सिद्धांत :-
• ‘घोष का तनुता सिद्धांत’

▪️ उच्च पद पर :-
• वर्ष 1947-1950 – डायरेक्टर जनरल ऑफ इंडस्ट्रीज एंड सप्लाइज़, भारत सरकार।
• संस्थापक व डायरेक्टर, खड़गपुर तकनीकी संस्थान।
• उपकुलपति, कलकत्ता विश्वविद्यालय।  
• योजना आयोग के सदस्य, भारत सरकार।
• अनुसंधान कार्यक्षेत्र में इंडियन साइंस कांग्रेस और भारतीय केमिकल सोसायटी के अध्यक्ष नियुक्त।

▪️ ज्ञानचंद्र घोष के अनुसंधान विषय :-
• विशेष रूप से विद्युत रसायन, गति विज्ञान, उच्चताप गैस अभिक्रिया, उत्प्रेरण, आत्मऑक्सीकरण, प्रतिदीप्ति थे।

Parakaram Diwas ( पराक्रम दिवस )

( 125th Netaji Subhash Chandra Bose Jayanti)

🟢 SUBHAS CHANDRA BOSE IN NEWS 

💠 The GoI has decided to celebrate the birth anniversary of Netaji Subhas Chandra Bose that falls on January 23 as 'Parakram Diwas'.

💠 23rd January 2021 will mark the 125th birth anniversary year of Netaji

💠 Centre to dedicate a Museum on Netaji Subhash Chandra Bose in Kolkata on 125th birth anniversary

💠 PM Modi to Chair High Level Committee constituted to commemorate the 125th birth anniversary of Netaji Subhas Chandra Bose

💠 Majerhat Bridge in Kolkata named “Jai Hind” to Mark Netaji’s 125th Birth Anniversary

💠 Veteran Professor Chitra Ghosh & Niece of Netaji Subhas Chandra Bose passes away


सुभाष चंद्र बोस- विलक्षण व्यक्तित्व के धनी और परोपकार की मूर्त। 

जानिए आज विशेष 📋📈

✔️ विलक्षण व्यक्तित्व के धनी सुभाष चंद्र बोस एक महान सेनापति, एक वीर सैनिक और राजनीति के अद्भुत खिलाड़ी तो थे ही, साथ ही वो दूसरों के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझने वाले संवेदनशील शख्स भी थे। उनसे जुड़े ऐसे ही कुछ दिलचस्प प्रसंग प्रस्तुत हैं, जिनसे उनकी उदारता, मित्रता, संवेदनशीलता, दूरदर्शिता स्पष्ट परिलक्षित होती है। 

✔️ जब वे स्कूल में पढ़ने जाया करते थे, तब उनके स्कूल के पास ही एक असहाय वृद्ध महिला रहती थी, जो अपने लिए भोजन बनाने में भी असमर्थ थी। सुभाष से उसका दुख देखा नहीं गया और प्रतिदिन स्कूल में वे लंच के लिए अपना जो टिफिन लेकर जाते थे, उसमें से आधा उन्होंने उस वृद्ध महिला को देना शुरू कर दिया। एक दिन उन्होंने देखा कि वह महिला बहुत बीमार है। करीब 10 दिनों तक उन्होंने उस वृद्ध महिला की सेवा कर उसे ठीक कर दिया।

✔️ सुभाष जब कॉलेज जाया करते थे, उन दिनों उनके घर के ही सामने एक वृद्ध भिखारिन रहती थी। पटे-पुराने चिथड़ों में भीख मांगते देख सुभाष का हृदय रोजाना यह सोचकर दहल उठता कि कैसे यह बुढ़िया सर्दी हो या बरसात अथवा तूफन या कड़कती धूप, खुले में बैठकर भीख मांगती है और फिर भी उसे दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती। यह सब देखकर उनका हृदय ग्लानि से भर उठता। घर से उनका कॉलेज करीब तीन किलोमीटर दूर था। आखिकार प्रतिदिन बस किराये और जेब खर्च के लिए उन्हें जो भी पैसे मिलते, उन्होंने वो बचाने शुरू कर दिए और पैदल ही कॉलेज जाना शुरू कर दिया। इस प्रकार प्रतिदिन अपनी बचत के पैसे उन्होंने जीवनयापन के लिए उस बूढ़ी भिखारिन को देने शुरू कर दिए। 

✔️ भारत की आजादी के संघर्ष में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फैज' के योगदान को सदैव सराहा जाता है लेकिन एक बार उनकी इसी में एक साम्प्रदायिक विवाद ने जन्म ले लिया था। दरअसल मुस्लिम भाईयों का विरोध था कि मैस में सूअर का मांस नहीं बनेगा जबकि 'आजाद हिन्द पौज' के हिन्द साथी गाय का मांस इस्तेमाल करने का प्रखर विरोध कर रहे थे। विकट समस्या यह थी कि दोनों में से कोई भी पक्ष एक-दूसरे की बात मानने या समझने को तैयार नहीं था। विवाद बढ़ने पर जब यह सारा वाकया नेताजी के समक्ष आया तो उन्होंने सारे प्रकरण को गहराई से समझते हुए अगले दिन इस पर अपना फैसला सुनाने को कहा। चूंकि वे फ़ौज के सर्वेसर्वा थे तो स्पष्ट था कि उनका निर्णय ही अंतिम निर्णय होना था। अंततः दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उन्होंने अगले दिन ऐसा निर्णय सुनाया कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच पनपा विवाद स्वतः ही खत्म हो गया। अपने फैसले में उन्होंने कहा कि भविष्य में 'आजाद हिन्द फैज' की मैस में न तो गाय का मांस पकेगा, न ही सूअर का।

✔️ कॉलेज में सुभाष चंद्र बोस का एक दोस्त था, जो बंगाल की ही किसी छोटी जाति से संबंध रखता था। हॉस्टल में रहते हुए उसे एक बार चेचक हो गया। छूत की बीमारी होने के कारण उसके होस्टल के साथी उसे उसके हाल पर अकेला छोड़ गए लेकिन जब सुभाष को यह बात पता चली तो उनसे यह सब देखा नहीं गया। वे उसके पास पहुंचे और स्वयं उसका इलाज शुरू कराया और रोज उसे देखने जाने लगे। जब सुभाष के पिता को यह सब पता चला तो उन्होंने सुभाष को समझाया कि यह छूत की बीमारी है और तुम्हें भी लग सकती है, इसलिए उस लड़के से दूर रहा करो किन्तु सुभाष ने जवाब दिया कि उन्हें पता है कि यह छूत की बीमारी है किन्तु संकट की घड़ी में मित्र ही मित्र के काम आता है और अगर जरूरत पड़ने पर वह अपने निर्धन और बेसहारा मित्र की मदद नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा? बेटे से मित्रता की यह सुंदर परिभाषा सुन उनके पिता बड़े खुश हुए और सुभाष ने अपने दोस्त का चेचक का इलाज पूरा कराकर उसे स्वस्थ कर दिया। 

✔️ बात उन दिनों की है, जब बंगाल में भारी बाढ़ आई हुई थी और गांव के गांव बाढ़ के पानी में समा गए थे। समस्त जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। सुभाष तब कॉलेज में पढ़ते थे। उन्होंने अपने कुछ सहपाठियों के साथ मिलकर बाढ़ पीडितों के लिए राहत सामग्री इकट्ठा करने का निश्चय किया और जी-जान से बाढ़ पीड़ितों की मदद में जुट गए।

खान अब्दुल गफ्फार खान : ऐसे ही नहीं पुकारते हैं उन्हें “बादशाह खान” ।।

(729 words) 

देश की आजादी के लिए कई मतवालों ने आहुतियां दीं। एक ऐसे ही महान राजनेता और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वाले शख्स थे खान अब्‍दुल गफ्फार खान। इतिहास के पन्‍नों पर उनका एक नहीं बल्क‍ि अनेक नाम हैं- सरहदी गांधी (सीमान्त गांधी), बाचा खान, बादशाह खान, फ्रंटियर गांधी, आदि। 20 जनवरी को उनकी पुण्यतिथि पर उनका जिक्र तो बनता है।  
 
उनके कई नामों की बात करें तो बचपन से ही अब्दुल गफ्फार खान अत्यधिक दृढ़ स्वभाव के व्यक्ति रहे, इसलिये अफगानों ने उन्हें 'बाचा खान' नाम दिया। सीमा प्रांत के कबीलों पर उनका अत्यधिक प्रभाव था। गांधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गांधी' की छवि बनी। विनम्र गफ्फार ने सदैव स्वयं को एक 'स्वतंत्रता संघर्ष का सैनिक' मात्र कहा, परन्तु उनके प्रशंसकों ने उन्हें 'बादशाह खान' कह कर पुकारा। गांधी जी भी उन्हें ऐसे ही सम्बोधित करते थे।
 

प्रांरभिक जीवन

जन्म 6 फरवरी 1890 में ब्रिटिश भारत की पेशावर घाटी में उस्मानज़ई (वर्तमान में पाकिस्तान) के एक समृद्ध पश्तून परिवार में हुआ था। छोटी उम्र से ही खान भारतीयों के बीच शिक्षा और साक्षरता में सुधार के प्रयासों में शामिल रहे। बीस साल की उम्र में, उन्होंने कई स्कूलों की स्थापना की। 1910 में 20 वर्ष की आयु में खान ने अपने गृह नगर में एक मस्जिद में स्कूल खोला। लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने 1915 में उनके स्कूल को जबरदस्ती बंद कर दिया, क्योंकि उनका मानना ​​था कि यह ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का केंद्र था।
 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

खान मुख्य रूप से पश्तून नेता थे, जो स्वतंत्रता आंदोलन के एक सक्रिय सदस्य थे। प्रारंभ में, बाचा खान का लक्ष्य पश्तूनों के सामाजिक उत्थान की ओर ले जाना था, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि वे विभिन्न पश्तून परिवारों के बीच शिक्षा और सदियों के रक्त संघर्ष के कारण पीछे रह गए हैं। कालांतर में, उन्होंने एकजुट, स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष भारत के गठन की दिशा में काम किया। इस मुकाम को हासिल करने के लिए, उन्होंने 1929 में खुदाई खिदमतगार ("भगवान के सेवक") की स्थापना की, जिसे आमतौर पर "रेड शर्ट्स" (सुरक्ष पौष) के रूप में जाना जाता था। 

आजादी की लड़ाई उन्होंने रौलट एक्ट के खिलाफ आंदोलन में अपनी भूमिका के साथ शुरुआत की, जहां उन्होंने महात्मा गांधी से मुलाकात की। उनकी सक्रियता के परिणामस्वरूप उन्हें 1920 और 1947 के बीच कई बार कैद और प्रताड़ित किया गया था। इसके बाद, वह खिलाफत आंदोलन में शामिल हो गए और 1921 में उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत में एक खिलाफत समिति के जिला अध्यक्ष चुने गए। उनकी “खुदाई खिदमतगार” संस्था ने 1947 तक विभाजन तक कांग्रेस पार्टी की सहायता की।

अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान को सर्वप्रथम 1919 में गिरफ्तार किया गया था दूसरी बार सत्याग्रह आंदोलन के चलते उन्हें 1930 में गिरफ्तार किया गया। जेल में उन्होंने सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया।

संविधान निर्माण में योगदान

खान कांग्रेस पार्टी के टिकट पर उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत से संविधान सभा के लिए चुने गए थे। वह बहस में तो सक्रिय सदस्य नहीं थे, हालांकि वे सलाहकार समिति के सदस्य थे।
 

भारत विभाजन

बादशाह खान देश के विभाजन के विरोधी थे, हालांकि विभाजन के बाद पाकिस्तान में बने रहने का विकल्प चुना। जहां महात्मा गांधी से प्रभावित, उन्होंने पश्तून समुदाय के लिए एक स्वायत्त क्षेत्र की वकालत करते हुए अहिंसा के आदर्श को जारी रखा। पाकिस्तान में उनकी सक्रियता के परिणामस्वरूप सत्रह वर्षों में बार-बार कारावास मिला। पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरुद्ध 'स्वतंत्र पख्तूनिस्तान आंदोलन' आजीवन चलाते रहे।

उन्हें अपने सिद्धांतों की भारी कीमत चुकानी पड़ी, वह कई वर्षों तक जेल में रहे और उसके बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में रहना पड़ा। जहां वह 1972 तक निर्वासन में रहे। 1970 में वे भारत के कई हिस्‍सों में घूमे। 1972 में वह पाकिस्तान लौटे।
 

महत्वपूर्ण लेखन

उनकी रचनाओं में उनकी आत्मकथा माय लाइफ एंड स्ट्रगल: बादशाह खान की आत्मकथा और एक राष्ट्र के विचार शामिल हैं। खान अब्दुल गफ्फार खान को वर्ष 1987 में भारत सरकार की ओर से भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।
 

मृत्यु

सन 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नजरबंद कर दिया। 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी और उनकी अंतिम इच्छा अनुसार उन्हें जलालाबाद अफगानिस्तान में दफ़नाया गया। उनके अंतिम संस्कार में 200,000 लोग शामिल हुए थे जिनमें तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह भी शामिल थे।

पुण्यतिथि विशेष : प्रकृति के सुकोमल कवि सुमित्रानंदन पंत।।


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आज प्रकृति के सुकोमल कवि सुमित्रानंदन पंत की पुण्यतिथि है। हिंदी साहित्य में छायावाद के चार मुख्य आधार स्तम्भों में से एक सुमित्रानंदन पंत हिंदी काव्य की नई धारा के प्रवर्तक थे। प्रकृति चित्रण, सौंदर्य, दर्शन, प्रगतिशील चेतना और रहस्यवाद को विस्तार देती सुमित्रानंदन पंत की रचनाएं हिंदी भाषा समेत विश्व के रचना संसार की अनुपम धरोहर है। 

गोसाईंदत्त से सुमित्रानंदन पंत बनने की गाथा

सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई, 1900 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक ग्राम में हुआ था। बाल्यकाल में ही उनकी मां का देहांत हो गया था। ऐसे में जननी का स्थान प्रकृति ने ले लिया और उसी की स्नेहछाया में वे आगे बढ़े। उनके बचपन का नाम गोसाईंदत्त था। गांव में प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे अल्मोड़ा आए। अल्मोड़ा में ही दस वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना नाम गोसाईंदत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। इतनी छोटी अवस्था में ऐसा नामकरण उनकी सृजनशीलता का परिचय देता है। काशी के म्योर कॉलेज से उन्होंने अध्ययन पूरा किया। गौरतलब है कि प्रयागराज आकाशवाणी के प्रारंभिक दिनों में उन्होंने परामर्शदाता के रूप में वहां कार्य किया। 

सुमित्रानंदन पंत की काव्य यात्रा 

सुमित्रानंदन पंत किशोरावस्था में ही कविता के सौंदर्य की ओर आकृष्ट हो गए थे। उनकी प्रारंभिक रचनाओं की केंद्र बिंदु प्रकृति है। उन्होंने सरिता,पर्वत,मेघ, झरना, वन, समेत विभिन्न प्राकृतिक बिम्ब के प्रयोग से कविता को नया आयाम दिया। वर्ष 1926 को "पल्लव" नामक उनका पहला काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। इसी तरह उनकी अन्य रचनाओं में, वीणा, गुंजन, ग्राम्या,अणिमा, युगांत और लोकयतन सम्मिलित हैं। सुमित्रानंदन पंत को उनकी कृति "चिदम्बरा" के लिए ज्ञानपीठ और "कला और बूढ़ा चांद" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

अद्भुत है पन्त का प्रकृति प्रेम और सौंदर्य बोध 

सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति प्रेम अद्भुत है। प्रकृति उनके लिए धात्री, सहोदरा, सहगामिनी से लेकर उपदेशिका तक सर्वस्व है। दूरदर्शन को दिए साक्षात्कार में वे कहते हैं कि- "हिमालय के आंचल में पैदा होने के कारण सौंदर्य सदा से मेरा मेहमान रहा है।" पन्त के लिए स्नेह, ममत्व, राग-विराग जैसे समस्त भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम कविता है, जिनमें वे प्रकृति चित्रण करते हैं। प्रकृति प्रेम की दृष्टि से उनके काव्यों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि "वीणा" और "पल्लव" में सुमित्रानंदन पंत के लिए प्रकृति जिज्ञासा उत्तपन्न करती है तो वहीं "युगांत" तक आते-आते प्रकृति मार्गदर्शक का रूप धर लेती है। 

समन्वयवादी है पंत की दृष्टि 

पंत की रचनाओं की दृष्टि समन्वयवादी है। उनकी रचनाओं में मार्क्स के विचारों से लेकर श्री अरविंद और विवेकानंद के दर्शन का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। भारतीय आध्यात्म के अनुरागी पन्त की दृष्टि में विज्ञान और आध्यात्म का समन्वय इस युग के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। वहीं, महिलाओं को लेकर पंत की दृष्टि उदार है। देहबुद्धि से इतर उन्होंने महिलाओं को संवेदना का पुंज माना। उनका कथन है कि - "मनुष्यता का विकास तभी होगा जब स्त्री स्वतंत्र होकर इस धरा में विचर सकेगी, जब उसे भय नहीं रहेगा।" 

प्रकृति एवं अनुभूति के कवि और भाषा के इस समृद्ध हस्ताक्षर सुमित्रानंदन पंत का 28 दिसम्बर 1977 को प्रयागराज में निधन हो गया। इस भौतिकवादी युग में अंतर्जीवन के मूल्यों की ओर ध्यान दिलाने वाले,प्रकृति के इस सुकुमार कवि की आभा हिंदी के साहित्याकाश में सदैव बनी रहेगी।

राष्ट्रीय गणित दिवस : जानिए संख्‍याओं के जादूगर रामानुजन के बारे में।।


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दुनिया भर में तमाम लोग ऐसे हैं, जिन्‍हें गणित से डर लगता है, लेकिन सच पूछिए तो यह विज्ञान की वो विधा है, जो समझ में आने के बाद खेल सी बन जाती है। गणित की शुरुआत 'शून्‍य' से होती है, जो भारत ने दिया और साथ में दिये ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट तथा श्रीनिवास रामानुजन जैसे विश्वविख्यात गणितज्ञ, जिन्होंने भारत में गणित के विभिन्न सूत्रों, प्रमेयों और सिद्धांतों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्‍हीं में से एक रामानुजन के जन्‍म दिवस यानी 22 दिसम्‍बर को हम राष्‍ट्रीय गणित दिवस मनाते हैं। 

इस दिवस को मनाने की शुरुआत 2011 में पूर्व प्रधानमत्री डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुई। और तब से हम प्रतिवर्ष 22 दिसम्बर को ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ मनाते आ रहे हैं। 

26 दिसम्बर 2011 को तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने चेन्नई में आयोजित श्रीनिवास रामानुजन की 125वीं जयंती समारोह में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर देश में योग्य गणितज्ञों की संख्या कम होने पर चिंता जताते हुए कहा था कि श्रीनिवास रामानुजन की असाधारण प्रतिभा ने पिछली सदी के दूसरे दशक में गणित की दुनिया को एक नया आयाम दिया। गणित में रामानुजन के अविस्मरणीय योगदान को याद रखने और सम्मान देने के लिए रामानुजन के जन्मदिन पर प्रतिवर्ष 22 दिसम्बर को ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ मनाए जाने का निर्णय लिया गया, साथ ही वर्ष 2012 को राष्ट्रीय गणित वर्ष भी घोषित किया गया था।

रामानुजन के जीवन से जुड़ी खास बातें 

रामानुजन ने गणितीय विश्लेषण, अनंत श्रृंखला, संख्या सिद्धांत तथा निरंतर भिन्न अंशों के लिए आश्चर्यजनक योगदान दिया और अनेक समीकरण व सूत्र भी पेश किए। वे ऐसे विश्वविख्यात गणितज्ञ थे, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों और विषय गणित की शाखाओं में अविस्मरणीय योगदान दिया और जिनके प्रयासों तथा योगदान ने गणित को एक नया अर्थ दिया। उनके द्वारा की गई खोज ‘रामानुजन थीटा’ तथा ‘रामानुजन प्राइम’ ने इस विषय पर आगे के शोध और विकास के लिए दुनियाभर के शोधकर्ताओं को प्रेरित किया।

22 दिसम्बर 1887 को मद्रास से करीब चार सौ किमी दूर तमिलनाडु के ईरोड शहर में जन्मे श्रीनिवास अयंगर रामानुजन का बचपन कठिनाइयों और निर्धनता के दौर में बीता था। तीन वर्ष की आयु तक वह बोलना भी नहीं सीख पाए थे और तब परिवार के लोगों को चिंता होने लगी थी कि कहीं वह गूंगे न हों लेकिन कौन जानता था कि यही बालक गणित के क्षेत्र में इतना महान कार्य करेगा कि सदियों तक दुनिया उन्हें आदर-सम्मान के साथ याद रखेगी। उनका बचपन इतने अभावों में बीता कि वे स्कूल में किताबें अक्सर अपने मित्रों से मांगकर पढ़ा करते थे। 

उन्हें गणित में इतनी दिलचस्पी थी कि गणित में उन्हें प्रायः सौ फीसदी अंक मिलते थे लेकिन बाकी विषयों में बामुश्किल ही परीक्षा उत्तीर्ण कर पाते थे क्योंकि गणित के अलावा उनका मन दूसरे विषयों में नहीं लगता था। 10 वर्ष की आयु में प्राइमरी की परीक्षा में उन्होंने पूरे जिले में गणित में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए थे।

12 वर्ष की आयु में त्रिकोणमिति सीख ली थी 

रामानुजन को गणित का इतना शौक था कि 12 वर्ष की आयु में ही उन्होंने त्रिकोणमिति में महारत हासिल कर ली थी और बगैर किसी की मदद के अपने दिमाग से कई प्रमेय विकसित किए। उन्होंने कभी गणित में किसी तरह का प्रशिक्षण नहीं लिया था। स्कूली दिनों में उन्हें उनकी प्रतिभा के लिए अनेक योग्यता प्रमाणपत्र तथा अकादमिक पुरस्कार प्राप्त हुए। गणित में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1904 में के. रंगनाथ राव पुरस्कार भी दिया गया था। 

कुंभकोणम के गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज में अध्ययन करने के लिए उन्हें छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया था किन्तु उनका गणित प्रेम इतना बढ़ गया था कि उन्होंने दूसरे विषयों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया था। दूसरे विषयों की कक्षाओं में भी वे गणित के ही प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि 11वीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित के अलावा दूसरे सभी विषयों में अनुत्तीर्ण हो गए और इस कारण उन्हें मिलने वाली छात्रवृत्ति बंद हो गई। परिवार की आर्थिक हालत पहले ही ठीक नहीं थी।

क्लर्क की नौकरी से शुरू किया करियर 

आखिरकार परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने गणितज्ञ रामास्वामी अय्यर के सहयोग से मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी करनी शुरू की। नौकरी के दौरान भी वे समय मिलते ही खाली पन्नों पर गणित के प्रश्नों को हल करने लग जाया करते थे। गणित के क्षेत्र में सफलता उन्हें उसी दौर में मिली। 1913 में उन्होंने गणित के प्रति अपने ज्ञान एवं रुचि को आगे बढ़ाने के लिए यूरोपीय गणितज्ञों से सम्पर्क साधा। एकदिन एक ब्रिटिश नागरिक की नजर उनके द्वारा हल किए गए गणित के प्रश्नों पर पड़ी तो वह उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुआ। 

उसी अंग्रेज के माध्यम से रामानुजन का सम्पर्क जाने-माने ब्रिटिश गणितज्ञ और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जी एच हार्डी से हुआ। उसी के बाद उनका हार्डी के साथ पत्रों का आदान-प्रदान करना शुरू हुआ। हार्डी ने उनकी विलक्षण प्रतिभा को भांपकर 1914 में उन्हें अपनी प्रतिभा को साकार करने के लिए लंदन बुला लिया और उनके लिए कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में व्यवस्था की, जिसके बाद उनकी ख्याति दुनियाभर में फैल गई।

लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी के सदस्य बने 

जी. एस. हार्डी ने रामानुजन को यूलर, गोस, आर्किमिडीज, आईजैक न्यूटन जैसे दिग्गजों के समकक्ष श्रेणी में रखा था। 1917 में उन्हें ‘लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी’ का सदस्य चुना गया और अगले ही वर्ष 1918 में इंग्लैंड की प्रतिष्ठित संस्था ‘रॉयल सोसायटी’ ने उन्हें अपना फैलो बनाकर सम्मान दिया। वह उपलब्धि हासिल करने वाले रामानुजन सबसे कम उम्र के व्यक्ति थे। रामानुजन ने करीब पांच साल कैम्ब्रिज में बिताए और उस दौरान गणित से संबंधित कई शोधपत्र लिखे। इंग्लैण्ड में उन पांच वर्षों के दौरान उन्होंने मुख्यतः संख्या सिद्धांत के क्षेत्र में कार्य किया। प्रोफेसर जी एच हार्डी के साथ मिलकर रामानुजन ने कई शोधपत्र प्रकाशित किए और उन्हीं में से एक विशेष शोध के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने रामानुजन को बी.ए. की उपाधि भी प्रदान दी। महान गणितज्ञ रामानुजन की गणना आधुनिक भारत के उन व्यक्तित्वों में की जाती है, जिन्होंने विश्व में नए ज्ञान को पाने और खोजने की पहल की।

संख्याओं के जादूगर थे रामानुजन 

रामानुजन को ‘गणितज्ञों का गणितज्ञ’ और संख्या सिद्धांत पर अद्भुत कार्य के लिए ‘संख्याओं का जादूगर’ भी कहा जाता है, जिन्होंने खुद से गणित सीखा और जीवनभर में गणित के 3884 प्रमेयों (थ्योरम्स) का संकलन किया, जिनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किए जा चुके हैं। गणित पर उनके लिखे लेख उस समय की सर्वोत्तम विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुआ करते थे। गणित में की गई उनकी अद्भुत खोजें आज के आधुनिक गणित तथा विज्ञान की आधारशिला बनी।

लंदन की जलवायु और रहन-सहन की शैली रामानुजन के अनुकूल नहीं थी, जिससे धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य प्रभावित होने लगा। खराब खाने की आदतों के साथ वे अथक परिश्रम भी कर रहे थे, जिसके चलते उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। जांच के दौरान पता चला उन्हें टीबी की बीमारी हो गई है। उसके बाद वहां के डॉक्टरों की सलाह पर वे भारत लौट आए लेकिन यहां आने पर भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ और दिन-ब-दिन उनकी हालत बिगड़ती गई। 

अंततः 26 अप्रैल 1920 को महज 32 वर्ष की अल्पायु में इस विलक्षण प्रतिभा ने कुंभकोणम में अंतिम सांस लेते हुए दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके निधन के पश्चात् उनकी 5000 से अधिक प्रमेयों को छपवाया गया, जिनमें से अधिकांश को कई दशकों बाद तक सुलझाया नहीं जा सका था।

कवि मैथिलीशरण गुप्त।।


राष्ट्रकवि मैथिलीशरण ।।

➡️गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 में यूपी के झांसी ज़िले में चिरगाँव में हुआ था। 

➡️उन्होंने अपनी कविताओं में खड़ी बोली का खूब इस्तेमाल किया। 

➡️उनका महाकाव्य साकेत हिन्दी साहित्य के लिए एक मील का पत्थर है। 

➡️जयद्रथ वध, भारत-भरती, यशोधराउनकी मशहूर रचनाएं हैं। 

➡️पद्मविभूषण सम्मान से नवाज़े इस कवि ने 12 दिसंबर 1964 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

➡️मैथिलीशरण गुप्त की अविस्मरणीय कविता

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।।

कवि मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि हैं। जिन्होंने पुराणों में उपेक्षित पात्रों को अपने लेखन का आधार बनाया। और इनके द्वारा रचित महाकाव्य साकेत हिंदी साहित्य की एक अनूठी रचना है। और इसी रचना से छायावाद की भूमिका तैयार होती है। साकेत में सौमित्र की पत्नी उर्मिला के मन को समझने और समझाने का प्रयास किया है। साकेत का अष्टम सर्ग चित्रकूट प्रसंग से संबंधित है। चित्रकूट में जब सभी परिवारी जन एक दूसरे से मिलते हैं तो उसी समय चतुराई से माता सीता उर्मिला का लक्ष्मण से मिलन करवाती है। तब दोनों पति-पत्नी के मध्य है उन क्षणों में जो मौखिक संवाद हुआ उस संवाद को गुप्तजी ने बड़े ही सहज सरल और विनीत भाव से पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।

मेरे उपवन के हरिण, आज वन चारी
मैं बांध ना लूंगी तुम्हें, तजो भय हारी

उर्मिला कहती है की उर्मिला रूपी उपवन में विचरण करने वाला सौमित्र रूपी हिरण आज वनचारी हो गया है। लक्ष्मण संकोच में है, उर्मिला उन्हें अपने साथ ले जाने की बात ना करेगी अब तो मैं उनसे क्या कहूंगा इससे पहले लक्ष्मण कुछ कहते उर्मिला कहती हैं मुझसे डरो नहीं मैं तुम्हें 1 जाने से नहीं रोकूंगी आपके कर्तव्य मैं वादा नहीं डालूंगी। इतना बड़ा बलिदान रघुकुल की रानी ही दे सकती है।

उर्मिला कहती है
हां स्वामी! कहना था क्या क्या
कह ना सकी कर्मों का दोष
पर जिस में संतोष तुम्हें हो 
मुझे उसी में है संतोष

साकेत के अष्टम सर्ग का यह अंश गुप्त जी की नारी के प्रति कोमल भावना कितनी प्रकार थी इसका अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है।
इसी प्रकार यशोधरा नामक रचना में राष्ट्रकवि गुप्त जी ने यशोधरा के मन को पाठकों के सामने बड़ी ही सहजता से व्यक्त किया है।

सिद्धि हेतु स्वामी गए यह गौरव की बात 
पर चोरी चोरी गई यही बड़ा व्या घात
.........
मैंने दूध पिला कर पाला
 सोती छोड़ गया पर मुझको वह मेरा मतवाला 
............
सखी प्रियतम है वन में 
किंतु कौन इस मन में
.......
पधारो भव भव के भगवान
रख ली मेरी लज्जा तुमने आओ अत्र भवान।
नाथ विजय है यही तुम्हारी 
दिया तुच्छ गौरव भारी
अपनाई मुझ सी लघु नारी
होकर महा महान
..........

तुम भिक्षक बन कर आए थे गोपा क्या देती स्वामी 
था अनूरूप एक राहुल ही रहे सदा यह अनुगामी 
मेरे दुख में भरा विश्व सुख क्यों न भरूं मै हामी
बुद्धम शरणम धर्मं शरणं संघम शरणम गच्छामि।

 गुप्त जी हिंदी साहित्य में ही नहीं बल्कि हर एक पाठक के हृदय में अमिट छाप छोड़ते हैं। आज गुप्त जी की पुण्यतिथि पर हम सब उनके चरण कमलों की वंदना करते हैं। और हम सब उनके द्वारा रचित साहित्य का अमृतपान करते हुए अपने जीवन को सुंदर, सहज और सरल बनाने का प्रयत्न करते हैं।
       परिस्थिति के अनुसार माता कैकेयी की अवस्था को देखकर श्री राम के माध्यम से गुप्त जी कहते हैं

सौ बार धन्य वह एक लाल की माई
जिस जननी ने है जना भरत सा भाई।

उसी प्रकार से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के माता-पिता भी धन्य हैं जिन्होंने मा हिंदी के ऐसे बेटे को जन्म दिया।


Mere upvan ke harin

सुमित्रा कुमारी सिन्हा।।

जन्म -1913
जन्म भूमि- फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -30 सितंबर 1994
संतान - पुत्र- अजित शंकर चौधरी, पुत्री- कीर्ति चौधरी
प्रसिद्धि - कवियित्री
काल- आधुनिक काल
युग- छायावादी युग 
काव्यधारा- राष्ट्रीय चेतना प्रधान काव्य धारा के अन्तर्गत समष्टि चेतना प्रधान काव्य की कवियत्री

#रचनाएं:-

#कविता संकलन:-
विहाग (1940)
आशापर्व (1942)
बोलों के देवता (1945)
पंथिनी

#कहानी संग्रह:-

अचल सुहाग (1939)
वर्ष गाँठ (1942

#अन्य :-

 प्रसारिका, कथा कुंज, फूलों के गहने, वैज्ञानिक बोधमाला, आंचल के फूल, आँगन के फूल, दादी का मटका।

#विशेष_तथ्य:-

- इन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय योगदान दिया।
- इनके पुत्र अजीत कुमार सिन्हा एक प्रतिभा संपन्न लेखक थे।
-इनकी पुत्री कीर्ति चौधरी ने तार सप्तक की प्रसिद्ध कवियित्री के रूप में अपनी पहचान बनाई।
-सुमित्रा कुमारी सिन्हा आकाशवाणी लखनऊ से सम्बद्ध रहीं।
-इन्होंने बाल साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण काम किया है।

नोट:- संकलन में कोई त्रुटि हो तो जरूर बताएं|

राणा कुम्भा।।

1433-1468 ई. राजस्थान की स्थापत्य कला का जनक मेवाड़ के 84 दुर्गो में से 32 दुर्ग बनवाएं। राजनीतिक व सांस्कृतिक दृष्टि कुम्भा का स्थान महत्वपूर्ण है। उन्होंने 1433 में सारंगपुर के युद्ध में मालवा के शासक महमुद खिलजी प्रथम को पराजित किया। इसी विजय के उपलक्ष में 1444 में चित्तौड़ के विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया, वर्तमान में विजय स्तम्भ राजस्थान पुलिस का प्रतीक चिन्ह है। इसके वास्तुकार राव जैता थे।

1. विजय स्तम्भ

2. कीर्ति स्तम्भ

3. कुम्भ श्याम मंदिर (मीरा मंदिर)

4. कुंभलगढ दुर्ग (राजसंमद)

5. मचाना दुर्ग (सिरोही)

6. बसंती दुर्ग (सिरोही)

7. अचलगढ़दुर्ग (माऊट आबू)

✅ राणा कुंभा संगीत के विद्वान थे। उन्हे "अभिनव भत्र्ताचार्य" भी कहा जाता हैं कुंभा ने "संगीतराज " "रसिकप्रिय" "नृत्य" "रतन कोष" व "सूढ प्रबंध" ग्रन्थों की रचना की थी। रसिका प्रिया गीत गोविन्द पर टीका है। राणा कुंभा के दरबार में प्रसिद्ध शिल्पकार मण्डन था। जिसने "रूप मण्डन" "प्रसाद मण्डन" "वास्तुमण्डन" व "रूपावतार मण्डन" ग्रन्थों की रचना की। रूपावतार मण्डन (मूर्ति निर्माण प्रकरण), इसमें मूर्ति निर्माण की जानकारी मिलती है। मण्डन के भाई नाथा ने "वस्तुमंजरी" पुस्तक की रचना की। मण्डन के पुत्र गोविन्द ने "उद्धार घौरिणी" "द्वार दीपिक" व कुंभा के दरबारी कवि कान्ह जी व्यास ने "एकलिंग" में ग्रंथ लिखा। 1468 ई. कुंभलगढ़ दुर्ग में राणा कुंभा के पुत्र ऊदा (उदयकरण) ने अपने पिता की हत्या कर दी। उदयकरण को पितृहंता कहा जाता है।

ऊदा (उदयकरण) → रायमल (1509 में देहांत) ↓

पृथ्वी राज सिसोदिया (उडना राजकुमार) - राणासंग्राम सिंह(1509-1528) (हिन्दुपात)(5 मई 1509 में राज्यभिषेक 30 जनवरी 1528 में मृत्यु)

कुंभा के पुत्र रायमल ने ऊदा को मेवाड़ से भगा दिया एवं स्वयं शासक बना। रायमल का बडा पुत्र पृथ्वीराज सिसोदिया तेज धावक था। अतः उसे उडना राजकुमार कहा जाता था। 1509 ई में रायमल का पुत्र संग्राम सिंह मेवाड का शासक बना।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का राजनीतिक सफर।।

इंदिरा गांधी की 103वीं जयंती आज  

(892 words)

भारत की पहली और एक मात्र महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्म आज ही के दिन वर्ष 1917 में हुआ था। इंदिरा गांधी पढ़ाई पूरी करते ही राजनीति में सक्रिय हुईं, बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री बनीं और अपने पूरे राजनीतिक सफर में एक लोकप्रिय नेता के तौर पर जानी गईं और आज भी उनके फैसलों को याद किया जाता है। इंदिरा गांधी ने अपने शासन काल में कई ऐसे फैसले लिये जो उस दौर में एक महिला के लिए काफी चुनौती भरे रहे और लोगों की कल्पना से परे भी। इंदिरा गांधी की जयंती पर आइये एक नज़र डालते हैं उनके जीवन पर। 

इंदिरा गांधी भारत के सबसे बड़े नेता, स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं। उनकी मॉं कमला नेहरू एक स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नेता थीं। उनका जन्म 19 नवंबर, 1917 को इलाहाबाद में हुआ था।

इंदिरा गांधी ने दिल्ली के मॉडर्न स्कूल, सेंट सेसिलिया और इलाहाबाद में सेंट मैरी कॉन्वेंट से पढ़ाई की। उन्होंने इंटरनेशनल स्कूल ऑफ जिनेवा, बेक्स में इकोले नौवेल्ले और पूना और बॉम्बे में पीपुल्स ओन स्कूल में भी अध्ययन किया। बाद में वह अपनी मॉं के साथ बेलूर मठ चली गईं, जो रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय है। उन्होंने शांतिनिकेतन में भी अध्ययन किया, जहां रवींद्रनाथ टैगोर ने उनका नाम प्रियदर्शिनी रखा। उसके बाद से कई लोग उन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी टैगोर के नाम से भी पुकारने लगे।

इंदिरा गांधी ने इंग्लैंड में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए दाखिला लिया, लेकिन अपना कोर्स पूरा नहीं कर सकीं और भारत लौट आईं। बाद में 1942 में फिरोज गांधी से शादी उनकी शादी हुई। उनके दो बेटे राजीव और संजय थे।

राजनीतिक सफर

1960 में इंदिरा गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में चुना गया। 1964 में अपने पिता की मृत्यु के बाद, उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया और वे सूचना और प्रसारण मंत्री बनीं। साथ ही लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में शामिल हुईं। 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की अकस्म‍िक मृत्यु के बाद, उन्‍हें प्रधानमंत्री चुना गया। पीएम के रूप में अपने पहले कार्यकाल के दौरान, उन्होंने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। उन्होंने अपने पिता के बाद बतौर पीएम सबसे लंबी सेवा दी। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ भारत को जीत दिलाने के लिए इंदिरा गांधी को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

अपने राजनीतिक सफर में वह सूचना और प्रसारण मंत्री (1964- 1966) रहीं। फिर वह जनवरी 1966 से मार्च 1977 तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में सर्वोच्च पद पर रहीं। सितंबर 1967 से मार्च 1977 तक परमाणु ऊर्जा मंत्री भी रहीं। उन्होंने 5 सितंबर 1967 से 14 फरवरी, 1969 तक विदेश मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी संभाला। गांधी ने जून 1970 से नवंबर 1973 तक गृह मंत्रालय का नेतृत्व किया और जून 1972 से मार्च 1977 तक अंतरिक्ष मंत्री रहीं। जनवरी 1980 से वह योजना आयोग की अध्यक्ष थीं। उन्होंने 14 जनवरी 1980 से फिर से प्रधानमंत्री कार्यालय की अध्यक्षता की।

भारत में लगाया आपातकाल 

1971 में लोकसभा चुनाव के बाद, इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले राज नारायण द्वारा उन पर कदाचार का आरोप लगाया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी कदाचार के आधार पर उस चुनाव को शून्य घोषित कर दिया, जिसका अर्थ था कि इंदिरा गांधी अब प्रधानमंत्री के रूप में अपना पद नहीं रख सकतीं थीं, लेकिन उन्होंने पद छोड़ने से इनकार कर दिया। इसके विरोध में देश भर में अशांति फैल गई। उस दौरान इंदिरा गांधी ने अधिकांश विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार करवा दिया। इस वजह से उनके खिलाफ जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हुए। विरोध बढ़ता ही जा रहा था कि उनके मंत्रिमंडल ने भारत के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल घोषित करने की सिफारिश की, जिसे राष्ट्रपति ने 1975 में लागू कर दिया।

आपातकाल की घोषणा के बाद, पूरा देश इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी के प्रत्यक्ष शासन के अधीन था। पुलिस को विशेष अधिकार दिए गए थे, जो उन्हें अनिश्चित काल तक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने में सक्षम बनाता था। प्रेस को भी सेंसर कर दिया गया था। अधिकांश विपक्षी नेताओं को हिरासत में लिया गया था और विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों को खारिज कर दिया गया था। अंत में, 1977 में, गांधी ने चुनाव दोबारा लड़ने का फैसला किया लेकिन वह चुनाव हार गईं। हालांकि 1980 में उन्होंने वापस चुनाव जीत लिया।

हत्या

1984 में, अमृतसर में स्वर्ण मंदिर पर जरनैल सिंह भिंडरावाले के नेतृत्व वाले चरमपंथियों ने कब्जा कर लिया, जिन्होंने सिखों के लिए एक स्वतंत्र राज्य की मांग की थी। अलग राज्य की मांग और स्वर्ण मंदिर पर कब्जे की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए, इंदिरा गांधी ने सेना भेजी। लेकिन इसके परिणामस्वरूप रक्तपात हुआ, और सिख समुदाय में भारी रोष उत्पन्न हो गया। इसी के चलते 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी के उन्‍हीं के दो अंगरक्षकों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। उनके अंगरक्षकों ने उन पर 31 गोलियां चलाई थीं।

एम् विश्वेश्वरैया।।

एम् विश्वेश्वरैया भारत के महान इंजिनियरों में से एक थे, इन्होंने ही आधुनिक भारत की रचना की और भारत को नया रूप दिया. उनकी दृष्टि और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में समर्पण भारत के लिए कुछ असाधारण योगदान दिया।

शुरुआती जीवन -

विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितम्बर को 1860 में मैसूर रियासत में हुआ था, जो आज कर्नाटका राज्य बन गया है. इनके पिता श्रीनिवास शास्त्री संस्कृत विद्वान और आयुर्वेदिक चिकित्सक थे. इनकी माता वेंकचाम्मा एक धार्मिक महिला थी. जब विश्वेश्वरैया 15 साल के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया था. चिकबल्लापुर से इन्होंने प्रायमरी स्कूल की पढाई पूरी की, और आगे की पढाई के लिए वे बैंग्लोर चले गए. 1881 में विश्वेश्वरैया ने मद्रास यूनिवर्सिटी के सेंट्रल कॉलेज, बैंग्लोर से बीए की परीक्षा पास की. इसके बाद मैसूर सरकार से उन्हें सहायता मिली और उन्होंने पूना के साइंस कॉलेज में इंजीनियरिंग के लिए दाखिला लिया. 1883 में LCE और FCE एग्जाम में उनका पहला स्थान आया. (ये परीक्षा आज के समय BE की तरह है)

मोक्षमुंडम विश्वेश्वरैया करियर –

इंजीनियरिंग पास करने के बाद विश्वेश्वरैया को बॉम्बे सरकार की तरफ से जॉब का ऑफर आया, और उन्हें नासिक में असिस्टेंट इंजिनियर के तौर पर काम मिला. एक इंजीनियर के रूप में उन्होंने बहुत से अद्भुत काम किये. उन्होंने सिन्धु नदी से पानी की सप्लाई सुक्कुर गाँव तक करवाई, साथ ही एक नई सिंचाई प्रणाली ‘ब्लाक सिस्टम’ को शुरू किया. इन्होने बाँध में इस्पात के दरवाजे लगवाए, ताकि बाँध के पानी के प्रवाह को आसानी से रोका जा सके. उन्होंने मैसूर में कृष्णराज सागर बांध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ऐसे बहुत से और कार्य विश्वेश्वरैया ने किये, जिसकी लिस्ट अंतहीन है.

1903 में पुणे के खड़कवासला जलाशय में बाँध बनवाया. इसके दरवाजे ऐसे थे जो बाढ़ के दबाब को भी झेल सकते थे, और इससे बाँध को भी कोई नुकसान नहीं पहुँचता था. इस बांध की सफलता के बाद ग्वालियर में तिगरा बांध एवं कर्नाटक के मैसूर में कृष्णा राजा सागरा (KRS) का निर्माण किया गया. कावेरी नदी पर बना कृष्णा राजा सागरा को विश्वेश्वरैया ने अपनी देख रेख में बनवाया था, इसके बाद इस बांध का उद्घाटन हुआ. जब ये बांध का निर्माण हो रहा था, तब एशिया में यह सबसे बड़ा जलाशय था.

1906-07 में भारत सरकार ने उन्हें जल आपूर्ति और जल निकासी व्यवस्था की पढाई के लिए ‘अदेन’ भेजा. उनके द्वारा बनाये गए प्रोजेक्ट को अदेन में सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया गया. हैदराबाद सिटी को बनाने का पूरा श्रेय विश्वेश्वरैया जी को ही जाता है. उन्होंने वहां एक बाढ़ सुरक्षा प्रणाली तैयार की, जिसके बाद समस्त भारत में उनका नाम हो गया. उन्होंने समुद्र कटाव से विशाखापत्तनम बंदरगाह की रक्षा के लिए एक प्रणाली विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

व्यक्तित्व –

•एम् विश्वेश्वरैया जी बहुत साधारण तरह के इन्सान थे.

•जो एक आदर्शवादी, अनुशासन वाले व्यक्ति थे. वे शुध्य शाकाहारी और नशा से बहुत दूर रहते थे.

•विश्वेश्वरैया जी समय के बहुत पाबंद थे, वे 1 min भी कही लेट नहीं होते थे.

•वे हमेशा साफ सुथरे कपड़ों में रहते थे. उनसे मिलने के बाद उनके पहनावे से लोग जरुर प्रभावित होते थे.

•वे हर काम को परफेक्शन के साथ करते थे. यहाँ तक की भाषण देने से पहले वे उसे लिखते और कई बार उसका अभ्यास भी करते थे.

•वे एकदम फिट रहने वाले इन्सान थे. 92 साल की उम्र में भी वे बिना किसी के सहारे के चलते थे, और सामाजिक तौर पर एक्टिव भी थे.

उनके लिए काम ही पूजा थे, अपने काम से उन्हें बहुत लगाव था.

•उनके द्वारा शुरू की गई बहुत सी परियोजनाओं के कारण भारत आज गर्व महसूस करता है, उनको अगर अपने काम के प्रति इतना दृढ विश्वास एवं इक्छा शक्ति नहीं होती तो आज भारत इतना विकास नहीं कर पाता.

•भारत में उस ब्रिटिश राज्य था, तब भी विश्वेश्वरैया जी ने अपने काम के बीच में इसे बाधा नहीं बनने दिया, उन्होंने भारत के विकास में आने वाली हर रुकावट को अपने सामने से दूर किया था.
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Bal Gangadhar Tilak’s 100th Death Anniversary

◆called ‘father of the Indian unrest” by British colonial rulers.
◆Jawaharlal Nehru called him the ‘father of Indian revolution
◆Mahatma Gandhi described Tilak as ‘the maker of modern India
◆His famous declaration “Swaraj is my birthright, and I shall have it
◆joined the INC in 1890
Tilak and his supporters came to be known as the extremist wing of INC.
◆celebrations on ‘Ganesh Chaturthi’ and ‘Shivaji Jayanti 1892 
◆newspapers –‘Mahratta’ (English) and ‘Kesari’ (Marathi).
◆founding father of the Deccan Education Society created in 1884.
◆opposed to moderate ways and views
◆He spent 6 years in Mandalay prison from 1908 to 1914 for writing articles defending Prafulla Chaki and Khudiram Bose. 
◆one of the founders of the All India Home Rule League, along with Annie Besant and G S Khaparde.
◆against the blatant westernisation of society.
◆opposed to the age of consent bill initially in which the age of marriage of girls was proposed to be raised from 10 to 12
◆two  books byTilak:
Gita Rahasya
Arctic Home of the Vedas
◆Tilak started the Swadeshi movement in India and to promote it, Tilak with Jamshedji Tata established Bombay Swadeshi Stores
◆Opened Swadeshi Wastu Pracharini Sabha during swadeshi movements 1905

सर्वदलीय मान्यता के एकदलीय नेता थे अटल जी।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी पुण्यतिथि 
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➡️ जन्म - 25 दिसम्बर  1924

➡️ जन्मस्थान- ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

➡️ निधन – 16 अगस्त  2018, दिल्ली 

➡️ पिता का नाम- कृष्ण बिहारी वाजपेयी 

➡️ माँ का नाम-  कृष्णा वाजपेयी 

➡️ पार्टी– भारतीय जनता पार्टी 

➡️ भारत के दसवें प्रधानमंत्री

➡️ वर्ष 1952 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, पर सफलता नहीं मिली।

➡️ पत्र-पत्रिका - राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य, वीर अर्जुन 
➡️ 2015 में भारत रत्न से सम्मानित।

➡️ अटल जी के जन्मदिवस 25 दिसम्बर को प्रतिवर्ष सुशासन दिवस के रूप में मनाया जाता है।

देश के जन-जन के मन में अपनी ओज और तेजपूर्ण वाणी से एक अप्रतिम स्थान बनाने वाले भारत रत्न और 3 बार भारत के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी की पुण्यतिथि 16 अगस्‍त को है। सारा देश उन्हें नमन कर रहा है। नीति सिद्धांत, विचार एवं व्यवहार की सर्वोच्च चोटी पर रहते हुए सदैव जमीन से जुड़े रहने वाले अटल जी से जिनका भी संबंध आया, वह राजनीति में कभी छोटे मन से काम नहीं करेगा।

अटल जी की पुण्‍य तिथि पर उनको याद करते हुए बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व सांसद प्रभात झा लिखते हैं कि विपक्ष में रहते हुए देश के हर दल के राजनेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में विशिष्ट स्थान बना लेना, साथ ही उन दलों के कार्यकर्ताओं में यह भाव पैदा कर देना कि काश अटलजी हमारे दल के नेता होते! -यह सामर्थ्य अटलजी में ही था। विरोध में रहते हुए भी वे सदैव सत्ता पक्ष के नेताओं से भी देश में अधिक लोकप्रिय रहे। अपने अखंड प्रवास, वक्तव्य कला और राजनैतिक संघर्ष के साथ-साथ सड़कों से लेकर संसद में सिंह गर्जना कर तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके समकक्ष नेताओं के मन में भी अपना विशिष्ट स्थान बनाने वाले अटलजी सर्वदलीय मान्यता के एकदलीय नेता थे।

महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय में की थी पढ़ाई 

प्रभात झा लिखते हैं, "हम सभी का सौभाग्य है कि अन्य लोगों से अधिक राजनैतिक, सामाजिक और पत्रकार के नाते और इससे भी अधिक ग्वालियर के नाते हमारा उनपर सर्वाधिकार था। ग्वालियर अटलजी की जन्मस्थली और प्रारंभ में कर्मस्थली रही। वे महाराज बाड़े स्थित गोरखी स्कूल और तत्कालीन विक्टोरिया कॉलेज, (आज का महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय) अटल जी की यादों से जुड़ा हुआ है। महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय में पढ़ चुके और पढ़ रहे छात्र गर्व से कहते हैं कि हम उस कॉलेज से ‘पासआऊट’ हैं, जहां अटल जी पढ़ा करते थे।"

एक समय पर अटल जी स्वदेश के में संपादक भी रहे। उनका स्वदेश से वैचारिक लगाव रहा। हम सभी स्वदेश में रहे, अतः हमलोगों से उन्हें और भी स्नेह था। ग्वालियर की गलियों को अटल जी ने साईकिल से नापा हुआ था। ग्वालियर की हर गली-हर चौराहे और हर मोहल्ले के नाम उनकी जुबां पर होते थे। हमलोगों से लगाव होने का कारण एक और था कि अटलजी के भांजे अनूप मिश्रा और उनके भतीजे दीपक वाजपेयी भी साथ-साथ एक ही कॉलेज में पढ़ते थे।

अटल जी एक तो बहुत सहज सरल थे। साथ ही सुरक्षा के नाम पर आज जिस तरह का वातावरण है, वैसा उस समय नेताओं के साथ नहीं था। अटल जी ‘शताब्दी’ में दिल्ली से बैठकर ग्वालियर आते थे। सुरक्षा के नाम पर श्री शिवकुमार पारेख उनके साथ ही रहा करते थे। शिवकुमारजी अटल जी के अनुज भांति ही थे।

ग्‍वालियर से जुड़ी अटल जी की यादें 

पूर्व सांसद प्रभात झा कहते हैं कि अटल जी की पुण्यतिथि पर हम भारत के जन-जन को यह बताना आवश्यक समझते हैं कि उनका जन्म ग्वालियर के जिस शिन्दे की छावनी स्थित कमल सिंह के बाग की पाटौर मे हुआ था। वह पाटौर उनके प्रधानमंत्री बनने तक यथावत रही। भारत की राजनीति में ईमानदारी का ऐसा अनुपम उदाहरण कभी देखने को नहीं मिला। वे प्रतिपक्ष के नेता रहते हुए ग्वालियर के ट्रेड फेयर (मेला) में हरिद्वार वालों के गाजर का हलुआ और मंगोड़ी खाने मोटर साईकिल पर बैठकर चले जाते थे।

ग्वालियर में अपने आप ही उनका मन वहां बीते बचपन की ओर लौट आता था। अटल जी मूल में इतने बड़े नेता होते हुए भी पार्टी के भीतर एक कार्यकर्ता के रूप में ही थे। सन 1996 की बात है। मध्य प्रदेश में भाजपा सांसदों, विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों का प्रशिक्षण वर्ग लगा था। बतौर प्रतिपक्ष के नेता के रूप में वे भोपाल स्थित भाजपा के प्रांतीय कार्यालय दीनदयाल परिसर के हॉल मे आए। प्रशिक्षण वर्ग में उनका उद्बोधन हुआ। उस उद्बोधन का दो पैरा मैं यहां उद्धत कर रहा हूं।

कार्यकर्ता होने का हमारा अधिकार छीना नहीं जा सकता 

अटल जी ने उद्बोधन के प्रारम्भ में कहा था कि “कार्यकर्ता मित्रों”, मेरे इस संबोधन पर आश्चर्य न करें। मैं जानता हूं कि इस प्रशिक्षण वर्ग में पार्टी के प्रमुख नेता उपस्थित हैं। सांसदगण भी विराजमान हैं। सभी विधायक भाई तथा बहनें भी वर्ग में भाग ले रही हैं। मैंने जानबूझकर कार्यकर्ता के नाते सबको संबोधित किया। हम यह दावा करते हैं कि हमारी पार्टी कार्यकर्ताओं की पार्टी है। जो नेता है वह भी कार्यकर्ता है। विशेष जिम्मेदारी दिए जाने के कारण वह नेता के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उनका आधार है, उनका कार्यकर्ता होना।

जो आज विधायक हैं, वह कल शायद विधायक नहीं रहें। सांसद भी सदैव नहीं रहेंगे। कुछ लोगों को पार्टी बदल देती है, कुछ को लोग बदल देते हैं, लेकिन कार्यकर्ता का पद ऐसा है, जो बदला नहीं जा सकता। कार्यकर्ता होने का हमारा अधिकार छीना नहीं जा सकता। कारण यह है कि हमारा यह अधिकार अर्जित किया हुआ अधिकार है, निष्ठा और परिश्रम से हम उसे प्राप्त कर सकते हैं, वह ऊपर से दिया गया सम्मान नहीं है कि उसे वापस लिया जा सके। उन्होंने वर्ग में आगे कहा पार्टी के संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिये कार्य का विभाजन होता है, तदानुरूप पदों का सृजन होता है। अलग-अलग दायित्व होते हैं। पदों के अनुसार कार्यकर्ता पहचाने जाते हैं, लेकिन यह पहचान सीमित समय तक ही रहती है। संगठन का कोई पदाधिकारी 4 साल से अधिक अपने पद पर नहीं रहता। ऐसा किसी विशेष नियम के अन्तर्गत नहीं होता, यह एक परम्परा है, हम जिसका दृढ़ता से पालन करते हैं। देश में अनेक राजनीतिक दल हैं। उनमें न नियमित रूप से सदस्यता होती है और न चुनाव। जो एक बार पदाधिकारी बन गया, वह हटने का नाम नहीं लेता। अनेक दलों के अध्यक्ष स्थायी अध्यक्ष बन जाते हैं। उन्हें हटाने के लिये अभियान चलाना पड़ता है, लेकिन उनके कान पर जूं नहीं रेंगती, वे टस से मस नहीं होते। हमारे यहां ऐसा नहीं है।

अटल जी कहा करते थे कि हमारा लोकतंत्र में विश्वास है। जीवन के सभी क्षेत्रों में हम लोकतांत्रिक पद्धति का अवलंबन करने के समर्थक हैं। अपने राजनीतिक दल को भी हम लोकतंत्रात्मक तरीके से चलाते हैं। निश्चित समय पर सदस्यता होती है। पुराने सदस्यों की सदस्यता का नवीकरण होता है, नये सदस्य बनाये जाते हैं। संगठन के विस्तार के लिए नये लोगों का आना जरूरी है। समाज के सभी वर्गों से और देश के सभी क्षेत्रों सें सभी पार्टी में अधिकाधिक शामिल हों, यह हमारा प्रयास होता है। किसी व्यक्ति या इकाई द्वारा अधिक से अधिक सदस्य बनाये जाते हैं, इस प्रतियोगिता में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन प्रतियोगिता पार्टी के अनुशासन और मर्यादा के अन्तर्गत होनी चाहिए।

उन्होने आगे कहा कि पार्टी के विस्तार के लिए नये सदस्य बनाना एक बात है और पार्टी पर कब्जा करने के लिये सदस्यता बढ़ाना दूसरी बात है। जब पार्टी का विस्तार करने के बजाय पार्टी पर अधिकार जमाने की विकृत मानसिकता पैदा होती है तब फिर जाली सदस्य भी बनाये जाते हैं। सदस्यता का शुल्क भी गलत तरीके से जमा किया जाता है। इससे पार्टी का स्वास्थ्य बिगड़ता है और दलों में प्रचलित इस बुराई को हमें अपने यहां बढ़ने से रोकना होगा। वर्षों से पार्टी में काम करने वाले लोग ऐसी बुराइयों के प्रति उदासीन नहीं हो सकते। पार्टी का जन-समर्थन बढ़ाना होगा, किन्तु उसे पद-लोलुपता से बचाना होगा। गुटबन्दी का पार्टी में कोई स्थान नहीं हो सकता।

कार्यकर्ता भाव ही नए कार्यकर्ता को अपने दल से जोड़ता है

इस ऐतिहासिक प्रशिक्षण वर्ग में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघ चालक और भाजपा के पालक सुदर्शन जी साथ ही भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय संगठन महामंत्री कुशाभाऊ ठाकरे भी मौजूद थे। भाजपा के अब तब हो रहे विस्तार में मूलप्राण ’कार्यकर्ता’ है। यही बात संगठनात्मक बैठकों में आज भी देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहा करते हैं। उनका भी कहना है कि हम चाहे जितने बड़े नेता हों पर हमें मूल में कार्यकर्ता भाव से सदैव जुड़े रहना चाहिए। कार्यकर्ता भाव ही नए कार्यकर्ता को अपने दल से जोड़ता है।

इस प्रशिक्षण वर्ग में अटल जी ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी पिछले कुछ वर्षों में अपना प्रभाव और शक्ति बढ़ाने में सफल हुई है। इसके पीछे एक चिन्तन है, एक विचारधारा है। मैं अभी-अभी परिसर में पं. दीन दयाल उपाध्याय की मूर्ति का अनावरण करके आया हूं। वह महान चिंतक और कुशल संगठनकर्ता थे। उनकी विशेषता पुराने चिन्तन को देश और काल के परिप्रेक्ष्य में उपस्थित करने में थी। समय के साथ समस्याओं का रूप बदलता है, नयी समस्याएं खड़ी होती हैं, कुछ पुरानी समस्याएं नये स्वरूप मे आती हैं। उन समस्याओं को अलग करने के लिये मूलभूत चिन्तन के आधार पर नयी व्याख्याएं और नयी व्यवस्थाएं बनानी पड़ती हैं।

वर्ग में उन्होने आगे कहा कि हम एक आदर्श राज्य की स्थापना चाहते हैं इसलिये प्रारंभ में धर्म राज्य की बात कही, बाद में अयोध्या आन्दोलन के प्रकाश में हमने रामराज्य की स्थापना को अपने लक्ष्य के रूप में लोगों के सामने रखा। धर्म राज्य और रामराज्य में कोई अन्तर नहीं है। दोनों में लक्षण समान हैं किन्तु कभी-कभी समय में परिवर्तन के साथ कोई शब्दावली अधिक आकृष्ट हो जाती है।

प्रभात झा लिखते हैं अटल जी की मान्यता रही कि भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में उभरी है। हमारी बढ़ती हुई शक्ति और प्रभाव से आतंकित होकर भिन्न-भिन्न विचारों वाले हमारे इर्द-गिर्द जमघट बना रहे हैं। पहले कांग्रेस के विरुद्ध गैर कांग्रेसी हवा चलती थी। अब भाजपा के विरुद्ध एकत्रीकरण हो रहा है। यह एकत्रीकरण टिकेगा नहीं। हमें यह समझ लेना चाहिए कि यदि हमारी प्रगति में रुकावट आयेगी, जो हमारी अपनी ही कमियों और खामियों के कारण आयेगी, हमारे विरोधियों के कारण नहीं। भारतीय जनता पार्टी के साथ आज देश का भविष्य जुड़ गया है हमें बहुमत प्राप्त हो या न हो, हमारे विरोधी चाहें या न चाहें, भारतीय जनता पार्टी का भविष्य और देश का भविष्य एक-दूसरे से सम्बद्ध हो गये हैं। इस ऐतिहासिक अवसर पर हम पिछड़ जायें, हार मान जायें, छोटे-छोटे विवादों में फंस जायें तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी क्षमा नहीं करेगी। देश की स्थिति पर और संगठन की आवश्यकता पर हम कार्यकर्ता के नाते विचार करें, कार्यकर्ता के नाते ही व्यवहार करें। हम चाहे जितनी बड़ी सत्ता हासिल कर लें या हम चाहे जितनी ऊंचाई पर चले जाएं, पर हमें और हमारे संगठन को इतनी ऊंचाई पर जिन कार्यकर्ताओं और जनता जनार्दन ने पहुंचाया, उन्हें हमें अपनी आंखों से कभी ओझल नहीं करना चाहिए। हमारी सफलता सुनिश्चित है। और आवश्यकता है चिन्तन के अनुरूप सही व्यवहार करने की।

अटल जी का प्रशिक्षण वर्ग में दिया गया उद्बोधन और उनका एक-एक वाक्य हमारे लिये आज भी प्रेरणादायक है। उनकी पुण्यतिथि पर उनके दिये गए विचारों पर यदि हम सदैव चिंतन करते रहे और सदैव चलते रहे तो न हम भटकेंगे और न ही हम देश को भटकने देंगे।

वीर कुँवर सिंह की प्रेरक जीवनी और कहानी !


भारतीय समाज का अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध असंतोष चरम सीमा पर था. अंग्रेजी सेना के भारतीय जवान भी अंग्रेजो के भेदभाव की नीति से असंतुष्ट थे. यह असंतोष सन 1857 में अंग्रेजो के खिलाफ खुले विद्रोह के रूप में सामने आया.

क्रूर ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिए सभी वर्गों के लोगो ने संगठित रूप से कार्य किया. सन 1857 का यह सशस्त्र – संग्राम स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम कहलाता है.

नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और बेगम हजरत महल जैसे शूरवीरो ने अपने – अपने क्षेत्रो में अंग्रेजो के विरुद्ध युद्ध किया. बिहार में दानापुर के क्रांतकारियो ने भी 25 जुलाई सन 1857 को विद्रोह कर दिया और आरा पर अधिकार प्राप्त कर लिया. इन क्रांतकारियों का नेतृत्व कर रहे थे वीर कुँवर सिंह.

कुँवर सिंह बिहार राज्य में स्थित जगदीशपुर के जमींदार थे. कुंवर सिंह का जन्म सन 1777 में बिहार के भोजपुर जिले में जगदीशपुर गांव में हुआ था. इनके पिता का नाम बाबू साहबजादा सिंह था.

इनके पूर्वज मालवा के प्रसिद्ध शासक महाराजा भोज के वंशज थे. कुँवर सिंह के पास बड़ी जागीर थी. किन्तु उनकी जागीर ईस्ट इंडिया कम्पनी की गलत नीतियों के कारण छीन गयी थी.

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय कुँवर सिंह की उम्र 80 वर्ष की थी. वृद्धावस्था में भी उनमे अपूर्व साहस, बल और पराक्रम था. उन्होंने देश को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए दृढ संकल्प के साथ संघर्ष किया.

अंग्रेजो की तुलना में कुँवर सिंह के पास साधन सीमित थे परन्तु वे निराश नहीं हुए. उन्होंने क्रांतकारियों को संगठित किया. अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने छापामार युद्ध की नीति अपनाई और अंग्रेजो को बार – बार हराया. उन्होंने अपनी युद्ध नीति से अंग्रेजो के जन – धन को बहुत हानि पहुंचाई.

कुँवर सिंह ने जगदीशपुर से आगे बढ़कर गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़ आदि जनपदों में छापामार युद्ध करके अंग्रेजो को खूब छकाया. वे युद्ध अभियान में बांदा, रीवां तथा कानपुर भी गये. इसी बीच अंग्रेजो को इंग्लैंड से नयी सहायता प्राप्त हुई. कुछ रियासतों के शासको ने अंग्रेजो का साथ दिया.

एक साथ एक निश्चित तिथि को युद्ध आरम्भ न होने से अंग्रेजो को विद्रोह के दमन का अवसर मिल गया. अंग्रेजो ने अनेक छावनियो में सेना के भारतीय जवानो को निःशस्त्र कर विद्रोह की आशंका में तोपों से भून दिया.

धीरे – धीरे लखनऊ, झाँसी, दिल्ली में भी विद्रोह का दमन कर दिया गया और वहां अंग्रेजो का पुनः अधिकार हो गया. ऐसी विषम परिस्थिति में भी कुँवर सिंह ने अदम्य शौर्य का परिचय देते हुए अंग्रेजी सेना से लोहा लिया. उन्हें अंग्रेजो की सैन्य शक्ति का ज्ञान था.

वे एक बार जिस रणनीति से शत्रुओ को पराजित करते थे दूसरी बार उससे अलग रणनीति अपनाते थे. इससे शत्रु सेना कुँवर सिंह की रणनीति का निश्चित अनुमान नहीं लगा पाती थी.

आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया के मैदान में अंग्रेजो से जब युद्ध जोरो पर था तभी कुँवर सिंह की सेना सोची समझी रणनीति के अनुसार पीछे हटती चली गयी.

अंग्रेजो ने इसे अपनी विजय समझा और खुशियाँ मनाई. अंग्रेजी की थकी सेना आम के बगीचे में ठहरकर भोजन करने लगी. ठीक उसी समय कुँवर सिंह की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया.
 
शत्रु सेना सावधान नहीं थी. अतः कुँवर सिंह की सेना ने बड़ी संख्या में उनके सैनिको मारा और उनके शस्त्र भी छीन लिए. अंग्रेज सैनिक जान बचाकर भाग खड़े हुए. यह कुँवर सिंह की योजनाबद्ध रणनीति का परिणाम था.

पराजय के इस समाचार से अंग्रेज बहुत चिंतित हुए. इस बार अंग्रेजो ने विचार किया कि कुँवर सिंह की फ़ौज का अंत तक पीछा करके उसे समाप्त कर दिया जाय. पूरे दल बल के साथ अंग्रेजी सैनिको ने पुनः कुँवर सिंह तथा उनके सैनिको पर आक्रमण कर दिया.

युद्ध प्रारंभ होने के कुछ समय बाद ही कुँवर सिंह ने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया और उनके सैनिक कई दलों में बँटकर अलग – अलग दिशाओ में भागे.

बाबू कुंवर सिंह (जन्म- 1777 ई., बिहार; मृत्यु- 23 अप्रैल, 1858 ई.) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों में से एक थे। इनके चरित्र की सबसे बड़ी ख़ासियत यही थी कि इन्हें वीरता से परिपूर्ण कार्यों को करना ही रास आता था। इतिहास प्रसिद्ध 1857 की क्रांति में भी इन्होंने सम्मिलित होकर अपनी शौर्यता का प्रदर्शन किया। बाबू कुंवर सिंह ने रीवा के ज़मींदारों को एकत्र किया और उन्हें अंग्रेज़ों से युद्ध के लिए तैयार किया। तात्या टोपे से भी इनका सम्पर्क था।

✅️"परिचय

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध नायक बाबू कुंवर सिंह के आरम्भिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। सम्भवत: उनका जन्म 1777 ई. में बिहार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही शिक्षा से अधिक शौर्य-युक्त कार्यों में रुचि थी। बिहार के शाहाबाद में उनकी एक छोटी रियासत थी। उन पर जब कर्ज़ बढ़ गया तो अंग्रेज़ों ने रियासत का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया। उनका एजेंट लगान वसूल करता, सरकारी रकम चुकाता और रकम से किस्तों में रियासत का कर्ज़ उतारा जाता।

✅️"अंग्रेज़ों की चालाकी

इस अवस्था से बाबू कुंवर सिंह असंतुष्ट थे। इसी समय '1857 की क्रान्ति' आरम्भ हो गई और कुंवर सिंह को अपना विरोध प्रकट करने का अवसर मिल गया।

 25 जुलाई, 1857 को जब क्रान्तिकारी दीनापुर से आरा की ओर बढ़े तो बाबू कुंवर सिंह उनमें सम्मिलित हो गए। उनके विचारों का अनुमान अंग्रेज़ों को पहले ही हो गया था। इसीलिए कमिश्नर ने उन्हें पटना बुलाया था कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाये। पर अंग्रेज़ों की चालाकी समझकर कुंवर सिंह बीमारी का बहाना बनाकर वहाँ नहीं गए।