जन्मकाल – 1478 ई. (1535 वि.)
जन्मस्थान – 1. डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार इनका जन्म दिल्ली के निकट ’सीही’ नामक ग्राम में एक ’सारस्वत ब्राह्मण’ परिवार में हुआ था।
विशेष : आधुनिक शोधों के अनुसार इनका जन्मस्थान मथुरा के निकट ’रुनकता’ नामक ग्राम माना गया है।
नोट:- परीक्षा में दोनों विकल्प एक साथ होने पर ’सीही’ को ही सही उत्तर मानना चाहिए।
⇒ मृत्युकाल – 1583 ई. (1640 वि.) मृत्युस्थान – ’पारसोली’ गाँव
⇔गुरु का नाम – वल्लाभाचार्य
⇒ गुरु से भेंट (दीक्षा ग्रहण) – 1509-10 ई. में (पारसोली नामक गाँव में)
⇔ भक्ति पद्धति – ये प्रारम्भ में ’दास्य’ एवं ’विनय’ भाव पद्धति से लेखन कार्य करते थे, परन्तु बाद में गुरु वल्लभाचार्य की आज्ञा पर इन्होंने ’सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य’ भाव पद्धति को अपनाया।
(विनय और दास्य ट्रिकः विदा कर दिया )
⇒ काव्य भाषा – ब्रज
प्रमुख रचनाएँ –
3. इसका सर्वप्रथम प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा करवाया गया था।
3. सूरसारावली
नोट:- यह इनकी विवादित या अप्रामाणिक रचना मानी जाती है।
विशेष – डाॅ. दीनदयाल गुप्त ने इनके द्वारा रचित पच्चीस पुस्तकों का उल्लेख किया है, जिनमें से निम्न सात पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका हैं:-
1. सूरसागर
2. साहित्य लहरी
3. सूरसारावली
4. सूरपचीसी
5. सूररामायण
6. सूरसाठी
7. राधारसकेली
विशेष तथ्य (Surdas in Hindi)
1. सूरदास जी को ’खंजननयन, भावाधिपति, वात्सल्य रस सम्राट्, जीवनोत्सव का कवि पुष्टिमार्ग का जहाज’ आदि नामों (विशेषणों ) से भी पुकारा जाता है।
2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनको ’वात्सल्य रस सम्राट्’ एवं ’जीवनोत्सव का कवि’ कहा है।
3. गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इनकी मृत्यु के समय इनको ’पुष्टिमार्ग का जहाज’ कहकर पुकारा था। इनकी मृत्यु पर उन्होंने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था:-
’’पुष्टिमार्ग को जहाज जात है सो जाको कछु लेना होय सो लेउ।’’
4. हिन्दी साहित्य जगत् में ’भ्रमरगीत’ परम्परा का समावेश सूरदास(Surdas) द्वारा ही किया हुआ माना जाता है।
5. ’सूरोच्छिष्र्ट जगत्सर्वम्’ अर्थात् आचार्य शुक्ल के अनुसार इनके परवर्ती कवि सूरदासजी की जूठन का ही प्रयोग करते हैं, क्योंकि साहित्य जगत् में ऐसा कोई शब्द और विषय नहीं है, जो इनके काव्य में प्रयुक्त नहीं हुआ हो।
6. कुछ इतिहासकारों के अनुसार ये चंदबरदाई के वंशज कवि माने गये हैं।
7. आचार्य शुक्ल ने कहा है, ’’सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदण्ड पुष्टिमार्ग ही है।’’
8. सूरदास जी ने भक्ति पद्धति के ग्यारह रूपों का वर्णन किया है।
9. संस्कृत साहित्य में महाकवि ’माघ’ की प्रशंसा में यह श्लोक पढ़ा जाता हैं –
’’उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थगौरवम्।
दण्डिनः पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।’’
इसी श्लोक के भाव को ग्रहण करके ’सूर’ की स्तुति में भी किसी हिन्दी कवि ने यह पद लिखा हैं –
’’उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बल वीर।
केशव अर्थ गँभीर को, सूर तीन गुण धीर।।’’
10. हिन्दी साहित्य जगत् में सूरदासजी सूर्य के समान, तुलसीदासजी चन्द्रमा के समान, केशवदासजी तारे के समान तथा अन्य सभी कवि जुगनुओं (खद्योत) के समान यहाँ-वहाँ प्रकाश फैलाने वाले माने जाते हैं। यथा –
’’सूर सूर तुलसी ससि, उडूगन केशवदास।
और कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकास।।’’
11. सूर(Surdas) के भावचित्रण में वात्सल्य भाव को श्रेष्ठ कहा जाता है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है, ’’सूर अपनी आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना छान आये हैं।’’
सूरदास के बारे में महत्त्वपूर्ण कथन –
🔸 रामचंद्र शुक्ल – सूर में जितनी भाव विभोरता है, उतनी वाग्विदग्धता भी।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदण्ड पुष्टिमार्ग ही है।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – सूरसागर किसी चली आती हुई गीत काव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – ऐसा लगता है कि यशोदा, यशोदा न रहीं मानों सूर हो गईं और सूर, सूर न रहे, यशोदा हो गए।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – सूर का संयोग वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं हैं, प्रेम संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा हैं जिसमें अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई पङता।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – सूर को उपमा देने की झक सी चढ़ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा कहते चले जाते है।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – शृंगार रस का ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य दूसरा नहीं है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – बाल चेष्ठा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बङा भण्डार और कहीं नहीं है, जितना बङा सूरसागर में है।
🔸 रामचंद्र शुक्ल – शैशव से लेकर कौमार्य अवस्था तक के क्रम से लगे हुए न जाने कितने चित्र मौजूद हैं। उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है, कवि ने बालकों की अंतःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेकों बाल भावों की सुन्दर स्वाभाविक व्यंजना है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – बाल सौन्दर्य एवं स्वभाव के चित्रण में जितनी सफलता सूर को मिली है उतनी अन्य किसी को नहीं। वे अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना झांक आये।
🔸 हजारी प्रसाद द्विवेदी – सूरसागर में इतने अधिक राग हैं कि उन्हें देखकर समस्त जीवन संगीत साधना में अर्पित कर देने वाले आज के संगीतज्ञों को भी दाँतों तले उंगली दबानी पङती है।
🔹 हजारी प्रसाद द्विवेदी – सबसे बङी विशेषता सूरदास की यह है कि उन्होंने काव्य में अप्रयुक्त एक भाषा को इतना सुन्दर, मधुर और आकर्षक बना दिया कि लगभग चार सौ वर्षों तक उत्तर-पश्चिम भारत की कविता का सारा राग-विराग, प्रेम प्रतीति, भजन भाव उसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त हुआ।
🔸 हजारी प्रसाद द्विवेदी – सूरदास जब अपने काव्य विषय का वर्णन शुरु करते हैं, तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोङकर उनके पीछे-पीछे दौङा करता है, उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रुपकों की वर्षा होने लगती है।
🔹 हजारी प्रसाद द्विवेदी – हम बाललीला से भी बढ़कर जो गुण सूरदास में पाते हैं, वह है उनका मातृ हृदय चित्रण। माता के कोमल हृदय में बैठने की अद्भुत शक्ति है, इस अन्धे में।
🔸 हजारी प्रसाद द्विवेदी –सूरदास ही ब्रजभाषा के प्रथम कवि हैं और लीलागान का महान समुद्र ’सूरसागर’ ही उसका प्रथम काव्य है।
🔹 रामचंद्र शुक्ल – सूर की बङी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना ’प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते।
🔸 रामचंद्र शुक्ल –आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ कृष्ण की प्रेमलीला कीर्तन करने उठी, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झंकार अंधे कवि सूरदास की वीणा की थी।
🔹 शिवकुमार मिश्र – सूर की भक्ति कविता वैराग्य, निवृत्ति अथवा परलोक की चिंता नहीं करती बल्कि वह जीवन के प्रति असीम अनुराग, लोकजीवन के प्रति अप्रतिहत निष्ठा तथा प्रवृत्तिपरक जीवन पर बल देती है।
🔸 रामस्वरूप चतुर्वेदी – सूरदास ने अपने काव्य के लिए जो जीवन क्षेत्र चुना है वह सीमित है, पर इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता व्यापक हैं, इसका मुख्य कारण यह है कि उनका क्षेत्र गृहस्थ जीवन और परिवार से जुङा है।
🔹 बलराम तिवारी – सूर का प्रेम लोक व्यवहार के बीच से जन्म लेता है।
🔸 मैनेजर पाण्डेय – प्रेम जितना गहरा होगा, संयोग का सुख जितना अधिक होगा, प्रेम के खण्डित होने का दर्द और वियोग की वेदना भी उतनी ही अधिक होगी। गोपियों का प्रेम उपरी नहीं है, इसलिए अलगाव का दर्द अधिक गहरा है। गोपियों की विरह व्यंजना में उनकी आत्मा की चीख प्रकट हुई है।
🔹 नंददुलारे वाजपेयी – सूर ने समूचे प्रसंग को एक अनूठे विरह काव्य का रूप दिया है, जिसमें आदि से अंत तक ब्रज के दुःख की कथा कहीं गयी हैं।
🔸 द्वारिका प्रसाद सक्सेना – सूर ने बालकों के हृदयस्थ मनोभावों को, बुद्धि चातुर्य, स्पद्र्धा, खोज, प्रतिद्वंद्वता, अपराध करके उसे छिपाने और उसके बारे में कुशलतापूर्वक सफाई देने आदि प्रवृत्ति के भी बङे हृदयग्राही चित्र अंकित किए है।
🔹 हरबंशलाल शर्मा – सूर का वात्सल्य भाव विश्व साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
🔸 रामकुमार वर्मा – बालकृष्ण के शैशव में, श्री कृष्ण के मचलने में तथा माता यशोदा के दुलार में हम विश्वव्यापी माता-पुत्र प्रेम देखते है।
हिंदी-साहित्य में कृष्णभक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सूरदास का स्थान मूर्द्धन्य उनका जीवनवृत्त उनकी अपनी कृतियों से आंशिक रूप में और बाह्य साक्ष्य के आधार पर अधिक उपलब्ध होता है। इसके लिए ’भक्तमाल’ (नाभादास), ’चोरासी वैष्णवन की वार्ता’ (गोकुलनाथ), ’वल्लभदिग्विजय’ (यदुनाथ) तथा ’निजवार्ता’ का आधार लिया जाता है।
श्री हरिरायकृत भावप्रकाशवाली ’चोरासी वैष्णवन की वार्ता’ में लिखा है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के निकट ब्रज की ओर स्थित ’सीही’ नामक गांव में सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इसके अतिरिक्त सूर के जन्मस्थान के विषय में और कोई संकेत नहीं मिलता।
इस वार्ता में सूर का चरित गऊघाट से आंरभ होता है, जहां वे वैराग्य लेने के बाद निवास करते हैं। यहीं श्री वल्लभाचार्य से उनका साक्षात्कार हुआ था। अधिकांश विद्वानों ने सीही गांव को ही सूरदास का जन्मस्थान माना है।
सूरदास का जन्मकाल 1478 ई. स्थिर किया जाता हैै। उनके जन्मांध होने या बाद में अंधत्व प्राप्त करनें के विषय में अनेक किंवदंतियां एवं प्रवाद फैलेे हुए हैं। वार्ता-ग्रंथों के अनुसार 1509-1510 ई. के आसपास उनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई और तभीं उन्होंने शिष्यत्व ग्रहण किया।
अकबर से भी उनकी भेंट उल्लेख मिलता है। वल्लभाचार्य के शिष्य बननें के बाद वे चंद्रसरोवर के समीप पारसोली गांव में रहने लगे थे; वहीें 1583 ई. में उनका देहावसान हुआ। उनकी मृत्यु पर गो. विट्ठलनाथ ने शोकार्त्त हो कर कहा था:-“पुष्टिमारग को जहाज जात है सो जाको कछु लेना होय सो लेउ।“
सूरदास की शिक्षा आदि के विषय में किसी ग्रंथ में कहीं कोई नहीं मिलता ; केवल इतना ही हरिराय जी ने लिखा है कि गांव से चार कोस दूर रह कर पद-रचना में लीन रहते थे और गानविद्या में प्रवीण थे। भक्त-मंडली उनके पद सुनने एकत्र हो जाती थी।
उनके पद विनय और दैन्य भाव के होते थे, किंतु श्री वल्लभाचार्य के संपर्क में आने पर उन्हीं की प्रेरणा से सूरदास ने दास्य भाव और विनय के पद लिखना बंद कर दिया तथा सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भाव की पद रचना करने लगे। डाॅ. दीनदयालु गुप्त ने उनके द्वारा रचित पच्चीस पुस्तकों की सूचना दी है, जिनमें सूरसागर , सूरसारावली , साहित्यलहरी , सूरपचीसी , सूररामायण , सूरसाठी और राधारसकेलि प्रकाशित हो चुकी हैं।
वस्तुतः ’सूरसागर’ और ’साहित्यलहरी’ ही उनकी श्रेष्ठ कृतियां हैं। ’सूरसारावली’ को अनेक विद्वान अप्रामाणित मानते हैं, किंतु ऐसे विद्वान भी हैं, जो इसे ’सूरसागर’ का सार अथवा उसकी विषयसूची मान कर इसकी प्रमाणिकता के पक्ष में हैं। ’सूरसागर’ की रचना ’भागवत’ की पद्धति पर द्वादश स्कंधों में हुई है।
’साहित्यलहरी’ सूरदास के सुप्रसिद्ध दृष्टकूट पदों का संग्रह है। इसमें अर्थगोपन-शैली में राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है, साथ ही अंलकार-निरूपण की दृष्टि से भी इस ग्रंथ का महत्त्व है।
सूर-काव्य का मुख्य विषय कृष्णभक्ति है।’भागवत’ पुराण को उपजीव्य मान कर उन्होंने राधा-कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन ’सूरसागर’ में किया है। ’भागवत’ के द्वादश स्कंधों से अनुरूपता के कारण कुछ विद्वान इसे ’भागवत’ का अनुवाद समझने की भूल कर बैठते हैं, किंतु वस्तुत: सूर के पदों का क्रम स्वंतत्र है।
वैसे, उनके मन में ’भागवत’ पुराण की पूर्ण निष्ठा है। उन्होंने कृष्ण-चरित्र के उन भावात्मक स्थलों को चुना है, जिनमें उनकी अंतरात्मा की गहरी अनुभूति पैठ सकी हैै।
उन्होंने श्रीकृष्ण के शैशव और कैशोर वय की विविध लीलाओं का चयन किया है, संभवत: यह सांप्रदायिक दृष्टि से किया गया हो। सूर की दृष्टि कृष्ण के लोेकरंजक रूप पर ही अधिक रही है, उनके द्वारा दुष्ट-दलन आदि का वर्णन सामान्य रूप से ही किया जाता है।
लीला-वर्णन में कवि का ध्यान मुख्यत: भाव-चित्रण पर रहा है। विनय और दैन्य-प्रदर्शन के प्रसंग में जो पद सूर ने लिखे हैं, उनमें भी उच्चकोटि के भावों का समावेश है।
सूर के भाव-चित्रण में वात्सल्य भाव को श्रेष्ठतम कहा जाता है। बाल-भाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के प्रेम-भावों के चित्रण में सूर अपना सानी नहीं रखते। बालक को विविध चेष्टाओं और विनोदों के क्रीङास्थल मातृहृदय की अभिलाषाओं, उत्कंठाओं और भावनाओं के वर्णन में सूरदास हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरते हैं।
वात्सल्य भाव के पदों की विशेषता यह है कि उनको पढ़ कर पाठक जीवन की नीरस और जटिल समस्याओं को भूल कर उनमें मग्न हो जाता है। दूसरी ओर भक्ति के साथ शृंगार को जोङ कर उसके संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रवासजनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रंसग तो सूर के काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। इस अन्योेक्ति एवं उपालंभकाव्य में गोपी-उद्वव-संवाद को पढ़ कर सूर की प्रतिभा और मेधा का परिचय प्राप्त होता है। सूरदास के भ्रमरगीत में केवल दार्शनिकता और अध्यात्मिक मार्ग का उल्लेख नहीं है, वरन् उसमें काव्य के सभी श्रेष्ठ उपकरण उपलब्ध होते हैं। सगुण भक्ति का ऐसा सबल प्रतिपादन अन्यत्र देखने में नहीं आता।
इस प्रकार सूर-काव्य में प्रकृति-सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बालचरित्र के विविध प्रंसगों, कीङाओं, गोचारण, रास आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता हैं। रूपचित्रण के लिए नख-शिख-वर्णन को सूर ने अनेक बार स्वीकार किया है। ब्रज के पर्वों, त्योहारों, वर्षोत्सवों आदि का भी वर्णन उनकी रचनाओं में है।
सूर की समस्त रचना को पदरचना कहना ही समीचीन हैं। ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रजभाषा अपने युग में काव्यभाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रात्मकता, आलंकारिता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकत्मकता तथा बिंबत्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान हैं।
ब्रजभाषा को ग्रामीण जनपद से हटा कर उन्होंने नगर और ग्राम के संधिस्थल पर ला बिठाया था। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग करने पर भी उनकी मूल प्रवृति ब्रजभाषा को सुंदर और सुगम बनाये रखने की ओर ही थी। ब्रजभाषा की ठेठ माधुरी यदि संस्कृत, अरबी-फारसी के शब्दों के साथ सजीव शैली में जीवित रही है, तो
वह केवल सूर की भाषा में ही है। अवधी और पूरबी हिंदी के भी शब्द उनकी भाषा में ही हैं।
कतिपय विदेश शब्द भी यत्र- तत्र उपलब्ध हो जाते हैं। भाषा की सजीवता के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों का पुट उनकी भाषा का सौंदर्य है। भ्रमरगीत के पदों में तो अनेक लोकोक्तियां मणिकांचन-संयोग की तरह अनुस्यूत हैं। भाषा में प्रवाह बनाये रखने के लिए लय और संगीत पर कवि का सतत ध्यान रहा है।
राग-रागिनियों के स्वर-ताल में बंधी हुई शब्दावली जैसी सरस भाव-व्यंजना करती है, वैसी सामान्य पदावली नहीं कर सकती। वर्णनमैत्री और संगीतात्मकता सूर की ब्रजभाषा के अलंकरण हैं।
सूरदास का जीवन परिचय
सूर की भक्तिपद्धति का मेरुदंड पुष्टिमार्गीय भक्ति है। भागवान की भक्त पर कृपा का नाम ही पोषण है:’पोषण तदनुग्रहः’। पोषण के भाव स्पष्ट करने के लिए भक्ति के दो रूप बताये गये हैं-साधन – रूप और साध्य-रूप। साधन-भक्ति में भक्ति भक्त को प्रयत्न करना होता है, किंतु साध्य-रूप में भक्त सब-कुछ विसर्जित करके भगवान की शरण में अपने को छोङ देता है।
पुष्टिमार्गीय भक्ति को अपनाने के बाद प्रभु स्वयं अपने भक्त का ध्यान रखते हैं, भक्त तो अनुग्रह पर भरोसा करके शांत बैठ जाता है। इस मार्ग में भगवान के अनुग्रह पर ही सर्वाधिक बल दिया जाता है। भगवान का अनुग्रह ही भक्त का कल्याण करके उसे इस लोक से मुक्त करने में सफल होता है:-
जा पर दीनानाथ ढरै।
सोइ कुलीन बङौ सुंन्दर सोइ जा पर कृपा करै। सूर पतित तरि जाय तनक में जो प्रभु नेक ढरै।।
भगवत्कृपा की प्राप्ति के लिए सूर की भक्तिपद्धति में अनुग्रह का ही प्राधान्य है-ज्ञान, योग, कर्म, यहां यहां तक कि उपासना भी निरर्थक समझी जाती है।
सूरदास के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ:-
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(1) सूरदास ने अपने भ्रमर गीत में निर्गुण ब्रह्म का खंडन किया है।
(2) भ्रमरगीत में गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाया गया है।
(3) भ्रमरगीत में उद्धव व गोपियों के माध्यम से ज्ञान को प्रेम के आगे नतमस्तक होते हुए बताया गया है, ज्ञान के स्थान पर प्रेम को सर्वोपरि कहा गया है।
(4) भ्रमरगीत में गोपियों द्वारा व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(5) भ्रमरगीत में उपालंभ की प्रधानता है।
(6) भ्रमरगीत में ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है। यह मधुर और सरस है।
(7) भ्रमरगीत प्रेमलक्षणा भक्ति को अपनाता है। इसलिए इसमें मर्यादा की अवहेलना की गई है।
(8) भ्रमरगीत में संगीतात्मकता का गुण विद्यमा
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