संसार में जितने भी वन्द्य गुरुजन हैं उन सबकी अपेक्षा माता परमगुरु होनेसे अधिक वन्दनीया होती हैं।
शास्त्रों में तो यहाँ तक लिखा है कि माता की गरिमा हजार पिता से भी अधिक है।सारे जगत् में वन्दनीय सन्यासी को भी माता की वन्दना प्रयत्न पूर्वक करनी चाहिए।--
#गुरोर्हि_वचनम्प्राहुर्धर्म्यं_धर्मज्ञसत्तम।
#गुररूणां_चैव_सर्वेषां_माता_परमों_गुरुः।
~ महा.भा. आदि प. १९५--१६--हे धर्मज्ञ सत्तम!
गुरुजनों की आज्ञा का पालन धर्म्य होता है,किन्तु माता सभी गुरुओं में परम गुरु होती है।
#सहस्रन्तुपितॄन्मातागौरवेणातिरिच्यते ।
#सर्ववन्द्येन_यतिना_प्रसूर्वन्द्या_प्रयत्नतः।
~ स्कन्द पु.काशीख.११-५०।
माता शिशु को गर्भ में धारण करने उत्पन्न करने में तथा पालन करने में अत्यधिक कष्ट उठाती है। शिशु के लिए अपनी रूचि और आहार विहार का भी त्याग करती है। इसी लिए माता का गौरव अधिक कहा गया है। पिता आदि यदि पतित हो जाएं तो उनका त्याग किया जा सकता है परंतु माता का नहीं। माता पिता में विवाद होने पर पुत्र को चुप रहना चाहिये ,अत्यधिक आवश्यक हो तो माता के अनुकूल ही बोले ऐसा शास्त्र कहते हैं--
#पतितः_गुरवः_त्याज्या_माता_नैव_कथञ्चन।
#गर्भधारणपोषाभ्यां_तेभ्योमातागरीयसी।।
~ मत्स्य पु २२६--१८७.
#न_मातापित्रोः_अन्तरं_गच्छेत्_पुत्रः।।
#कामं_मातुरेव_ब्रूयात्।--(शङ्ख लिखित स्मृति)
माताको सर्वाधिक गौरव देना उचित ही है। इसे प्रगट करनेके लिए ही व्याकरण शास्त्रमें मातापिता ऐसा ही शुद्ध माना जाता है न कि पितामाता।
शास्त्रोंके इन वचनोंमें ध्यान देनेसे यह स्पष्ट होजाताहै कि ऋषियोंने स्त्री को दासी नहीं परम पूज्य मानाहै। अतः जो लोग यह आक्षेप करते हैं कि ऋषि पुरुषवादी मानसिकताके कारण स्त्रियोंको पैरकीजूती मानते हैं , भोग्या मात्र समझा गया है, उनका यह आक्षेप निराधार ही है।
शास्त्रकारों ने
#स्त्री को_पुरुष के_बराबर_ही_नहीं_अधिक_श्रेष्ठ कहा है--देखिए गोस्वामी जी क्या कहते हैं--
#जो_केवल_पितु_आयसु_ताता।
#तौ_जनि_जाहु_जानि_बडि_माता।
यदि कहा जाये कि यहाँ तो माता को ही बड़ी कहा है न कि स्त्री को तो यह ठीक नहीं मनुस्मृति आदि में तो स्त्री मात्र को कहा गया है--
#यत्र_नार्यस्तु_पूज्यन्ते_रमन्ते_तत्र_देवताः। #यत्रैतास्तु_न_पूज्यन्ते_सर्वास्तत्र_विफला_क्रियाः।
~ (मनु.३--५६/अनुसाशन प.४६--५/विष्णुधर्मोत्तर पु.३-२३३-१०६)
जहाँ स्त्रियां पूजित होतीं हैं वहां देवता प्रशन्नता पूर्वक निवास करते हैं, जहाँ ऐसा नहीं होता वहां की सभी धार्मिक क्रियाएं निष्फल होती हैं।अब कोई यह कह दे कि यह तो स्त्रैण पुरुष ने लिखा है या प्रक्षिप्त है तो दोनों हाथ जोडकर नमस्कार है उस धूर्त शिरोमणि को।
!!मातेव गरीयसी!!
!!जय जय सीताराम!!
स्वामिराघवेन्द्रदास: स्वर्गाश्रम:
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