प्रतियोगिता काण्ड...स्पेशल प्रयागराज वाले विद्यार्थियों के लिए...
हाल-ए-दिल ये था कि प्रतियोगिता दर्पण देखते-देखते पता नहीं चल रहा था कि दर्पण में खुद को देखे कितने दिन हो गए हैं। करेंट अफेयर्स और 'कौन क्या है" याद करते-करते भूल गए थे कि हम क्या हैं ?
इतिहास की घटनाओं ने दिमाग का भूगोल बिगाड़ दिया था और भूगोल के आँकड़ों ने हमारा इतिहास।
'कुछ पेड़ बन्दर हैं और कुछ बन्दर पेड़ हैं.".ये समझते-समझते कब हम बन्दर जैसा महसूसने लगे थे ये पता न चल रहा था।
यूँ तो सुरेश का बाप दिनेश था लेकिन महेश सुरेश की बीबी के भाई के इकलौते साले के दामाद का सगा फूफा कैसे बन गया था ये सोचकर दिमाग़ बैठा जा रहा था।
'अधिगम' कहाँ से उतपन्न होगा..ये शोध का विषय नहीं था.. शोध का विषय ये था कि "यार एलकेजी से लेकर और एमए तक एक्को मास्टर और प्रोफ़ेसर ने क्लास में पढ़ाते समय इस 'अधिगम' शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया।
लेकिन इसी बीच हुआ यों कि गुड़ जैसी मीठी सर्दी ने आइसक्रीम का रूप ले लिया..रात भर ठंडे टँकी के पानी को छूने से पहले मंत्र पढ़कर मंत्र स्नान होने लगे।
सुबह आठ बजते ही स्वेटर,मफ़लर बांधकर बिना ब्रश किये और बिना नहाए किताब और नोट्स लेकर लड़के अपने-अपने छतों पर इस अंदाज़ में बैठने लगे। मानों नासा वाले आज घोषित कर देंगे कि इंडिया के लड़कों से बड़ा पढ़वइया मंगल,बुध,बियफे,
शुक,शनिचर किसी ग्रह पर नहीं है।
इधर दस बजते ही समूचा छत हल्दी घाटी के मैदान से वैली ऑफ़ फ्लॉवर्स में तब तब्दील हो जाता,जब बगल वाले छत पर एंजेल रोजी जी नहाकर बाल सुखाने आ जातीं थीं...
घनघोर उबासी और बेहिसाब जमहाइयों के पुरनूर आलम में एक ऐसी नवीन ऊर्जा का संचार हो जाता। जिसका जिक्र साजिश के तहत विज्ञान की किताबों में नहीं किया गया है।
लड़के किताब लेकर छत से उठ खड़े होते...उधर वो बाल झाड़ती और लड़के अपनी पृष्ठ भाग की धूल..
वो चेहरा सँवारती लड़के अपनी कलम-कॉपी-किताब।
"तीसरा का A सही है कि B सही रे पंकज" ? से बदलकर माहौल तुरंत "ई वाली उससे सही है" में तब्दील हो जाता था..
और खिलखिलाहटों के बैकग्राउंड में कहीं से आवाज आने लगती..
"नइहर में खूबे कॉलेज भइल
सेज वाला एज भइल ना.. "
और फिर तो दस से लेकर बीस मिनट हर लड़के के भीतर सलमान,ऋतिक,रणवीर,आमिर,अजय देवगन की आत्मा इस कदर प्रविष्ट हो जाती कि प्रतियोगिता दर्पण,इतिहास, भूगोल,करेंट अफ़ेयर्स के साथ समूचे अधिगम की ऐसी की तैसी हो जाती।
और ये तय होता कि पढ़ाई तो चलेगा,चलना उसका काम है लेकिन पहले "ई बतावो सन्दीपवा कि ये पटी किससे है बे".?
इस समस्या के बाद तो ऐसे-ऐसे शोध प्रबन्ध प्रस्तुत होते कि एक बार यूजीसी का दिमाग़ हिल जाए कि "यार ये यूनिवर्सिटी से ज्यादा रीसर्च यूनिवर्सिटी के बाहर कैसे हो रहें हैं।" ?
कोई बता देता की अरे! हिंदी पढ़ती है बे..कल गुनाहों का देवता पढ़ रही थी...और फेसबुक पर जौन एलिया के शेर के साथ डीपी लगाती है...
कोई बता देता कि नहीं कामर्स पढ़ती है बे..कल देखे नहीं.. एक गोभी के लिए सब्जी वाले को कैसे आर्थिक मंदी समझा रही थी।
तब तक सभी शोध प्रबंधों पर पानी फेरकर रोजी जी रोज की भाँति नीचे चलीं जातीं..और इधर माहौल पूर्व की भाँति हो जाता था।
मानों उर्वशी के जाने के बाद देव गण साम की ऋचाओं का ग़ायन कर रहें हैं..इतना संयमित, इतना अनुशासित..ओह!
देखो तो जरा कितने पढ़ाकू और सीधे-साधे सज्जन लड़के..आपने देखें न होंगे कभी...
इनसे मिलिये प्रवीण बाबू जिला रोहतास बिहार पूरी प्रतियोगिता दर्पण याद है। टीना डाबी ने सुहाग रात में किस कलर का नेल पॉलिश लगाया था ये भी बता देंगे।
प्रतीक को समूची 'योजना' याद है। मनरेगा में खुदे कितनों गड्ढों में पानी है सब याद है।
पटना का शशांक भले आवारा है लेकिन इतिहास उसका मजबूत है कि उसे अकबर के नानी के गाँव से उसके मौसी का गाँव कितनी दूर था सिर्फ यही नहीं याद उसे ये भी पता है कि बाबर के फुआ की शादी में पत्तल गिलास कौन चला रहा था।
लीजिये...सवाल पर सवाल रटे जा रहें हैं..एक याद नहीं हो रहा कि दूसरा भूल जा रहा..
दिन भर गर्लफ़्रेंड के सांसों का हिसाब रखने वाले मनीषवा ने तेरह दिन से व्हाट्सएप डिएक्टिवेट कर रखा है... इस कुर्बानी को कौन याद रखेगा पता नहीं..
अरे! ज़िन्दगी ए बी सी डी में तब्दील हो गई है.। साला चार में से एक सही होगा लेकिन कौन सही होगा इसके चक्कर में सांस लेना मुश्किल है..
आंखों के सामने अंधेरा हो रहा..फेल हो गए तो क्या होगा बे..ये सोचकर दिल धक्क से हो जाता है।
शाम हो जाती तो चाय की तलब लग जाती....और रात होते ही "तहड़ी ही बना दें कि सब्जी बनाकर रोटी खरीद लें" ये सवाल सभी सवालों पर भारी बाहर हो जाता। और फिर पता चलता कि कुकर जी टुकुर-टुकुर ताक रहें हैं। जिसके फलस्वरुप एक अलग ही संग्राम छिड़ गया है।
लग रहा है कि संसद में तीन तलाक बिल पास हो सकता है...समान नागरिक संहिता के मसौदे शुरू हो सकतें हैं..काश्मीर के मुद्दे भी एक बार सुलझाए जा सकतें हैं...
लेकिन तीन घण्टे में तेईस बार बहस करने के बाद ये तय नहीं किया जा सकता की किचन में सात दिन से पड़े हुए कुकर रजेसवा धोएगा की दिनेसवा...
फिर जैसे-तैसे खाना खाकर सुलाई होती है...और अगले दिन सुबह होते-होते पता चल जाता है कि जितना हम पढ़ रहें हैं..उतना भूल रहे हैं।
कल दोपहर में जो सातवाँ का A सही था वो शाम होते-होते B और सुबह होते-होते C में कैसे बदल गया पता नहीं।
लेकिन सब पढ़ रहे हैं..हंसते हुए..भरोसा है अपनी मेहनत पर..लगन और समर्पण पर..पिता फोन करते हैं.. "परीक्षा से पहले हनुमान जी के गोड़ लाग लिहs"
माँ फोन करके रोज पूछती है कि संकटमोचन गए थे.. ?
इधर जिंदगी मल्टीपल च्वॉयस क्वेश्चन में उलझी जा रही है। समूचा सिस्टम हैंग हो रहा है। सिद्धांत पर सिद्धान्त रटे जा रहें हैं..क्या पता कहाँ से पूछ दे..
क्या पता क्या आ जाए..नहीं पता..बिल्कुल नही पता
लेकिन ये तो पता है कि ज़िन्दगी मल्टीपल च्वॉयस क्वेश्चन नहीं है..न ही ऑनलाइन एग्जाम है..जिंदगी दीर्घउत्तरिय प्रश्न है। जहाँ रोज परीक्षा देनी है। रोज सवाल हल करने हैं।
फर्क नहीं पड़ता कि पूरे मन से पढ़ाई करने के बाद कितने लोग फेल होंगे,कितने पास।
फर्क तो इससे पड़ता है कि उस दिन क्या होगा जिस दिन पता चलेगा कि आज के बाद हमें कोई परीक्षा नहीं देनी है । न ही रट्टा मारना है। अपनी नींद बर्बाद नहीं करनी है। मन को रोकना नही है..खाने से सोने से फिल्म देखने और मोबाइल चलाने से।
पता चले कि हम अब विद्यार्थी नहीं रहे..हो गई सारी परिक्षाएं.. क्या होगा उस दिन..
शायद उस दिन ज़िन्दगी से रोमांच खत्म हो जाएगा न..?
देख तो रहें हैं कि इन परीक्षाओं को पास कर चूके तथाकथित सफल लोग कितने खुश हैं..
कई बार लगता है कि प्रतियोगिता दर्पण और कम्प्टीशन की क़िताबों के पहले पेज़ पर लिखा जाना चाहिए कि मंज़िल मिलते ही रास्ते का लुत्फ खत्म हो जाता है। साध्य के मिलते ही साधन की याद नहीं आती है।
लेकिन इतना कौन सोचे..
सोचना तो ये है कि परीक्षाएं होती रहनी चाहिए..ये हमें मजबूत बनाती हैं...ये सिखाती हैं कि हमें बिना रुके रोज सीखते रहना है।
C/P Facebook
हाल-ए-दिल ये था कि प्रतियोगिता दर्पण देखते-देखते पता नहीं चल रहा था कि दर्पण में खुद को देखे कितने दिन हो गए हैं। करेंट अफेयर्स और 'कौन क्या है" याद करते-करते भूल गए थे कि हम क्या हैं ?
इतिहास की घटनाओं ने दिमाग का भूगोल बिगाड़ दिया था और भूगोल के आँकड़ों ने हमारा इतिहास।
'कुछ पेड़ बन्दर हैं और कुछ बन्दर पेड़ हैं.".ये समझते-समझते कब हम बन्दर जैसा महसूसने लगे थे ये पता न चल रहा था।
यूँ तो सुरेश का बाप दिनेश था लेकिन महेश सुरेश की बीबी के भाई के इकलौते साले के दामाद का सगा फूफा कैसे बन गया था ये सोचकर दिमाग़ बैठा जा रहा था।
'अधिगम' कहाँ से उतपन्न होगा..ये शोध का विषय नहीं था.. शोध का विषय ये था कि "यार एलकेजी से लेकर और एमए तक एक्को मास्टर और प्रोफ़ेसर ने क्लास में पढ़ाते समय इस 'अधिगम' शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया।
लेकिन इसी बीच हुआ यों कि गुड़ जैसी मीठी सर्दी ने आइसक्रीम का रूप ले लिया..रात भर ठंडे टँकी के पानी को छूने से पहले मंत्र पढ़कर मंत्र स्नान होने लगे।
सुबह आठ बजते ही स्वेटर,मफ़लर बांधकर बिना ब्रश किये और बिना नहाए किताब और नोट्स लेकर लड़के अपने-अपने छतों पर इस अंदाज़ में बैठने लगे। मानों नासा वाले आज घोषित कर देंगे कि इंडिया के लड़कों से बड़ा पढ़वइया मंगल,बुध,बियफे,
शुक,शनिचर किसी ग्रह पर नहीं है।
इधर दस बजते ही समूचा छत हल्दी घाटी के मैदान से वैली ऑफ़ फ्लॉवर्स में तब तब्दील हो जाता,जब बगल वाले छत पर एंजेल रोजी जी नहाकर बाल सुखाने आ जातीं थीं...
घनघोर उबासी और बेहिसाब जमहाइयों के पुरनूर आलम में एक ऐसी नवीन ऊर्जा का संचार हो जाता। जिसका जिक्र साजिश के तहत विज्ञान की किताबों में नहीं किया गया है।
लड़के किताब लेकर छत से उठ खड़े होते...उधर वो बाल झाड़ती और लड़के अपनी पृष्ठ भाग की धूल..
वो चेहरा सँवारती लड़के अपनी कलम-कॉपी-किताब।
"तीसरा का A सही है कि B सही रे पंकज" ? से बदलकर माहौल तुरंत "ई वाली उससे सही है" में तब्दील हो जाता था..
और खिलखिलाहटों के बैकग्राउंड में कहीं से आवाज आने लगती..
"नइहर में खूबे कॉलेज भइल
सेज वाला एज भइल ना.. "
और फिर तो दस से लेकर बीस मिनट हर लड़के के भीतर सलमान,ऋतिक,रणवीर,आमिर,अजय देवगन की आत्मा इस कदर प्रविष्ट हो जाती कि प्रतियोगिता दर्पण,इतिहास, भूगोल,करेंट अफ़ेयर्स के साथ समूचे अधिगम की ऐसी की तैसी हो जाती।
और ये तय होता कि पढ़ाई तो चलेगा,चलना उसका काम है लेकिन पहले "ई बतावो सन्दीपवा कि ये पटी किससे है बे".?
इस समस्या के बाद तो ऐसे-ऐसे शोध प्रबन्ध प्रस्तुत होते कि एक बार यूजीसी का दिमाग़ हिल जाए कि "यार ये यूनिवर्सिटी से ज्यादा रीसर्च यूनिवर्सिटी के बाहर कैसे हो रहें हैं।" ?
कोई बता देता की अरे! हिंदी पढ़ती है बे..कल गुनाहों का देवता पढ़ रही थी...और फेसबुक पर जौन एलिया के शेर के साथ डीपी लगाती है...
कोई बता देता कि नहीं कामर्स पढ़ती है बे..कल देखे नहीं.. एक गोभी के लिए सब्जी वाले को कैसे आर्थिक मंदी समझा रही थी।
तब तक सभी शोध प्रबंधों पर पानी फेरकर रोजी जी रोज की भाँति नीचे चलीं जातीं..और इधर माहौल पूर्व की भाँति हो जाता था।
मानों उर्वशी के जाने के बाद देव गण साम की ऋचाओं का ग़ायन कर रहें हैं..इतना संयमित, इतना अनुशासित..ओह!
देखो तो जरा कितने पढ़ाकू और सीधे-साधे सज्जन लड़के..आपने देखें न होंगे कभी...
इनसे मिलिये प्रवीण बाबू जिला रोहतास बिहार पूरी प्रतियोगिता दर्पण याद है। टीना डाबी ने सुहाग रात में किस कलर का नेल पॉलिश लगाया था ये भी बता देंगे।
प्रतीक को समूची 'योजना' याद है। मनरेगा में खुदे कितनों गड्ढों में पानी है सब याद है।
पटना का शशांक भले आवारा है लेकिन इतिहास उसका मजबूत है कि उसे अकबर के नानी के गाँव से उसके मौसी का गाँव कितनी दूर था सिर्फ यही नहीं याद उसे ये भी पता है कि बाबर के फुआ की शादी में पत्तल गिलास कौन चला रहा था।
लीजिये...सवाल पर सवाल रटे जा रहें हैं..एक याद नहीं हो रहा कि दूसरा भूल जा रहा..
दिन भर गर्लफ़्रेंड के सांसों का हिसाब रखने वाले मनीषवा ने तेरह दिन से व्हाट्सएप डिएक्टिवेट कर रखा है... इस कुर्बानी को कौन याद रखेगा पता नहीं..
अरे! ज़िन्दगी ए बी सी डी में तब्दील हो गई है.। साला चार में से एक सही होगा लेकिन कौन सही होगा इसके चक्कर में सांस लेना मुश्किल है..
आंखों के सामने अंधेरा हो रहा..फेल हो गए तो क्या होगा बे..ये सोचकर दिल धक्क से हो जाता है।
शाम हो जाती तो चाय की तलब लग जाती....और रात होते ही "तहड़ी ही बना दें कि सब्जी बनाकर रोटी खरीद लें" ये सवाल सभी सवालों पर भारी बाहर हो जाता। और फिर पता चलता कि कुकर जी टुकुर-टुकुर ताक रहें हैं। जिसके फलस्वरुप एक अलग ही संग्राम छिड़ गया है।
लग रहा है कि संसद में तीन तलाक बिल पास हो सकता है...समान नागरिक संहिता के मसौदे शुरू हो सकतें हैं..काश्मीर के मुद्दे भी एक बार सुलझाए जा सकतें हैं...
लेकिन तीन घण्टे में तेईस बार बहस करने के बाद ये तय नहीं किया जा सकता की किचन में सात दिन से पड़े हुए कुकर रजेसवा धोएगा की दिनेसवा...
फिर जैसे-तैसे खाना खाकर सुलाई होती है...और अगले दिन सुबह होते-होते पता चल जाता है कि जितना हम पढ़ रहें हैं..उतना भूल रहे हैं।
कल दोपहर में जो सातवाँ का A सही था वो शाम होते-होते B और सुबह होते-होते C में कैसे बदल गया पता नहीं।
लेकिन सब पढ़ रहे हैं..हंसते हुए..भरोसा है अपनी मेहनत पर..लगन और समर्पण पर..पिता फोन करते हैं.. "परीक्षा से पहले हनुमान जी के गोड़ लाग लिहs"
माँ फोन करके रोज पूछती है कि संकटमोचन गए थे.. ?
इधर जिंदगी मल्टीपल च्वॉयस क्वेश्चन में उलझी जा रही है। समूचा सिस्टम हैंग हो रहा है। सिद्धांत पर सिद्धान्त रटे जा रहें हैं..क्या पता कहाँ से पूछ दे..
क्या पता क्या आ जाए..नहीं पता..बिल्कुल नही पता
लेकिन ये तो पता है कि ज़िन्दगी मल्टीपल च्वॉयस क्वेश्चन नहीं है..न ही ऑनलाइन एग्जाम है..जिंदगी दीर्घउत्तरिय प्रश्न है। जहाँ रोज परीक्षा देनी है। रोज सवाल हल करने हैं।
फर्क नहीं पड़ता कि पूरे मन से पढ़ाई करने के बाद कितने लोग फेल होंगे,कितने पास।
फर्क तो इससे पड़ता है कि उस दिन क्या होगा जिस दिन पता चलेगा कि आज के बाद हमें कोई परीक्षा नहीं देनी है । न ही रट्टा मारना है। अपनी नींद बर्बाद नहीं करनी है। मन को रोकना नही है..खाने से सोने से फिल्म देखने और मोबाइल चलाने से।
पता चले कि हम अब विद्यार्थी नहीं रहे..हो गई सारी परिक्षाएं.. क्या होगा उस दिन..
शायद उस दिन ज़िन्दगी से रोमांच खत्म हो जाएगा न..?
देख तो रहें हैं कि इन परीक्षाओं को पास कर चूके तथाकथित सफल लोग कितने खुश हैं..
कई बार लगता है कि प्रतियोगिता दर्पण और कम्प्टीशन की क़िताबों के पहले पेज़ पर लिखा जाना चाहिए कि मंज़िल मिलते ही रास्ते का लुत्फ खत्म हो जाता है। साध्य के मिलते ही साधन की याद नहीं आती है।
लेकिन इतना कौन सोचे..
सोचना तो ये है कि परीक्षाएं होती रहनी चाहिए..ये हमें मजबूत बनाती हैं...ये सिखाती हैं कि हमें बिना रुके रोज सीखते रहना है।
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