दोस्तों की डेस्क पर लगी एक कविता जो अपने घर, सफ़र और ठिकाने होते हैं हर कविता के। तसल्ली देता है यह सब, इमोशनल भी कर देता है और कुछ भी समझने को थोड़ा और असंभव बना देता है..
कि लोग पालते हैं
कुत्ते-बिल्लियां
और परिन्दे भी
और हमने पाला है
जुनून,
ताक पर रखकर
सारी चेतावनियां बड़ों की,
भुलाकर लड़कपन की सब शिकायतें,
अलमारी में बन्द करके
रख आए हैं सब डर,
कि पराजय को
उल्टा लटका दिया है हमने
उसी के अंधेरे कमरे में,
और सोच लिया है
कि सूरज चुक गया
या थक गया
तो बनाएंगे अपना नया सूरज,
कि हमने कसम खा ली है
जब तक
पूरा नहीं होता जुनून
– चाहे सौ-हज़ार बरस तक –
हम बूढ़े नहीं होंगे,
कि हमने जवानी खरीद ली है
सदा के लिए
और माथे पर बांध ली है
जीत,
कि हमने किस्मत की गेंद को
उछाल फेंका है
ज़मीन के भीतर की अनंत सुरंग में
और सोचना छोड़ दिया है,
हम जुनून में
पागल हो गए हैं,
हमारे हौसले इतने चमकते हैं
कि हम अब पहचान में नहीं आते,
हमने उलझनों के जंगल जला दिए हैं
और उस गर्मी से
उबलता है अब हमारा लहू,
कि जब से जुनून पाला है,
ज़िन्दगी पानी भरने लगी है
हमारी प्यास के बर्तन में
और हम जुनूनी... अब और क्या कहें?
- गौरव सोलंकी
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