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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

संभरण कार्यक्रम

टैग्स: सामान्य अध्ययन-Iजल संसाधन

संदर्भ:

भारत में वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2015 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता लगभग 1545 क्यूबिक मीटर थी।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अनुसार, वर्ष 2025 तक भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता घटकर 1465 क्यूबिक मीटर हो जाएगी।
भारत कृषि प्रधान देश है, जहाँ अधिकांश कृषि मानसून पर निर्भर करती है।

क्या है जल संभरण?

जल संभरण (Watershed) भूमि का वह क्षेत्र होता है जिसका समस्त अपवाहित जल एक ही बिंदु से होकर गुजरता है। 
इस क्षेत्र में गिरने वाला जल एक नदी या उसकी कई सहायक नदियों के माध्यम से एकत्रित होकर एक ही स्थान से होकर प्रवाहित होता है।
डॉ महनोत के अनुसार, एक ऐसा क्षेत्र जहाँ संपूर्ण वर्षा जल एक ही बिंदु से प्रवाहित होता है जल ग्रहण क्षेत्र कहलाता है। 
जल संभरण मैक्रो, सबमैक्रो, माइक्रो तथा मिनी आकार के (क्षेत्रफल के अनुसार) होते हैं।

जल संभरण प्रबंधन कार्यक्रम की आवश्यकता क्यों?

भारतीय कृषि की मानसून पर अधिक निर्भरता होना।
वर्षा आधारित क्षेत्रों की अधिकता होना।
निम्न आय, गरीबी आदि समस्याओं के कारण।
खाद्य असुरक्षा की उपस्थिति के कारण।

जल संभरण प्रबंधन कार्यक्रम के घटक

(Components of Watershed Management):
फसल सघनीकरण को बढ़ावा देना।
फसल विविधीकरण को बढ़ावा देना।
कीटनाशक एवं पोषक तत्त्वों का प्रबंधन कर भूमि का संरक्षण करना। 
लोगों को कृषि से गैर-कृषि कार्यो की ओर उन्मुख करना जैसे पशु पालन, मधुमक्खी पालन आदि। 
क्षेत्र विशेष में क्षमता निर्माण करना (Capacity Building)।

इसके उद्देश्य एवं सिद्धांत

(Objectives and Principles of Watershed Management Programme):
मृदा अपरदन को रोकना तथा मृदा नमी का संरक्षण एवं वानस्पतिक आवरण का अनरक्षण करना।
जल निकास, लवणीयता एवं क्षारीयता संबंधी समस्याओं का प्रबंधन करना
भूमिगत जल स्तर को बढ़ाना।
उपज में वृद्धि हेतु सिंचाई प्रणाली में सुधार करना।
मृदा एवं जल संसाधनों की सुरक्षा करना।
भूमि का उसकी क्षमतानुसार उपयोग करना।
यथासंभव वर्षा जल का अधिकतम संग्रहण करना।
जल संरक्षण के पारंपरिक तरीकों को पुनर्जीवित करना।
अतिरिक्त जल का विभिन्न उपायों/विधियों के माध्यम से संरक्षण करना।
चारगाह विकास, बागवानी, कृषि विनिकी तथा पुनः नवीकरण जैसी पारिस्थिकीय पुनर्भरण की विधियों को अपनाना।

जल संभरण प्रबंधन कार्यक्रम के उपागम

(Approaches to Watershed Management Programme): 
जल संभरण प्रबंधन हेतु दो प्रकार के उपागमों को अपनाया गया है।
समन्वित उपागम (Integrated Approach): इसके तहत तकनीकी का प्राकृतिक संसाधनों के साथ समन्विकरण करने का प्रयास किया गया।
समुदाय आधारित उपागम (Consortium based Approach) : इसके अंतर्गत सामुदायिक सहभागिता को महत्त्व दिया गया।

जल संभरण प्रबंधन की प्रक्रिया/अवस्थाएँ

(Process of Watershed Management):
जल संभरण प्रबंधन का कार्य कई अवस्थाओं में किया जाता है।
प्रथम अवस्था में वाटरशेड क्षेत्र/प्रदेश की पहचान की जाती है।
दूसरी अवस्था में पहचान किये गये क्षेत्र की स्थलावृत्ति, जलवायु, जल परिसंचरण एवं भूमि की कार्मिक क्षमता का सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है।
तृतीय अवस्था में प्रेक्षण का कार्य किया जाता है।
वस्तुत यह जानने का प्रयास किया जाता है कि पहचान किये क्षेत्र की जनसंख्या की संसाधनात्मक आवश्यकताएँ क्या हैं?
चतुर्थ अवस्था में प्रदेश की पारिस्थितिक क्षमता को विकास का साधन मानकर नियोजन का कार्य किया जाता है।
भारत में जल संभरण प्रबंधन की दिशा में किये गए कार्य:
भारत में 1970 के दशक में जल संभरण प्रबंधन से संबंधित अनेक कार्यक्रमों की शुरूआत की गई परंतु 1990 के दशक में व्यापक स्तर पर प्रयास किय गए।
समेकित जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम की शुरूआत की गई।
वस्तुतः समेकित जब संभरण कार्यक्रम में सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम (DPAP), मरूभूमि विकास कार्यक्रम (DDP) तथा समेकित बंजरभूमि विकास कार्यक्रम (IWDP) को समन्वित किया गया।
वर्षा आधारित क्षेत्रों हेतु राष्ट्रीय जल संभरण परियोजना की शुरूआत की गई।
स्थानांतरित कृषि (Shift farming) क्षेत्रों के लिये जल संभरण प्रबंधन परियोजना चलाई गई।
जल संभरण प्रबंधन कोष की स्थापना की गई।

जल संभरण प्रबंधन कार्यक्रम का योगदान

(Contribution of Watershed Management Programme):
भूमिगत जल के पुनर्भरण में बढ़ोत्तरी।
जल संरचनाओं (Water bodies) में कुओं की संख्या में वृद्धि।
फसल सघनता में वृद्धि तथा फसल प्रतिरूप में परिवर्तन।
भूमि क्षरण/अपरदन कमी तथा उपज में वृद्धि।

जल संभरण प्रबंधन कार्यक्रम की चुनौतियाँ

(Challenges of Watershed Management Programme):
सही तरह से क्रियान्वयन का न हो पाना।
सामुदायिक सहयोग एवं क्षमता निर्माण की कमी।
अशिक्षा के कारण जागरूकता का अभाव।
तकनीकी कुशलता एवं उपयुक्त मानव क्षमता का न होना।
क्रियान्वयन एजेंसियों एवं ग्रामीणों में उचित समन्वय का अभाव।

आगे की राह (Way Forward):

जनसहभागिता तथा राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रतिबद्धता का प्रदर्शन कर इसकी कमियों को दूर कर सफल बनाया जा सकता है।
इसमें गैर-लाभकारी संगठनों की विशेष भूमिका होती है। अतः इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये।

संबंधित केस स्टडीज़ (Case Studies)

कोथापतली (Kothapally) यह समेकित उपागम पर आधारित प्रयास है।
कोथापतली गाँव कृष्णा की सहायक नदी मूसी पर स्थित है, यहाँ पर यह प्रयास/ कार्यक्रम सफल रहा।
भूमिगत जल स्तर में 7-32% की वृद्धि हुई।
आय में 50% तक की वृद्धि।
फसल उपज में 2.5 गुना बढ़ोत्तरी।
अपवहन जल (Run off water) में 39-57% तक कमी आई।
सुखोमांजरी (Sukhomanjori) हरियाणा के पंचकुला में स्थित है। सुखोमांजरी में सामुदायिक आधारित उपागम को अपनाया गया जो सफल रहा। 
नोटः राजेंद्र सिंह (भारत के जल पुरू ष) ने अलवर (राजस्थान) के क्षेत्र में जोहड़स (Johads) तथा चेक डैम्स बनाकर इस क्षेत्र में विशेष योगदान दिया तथा अन्ना हज़ारे (भारत के जलयोद्धा) ने महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धि में छोटे-छोटे तालाब आदि बनाकर इस क्षेत्र में विशेष योगदान दिया

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