🇮🇳आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ ने गुणों का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना है। इसे रसाश्रित स्वीकार किया है।
🇮🇳हिंदी के मूर्धन्य विद्वान और हिंदी साहित्य की मुकम्मल इतिहास देने वाले आचार्य शुक्ल ने गुण को रसाश्रित माना है।
🇮🇳डॉ श्यामसुंदर दास ने गुणों को 'शैली' के अंतर्गत रखा है।
🇮🇳हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों ने गुणों की संख्या तीन स्वीकार की है - ओज गुण, प्रसाद गुण और माधुर्य गुण
🇮🇳आचार्य देव ने अपने ग्रन्थ 'शब्द रसायन' के सप्तम प्रकाश में 12 काव्यगुण माने हैं।
🇮🇳वामन ने प्रसाद गुण को ओज गुण का विरोधी कहा है।
🇮🇳दंडी के अनुसार समास युक्त पदों की बहुलता ओज गुण का परिचायक है।
🇮🇳काव्य गुण का अर्थ - 'दोषाभाव, शोभाकारी या आकर्षक धर्म।
🇮🇳गुण सम्प्रदाय को आचार्य वामन ने रीति सम्प्रदाय कहा है। आचार्य वामन गुण के प्रतिष्ठपक हैं।
🇮🇳'शौर्यादिवत' गुणों को और 'हारादिवत' अलंकारों को आचार्य मम्मट ने कहा।
🇮🇳भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में गुणों की संख्या 10 मानी है। क्रमशः माधुर्य प्रसाद ओज कांति समाधि श्लेष सौकुमार्य अर्थव्यक्ति उदारता समता।
🇮🇳आचार्य दण्डी ने गुणों की संख्या 10 और वामन ने 20 मानी है।
🇮🇳आचार्य कुंतक ने अपने ग्रन्थ वक्रोक्ति जीवितम में 2 काव्य गुण (औचित्य और सौभाग्य) माने हैं।
🇮🇳आनन्दवर्धन ने चित्त की तीन अवस्थाओं (द्रुति दीप्ति व्यापकत्व) के आधार पर काव्य गुणों की संख्या 3 मानी है।
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