बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे है,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
पीठ में छुरी सा चाँद,
राहु गया रेख फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
भरी दुपहरी में अँधियारा,
सूरज परछाई से हरा,
अंतरतम का नेह निचोड़े, बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।
हम पड़ाव को समझें मंजिल,
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में, आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।
आहूति बाकी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने, नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
-अटल बिहारी वाजपेयी
दाग बड़े गहरे है,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
पीठ में छुरी सा चाँद,
राहु गया रेख फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
भरी दुपहरी में अँधियारा,
सूरज परछाई से हरा,
अंतरतम का नेह निचोड़े, बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।
हम पड़ाव को समझें मंजिल,
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में, आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।
आहूति बाकी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने, नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
-अटल बिहारी वाजपेयी
 
 
 
 
 
 
 
 
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