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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

17 दिसंबर अब्दुर्रहीम खानखाना का जन्म दिवस

रहीम अथवा अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना अथवा अब्दुर्रहीम ख़ाँ ( अंग्रेज़ी : Rahim अथवा Abdul Rahim Khan-e-Khana ) (जन्म- 17 दिसम्बर , 1556; मृत्यु- 1627) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। अकबर के दरबार में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे। गुजरात के युद्ध में शौर्य प्रदर्शन के कारण अकबर ने इन्हें 'ख़ानखाना' की उपाधि दी थी। रहीम अरबी, तुर्की, फ़ारसी , संस्कृत और हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। रहीम की ग्यारह रचनाएं प्रसिद्ध हैं। इनके काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार, नीति और भक्ति के भाव मिलते हैं। 70 वर्ष की उम्र में 1626 ई. में रहीम का देहांत हो गया।
जीवन परिचय
अब्दुर्रहीम ख़ाँ, ख़ानख़ाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। केशव , आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। ये अकबर के अभिभावक
बैरम ख़ाँ के पुत्र थे। अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का जन्म 17 दिसम्बर, 1556 ई. ( माघ , कृष्ण पक्ष , गुरुवार ) को सम्राट अकबर के प्रसिद्ध अभिभावक बैरम ख़ाँ (60 वर्ष) के यहाँ
लाहौर में हुआ था। उस समय रहीम के पिता बैरम ख़ाँ
पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू को हराकर बाबर के साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर रहे थे। बैरम ख़ाँ, अमीर अली शूकर बेग़ के वंश में से थे। जबकि उनकी माँ सुलताना बेगम मेवाती जमाल ख़ाँ की दूसरी पत्नी थीं। कविता करना बैरम ख़ाँ के वंश की ख़ानदानी परम्परा थी। बाबर की सेना में भर्ती होकर रहीम के पिता बैरम ख़ाँ अपनी स्वामी भक्ति और वीरता से हुमायूँ के विश्वासपात्र बन गए थे।
हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम ख़ाँ ने 14 साल के शहज़ादे अकबर को राजगद्दी पर बैठा दिया और ख़ुद उसका संरक्षक बनकर मुग़ल साम्राज्य को स्थापित किया था। लेकिन वर्दी ख़ानख़ाना के प्राणदण्ड, दरबारियों की ईर्ष्या, अकबर की माता हमीदा बानो और धाय माहम अनगा की दुरभि सन्धि एवं बाबर की बेटी गुलरुख़ बेगम की लड़की सईदा बेगम से शादी तथा अमीरों के सामने अकबर के रूप में उपस्थित होने के विकल्प ने बैरम ख़ाँ को सन् 1560 में अकबर के पूर्ण राज्य ग्रहण करने से धीरे–धीरे विद्रोही बना दिया था।
पिता बैरम ख़ाँ की हत्या
आख़िरकार हारकर अकबर के कहने पर बैरम ख़ाँ हज के लिए चल पड़े। वह गुजरात में पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग तालाब में नौका विहार या नहाकर जैसे ही निकले, तभी उनके एक पुराने विरोधी - अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ाँ ने धोखे से उनकी पीठ में छुरा भोंककर उनका वध कर डाला। कुछ भिखारी लाश उठाकर फ़क़ीर हुसामुद्दीन के मक़बरे में ले गए और वहीं पर बैरम ख़ाँ को दफ़ना दिया गया। 'मआसरे रहीमी' ग्रंथ में मृत्यु का कारण शेरशाह के पुत्र सलीम शाह की कश्मीरी बीवी से हुई लड़की को माना गया है, जो हज के लिए बैरम ख़ाँ के साथ जा रही थी। इससे अफ़ग़ानियों को अपनी बेहज़्ज़ती महसूस हुई और उन्होंने हमला करके बैरम ख़ाँ को समाप्त कर दिया।
लेकिन यह सम्भव नहीं लगता, क्योंकि ऐसा होने पर तो रहीम के लिए भी ख़तरा बढ़ जाता। उस वक़्त पूर्ववर्ती शासक वंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया जाता था। वह अफ़ग़ानी मुबारक ख़ाँ मात्र बैरम ख़ाँ का वध कर ही नहीं रुका, बल्कि डेरे पर आक्रमण करके लूटमार भी करने लगा। तब स्वामीभक्त बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर 'दीवाना' चार वर्षीय रहीम को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए अहमदाबाद जा पहुँचे। चार महीने वहाँ रहकर फिर वे आगरा की तरफ़ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाज़त के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहाँ भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएँ।
रहीम को अकबर का संरक्षण
बादशाह अकबर का यह आदेश बैरम ख़ाँ के परिवार को
जालौर में मिला, जिससे कुछ आशा बंधी। रहीम और उनकी
माता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सन् 1562 में राजदरबार में पहुँचे। अकबर ने बैरम ख़ाँ के कुछ दुश्मन दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके लालन–पालन का दायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया। अकबर ने रहीम का पालन–पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा शहज़ादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस–बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा। अकबर ने शहज़ादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि मिर्ज़ा ख़ाँ से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।
अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ ही रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे, जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में 'मिर्ज़ा ख़ाँ' अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं
फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित, तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ - बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी माँ थीं। वह भी कविता करती थीं।
रहीम शिया और सुन्नी के विचार–विरोध से शुरू से आज़ाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छः साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक़्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से
अंग्रेज़ी और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान् थे; बदाऊंनी ख़ुद उनमें से एक था।
विवाह
रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' की कार्यकुशलता, लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फ़ैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुँह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय
माहम अनगा की पुत्री और अज़ीज़ कोका की बहन 'माहबानो' से रहीम का निकाह करा दिया। रहीम का विवाह लगभग सोलह साल की उम्र में कर दिया गया था। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर के द्वारा ही रखा गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी शहज़ादा दानियाल से सन् 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक एक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।
रहीम का भाग्योदय
रहीम के भाग्य का उत्कर्ष सन् 1573 से शुरू होता है। जो अकबर के समय सन् 1605 तक चलता रहा। इसी बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज़्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन् 1572 में जब अकबर पहली बार गुजरात विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन् 1573 में 11 दिनों में ही साबरमती नदी के किनारे पहुँच गया। रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ाँ ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त किया। यह उनका पहला युद्ध था।
अकबर के साथ ही रहीम लौट आए। कुछ वक़्त बाद मिर्ज़ा ख़ाँ को राणा प्रताप , जो उन दिनों दक्षिणी पहाड़ियों के दुर्गम जंगल में थे, से लड़ने के लिए राजा मानसिंह और भगवान दास के साथ भेजा गया। आंशिक सफलता के बाद भी जब राणा प्रताप अपराजित रहे तो शाहवाज़ ख़ाँ के नेतृत्व में पुनः सेना भेजी गई। इसमें भी रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' शामिल थे जिन्होंने 4 अप्रैल , 1578 को दोबारा आक्रमण किया। अभी तक रहीम प्रसिद्ध सेनानायकों के नेतृत्व में युद्ध का अनुभव प्राप्त कर रहे थे।
रहीम मिर्ज़ा ख़ाँ को ज़िम्मेदारी का पहला स्वतंत्र पद सन् 1580 में प्राप्त हुआ। फिर अकबर ने उन्हें मीर अर्ज़ के पद पर नियुक्त किया। इसके बाद सन् 1583 में उन्हें शहज़ादा सलीम का अतालीक़ (शिक्षक) बना दिया गया। रहीम को इसे नियुक्ति से बहुत खुशी हासिल हुई। उन्होंने इस उपलक्ष्य में लोगों को एक शानदार दावत दी, जिसमें ख़ुद बादशाह अकबर भी मौजूद था। मिर्ज़ा ख़ाँ और उनकी पत्नी माहबानो को बादशाह ने उपहारों से सम्मानित किया।
रहीम अभी इस दायित्व का निर्वाह कर ही रहे थे कि उन्हें ख़बर मिली कि आगरे के क़िले से भागे हुए क़ैदी मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने काठियों आदि के साथ मिलकर फिर सेना तैयार करनी शुरू कर दी है। बैरम ख़ाँ का दुश्मन शहाबुद्दीन उस वक़्त गुजरात का सूबेदार था। वह अकबर का हुक्म नहीं मान रहा था। अकबर को इस बात का शक था कि वह विश्वासघात कर रहा है।

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