⭕️हाल ही में ‘केंद्रीय श्रम और रोज़गार मंत्रालय’ (Ministry of Labor and Employment) द्वारा आधिकारिक गजट के माध्यम से ‘मज़दूरी संहिता अधिनियम, 2019’ के कार्यान्वयन के लिये तैयार नियमों का मसौदा प्रस्तुत किया गया है। इस मसौदे के जारी होने (7 जुलाई) से अगले 45 दिनों के अंदर सभी पक्ष इससे जुड़े सुझाव और आपत्तियाँ मंत्रालय को भेज सकते हैं। गजट में इसका नाम ‘मजदूरी संहिता (केंद्रीय) नियम -2020’ [Draft Code on Wages(central) Rules, 2020] रखा गया है। इस मसौदे में मुख्य तौर पर चार श्रम कानून जिसमें न्यूनतम मज़दूरी कानून, मज़दूरी भुगतान कानून, बोनस भुगतान कानून और समान पारितोषिक कानून को समाहित किया गया है।
📻प्रमुख बिंदु:
केंद्र सरकार देश में सक्रिय 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को चार संहिताओं के द्वारा प्रतिस्थापित करने की दिशा में कई बड़े सुधार प्रस्तावित किए हैं।
⭕️ये चार संहिताएँ निम्नलिखित हैं-
मज़दूरी संहिता
सामाजिक सुरक्षा संहिता
औद्योगिक संबंध संहिता
व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियाँ संहिता (Occupational Safety, Health and Working Conditions Code )
गौरतलब है कि संसद द्वारा ‘मज़दूरी संहिता विधेयक’ (Code on Wages Act 2019) को अगस्त 2019 में पारित कर दिया गया था
वर्तमान में देश में लागू न्यूनतम वेतन कानून और वेतन भुगतान कानून उन श्रमिकों पर लागू होते हैं जो मज़दूरी सीमा के नीचे आते हैं।
अर्थात अब तक कानून के तहत 24 हजार रुपये पाने वाले कर्मचारियों की ही ज़रूरी कटौती और वेतन देने की समय सीमा तय थी, नए कानून के तहत सभी कर्मचारियों को ये सुविधा मिलेगी
इस मसौदे में प्रस्तावित बदलावों के माध्यम से देश के लगभग 50 करोड़ कामगारों को लाभ प्राप्त होगा।
भारतीय संविधान के तहत ‘श्रम’ को ‘सातवीं अनुसूची’ के अंतर्गत ‘समवर्ती सूची’ (Concurrent List) का हिस्सा, वस्तुतः केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को इससे जुड़े कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।
पूर्व में देश के सभी राज्यों द्वारा अपनी-अपनी परिस्थितियों के आधार पर न्यूनतम मज़दूरी तय की जाती थी।
वर्ष 1930 से विभिन्न श्रम कानूनों में सुधार के प्रयास होते रहे हैं, ऐसे में लंबे समय से श्रम कानूनों के संदर्भ में एक बड़े सुधार की मांग की जा रही थी।
मज़दूरी संहिता (केंद्रीय) नियम -2020:
इस संहिता में निम्नलिखित चार अधिनियमों को समाहित किया जाएगा -
मज़दूरी भुगतान अधिनियम, 1936
न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948
बोनस भुगतान अधिनियम, 1965
समान पारितोषिक अधिनियम, 1976
लाभ:
वर्तमान में मात्र 7% लोग ही न्यूनतम मज़दूरी के दायरे में आते हैं, परंतु इस संहिता के माध्यम से सभी कामगारों को निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी के दायरे में लाया जा सकेगा।
वर्तमान में मज़दूरी के संदर्भ में विभिन्न श्रम कानूनों में अलग-अलग परिभाषाएं दी गई हैं। इससे कानूनों के क्रियान्वयन में जटिलता के साथ कानूनी विवाद भी बढ़ता है। अतः इस संहिता के माध्यम से श्रम कानूनों से जुड़ी जटिलताओं को दूर करते हुए इससे जुड़े विवादों में कमी लाने में सहायता प्राप्त होगी।
इस मसौदे में कामकाजी घंटों के संदर्भ में अस्पष्टता को दूर करते हुए केंद्र सरकार द्वारा इसे 8 घंटे के लिये निर्धारित किया गया है, इसके बाद के कार्य/श्रम को ओवर-टाइम के रूप में गिना जाएगा।
एक कार्यदिवस में कुल कामकाजी घंटे (ओवर-टाइम और विश्राम अंतराल सहित) 12 घंटों से अधिक नहीं होंगे।
इस संहिता के तहत पत्रकारों के हितों की रक्षा के लिये दो प्रावधान किये गए हैं-
पत्रकारों के न्यूनतम पारिश्रमिक का निर्धारण करने के लिये एक अलग तकनीकी समिति का गठन किया जा सकता है।
एक त्रिपक्षीय सलाहकार समिति सरकार को सुझाव देने का कार्य करेगी।
इस संहिता के अंतर्गत श्रमिकों के अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया गया है, इसके तहत न्यूनतम मज़दूरी न मिलने पर कोई भी श्रमिक निकटतम मजिस्ट्रेट कोर्ट में नियोक्ता के खिलाफ अपील दायर कर सकता है।
कार्य/कामकाजी घंटे (Working Hours):
‘केंद्रीय श्रम और रोज़गार मंत्रालय’ द्वारा जारी हालिया मसौदा नवंबर 2019 में मंत्रालय की वेबसाइट पर जारी मसौदे की तरह ही है।
परंतु इस बार प्रकाशित मसौदे में सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी और अन्य लाभों की पात्रता के लिये आवश्यक कामकाजी घंटों (Working Hours) को 9 से घटाकर 8 घंटे कर दिया है।
गौरतलब है कि देश में COVID-19 की महामारी के नियंत्रण के लिये लागू लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों में एक कार्य-दिवस में कामकाजी घंटों को 10-12 घंटों तक बढ़ा दिया गया था।
न्यूनतम दैनिक मज़दूरी गणना का आधार:
इस मसौदे में दैनिक मज़दूरी के निर्धारण में निम्नलिखित पहलुओं को ध्यान में रखा गया है-
एक तीन सदस्यीय स्वस्थ वयस्क परिवार के लि
ये दैनिक आधार पर आवश्यक ऊर्जा (कैलोरी में)।
आवासीय किराये का 10% व्यय।
ईंधन, बिजली आदि का 20% व्यय।
बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य तथा आकस्मिक ज़रूरतों का 25% व्यय आदि।
डिजिटल भुगतान:
केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत मसौदे में श्रमिकों को दिये जाने वाले सभी भुगतान को बैंक खाते के माध्यम से देने की अनिवार्यता निर्धारित की गई है।
न्यूनतम मज़दूरी में अंतर देश की सीमा के अंदर अंतर्राज्यीय पलायन का एक बड़ा कारण है।
न्यूनतम वेतन और कामकाजी घंटों के संदर्भ में अस्पष्टता होने के कारण श्रमिकों के हितों का शोषण बढ़ जाता है।
मज़दूर संहिता की आवश्यकता क्यों?:
न्यूनतम मज़दूरी में अंतर देश की सीमा के अंदर अंतर्राज्यीय पलायन का एक बड़ा कारण है।
न्यूनतम वेतन और कामकाजी घंटों के संदर्भ में अस्पष्टता होने के कारण श्रमिकों के हितों का शोषण बढ़ जाता है।
चुनौतियाँ:
इस मसौदे में अभी भी न्यूनतम मज़दूरी को परिभाषित करने के संदर्भ में अस्पष्टता बनी हुई है।
इस अधिनियम के अगस्त 2019 में संसद से पारित होने पश्चात एक लंबी प्रक्रिया के बाद भी अभी तक इसे लागू नहीं किया जा सका है। जिससे कामगारों को सही समय पर इसका लाभ मिलने में देरी हुई है।
इस मसौदे में स्वीकृत कैलोरी की मात्रा (2700 कैलोरी) वर्ष 1957 में ‘भारतीय श्रम सम्मेलन’ (Indian Labour Conference) में निर्धारित किया गया था। ऐसे में लगभग 63 वर्ष पहले निर्धारित इस मानक में परिवर्तन की आवश्यकता है।
वर्तमान में कानूनी जटिलताओं के होने से और जागरूकता के अभाव के कारण किसी मज़दूर के लिये नियोक्ता के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ना आसान नहीं है।
देश में अभी भी श्रमिकों की एक बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र से संबंधित हैं, ऐसे में इन इकाईयों में श्रमिक कानूनों को लागू करा पाना एक बड़ी चुनौती है।
समाधान:
इस पहल के माध्यम से मज़दूरी के भुगतान के संदर्भ में पारदर्शिता बढ़ेगी और मज़दूरी से जुड़ी अनियमितताओं को दूर करने में सहायता प्राप्त होगी।
सरकार को पूरे देश में सभी क्षेत्रों में कार्य कर रहे श्रमिकों के लिये एक स्थाई और समान न्यूनतम पारिश्रमिक का निर्धारण करना चाहिये, जिसमें राज्य सरकारों या नियोक्ताओं द्वारा कार्यक्षेत्र और श्रम की आवश्यकता के आधार पर अतिरिक्त पारिश्रमिक को जोड़ा जा सके।
सरकार को असंगठित क्षेत्र की अधिक-से-अधिक औद्योगिक इकाइयों (छोटी, बड़ी सभी) को पंजीकरण के माध्यम से संगठित क्षेत्र से जुड़ने के लिये प्रेरित करना चाहिये, जिससे किसी विवाद की स्थिति में आसानी से श्रमिकों के हितों की रक्षा की जा सके।
श्रमिक संगठनों की सक्रियता और श्रमिकों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कर न्यूनतम मज़दूरी और अन्य विवादों का समाधान आसानी से किया जा सकता है।
आगे की राह:
श्रमिकों के हितों की रक्षा के साथ-साथ श्रमिक-नियोक्ता संबंधों में सामंजस्य बनाए रखने के लिये छोटे विवादों (मतभेद, गलत व्याख्या आदि से संबंधित) के मामलों के लिये जटिल कानूनी प्रक्रिया के बजाय आसान विवाद निस्तारण प्रणाली की व्यवस्था की जानी चाहिये।
पिछले कुछ महीनों में देश में COVID-19 के कारण उत्पन्न हुई चुनौतियों को देखते हुए कई राज्यों में अध्यादेशों के माध्यम से कई महत्त्वपूर्ण श्रम कानूनों को स्थगित कर दिया गया है, इन परिवर्तनों के दौरान अधिकांश राज्यों में जन प्रतिनिधियों या श्रमिक संगठनों से परामर्श नहीं लिया गया।
सरकार को श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा और अंतर्राज्यीय पलायन को रोकने हेतु राज्य सरकारों से विचार-विमर्श कर एक देश एक श्रम कानून की विचारधारा को अपनाने के लिये राज्यों को प्रेरित करना चाहिये।
नियोक्ताओं द्वारा बिना किसी कानूनी विवशता के श्रमिकों को एक परिवार की तरह देखते हुए कार्यस्थल पर एक सकारात्मक और सामंजस्यपूर्ण परिवेश की स्थापना की दिशा में पहल की जानी चाहिये।
निष्कर्ष:
एक अनुमान के अनुसार, वर्तमान में भारत में असंगठित क्षेत्र में सक्रिय श्रमिक देश की कुल कामकाजी आबादी का लगभग 80% हैं, साथ ही वे देश की जीडीपी में लगभग 60% से अधिक का योगदान देते हैं। अधिक-से-अधिक औद्योगिक इकाइयों/व्यवसायों को संगठित क्षेत्र में लाकर एक बड़ी श्रमिक आबादी को उनके हितों की रक्षा की जा सकती है। हालाँकि श्रमिक क्षेत्र की जटिलताओं और वर्तमान आधुनिक परिवेश में काम (Work) के बदलते स्वरूप (फ्रीलांस, वर्क फ्रॉम होम, स्टार्टअप आदि) को देखते हुए सरकार को असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों के हितों की रक्षा के लिये आवश्यक कानूनी बदलाव के प्रयास करने चाहिये।
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