☞"हुंमायू एक प्रख्यात मुगल सम्राट था, जो बाबर का सबसे बड़ा पुत्र था। हुंमायूं एक इकलौता ऐसा मुगल शासक था, जिसने अपने पिता बाबर की आज्ञा का पालन करते हुए अपने मुगल सम्राज्य का बंटबारा अपने चारों भाईयों में किया था।
☞"हुंमायूं ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ावों को देखा था। हुंमायूं को सबसे ज्यादा कष्ट उसके भाईयों से मिला था। वहीं अफगान शत्रुओं ने हुंमायूं की मुसीबतों को और भी ज्यादा बढ़ा दिया था, तो आइए जानते हैं, मुगल सम्राट हुंमायूं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
✅️"हुंमायूं का जन्म एवं प्रारंभिक जीवन एवं परिवार..✍️
☞"हूंमायूं, 6 मार्च साल 1508 में काबुल के एक प्रख्यात मुगल सम्राट बाबर के पुत्र के रुप में जन्में थे। उनकी मां का नाम माहम बेगम था, बचपन में सब उन्हें नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमांयूं कहकर पुकारते थे। वह बाबर के सबसे बड़े और लाड़ले पुत्र थे।
☞"हुंमायूं के तीन भाई कामरान मिर्जा, अस्करी और हिन्दाल थे, जिसके लिए हुंमायूं ने अपने सम्राज्य का बंटबारा कर दिया था, लेकिन बाद में उन्हें इसकी वजह से काफी कुछ भुगतना पड़ा था। मुगल शासक हुंमायू महज 12 साल का था, तब उसे बदख्शां के सूबेदार के रुप में नियुक्त किया गया।
वहीं सूबेदार के रुप में हुंमायूं ने भारत में उन सभी अभियानों में हिस्सा लिया जिनका नेतृत्व उसके पिता बाबर ने किया था।
✅️"हूंमायूं के उत्तराधिकारी की घोषणा एवं राज्याभिषेक –✍️
☞"मुगल वंश के संस्थापक बाबर की मौत के चार दिन बाद 30 दिसंबर साल 1530 ईसवी में बाबर की इच्छानुसार उनके बड़े बेटे हुंमायूं को मुगल सिंहासन की गद्दी पर बिठाया गया और उनका राज्याभिषेक किया गया। आपको बता दें कि बाबर ने उनके चार पुत्रों में मुगल सम्राज्य को लेकर लड़ाई न हो और अपने अन्य पुत्रों की उत्तराधिकारी बनने की इच्छा जताने से पहले ही अपने जीवित रहते हुए हुंमायूं को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
☞"इसके साथ ही बाबर ने चारों तरफ फैले अपने मुगल सम्राज्य को मजबूत बनाए रखने के लिए हुंमायूं को मुगल सम्राज्य को चारों भाईयों में बांटने के आदेश दिए। जिसके बाद आज्ञाकारी पुत्र हुंमायूं ने अपने मुगल सम्राज्य को चारों भाईयों में बांट दिया। उसने अपने भाई कामरान मिर्जा को पंजाब, कांधार, काबुल, हिन्दाल को अलवर और असकरी को सम्भल की सूबेदारी प्रदान की दिया, यही नहीं हुंमायूं ने अपने चचेरे भाई सुलेमान मिर्जा को बदखशा की जागीर सौंपी।
☞"हालांकि, हुंमायूं द्धारा भाईयों को जागीर सौंपने का फैसला उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित हुआ। इसकी वजह से उसे अपनी जिंदगी में कई बड़ी मुसीबतों का भी सामना करना पड़ा। वहीं उसका सौतेला भाई कामरान मिर्जा उसका बड़ा प्रतिद्धन्दी बना। हालांकि, हुंमायूं का अफगान शासको से कट्टर दुश्मनी थी, वहीं अफगान शासकों से लड़ाई में भी उसके भाईयों ने कभी सहयोग नहीं दिया जिससे बाद में हुंमायूं को असफलता हाथ लगी।
✅️"एक कुशल शासक के रुप में हुंमायूं एवं उसके विजय अभियान:-✍️
☞"हुमायूं ने अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में साल 1531 से 1540 तक शासन किया था, फिर दोबारा साल 1555 से 1556 तक शासन किया था। वहीं मुगल सम्राज्य का विस्तार पूरी दुनिया में करने के मकसद को लेकर हुंमायूं ने अपनी कुशल सैन्य प्रतिभा के चलते कई राज्यों में विजय अभियान चलाया। वहीं इन अभियानों के तहत उसने कई राज्यों में जीत का परचम भी लहराया था।
☞"साल 1531 में गुजरात के शासक बहादुर शाह की लगातार बढ़ रही शक्ति को रोकने के लिए मुगल सम्राट हुंमायूं ने कालिंजर पर हमला किया। वहीं इस दौरान अफगान सरदार महमूद लोदी के जौनपुर और बिहार की तरफ आगे बढ़ने की खबर मिलते ही हुंमायूं गुजरात के शासक से कुछ पैसे लेकर वापस जौनपुर की तरफ चला गया। जिसके बाद दोनों के बीच युद्द हुआ।
✅️"1532 में हुआ दौहारिया का युद्ध –✍️
साल 1532 में अफगान सरदार महमूद लोदी और हुंमायूं की विशाल सेना के बीच दौहारिया नामक स्थान के बीच युद्ध हुआ, इस युद्ध में हुंमायूं के पराक्रम के आगे महमूद लोदी नहीं टिक पाया और उसे हार का मुंह देखना पड़ा। वहीं इस युद्द को दौहारिया का युद्ध कहा गया।
☞"इसके बाद 15 मई 1555 ईसवी को ही मुगलों और अफगानों के बीच सरहिन्द नामक जगह पर भीषण संघर्ष हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व बैरम खाँ ने और अफगान सेना का नेतृत्व सिकंदर सूर ने किया। हालांकि इस संघर्ष में अफगान सेना को मुगल सेना से हार खानी पड़ी। और फिर 23 जुलाई, साल 1555 में मुगल सम्राट हुंमायूं, दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुए
इस तरह मुगलों ने एक बार फिर अपने सम्राज्य स्थापित कर लिया और हिंदुस्तान में मुगलों का डंका बजा।
✅️"हुंमायूं की मृत्यु –✍️
☞"दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के बाद हुंमायूं ज्यादा दिनों तक सत्ता का सुख नहीं उठा सकता है। जनवरी, साल 1556 में जब वह दिल्ली में दीनपनाह भवन में स्थित लाइब्रेरी की सीढ़ियों से उतर रहा था, तभी उसका पैर लड़खड़ा गया और उसकी मृत्यु हो गई।
☞"वहीं हुंमायूं की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर ने मुगल सिंहासन संभाला। उस समय अकबर की उम्र महज 13-14 साल थी, इसलिए बैरम खां को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया गया। इसके बाद अकबर ने मुगल सम्राज्य को मजबूती प्रदान की और लगभग पूरे भारत में मुगलों का सम्राज्य स्थापित किया।
☞"वहीं उनके मौत के कुछ दिनों बाद उनकी बेगम हमीदा बानू ने “हुंमायूं के मकबरा” का निर्माण करवाया जो कि आज दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों में से एक है, और यह मुगलकालीन वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। इस तरह मुगल सम्राट हुंमायू के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए लेकिन हुंमायूं अपनी पराजय से निराश नहीं हुए बल्कि आगे बढ़ते रहे और एक बार फिर से अपने खोए हुए सम्राज्य को हासिल करने में सफल रहे।
☞"हुंमायू के जीवन से यही प्रेरणा मिलती है कि कठिनाइयों का डटकर सामना करने वालों को अपने जीवन में सफलता जरूर नसीब होती है। इसलिए अपने लक्ष्य की तरफ बिना रुके बढ़ते रहना चाहिए। हुमायूँ के बारे में इतिहासकार लेनपुल ने कहा है की,
“हुमायूँ गिरते पड़ते इस जीवन से मुक्त हो गया, ठीक उसी तरह, जिस तरह तमाम जिन्दगी गिरते पड़ते चलता रहा था”
☞"मुगल सम्राट हुंमायूं और गुजरात के शासक बहादुर शाह के बीच संघर्ष –✍️
☞"गुजरात के शासक बहादुर शाह ने 1531 ईसवी में मालवा तथा 1532 ई. में ‘रायसीन’ के महत्वपूर्ण क़िले पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मेवाड़ को संधि करने के लिए मजबूर किया। वहीं इस दौरान गुजरात के शासन बहादुर शाह ने टर्की के एक प्रख्यात एवं कुशल तोपची रूमी ख़ाँ की मद्द से एक शानदार तोपखाने का निर्माण भी करवाया था।
☞"जिसके बाद हुंमायूं ने बहादुरशाह की बढ़ती हुई शक्ति को दबाने के लिए साल 1535 ई. में बहादुरशाह पर ‘सारंगपुर’ में आक्रमण कर दिया। दोनों के बीच हुए इस संघर्ष में गुजरात के शासक बहादुर शाह को मुगल सम्राट हुंमायूं से हार का सामना करना पड़ा था।
☞"इस तरह हुंमायूं ने माण्डू और चंपानेर के किलों पर भी अपना अधिकार जमा लिया और मालवा और गुजरात को उसने मुगल सम्राज्य में शामिल करने में सफलता हासिल की।
✅️"हुंमायूं का शेरशाह से मुकाबला –✍️
☞"वहीं दूसरी तरफ शेर खां ने ‘सूरजगढ़ के राज’ में बंगाल को जीतकर काफ़ी ख्याति प्राप्त की, जिससे हुंमायूं की चिंता और अधिक बढ़ गई। इसके बाद हुंमायूं ने शेर खां को सबक सिखाने और उसकी शक्ति को दबाने के उद्देश्य से साल 1538 में चुमानगढ़ के किला पर घेरा डाला और अपने साहस और पराक्रम के बलबूते पर उस पर अपना अधिकार जमा लिया।
☞"हालांकि, शेर ख़ाँ (शेरशाह) के बेटे कुतुब ख़ाँ ने हुमायूँ को करीब 6 महीने तक इस किले पर अधिकार जमाने के लिए उसे काफी परेशान किया था और उसे कब्जा नहीं करने दिया था, लेकिन बाद में हुंमायूं के कूटनीति के सामने कुतुब खां को घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ा था।
☞"इसके बाद 1538 ईसवी अपने विजय अभियान को आगे बढ़ाते हुए मुगल शासक हुंमायूं, बंगाल के गौड़ क्षेत्र में पहुंचा, जहां उसने चारों तरफ लाशों का मंजर देखा और अजीब से मनहूसियत महसूस की। इसके बाद हुंमायूं ने इस स्थान का फिर से निर्मण कर इसका नाम जन्नताबाद रख दिया।
☞"वहीं बंगाल से लौटते समय हुमायूँ एवं शेरखाँ के बीच बक्सर के पास 29 जून, 1539 को चौसा नामक जगह पर युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ परास्त हुआ।
✅️"चौसा का युद्ध –✍️
☞"साल 1539 में चौसा नामक जगह पर हुमायूं और शेख खां की सेना के बीच युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में मुगल सेना को भारी नुकसान हुआ और अफगान सेना ने जीत हासिल की। वहीं चौसा के युद्ध क्षेत्र से हुंमायूं ने किसी तरह अपनी जान बचाई।
☞"इतिहासकारों के मुताबिक चौसा के युद्द में जिस भिश्ती का सहारा लेकर हुंमायूं ने अपनी जान बचाई थी, उसे हुंमायूं ने 24 घंटे के लिए दिल्ली का बादशाह का ताज पहनाया था, जबकि अफगान सरदार शेर खां की इस युद्द में महाजीत के बाद उसे ‘शेरशाह की उपाधि से नवाजा गया। इसके साथ ही शेर खां ने अपने नाम के सिक्के चलवाए।
✅️"17 मई, 1540ई. में कन्नौज (बिलग्राम) का युद्ध –✍️
☞"17 मई 1540 ईसवी में हुंमायूं ने बिलग्राम और कन्नौज में लड़ाई लड़ी। वहीं इस लड़ाई में मुगल सम्राट हुंमायूं का उसके भाई अस्कारी और हिन्दाल ने साथ दिया, हालांकि हुंमायूं को इस युद्ध में असफलता हाथ लगी और यह एक निर्णायक युद्ध साबित हुआ। वहीं कन्नौज के इस युद्द के बाद हिन्दुस्तान में मुगल राज कमजोर पड़ गया और देश की राजसत्ता एक बार फिर से अफगानों के हाथ में आ गई।
☞"इस युद्ध में पराजित होने के बाद हुंमायूं सिंध चला गया, और करीब 15 साल तक निर्वासित जीवन व्यतीत किया। वहीं अपने इस निर्वासन काल के दौरान ही 29 अगस्त,1541 ईसवी में हुंमायूं ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरू फारसवासी शिया मीर अली की पुत्री हमीदाबानों बेगम से निकाह कर लिया, जिनसे उन्हें महान बुद्धजीवी और योग्य पुत्र अकबर पैदा हुआ। अकबर ने बाद में मुगल सम्राट की नींव को मजबूत किया और मुगल साम्राज्य का जमकर विस्तार किया।
✅️"हुंमायूं ने फिर से हथियाई सत्ता:-✍️
☞"करीब 14 साल काबुल में बिताने के बाद साल 1545 ईसवी में मुगल सम्राट हुमायूं ने काबुल और कंधार पर अपनी कुशल रणनीतियों द्धारा फिर से अपना अधिकार जमा लिया। वहीं हिंदुस्तान के तल्ख पर फिर से राज करने के लिए 1554 ईसवी में हुमायूं अपनी भरोसेमंद सेना के साथ पेशावर पहुंचा, और फिर अपने पूरे जोश के साथ उसने 1555 ईसवी में लाहौर पर दोबारा अधिकार कर जीत का फतवा लहराया।
✅️"मच्छिवारा और सरहिन्द का युद्ध –✍️
☞"इसके बाद मुगल सम्राट हुंमायूं और अफगान सरदार नसीब खां एवं तांतर खां के बीच सतलुज नदी के पास ‘मच्छीवारा’ नामक जगह पर युद्ध हुआ। इस युद्द में भी हुंमायूं ने जीत हासिल की और इस तरह पूरे पंजाब पर मुगलों का अधिकार जमाने में सफल हुआ।
✅️"हुमायूँ जीवनी......
✍️✍️
☞"हुमायूँ एक महान मुगल शासक थे। प्रथम मुग़ल सम्राट बाबर के पुत्र नसीरुद्दीन हुमायूँ (6 मार्च 1508 – 22 फरवरी, 1556) थे। यद्यपि उन के पास साम्राज्य बहुत साल तक नही रहा, पर मुग़ल साम्राज्य की नींव में हुमायूँ का योगदान है। बाबर की मृत्यु के पश्चात हुमायूँ ने 1530 में भारत की राजगद्दी संभाली और उनके सौतेले भाई कामरान मिर्ज़ा ने काबुल और लाहौर का शासन ले लिया। बाबर ने मरने से पहले ही इस तरह से राज्य को बाँटा ताकि आगे चल कर दोनों भाइयों में लड़ाई न हो। कामरान आगे जाकर हुमायूँ के कड़े प्रतिद्वंदी बने। हुमायूँ का शासन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के हिस्सों पर 1530-1540 और फिर 1555-1556 तक रहा।
✅️"प्रारंभिक जीवन :-✍️
☞"26 दिसम्बर, 1530 ई. को बाबर की मृत्यु के बाद 30 दिसम्बर, 1530 ई. को 23 वर्ष की आयु में हुमायूँ का राज्याभिषेक किया गया। बाबर ने अपनी मृत्यु से पूर्व ही हुमायूँ को गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। हुमायूँ को उत्तराधिकार देने के साथ ही साथ बाबर ने विस्तृत साम्राज्य को अपने भाईयों में बाँटने का निर्देश भी दिया था, अतः उसने असकरी को सम्भल, हिन्दाल को मेवात तथा कामरान को पंजाब की सूबेदारी प्रदान की थी।
☞"काबुल के चाहर बाग़ में हुमायूँ के जन्म का उत्सव मनाता बाबर. साम्राज्य का इस तरह से किया गया विभाजन हुमायूँ की भयंकर भूलों में से एक था, जिसके कारण उसे अनेक आन्तरिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कालान्तर में हुमायूँ के भाइयों ने उसका साथ नहीं दिया। वास्तव में अविवेकपूर्णढंग से किया गया साम्राज्य का यह विभाजन, कालान्तर में हुमायूँ के लिए घातक सिद्ध हुआ। यद्यपि उसके सबसे प्रबल शत्रु अफ़ग़ान थे।, किन्तु भाइयों का असहयोग और हुमायूँ की कुछ व्यैक्तिक कमज़ोरियाँ उसकी असफलता का कारण सिद्ध हुईं.
☞"हुमायूँ दुसरे मुग़ल शासक थे जिन्होंने उस समय आज के अफगानिस्तान, पकिस्तान और उत्तरी भारत के कुछ भागो पर 1531-1540 तक और फिर दोबारा 1555-1556 तक शासन किया था. उनके पिता बाबर की ही तरह उन्होंने भी अपने साम्राज्य को जल्द ही खो दिया था लेकिन बाद में पर्शिया के सफविद राजवंशियो की सहायता से पुनः हासिल कर लिया था.
☞"1556 में उनकी मृत्यु के समय, मुग़ल साम्राज्य तक़रीबन दस लाख किलोमीटर तक फैला हुआ था. हुमायूँ ने बाद में पश्तून से भी शेर शाह सूरी से हारकर अपने अधिकार को खो दिया था लेकिन बाद में पर्शियन की सहायता से उन्होंने उसे दोबारा हासिल कर लिया था. हुमायूँ ने अपने शासनकाल में मुग़ल दरबार में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव भी किये थे.
☞"प्रसिध्द इतिहासकार रसब्रुक विलियम्स के अनुसार – “मुगल शासक बाबर ने अपने पुत्र के लिए ऐसा साम्राज्य छोडा जो केवल युध्द की परिस्थितियों में ही संगठित रखा जा सकता था और शांति के समय के लिए निर्बल, रचना विहीन एवं आधार विहीन था. बाबर का वजीर मीर निजामुद्दीन खलीफा मुगल साम्राज्य का मेंहदी ख्वाजा (बाबर की बडी बहन का पति) को सौंपना चाहता था लेकिन बाद में वजीर ने हुमायुँ को ही शासन तंत्र चलाने को कहा
✅️"दौहरिया का युद्ध :-✍️
☞"जौनपुर की ओर अग्रसर हुमायूँ की सेना एवं महमूद लोदी की सेना के बीच अगस्त, 1532 ई. में दौहारिया नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें महमूद की पराजय हुई। इस युद्ध मे अफ़ग़ान सेना का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था।
✅️"कन्नौज की लड़ाई :-✍️
☞"कन्नौज के युद्ध में मुग़ल और अफगान सेना एक बार फिर से 1540 ईस्वी में एक दुसरे के सामने आ गयी. इस युद्ध में हुमायूँ की सेना निर्णायक तौर पर अफगान सेना से पराजित हो गयी. हुमायूँ ने भारत छोड़ दिया और निष्कासन भरे जीवन जीता रहा. इस तरह से वह अगले 15 वर्षो तक निष्कासन पूर्ण जीवन जीता रहा. उसने ईरान(पर्सिया) के शाह तःमास्प ए ऐदाब के दरबार में शरण लिया. वह अपने भाई असकरी से कंधार को जीतने में पूरी तरह से सक्षम था. उसने कामरान से 1547 ईस्वी में काबुल को विजित कर लिया.
✅️"चौसा की लड़ाई :-✍️
☞"चौसा की लड़ाई चौसा की लड़ाई 1539 ईस्वी में हुमायूं के नेतृत्व में मुगल सेना और शेरशाह के नेतृत्व में अफगान सेना के मध्य लड़ा गया था. इस युद्ध में अफगान सेना के समक्ष मुग़ल सेना पूरी तरह से पराजित हो गयी थी. एक तरह से हुमायु भारत से निष्काषित कर दिया गया.
✅️"बहादुर शाह से युद्ध :-✍️
☞"गुजरात के शासक बहादुर शाह ने 1531 ई. में मालवा तथा 1532 ई. में ‘रायसीन’ के क़िले पर अधिकार कर लिया। 1534 ई. में उसने चित्तौड़ पर आक्रमण कर उसे संधि के लिए बाध्य किया। बहादुर शाह ने टर्की के कुशल तोपची रूमी ख़ाँ की सहायता से एक बेहतर तोपखाने का निर्माण करवाया। दूसरी तरफ़ शेर ख़ाँ ने ‘सूरजगढ़ के राज’ मेंबंगाल को हराकर काफ़ी सम्मान अर्जित किया। उसकी बढ़ती हुई शक्ति हुमायूँ के लिए चिन्ता का विषय थी, पर हुमायूँ की पहली समस्या बहादुर शाह था। बहादुर शाह एवं हुमायूँ के मध्य 1535 ई. में ‘सारंगपुर’ में संघर्ष हुआ। बहादुर शाह पराजित होकर मांडू भाग गया।
☞"इस तरह हुमायूँ द्वारा मांडू एवं चम्पानेर पर विजय के बाद मालवा एवं गुजरात उसके अधिकार में आ गए। इसके पश्चात् बहादुर शाह ने चित्तौड़ का घेरा डाला। चित्तौड़ के शासक विक्रमाजीत की मां कर्णवती ने इस अवसर पर हुमायूँ को राखी भेजकर उससे बहादुर शाह के विरुद्ध सहायता माँगी। हालाँकि बहादुर शाह के एक काफ़िर राज्य की सहायता न करने के निवेदन को हुमायूँ द्वारा स्वीकार कर लिया गया। एक वर्ष बाद बहादुर शाह ने पुर्तग़ालियों के सहयोग से पुनः 1536 ई. में गुजरात एवं मालवा पर अधिकार कर लिया, परन्तु फ़रवरी, 1537 ई. में बहादुर शाह की मृत्यु हो गई।
✅️"चौसा का युद्ध :-✍️
☞"26 जून, 1539 ई. को हुमायूँ एवं शेर ख़ाँ की सेनाओं के मध्य गंगा नदी के उत्तरी तट पर स्थित 'चौसा' नामक स्थान पर संघर्ष हुआ। यह युद्ध हुमायूँ अपनी कुछ ग़लतियों के कारण हार गया। संघर्ष में मुग़ल सेना की काफ़ी तबाही हुई। हुमायूँ ने युद्ध क्षेत्र से भागकर एक भिश्ती का सहारा लेकर किसी तरह गंगा नदी पार कर अपने जान बचाई। जिस भिश्ती ने चौसा के युद्ध में उसकी जान बचाई थी, उसे हुमायूँ ने एक दिन के लिए दिल्ली का बादशाह बना दिया था। चौसा के युद्ध में सफल होने के बाद शेर ख़ाँ ने अपने को 'शेरशाह' (राज्याभिषेक के समय) की उपाधि से सुसज्जित किया, साथ ही अपने नाम के खुतबे खुदवाये तथा सिक्के ढलवाने का आदेश दिया।
🔴"मकबरा :-✍️
☞"दिल्ली की एतिहासिक इमारतों में से एक है हुमायूं का मकबरा। विस्तृत क्षेत्र में फैले इस परसिर में मुगल कालीन सभ्यता की झांकी देखने को मिलती है। इस इमारत की बनावट को देखने हमेशा पर्यटको की भीड़ लगी रहती है। 1556 में अचानक जब हुमायूं की मृत्यु हुई तो उनकी विधवा हाजी बेगम जिन्हे हमीदा बानू भी कहा जाता था ने 9 साल के बाद , सन् 1565 में इस मकबरे का निर्माण शुरू करवाया जो 1572 में पूरा हुआ। मुगल शैली का बेहतरीन उदाहरण है, जो इस्लामी वास्तुकला से प्रेरित था। कहते हैं हुमायूं ने अपने निर्वासन के दौरान फारसी स्थापत्य कला के सिद्धांतो का ज्ञान प्राप्त किया था और शायद स्वयं ही इस मकबरे की योजना बनाई थी।
☞"हमीदा बानू ने इस मकबरे के लिए एक फारसी वास्तुकार, मिराक मिर्जा गियासबेग को नियुक्त किया था। यह मकबरा एक वर्गाकार उद्यान के केंद्र में है जिसके चारों कोनों पर चार बाग हैं। जिसके केंद्र में फव्वारे भी बने हैं। यमुना नदी के किनारे मकबरे के लिए इस स्थान का चुनाव इसकी हजरत निजामुद्दीन (दरगाह) से निकटता के कारण किया गया था। संत निजामुद्दीन दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत हुए हैं व इन्हें दिल्ली के शासकों द्वारा काफी माना गया है। इनका तत्कालीन आवास भी मकबरे के स्थान से निकट ही चिल्ला-निजामुद्दीन औलिया में स्थित था।
☞"जब हुमायूं का एक सरदार मुहम्मद जमा बागी होकर बयाना से भागकर बहादुरशाह की शरण में जा पहुंचा. हुमायूं के उस बागी को वापस मांगने पर बहादुरशाह ने मना कर दिया. तब हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और बहादुरशाह के सेनापति तातारखां को बुरी तरह हरा दिया. उस वक्त बहादुरशाह ने चितौड़ पर दूसरी बार घेरा डाला था. मुग़ल सेना से अपनी सेना के हार का समाचार मिलते ही, बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर अपने राज्य रक्षार्थ प्रस्थान करने की योजना बनाई. लेकिन उसके एक सरदार ने साफ़ किया कि जब वह चितौड़ पर घेरा डाले है, हुमायूं हमारे खिलाफ आगे नहीं बढेगा.
☞"क्योंकि चितौड़ पर बहादुरशाह का घेरा हुमायूं की नजर में काफिरों के खिलाफ जेहाद था. हुआ भी यही हुमायूं सारंगपुर में रुक कर चितौड़ युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. लेकिन कर्णावती की राखी की लाज बचाने जेहाद के बीच बहादुरशाह से दुश्मनी होने के बावजूद नहीं आया. आखिर चितौड़ विजय के बाद बहादुरशाह हुमायूं से युद्ध के लिए गया और मन्दसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया. उसकी हार की खबर सुनते ही चितौड़ के 7000 राजपूत सैनिकों ने चितौड़ पर हमला कर उसके सैनिकों को भगा दिया और विक्रमादित्य को बूंदी से लाकर पुन: गद्दी पर आरुढ़ कर दिया.
✅️"मृत्यु :-✍️
☞"1545 ईस्वी में शेरशाह की मृत्यु हुमायूं के लिए वरदान शाबित हुई. शेरशाह के उत्तराधिकारी इतने मजबूत और सक्षम नहीं थे कि शेरशाह के द्वारा बनाये गए शासन को संभल सकें. हुमायूँ 1555 ईस्वी में काबुल से दिल्ली की तरफ अभियान किया और अफगान शासक सिकंदर सूरी को पंजाब में पराजित किया. उसके बाद वह दिल्ली और आगरा की तरफ अपना रुख किया और आसानी से दोनों को हस्तगत कर लिया. यद्यपि वह सिर्फ 6 महीनों तक शासन कर सका और अपने महल की सीढियों से फिसल कर गिर पड़ा जिसकी वजह से उसकी मृत्यु हो गयी.
0 comments:
Post a Comment