कोरोना वायरस हमारे लिये एक अवसर के रूप में है कि हम अपने खाद्य प्रणाली का विश्लेषण करना चाहिये। कोरोना वायरस एक ज़ूनोटिक वायरस है अर्थात इसका स्थानांतरण स्वाभाविक रूप से कशेरुकीय जानवरों से मनुष्यों में होता है। यह सर्वविदित है कि इस वायरस के प्रसार का केंद्र चीन के वुहान स्थित ‘सी फूड मार्केट’(Sea Food Market) ही है। इससे पूर्व वर्ष 2002 में सार्स-CoV-2 के प्रसार का केंद्र चीन के वुहान स्थित सी फूड मार्केट ही था। सार्स-CoV-2 वायरस के प्रसार का कारण सीवेट बिल्लियाँ थी, जिनके मांस के भक्षण के कारण यह वायरस मानव में स्थानांतरित हुआ। एचआईवी और इबोला वायरस के बारे में भी ऐसे ही सिद्धांत प्रचलित हैं।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन(Food and Agriculture Organization of the United Nations-FAO) का भी यही मानना है कि यदि शाकाहार के बदले मांसाहार का वर्चस्व बना रहा, तो विश्व की बढ़ रही जनसंख्या की आहार समस्या वर्ष 2050 तक और भी विकराल हो जायेगी।
इस आलेख में खाद्य श्रृंखला में बदलाव की आवश्यकता के साथ पशुपालन के तौर-तरीकों में बदलाव और भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण के बताए दिशा-निर्देशों पर भी विमर्श करने का प्रयास किया जाएगा।
पृष्ठभूमि
ऐतिहासिक रूप से ऐसी कई घटनाएँ प्रकाश में आई हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि जूनोसिस संक्रमण की वजह से वैश्विक महामारी की स्थिति पूर्व में कई बार निर्मित हुई हैं।
यदि आँकड़ो पर नज़र डाले तो निम्नलिखित जूनोसिस संक्रमण संबंधी बीमारियों के बारे में जानकारी मिलती है-जस्टीनियन प्लेग (Justinian Plague): 541-542 AD में चिह्नित
द ब्लैक डेथ (The Black Death): वर्ष 1347 में यूरोप में देखा गया।
यलो फीवर (Yellow Fever): 16वीं शताब्दी में दक्षिण अमेरिका में देखा गया।
वैश्विक इन्फ्लूएंज़ा महामारी या स्पेनिश फ्लू (Spenish Flu): वर्ष 1918
आधुनिक महामारियाँ जैसे- एचआईवी/एडस, सार्स और H1N1 इन्फ्लूएंज़ा में एक लक्षण समान है कि इन सभी मामलों में वायरस का संचरण पशुओं से मानव में हुआ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, विश्व में नई उभरती संक्रामक बीमारियों में 60% बीमारियों का कारण जूनोसिस संक्रमण होता है।
पिछले तीन दशकों में 30 से अधिक नए मानव रोगाणुओं में से 75% का संक्रमण जानवरों से हुआ।
भारतीय पशुपालन व्यवस्था
वर्तमान में, पशुधन विकासशील देशों में सबसे तेजी से बढ़ते कृषि उप-क्षेत्रों में से एक है। कृषि जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 33% से अधिक है और तेजी से बढ़ रही है।
खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, भारत में दुनिया की सबसे बड़ी पशुधन आबादी है, भैंस के माँस का सबसे बड़ा उत्पादक है और सालाना लगभग 100 बिलियन अंडे का उत्पादन करता है।
खाद्य और कृषि संगठन
यह संयुक्त राष्ट्र संघ की सबसे बड़ी विशेषज्ञता प्राप्त एजेंसियों में से एक है।
इसकी स्थापना वर्ष 1945 में कृषि उत्पादकता और ग्रामीण आबादी के जीवन निर्वाह की स्थिति में सुधार करते हुए पोषण तथा जीवन स्तर को उन्नत बनाने के उद्देश्य के साथ की गई थी।
खाद्य और कृषि संगठन का मुख्यालय रोम, इटली में है।
पशुधन लागत को कम करते हुए उत्पादन को अधिकतम करने के तथा बड़ी औद्योगिक सुविधाओं को प्राप्त करने के लिये विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है।
इसे गहन पशु खेती या औद्योगिक पशुधन उत्पादन या कारखाना खेती (factory farming) के रूप में जाना जाता है।
एग्रीबिजनेस में मवेशी, मुर्गी, और मछली जैसे पशुधन को बड़े पैमाने पर शामिल किया जाता है। इसके साथ ही एंटीबायोटिक्स और टीकों की खोज ने पशुओं में होने वाली बीमारी को कम करके पशुधन को बड़ी संख्या में बढ़ाने में योगदान किया है। पशुधन की अत्यधिक संख्या और सीमित स्थान के कारण पशुओं में विभिन्न रोगों का संक्रमण भी देखा जा रहा है।
संबंधित चिंताएँ
एंटीबायोटिक प्रतिरोध और स्वास्थ्य जोखिम:विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, कृषि कार्य में लगे जानवरों को दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं की बड़ी मात्रा ने रोगाणु प्रतिरोधी बैक्टीरिया को समाप्त कर दिया है जिससे पशुओं में रोग प्रतिरोधी क्षमता कम हो जाती है। ऐसे पशु किसी भी वायरस या बैक्टीरिया के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
यदि इन पशुओं के मांस या अन्य उत्पादों का सेवन मानवों द्वारा किया जाता है तो संभव है कि पशुओं में मौजूद वायरस या बैक्टीरिया मानवों में स्थानांतरित हो जाए।
भारत में अधिकांश मीट विक्रेता भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण द्वारा निर्धारित पशुओं को रखने और वध करने के मानकों और विनियमों को दरकिनार कर देते हैं, जिससे पशु उत्पाद किसी संक्रमण के वाहक बन जाते हैं।
ऐसे पशु जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, उन्हें उचित सुरक्षा मानकों की कमी के कारण संक्रमण होने की संभावना होती है।
भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण
केंद्र सरकार ने खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण का गठन किया।
इसका संचालन भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत किया जाता है।
इसका मुख्यालय दिल्ली में है, जो राज्यों के खाद्य सुरक्षा अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों को लागू करने का कार्य करता है।
FSSAI मानव उपभोग के लिये पौष्टिक खाद्य पदार्थों के उत्पादन, भंडारण, वितरण, बिक्री और आयात की सुरक्षित व्यवस्था सुनिश्चित करने का कार्य करता है।
इसके अलावा यह देश के सभी राज्यों, ज़िला एवं ग्राम पंचायत स्तर पर खाद्य पदार्थों के उत्पादन और बिक्री के निर्धारित मानकों को बनाए रखने में सहयोग करता है।
यह समय-समय पर खुदरा एवं थोक खाद्य-पदार्थों की गुणवत्ता की भी जाँच करता है।
पर्यावरण प्रदूषण:पशु फार्मों और बूचड़खानों से निकलने वाला कचरा जल प्रदूषण को बढ़ा रहा है, जिससे यूट्रीफिकेशन की समस्या गहराती जा रही है।
औद्योगिक पशु खेती का पर्यावरणीय प्रभाव मानव स्वास्थ्य को भी अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।
कृषि क्षेत्र में ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन का एक बड़ा कारण पशुपालन है। यह मीथेन गैस के उत्सर्जन के एक बड़े हिस्से के लिये जिम्मेदार है, जिसमें उच्च ग्लोबल वार्मिंग क्षमता है।
अस्थिर पशुपालन की व्यवस्था जलवायु परिवर्तन की समस्या में योगदान दे रहा है।
पशुओं का कल्याण:सघन पशुधन कृषि में पशु कल्याण चिंता का विषय है। दुधारू पशुओं में दुग्ध की क्षमता को बढ़ाने के लिये पशुओं को हार्मोन वाले इंजेक्शन लगाए जाते हैं।
पशुओं के चारे का भी बेहतर इंतजाम नहीं हो पाता है, जिससे वे अन्य गंभीर बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं।
चिंताओं का समाधान: प्लांट (संयंत्र) आधारित खाद्य पदार्थ
भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण की दर बहुत अधिक है और माँस उत्पादन को प्रोत्साहित करके इसका मुकाबला करने की कोशिश की जा रही है।
इसके लिये भारत को प्लांट और संवर्धित मीट के पीछे की संभावनाओं का पता लगाना चाहिये। प्लांट-आधारित मीट पौधों से बने होते हैं और कोलेस्ट्रॉल- और एंटीबायोटिक-मुक्त होते हैं, जबकि इनका स्वाद पशु के माँस के भांति ही होता है।
संवर्धित माँस पशु कोशिकाओं का एक छोटा सा नमूना लेकर और उन्हें पशु के बाहर प्रतिकृति करके उत्पादित किया जाता।
ये खाद्य पदार्थ कुपोषण, किसानों की कम आय जैसी समस्याओं को हल करने के लिये एक बेहतर अवसर का सृजन करते हैं।
पशुधन आधारित खाद्य पदार्थ के सेवन से संक्रामक बीमारियों के प्रसार के कारण विभिन्न देश प्लांट-आधारित खाद्य पदार्थ के सेवन का विकल्प चुन रहे हैं।
पशु-आधारित खाद्य पदार्थ प्लांट-आधारित खाद्य पदार्थों की तुलना में अधिक संसाधन-गहन हैं।
विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों से यह पता चला है कि पशुपालन को प्लांट-आधारित खाद्य पदार्थों के उत्पादन की तुलना में कहीं अधिक संसाधनों की आवश्यकता होती है।
पश्चिमी देशों में प्लांट-आधारित मीट पहले से ही लोकप्रिय हैं।
भोजन की बढ़ती मांग और प्रति व्यक्ति संसाधन के आधार में कमी को देखते हुए, खाद्य उत्पादन में उच्च दक्षता की आवश्यकता है, जिसे पशु-आधारित खाद्य पदार्थ पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
पशु आधारित खाद्य पदार्थों में अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है, जबकि प्लांट-आधारित पदार्थों में जल की कम आवश्यकता होती है।
आगे की राह
औद्योगिक पशुपालन से जुड़ी चिंताओं और इसे बदलने में आने वाली चुनौतियों को देखते हुए, प्लांट आधारित पशुधन कृषि पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
प्लांट आधारित माँस व अन्य खाद्य पदार्थों से कुपोषण, भूमि की कमी और बूचड़खानों की समस्याओं को हल करने का एक बहुत बड़ा अवसर मिलता है।
भारत की एक स्वास्थ्य नीति पशु स्वास्थ्य और मानव स्वास्थ्य के बीच अंतर्संबंध को सही रूप से पहचानती है और इस दिशा में उचित कदम उठा रही है।
समय के साथ पशुधन आधारित माँस व अन्य उत्पादों के सेवन में निरंतर कमी लाने की आवश्यकता है।
‘सस्टेनेबल एनिमल फार्मिंग’ में पशुओं के प्रति मानवीय दृष्टिकोण विकसित करना, बेहतर उत्पाद तैयार करना, किसानों के लिये जीवन निर्वाह करना और पर्यावरण पर न्यूनतम नकारात्मक प्रभाव को सुनिश्चित करना शामिल है।
वैश्विक लॉकडाउन के कारण, जंगली पशुओं का आवागमन शहरों की ओर हुआ है तथा प्रदूषण के स्तर में भी वैश्विक रूप से गिरावट देखी जा रही है। ऐसे में हमें उन प्रौद्योगिकियों को अपनाने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है जो हमें पर्यावरणीय दृष्टि से समावेशी जीवन स्तर बनाए रखने में सहायता करती हैं तथा जिनका प्रयोग कर हम एक स्वस्थ दुनिया के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
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