गति के 3 अर्थ शास्त्र में प्रसिद्ध हैं:-

       प्राप्ति ज्ञान और गमन 

प्राप्ति यानि किसी अभीष्ट की प्राप्ति। 
जैसे "यद् गत्वा न निवर्तन्ते"  
जिसको जाकर (प्राप्तकर) वापस न लौटें वह परमधाम मेरा है। 
यहाँ गम् धातु कस प्राप्ति अर्थ है। 

ज्ञान 
गुरुमुखाद् अधीयानो देवदत्तः वेदार्थं गच्छति। 
(गुरुमुख से सीखता हुआ देवदत्त वेदार्थ को समझता है।)

गमन का सामान्य अर्थ तो संयोग है, लेकिन भ्रमण,पादस्पन्द, स्यन्दन, ऐसे अनेकों अर्थ इसी में समाविष्ट हैं। 

देवदत्तो विद्यालयं गच्छति
(यहाँ विद्यालय दूसरा देश है। उससे संयोग ही फल है, वह संयोग करने के लिए देवदत्त वाहनादि का सहारा ले जो यत्न करे वोही गमन है)

विभाग भी ले सकते हो।  
सो ग्रामाद् अगच्छत् 
(वह गाँव से चला गया) यहाँ गाँव और देवदत्त में विभाग फल है, उसके लिए जो यत्न हो वो गमन।

और भी जैसे यात्रा करना, गोल घूमना, रेंगना, खिसकना, फिसलना, पादविहरण सभी गमन में आ जाते।

उपरोक्त दो अर्थ प्राप्ति और गमन सचेष्ट और निश्चेष्ट दोनों हो सकता है। सचेष्टमें शरीर का व्यापार इष्ट है। पादस्पन्द आदि। निश्चेष्ट जैसे = "मनसा हरिम् व्रजति"
मनसे हरि को पहुँचता है, (निश्चेष्ट प्राप्ति)। 

यह गमन के सारे अर्थ समझाए।
अलग अलग उपसर्गों से अर्थ में भेद देखो
उपगच्छति = पास जाता है।
अपगच्छति = हट जाता है।
अवगच्छति = समझता है।
अनुगच्छति  = पीछा करता है।
उद्गच्छति = ऊपर जाता है या पैदा होता है। कभी कभी उगलने अर्थमें भी प्रयुक्त। 

ऐसे शब्दों को अब वाक्य में प्रयोग कीजिए अभ्यास के लिए। बोलने से भाषा में पकड़ आएगी, इन शब्दों को बोली का हिस्सा बनाएँ।  

स्वस्ति
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