विष्णु के अलग रूप और अर्थ।।

विश्वं वेवेष्टि व्याप्नोति इति विष्णुः करके ये वाला एक विष्णु। (इसे "अन्तर्बहिश्च सर्वं तत् नारायणः व्याप्य स्थितः" मन्त्र से बोला है। इसे समष्टि अन्तर्यामी कहते हैं।)  

यद्वा विशति देहिमात्रे (अहम् आत्मात्मनां धातः) वाला एक विष्णु। यह सबके आत्मा के अन्दर रहे वाला परमात्मा है। इसे व्यष्टि अन्तर्यामी कहते।

विष्णाति विप्रयुनक्ति संसाराद् भक्तान् इति विष्णुः ये वाला एक विष्णु। जो भक्तों का संसार छुड़वा दे समर्पण द्वारा। जैसे वामन ने बलि से सब छीना कृष्ण ने गोपियों से उनका मोह (दूध दही वस्त्र वगेरह) छीना। अर्जुन से कहा मुझमें सब अर्पण करो "तत्कुरुष्व मदर्पणम्"। 

अथवा वेवेष्टि व्यापयति (फैलाता है) स्वरूपानन्दं भक्तहृदयेषु इति विष्णुः। अन्तर्भावितण्यर्थः। ये सच्चिदानन्द वाला विष्णु। 

लेकिन सबसे जादा मजा इसमें है =

विषु सेचने। वेषति सिञ्चतीति विष्णुः। स्वस्यानान्दरूपत्वाद् भक्तान् स्वभजनानन्देन सिञ्चतीति विष्णुः। इसमें जादा मजा है। येही उसका मूलरूप है। "आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः" - पाञ्चरात्र।

मूलरूप मतलब ऊपर वाले कोई अन्य हैं ऐसा मत समझ लेना। मैं एक ही इन्सान हूँ, जब सिखाऊँ तो गुरु, सीखूँ तो शिष्य, लेकिन कोई मुझसे पूछेगा कि मैं कौन हूँ तो व्यक्ति के हिसाब से जवाब दूँगा। लेकिन अन्दर खुदसे पूछूँ तो मैं दास हूँ। 

वैसे ही कृष्ण से पूछो कि भाई आप कौन हो? तो किसीको कहेगा "अहं सर्वस्य प्रभवः", किसी को कहेगा "अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः", ब्रह्माजी जैसे श्रोता होंगे तो कहेगा "अहम् आत्मात्मनां धातः" ।

लेकिन अन्दर से उसे पूछो कि भाई तुम कौन हो! तो वो तो बोलेगा "अहं भक्तपराधीनः ह्यस्वततन्त्र इव स्वतः"। वो तो कहेगा कि मैं तो भक्त के पराधीन भगवान् हूँ।

कृष्णस्तु भगवान् "स्वयम्"। अपने स्वरूप से वो भगवान् है। यानि के भक्तों का प्रिय, उनके साथ रास रचाने वाला, उनकी भक्ति के अधीन होने वाला भगवान्। येही उसका मूलरूप है। बाकी सब side by side लीलाएँ चालू रहेंगी। और इसी रूप को भागवत पुराण "कृष्ण" कहता है। भागवत ही भगवान् का अर्थ दो तरह से बताता है = "भगवान् सात्वतां (भक्तानां) पतिः।" और "भगवान् भक्तभक्तिमान्" । येही कृष्ण का मूलरूप होना है और सृष्टि का बोझा सम्हालना ये सब उसके दूसरे लीला है।

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