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तत्सम और तद्भव शब्द की परिभाषा,पहचानने के नियम और उदहारण - Tatsam Tadbhav

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) : तत्सम दो शब्दों से मिलकर बना है – तत +सम , जिसका अर्थ होता है ज्यों का त्यों। जिन शब्दों को संस्कृत से बिना...

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महाकाव्य ।।

✍🏻 रामायण

रामायण: रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है।

✍🏻 महाभारत

महाभारत: महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात् यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में गुप्त काल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।

✍🏻 पुराण

प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। ब्रह्म वैवर्त पुराण में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. ब्रह्म पुराण 2. पद्म पुराण 3. विष्णु पुराण 4. वायु पुराण 5. भागवत पुराण 6. नारदीय पुराण, 7. मार्कण्डेय पुराण 8. अग्नि पुराण 9. भविष्य पुराण 10. ब्रह्म वैवर्त पुराण, 11. लिंग पुराण 12. वराह पुराण 13. स्कन्द पुराण 14. वामन पुराण 15. कूर्म पुराण 16. मत्स्य पुराण 17. गरुड़ पुराण और 18. ब्रह्माण्ड पुराण

✍🏻 बौद्ध साहित्य

बौद्ध साहित्य को ‘त्रिपिटक‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं- सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक।

✍🏻 जैन साहित्य

ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।

✍🏻 विदेशियों के विवरण

यूनानी-रोमन लेखक

चीनी लेखक

अरबी लेखक

✍🏻 पुरातत्त्व

पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं। इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।

✍🏻 चित्रकला

चित्रकला से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। अजंता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।

हलन्त और अजन्त क्या है ?

जैसा की हम जानते हैं की देवनागरी वर्णमाला का उद्गम महेश्वर सूत्र से हुआ है जिसको आधार करके महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी की रचना की, जो कि लौकिक संस्कृत का आधार है ।।

महेश्वर सूत्र के अनुसार सभी स्वर 'अ' से 'च' के बीच में आते हैं, तो जो शब्द स्वरों ('अ' से 'च' या "अच्") में अन्त होते है उन्हें अच् + अन्त या अजन्त कहा जाता है।
इसी तरह जो शब्द व्यंजनों ('ह' से 'ल' या " हल्" में अन्त होते है उन्हें हल् + अन्त या हलन्त कहा जाता है।

अजन्त या हलन्त शब्दों को कैसे पहचानें ?

शब्द के अजन्त या हलन्त होने का पता शब्द के अंतिम अक्षर को देखने से लगता है । सही जानकारी के लिए मूल शब्द (प्रातिपदिक ) देखना चाहिए, शब्द की विभक्ति रूप से सही जानकारी मिलना कठिन हो जाता है। साधारणतया कोई अक्षर, व्यंजन और स्वर का संयुक्त रूप होता है

जैसे : क = क् + अ इसलिए जो भी शब्द पूर्ण व्यंजन में अंत हो वह वास्तव में 'अ' की उपस्थिति के कारण स्वरान्त या अजन्त होगा।

उदाहरण:

बालक = ब्+आ+ ल्+अ+क्+अ (स्वरान्त) > अजन्त
गोपी = ग्+ओ+प्+ई (स्वरान्त) >अजन्त
विद्वस् = व्+इ+द्+व्+स् (व्यंजनान्त) >हलन्त


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संस्कृत में सप्ताह के दिन ( Weekdays in Sanskrit )।।

Equivalent words for weekdays in Sanskrit

English       Sanskrit        transliteration

Monday       इंदुवासर:      induvāsaraḥ


Tuesday       भौमवासर:       bhowmavāsaraḥ


Wednesday   सौम्यवासर:    soumyavāsaraḥ


Thursday     गुरुवासर:      guruvāsaraḥ


Friday        भृगुवासर:      bhruguvāsaraḥ


Saturday      स्थिरवासर:  sthiravāsaraḥ


Sunday       भानुवासर:    bhanuvāsaraḥ

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संस्कृत में साप्ताहिक दिन, Sanskrit me saptahik din, 

Numerals in Sanskrit (Numbers in Sanskrit)


संस्कृत में गिनती ।।

 "सङ्ख्या" ( Sankhyā ) is a स्त्रीलिंड्ग (Strīlingaḥ) feminine word in nature. We treat it as feminine, like: " सङ्ख्या का ? " means what is the number ? In this article we will learn about Basic Numbers and how to construct them.

० - ZERO - शुन्यम् (Śūnyam)  

१ - One - एकम् (ekam) (एकः, एका, एकम्)

२ - Two - द्वे (dve)  (द्वे, द्वौ )

३ - Three - त्रीणि (trīni)     (त्रयः, त्रिस्र, त्रीणि )

४ - Four - चत्वारि (catvāri)  (चत्वारः, चतस्रः, चत्वारि )

५ - Five - पञ्चम् (pancam)  

६ - Six - षट् , षष् (sat.)     

७ - Seven - सप्त,सप्तम् (sapta)  

८ - Eight - अष्टम्   (aştam )   

९ - Nine - नवम् (navam)   

१० - Ten - दशम् (daśam)   

After ten "दश" act as a suffix, similar to "teen" in english and it makes words like एकादश, द्वादश। And after 20 we use विंशति as a suffix and so on...

११ --- एकादशम् 
१२ --- द्वादशम् 
१३ --- त्रयोदशम् 
१४ --- चतुर्दशम् 
१५ --- पञ्चदशम् 
१६ --- षोडषोडशम् 
१७ --- सप्तदशम् 
१८ --- अष्टदशम् 

Some People often confuse in numbers like 29, 39, 49 etc. How to pronounce them ?

Here are some explanation about it :-

19 - नवदशम् ( एकान्नविंशति, एकोनविंशति, ऊनविंशति )
20 - विंशति 

29 - नवविंशति, एकोनत्रिंशत्, ऊनत्रिशत्
30 - त्रिंशत्

39 - नवत्रिंशत् , एकोनचत्वारिंशत्
40 - चत्वारिंशत्

49 - नवचत्वारिंशत् , एकोनपञ्चाशत्, ऊनपञ्चाशत
50 - पञ्चाशत्

59 - नवपञ्चाशत्,  एकोनषष्टि, एकान्नषष्टि, ऊनषष्टि
60 - षष्टि:

69 - नवषष्टि: , एकोनसप्तति, ऊनसप्तति, एकान्नसप्तति
70 - सप्तति:

79 - नवसप्तति: , एकोनाशीति, ऊनाशीत, एकान्नाशीत
80 - अशीति:

89 - नवाशीति: ,  एकोननवति, एकान्नवति, ऊननवति
90 - नवति:

99 - नवनवति: , एकोनशत
100 - शतम्

■ एक हजार --:सहस्र

■दस हजार --: अयुत

■ दस लाख --: प्रयुत

■लाख --: लक्ष

■करोड़ --: कोटि

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Sanskrit me sankhyaen, संस्कृत में संख्याएं, संस्कृत की गिनती ।।,संस्कृत में गणना ।।, नंबर्स इन संस्कृत, Numbers in Sanskrit,


॥प्लव-वत्सर-पञ्चकम्॥


A Pentad of verses on Plava year by Jayaraman
(The word Plava means to leap, jump, float) 

पुप्लुवे सागरं दीर्घं मारुतिः पारगस्तथा।      
दुस्थितेः पारगत्वं स्यात् शुभे नः प्लवहायने॥१॥
In ancient times Maruti leapt accross the great ocean and reached the other shores. Similarly in this year of plava(leap), let us also leap accross our sufferings and attain safer shores. 
   
उडुपः प्लवते नद्यां तरणे करणं हि सः।
सत्कार्ये करणं स्याम प्रार्थ्यते प्लवहायने॥२॥         
A small boat floats (plavate) in the river. It is instrumental in crossing (the river). It is prayed that - let us also be instruments in some good work in this year of Plava(leap/float).  

प्लवगस्य शिशुर्यद्वत् संश्लिष्येद् मातरं दृढम्।
दृढभक्ता तथा चेशे स्यामास्मिन् प्लवहायने॥३॥
The kid of a monkey(plava-ga) holds to its mother firmly. It is prayed that - Similarly let our devotion to the divinity also be firm in this year of Plava.

प्लवगौ कपिभेकौ तावुरुविक्रमणः कपिः(हरिः)।
तथोरुक्रमणाः स्याम शुभेऽस्मिन् प्लवहायने॥४॥ 
Both monkey and frog are called as plavaga (as both leap/jump). But the stride/leap of the monkey (hari/monkey) is wider (Hari also means lord Narayana who in three steps covered the entire universe). Similarly let us make wide strides (of progress) in this year of Plava.  

अप्सु संप्लवते पद्मपत्रं तन्नार्द्रतां व्रजेत्।     
तथा निस्पृहता नः स्यात् प्रार्थ्यते प्लवहायने॥५॥   
The lotus leaf floats (plavate) on the water but it does not get wet. It is prayed that - In the same manner let us develop the quality of overcoming attachments in this year of Plava. 


स्मृतियाँ क्या हैं? मनुस्मृति आदि की सटीक समझ, विषयविमर्श और विभाजन -


भाग १

वेद नित्य अपौरुषेय (ईश्वर ने भी जिनको बनाया नहीं), होते हैं। वेद का जो स्मरण मनु करते हैं हर कल्प में उसे स्मृति कहते हैं। सारे मनु विष्णु के ही अवतार होते हैं। "ऋषयो मनवो देवा....कलाः सर्वा हरेरेव" (भागवत 1.3.27)

स्मृतियों में वेद और आचार दो भाग हुए  

आचार में ऋषियों के आचार का स्मरण। न्याय और लोकव्यवहार भी इसी में आ जाते हैं। वेद आचार व्यवहार (न्याय) और लोकयात्रा को आधार बनाकर स्मृति के चार प्रकार हो सकते हैं।

इस बात को भागवत पुराण ने कहा है "धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ" (11.21.3)
अर्थ है कि यज्ञादि धर्म के प्रयोजन से, व्यवहार प्रयोजन से और जीविका आदि लोकयात्रा के प्रयोजन से, शास्त्रों में गुण दोष आदि का विधान हुआ है। 

मनु ने खुद इस बात को कहा है 

"वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः ।एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् । । 2/12 ।।"

(वेद और वेद को आधार बनाकर की हई यज्ञप्रतिपादिका नित्या स्मृति, स्मृति यानि ऋषियों के आचार को आधार बनाकर हुआ विधान, सदाचार यानि लोकयात्रा के लिए उपयुक्त ऋषियों से भिन्न सत्पुरुषों का आचरण, उसे आधार मानकर किए हुए विधान, और जो खुदको प्रिय हो यानि दूसरों के लिए वैसा आचरण करना जो खुदको प्रिय हो यह व्यवहार है, जिसमें आधार न्याय/युक्ति है। ऐसे वेद, ऋषियों के आचार, अन्य महापुरुषों के आचार और पक्षपात बिना शास्त्रानुकूल युक्ति को मानकर चार प्रकार से धर्म का लक्षण कहा गया है।)

वल्लभाचार्य ने इसे सर्व निर्णय में खोलकर समझाया है।

तदाचाराल्लोकतश्च न्यायान्नित्यानुमेयतः ।
प्रवृत्तिर्जीविका लोके व्यवहारो विशुद्धता ।। 

नित्यानुमेयवेदमूला स्मृति का स्वरूप और प्रकार ।
अनुभव के संस्कार से अनुभवसमानाकारा स्मृति उत्पन्न होती है। जैसे कल मटका देखने पर "यह मटका है" ऐसा अनुभव हुआ। स्मृति भी "यह मटका है" ऐसी ही होगी। 

ऐसे ही पूर्वजन्म कल्प आदि में वेद का अनुभव से संस्कार होते उनके उद्बुद्ध होने पर अनुभवसमानाकारा स्मृति होगी। जैसे "अष्टका कर्त्तव्या" ऐसा अनुभव हुआ था। फिर इस वेदार्थ के स्मरण से श्रुतिस्वरूप की अनुमिति लगाई जाएगी।

नित्यानुमेयवेद को मूल बनाकर की हुई स्मृति। यह स्मृति यज्ञप्रतिपादिका होती है। इसमें पाँच विषय हैं संध्योपासनादि नित्यकर्म, 16 संस्कार, श्राद्धादि, प्रायश्चित्त और पाकयज्ञ। परिचर्या आदि दिव्य और यज्ञ कर्मकाण्ड सम्बन्धी विषयों में यह स्मृति होती है। ऋषि यहाँ साक्षात् योगबल से वेदों का दर्शन करके स्मरण कर वेद के वाक्य का अनुमान कर स्मृति करते हैं, अतः इस स्मृति का प्रामाण्य वेदतुल्य है और यह स्मृति नित्या है। यह बदलती नहीं। पूर्व विभागों में देश काल अनुसार स्मृतियों में आपको परस्पर भिन्न नियम दिखेंगे। विद्वानों के सङ्ग कर धर्म का उचित निर्णय करना और धर्म की सटीक समझ देना ही स्मृतियों का मूलभूत उद्देश्य है। जो दिव्य और यज्ञ से सम्बन्धी न हो, यदि भौतिक नियम हों, वहां स्मृतियों में देश काल आदि 6 प्रकारों को ध्यान में रखकर धर्म क्या है इसका निर्णय कैसे लेना यह विस्तार से सिखाया जाता है। यह निर्णय अपने मनसे नहीं होता अनेक वर्षों के अभ्यास से होता है। लेकिन वेदमूला जो स्मृति है उसमें न कोई आचार प्रमाण न युक्ति, यहाँ कोई छूट नहीं, जैसा विधान है बिल्कुल वैसा ही पालना पडेगा और यह नित्य विधान है जैसे कि वेदो में है।

इस नित्यानुमेयवेदमूला स्मृति को पालने का फल चित्तशुद्धि है यज्ञ करने से चित्तशुद्ध होता है। और सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है।

ऋषियों के जैसे आचार और उनके द्वारा जिन बड़े राजाओं की सिद्धपुरुषों की प्रशंसा की गई उनके जैसे आचार करोगे तो सत्य अहिंसा तीर्थाटन माता पिता आदि का सम्मान पति का सम्मान हरिगुरुसेवा, अतिथिपूजन, व्रत, दान, गोरक्षा करोगे और इस प्रकार सुखशान्ति बनी रहेगी। आचार से धर्म में प्रवृत्ति होगी। इस स्मृति का मूल पुराण होते हैं, पुराणों में जैसे महापुरुषों ने आचार किए हैं, ऋषियों ने उन्हीं आचारों का स्मरण किया है अतः ये आचारमूलिका स्मृति हैं। इसका फल उस प्रकार के आचार में प्रवृत्ति है।

लोकव्यवहार को ध्यान में रखकर, ऐसे ऋषियों के और सिद्धमहापुरुषों के आचार का स्मरण कर जी नियम बने हैं वे व्यवहारमूला स्मृति कहलाती है। लोक से जीविका, जीवनयात्रा सधेगी, जीविका इसका फल है। यहाँ इस भागसे अर्थव्यवस्था, और परस्पर वनस्पति मनुष्य और पशओं में सुखशान्ति और समान सन्तुलन बना रहेगा। लोकव्यवहार कैसे करना इन सबके नियम हैं, जैसे ब्राह्मण को मांस मदिरा अन्य राजस तामस भोजन निषिद्ध है, यदि न हो तो यज्ञादि वेद का पठन पाठन में मन न लगके स्त्रीसङ्ग और व्यसन में मन लगेगा। इससे वह पढाई न करके समाज को नुक्सान पहुचाएगा और खुदकी जीविका भी न चलेगी। सभी को निःशुल्क विद्या देकर समाज में अपने अधिकार के अनुसार सभी को विद्या देगा, उसके बदले दूसरे वर्ण उसके परिवार के जरूरतों का ध्यान रखेंगे। सरकार को मुफ़्त विद्या देने के लिए लोगों का कर इस्तेमाल करना पड़ता वो न करना होगा, समाज आपस में एक दूसरे का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ेगा। आपत्काल में क्या करें, आपस में व्यवहार कैसे करें, पति-पत्नी कैसे रहें, माता पिता से कैसे रहें, परिवार में सम्पत्ति का विभाजन कैसे करें इत्यादि। ये एक सामाजिक स्तर है स्मृति का, और इसमें लोकाचार यानि के जो रीतिरिवाज गाँव जिले में या अपने आसपास चलते हैं उन्हें भी मान्यता दी गई है। 

ब्राह्मणों का जैसे लोकव्यवहार के अनुकूल नियम बनाए हैं, ऐसे सभी वर्णों में जानिए, अधिक विस्तार यहाँ न करेंगे। जैसे स्मृति ने 8 बैल से खेती करना उत्तम 6 से मध्यम और 4 से हीन माना है, बैल को कष्ट न हो इसलिए 8 बैलस खेती उत्तम पक्ष है यह व्यवहार में सन्तुलन बनाए रखने की प्रतिपादिका है। नवी ब्याही गाय का दूध 10 दिन तक नहीं लेना चाहिए , वह केवल बछड़े के लिए रखना चाहिए ऐसे भी स्मृति में वचन हैं, यह सभी व्यवहार में सन्तुलन बनाए रखने के लिए हैं। ऐसे सभी जगह जानिए।

न्याय यानि नीतिशास्त्र। इसका मूल नय या युक्ति (logic and reasoning) है, अतः यह स्मृति युक्तिमूला है। चाणक्य नीति शुक्रनीति प्रसिद्ध ही हैं। स्मृतियों पर आधारित शास्त्र ही हैं वे भी। राजनीति भी इसके अन्दर आती है। यहाँ राज्य के अनुसार नियम, कितना कर लगाना देश काल के हिसाब से नीति का अनुसरण करते हुए बनती है। अर्थशास्त्र आदि में भी इसी का आधार हैं। और देश काल हिसाब से जो धर्म के प्रतिकूल न हो तो ब्राह्मणों की सलाह लेकर नियम बनने चाहिएँ। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि युक्ति भी मनसे नहीं कर सकते स्मृति पुराण और इतिहास में जैसी युक्ति बताई है उस आधार पर ही होती है, और वैसी युक्ति ही धर्म के अनुकूल होती है, तदनुसार देश काल आदि 6 मापदण्ड के हिसाब से कब कैसा निर्णय लेना चाहिए इसकी पूरी पढाई होती है, जो धर्मशास्त्र के विद्वान् ब्राह्मण जानते हैं। उस आधार पर ही युक्ति से धर्म का निर्णय होता है। यहाँ युक्ति करने की छूट अवश्य है।

Passage of Varna - Through Samskaras or Genetics? ( वर्ण व्यवस्था )


"How does Varna flow in Lineage? I Will answer the last time and debunk all the neo wannabe Trads. This concept which I speak of is a Universally accepted one and is unquestioned by any traditional school. 

Jati means that which percieved through Aakriti, like Treeness (jati) in trees can be percieved through Akriti (figure of tree like branches leaves etc). But Brahmanas and Shudras have same External Aakriti, so in a group of humans we can't determine who's brahmana and who isn't. The internal characteristics can be Genes, blood, Dna etc if are to be considered Aakriti in case of Brahmanhood or Kshatriyahood, Still there is no guarantee that all these even though are present in a body, would 100% determine Varna. 

Note= I dont deny common genetics and bloodline to be found in Same Varnas but i deny that they can be used as valid parameters to determine Varna or the flow of Varna to the next generation. Different methods according to different Yugas determine Varna, and its flow and its only the Shaastras which decide. It defies all logic.

The reason is simple, there is ban on Intervarna marriages today, but in Previous Yugas Brahmanas did marry a lower Varna woman 2nd or 3rd time. When it was allowed, the progeny obtained the paternal Varna. Now there is Bloodmixing and Genemixing as well, but he got the Varna of Father. And was eligible for Shraaddhas (ancestral rites) also. Now let's see if a Brahmana born of Pure Brahmana Parents with no intermixing in Clan, will he obtain Brahmanhood at birth for guarantee? Not necessarily. 

If the parent has not had an Upanayana (janeu), then the Son would be a Vraatya. If such Upanayana stops till more than 6-7 generations in Lineage, than the Progeny would be Shudra. Manu 10.43 shows how Kshatriya families due to lack of rituals became Shudras in due course of time. 

Today, all kinds of Intervarna are banned, and if you say the reason is Genes etc, why where they allowed previously? Varna passes down only through Samskaras. Hence its proved Varna isn't a physical quality nor can it be determined through anything like Genes or Dna. The flow of Varna is through Unbroken Samskaras in a Lineage. If I do not undergoe Upanayana at time, and do not have Prayashchitta, my son won't inherit Brahmanhood at birth. The Garbhadhana also is a Samskara which depends on the Parents' Samskaras. And through these Samskaras the born child can be considered as a Brahmana. 

You can ask me Why Lineage is Important, but not Bloodline. Because Lineage just means Parampara, an Unbroken Chain. Lineage hence doesnt qualify as Bloodline. Unbroken Chain of what? = Samskaras. भागवत 7.11.13 says संस्कारा यदविच्छिन्ना स द्विजः (where Samskaras are unbroken, he is a Dvija). So birth is indeed important, but in such a family, where all generations have undergone Upanayana/Janeu. Even if one generation has not done Janeu, the child will be born a Vraatya (Potential Brahmana). Even Janma requires Garbhadhana Samskara. Mating too has proper procedure to follow.

Aapastamba hence says अथयस्य प्रापितामह आदि नानुस्मार्यत।
उपनयनम् ते शमशानसमस्तुताः।। "And those who's ancestors' intiation/janeu is not conducted, those offsprings are equivalent to graveyards" . Bhagavata Purana says that Uninitiated Dvijas or Dvijabandhus cannot even Hear Vedas = स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा, Skanda Purana says जन्मना जायते शूद्रः = Everyone is born equivalent to a Shudra (ie unauthorized in Vedas). This proves Birth has no Purity, Purity is only through Samskaras. 

Gautama gave birth to a Shudra, whom he converted to a Brahmana by his Tapas, and his Clan is the Gautama Gotra of Brahmanas, having blood and genes of a Shudra. In Mahabharata, Brahmanas have said to have Niyoga with Kshatriya women and produce Kshatriyas, these should ideally be Sankaras due to mixture, but are not. They get Kshatriya and Brahmana both genes/blood still are Pure Kshatriyas. As Varna isn't Phsyical or obtained through Physical Means but Divine Samskaras. संस्काराद् द्विज उच्यते (Skanda Purana, Atri

. The Sons of Vishvamitra should be Kshatriya by this Gene Theory because they don't have the Brahmana Genes now.

If you emphasize so much over Genes Blood or DNA, you're making a fool of yourself. This is Pseudo-science as the Old Darwinian Model has long been rejected. This is Epic eg of Raitahood, similar to what dimwits speak of Radiations in Mandir Bells, Downward flow in Period Blood and what not. I dont deny Biological Benefits of not marrying in Same Gotra or having similar occupation and similar Genes and similar bloodline. What I explain is that these Physical Traits aren't a Parameter to Determine Varna. Because there are many Shaastriya Methods to have a different bloodline still inherit Varna in previous Yugas.

The reason why today Intervarna marriage is denied isn't due to Physical Gene Maintainance or maintaining Bloodline, it is the imbalance of Gunas (Sattva rajas tamas) which will take place if you intermarry and produce. Such imbalance could be avoided in Previous Yugas due to Tapas of Brahmanas. Today they dont have such Tapas and powers, so imbalance in Non-physical Gunas would create progeny with mixed Gunas. Such imbalance of Gunas would prevent Varna to flow in future Generations and make you Unauthorized for Upanayana.

In this Video Acharya clearly says if Yajnopavita not done or done after time limit, 'शास्त्रीय परम्परा के अनुसार उसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य नहीं कह सकते' 
We cannot call him a Brahmana Kshatriya Vaishya. 

Bloodline or no Bloodline, the point is not about bloodline importance here. Main question is "Can Bloodline Determine Varna"? No. Because even with bloodline he is not Brahmana without lineage of Samskaras in Paternal Ancestry.

He shared Raghavacharya ji's video talking रक्तशुद्बि  but that was from a video where His Holiness is Generalizing रोटी बचाओ और खून बचाओ, and explaining to mass in simple language. Even taking Daan from some adharmi would mean inheriting his Gunas and Karmas, so is taking food or blood from unauthorized guy, impurity still isn't physical but abt imbalance in Gunas.

Still I haven't denied same bloodline in Varnas and also can be said to not do intermarriage. But pt is can blood determine Varna? No




वल्लभाचार्य कृत 'पुरुषोत्तमनामसहस्र' इस स्तोत्र से लिए गए श्रीराम के नाम ।।

।। श्रीरामः ।।

रघुनाथो रामचन्द्रो रामभद्रो रघुप्रियः ।। अनन्तकीर्ति: पुण्यात्मा पुण्यश्लोकैकभास्करः ||१३४।। 

रघुओं के नाथ, रामचन्द्र, रामभद्र और रघुओं के प्रिय, अनन्त कीर्ति वाले, पुण्य यानि पुण्यवालों में जो आत्मा ध्येयस्वरूप हैं, चिन्तनीय हैं वे पुण्यात्मा, पुण्य है जिनके श्लोक = कीर्ति, ऐसे यशस्वी योगियों में एक = अद्वैत चित्स्वरूप ज्ञान को प्रकाशित करने वाले, पुण्यश्लोकैकभास्कर हैं ।। 134 ।।

कोशलेन्द्रः प्रमाणात्मा सेव्यो दशरथात्मजः ॥ लक्ष्मणो भरतश्चैव शत्रुघ्नो व्यूहविग्रहः ||१३५।। 

कोशलेन्द्र, प्रमाण = सभी वेदादि शास्त्र, उनके आत्मा = सारभूत प्रतिपाद्य सच्चिदान्दस्वरूप इति प्रमाणात्मा, सेव्य, दशरथ के आत्मज हैं। वे लक्ष्मण भारत और शत्रुघ्न रूपमें लीलार्थ अपने व्यूहविग्रह प्रकट हुए हैं। 

विश्वामित्रप्रियो दान्त: ताडका-वध - मोक्षद: ।। 
वायव्यास्त्राब्धिनिक्षिप्तमारीचश्च सुबाहुहा ।।१३६।।

विश्वामित्र जिनके प्रिय हैं, अथवा विश्वामित्र के जो प्रिय हैं, दान्त राक्षसों का दमन करने वालें हैं, ताडका को वध से ही मोक्ष देने वाले हैं, वायव्य अस्त्र से समुद्र में मारीच को फेककर मारने वाले, और सुबाहु के हन्ता हैं। 

 वृषध्वज-धनुर्भङ्ग-प्राप्तसीतामहोत्सव | 
सीतापतिः भृगुपति-गर्व-पर्वत-नाशक: ॥१३७।।

वृषध्वज महादेव का धनुष् भङ्ग कर सीताजी को महोत्सव = अत्यधिक आनन्द प्राप्त कराने वाले हैं, सीता के पति नाथ हैं, भृगुपति परशुराम के गर्वपर्वत के नाशक हैं ।। 137 ।। 

अयोध्यास्थ-महाभोग-युक्त लक्ष्मी-विनोदवान् ।। 
कैकेयीवाक्यकर्ता च पितृवाक्-परिपालक: ||१३८।। 

अयोध्या में महल में होने वाले महाभोग = सभी राजकीय उपचार से सहकृत जो लक्ष्मी सीताजी का विनोद = क्रीडा है, तद्वान् हैं, कैकेयी माता के वाक्य को मानने वाले और पिता महाराज दशरथ के वचन को पालने वाले हैं ।। 138 ।।

वैराग्य-बोधकोSनन्य-सात्त्विक स्थान-बोधक: ।। 
अहल्यादुःखहारी च गुहस्वामी सलक्ष्मणः ||१३९ ।। 

अपने जीवन से सभी को वैराग्य का बोध कराने वाले, अनन्य यानि निर्जनवन में जो सात्त्विक स्थान भगवान् का सात्त्विक कन्दमूल भोजनादि और तपस्या से युक्त निवास है - उसके बोधक हैं, अहल्या के दुःख को छीनने वाले हैं यानि शापमुक्त करने वाले हैं, गुह नामक निषादराज के स्वामी हैंं और सदैव लक्ष्मण के साथ रहने वाले हैं ।। 139 ।।

चित्रकूटप्रियस्थानो दण्डकारण्यपावन: 
शरभङ्गसुतीक्ष्णादिपूजितः अगस्त्यभाग्यभूः ||१४०।।

चित्रकूट जिनका प्रिय स्थान है, दण्डकारण्य को पावन करने वाले, शरभङ्ग सुतीक्ष्ण आदि से पूजित और 
अगस्त्य के भाग्यभू, बहुत तपस्या और पुण्य से अगस्त्य ऋषि के भाग्य के फलरूपेण आविर्भूत होने वाले हैं ।। 140 ।। 

ऋषिसम्प्रार्थितकृति: विराध-वध पण्डितः ॥ छिन्न-शूर्पणखा-नास: खरदूषणघातक: ।।१४१।। 

ऋषियों के द्वारा संप्रार्थित असुरवध की प्रार्थना को करने वाले ऋषिसंप्रार्थितकृति हैं, विराध के वध में पण्डित प्रवीण हैं, शूर्पणखा की नासिका छेदने वाले और खरदूषण असुरों के घातक हैं ।। 141 ।।

एकबाणहताऽनेक-सहस्रबलराक्षसः ।। 
मारीचघाती नियतसीतासम्बन्धशोभितः ॥१४२॥ 

एक बाण से ही अनेक सहस्त्र गुना बल वाले राक्षसों को मारने वाले, मारीच के घाती और नित्य सदा सीता के सम्बन्ध से सुशोभित हैं ।। 142 ।। 

सीतावियोगनाट्यश्च जटायुर्वध-मोक्षद: ।। 
शबरीपूजितो भक्तहनुमत्प्रमुखावृतः ||१४३|| 

सीता के वियोग का नाट्य रचने वाले, जटायु के वध होने पर उसे मोक्ष देने वाले, शबरी द्वारा पूजित और भक्तों में प्रमुख हनुमान् जी जैसे श्रेष्ठ भक्तों से घिरे हुए हैं ।। 143 ।।

दुन्दुभ्यस्थिप्रहरण: सप्ततालविभेदनः ॥  
सुग्रीवराज्यदो वालिघाती सागरशोषणः ||१४४।। 
दुन्दुभि नामक असुर के अस्थियों के प्रहरण = पाद के अङ्गुष्ठ से ही योजनों दूर तक फेंक देने वाले, सात ताल वृक्षों को एक ही बाण से भेदने वाले, सुग्रीव को किष्किन्धा राज्य देने वाले, वाली के घातक और सागर को सुखा देने वाले हैं ।। 144 ।।

सेतुबन्धनकर्ता च विभीषणहितप्रदः ।। रावणादिशिरच्छेदी राक्षसाघौघ-नाशक: ।।१४५।।
सेतु के बन्धन कराने वाले, विभीषण को हित भक्ति और प्रपत्ति का दान करने वाले, रावणादियों के सर को छेदने वाले, और राक्षसों के अघ = पापों के समूह का नाश करने वाले। 

 सीताऽभय-प्रदाता च पुष्पकागमनोत्सुक: ।। अयोध्यापतिरत्यन्त-सर्वलोकसुखप्रदः ||१४६।। 

सीता को अभय देने वाले, पुष्पक विमान से अयोध्या प्रति आगमन करने में उत्सुक, अयोध्यापति, अत्यन्त अतिशयित सभी लोकों को सुख देने वाले। 

मथुरापुरनिर्माता सुकृतज्ञस्वरूपद: जनकज्ञानगम्यश्च ऐलान्तप्रकटश्रुतिः ॥१४७।।

शत्रुघ्न के स्वरूप में मथुरा के पुर के निर्माता, सुकृत पुण्य को जानने वालों को स्वरूप प्रदान करने वाले, जनक पिता के ज्ञान के गम्य विषय और इला पृथिवी तत्सम्बन्धी ऐल, उसका अन्त ऐलान्त यानि समस्त पृथिवी में जिनकी श्रुति कीर्ति प्रकट है,

रामायण रूप में गाई जाती है तो ऐसे श्रीराम हैं।।

।। यह श्रीवल्लभाचार्य द्वारा प्रणीत भागवत नवमस्कन्ध के लीलानुसारि 'पुरुषोत्तमनामसहस्र'स्तोत्र के अन्तर्गत भगवान् श्रीराम के नाम हैं ।।


।। श्रीकृष्णार्पणम् अस्तु ।।

Common Mistakes in Daily Sanskrit

1. KutrataH - no need of saying kutra-tah, kutah is enough for, = "from where, from when, why, for what reason, that's why", these meanings. 'tah' represents all 
meanings of 5th Vibhakti. 

2. bahish - बहिष् is an Avyay. It needs no Vibhakti, people tend to add it anyway. I came from outside can be said 'बहिर् आगतः' if there's ambiguity, you can say 'बाह्यात् आगतः'।  

3. kushalam - भवान् कुशलम्? is wrong. Kushalam is abstract noun, like joy, peace etc. It's like asking are you joy/peace? I should ask are you at peace? अपि भवान् कुशली? Or अपि भवती कुशलिनी? If you want to ask "Is everything fine?", you can say "सर्वगतं कुशलम्?"

4. वैश्विक -This is a very common but wrong usage, one should use जागत for Global, but वैश्व is commonly used for a group of Devas. वैश्विक is sarvatha unacceptable.

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गीता में समत्वयोग।।

गीता में समत्व का सर्वाधिक महत्व है । भगवान् ने इसे योग की स्वतन्त्र संज्ञा दी है—'समत्वं योग उच्यते (2:48) । संसार में विषमता है और यही विषमता दुःख का मूल है । यह विषमता किसी प्रकार संसार से मिटाई भी नहीं जा सकती हैं । दिन-रात, अन्धकार-प्रकाश, शीत-उष्ण, जन्म-मरण, सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि द्वन्द न समाप्त हुए हैं, न समाप्त होंगे। 

प्रत्येक स्थिति में भगवत् कृपा का दर्शन समत्व है । संत एकनाथ जी की पत्नी परमसाध्वी थी, इसके विपरीत संत तुकारामजी की पत्नी बड़ी ही दुर्विनीता और कर्कशा थी। मन्दिर में जाने पर एकनाथ जी भगवान् का उपकार यह कर कर मानते थे कि उन्हें स्त्री का संग नहीं सत्संग मिला है, उधर तुकारामजी कर्कशा प मिलने के कारण भगवान् का परम उपकार मानते थे । वे कहते थे कि हे भगवन् यहि आपने सुन्दरी और सुशीला पत्नी दी होती तो सारा दिन मैं उसी के पीछे लगा रहता और आपको भूल जाता । प्रतिकूलता को विचारों द्वारा अनुकूलता ढाल लेना समत्त्व दर्शन है । विचार करके देखा जाये तो कोई भी वस्तु आदि से अन्त तक आर-पार सुखार या दुःखप्रद नहीं है। सुख या अनुकूलता मिलने पर जो पहले प्रसन्नता देती हैं, में बिछुड़कर बाद में वही दुःख देती है। दुःख या प्रतिकूलता मिलने पर जो दुःख दें है तो बिछुड़कर सुख देती है। सुख दुःख में और दु:ख सुख में परिणत होता रहता है। संसार किसी के लिये न बदला है न बदलेगा । दृष्टि बदलने पर ही सृष्टि बदलेगी । को भी वस्तु पूर्णतया न सुखकर हैं, न दुःखकर है। यह मानना पड़ेगा कि जन्म-मरण, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मानापमान परस्पर पूरक हैं, दोनों आयेंगे और दोनों का समन भाव से स्वागत करना पड़ेगा। इसी समत्वभाव को मानस में इस प्रकार व्यक्त किया गया है

जनम मरन सब सुख दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय-मिलन वियोगा।। 1. काल करम बस होहिं गोसाईं । बरबस राति-दिवस की नाईं ।। सुख हरसहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ।। (मानस)

रामायण का यही 'सम' गीता का 'समत्व' है । ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग सभी साधना-पद्धतियों में समत्व का समान महत्त्व है । सखी वही है, ज्ञानी वही है, सही द्रष्टा वही है, सच्चा धार्मिक वही हैं, जिसके भावों-विचारों और दृष्टि में समता जो नष्ट होते हुए सचराचर प्राणियों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखत है, वही यथार्थ देखता है है।

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।
(गीता 13.27)

(पण्डित देवीसहाय पाण्डेयजी गीताज्ञानदीपिका पृ ४५)


च के 4 अर्थ होते हैं।

समुच्चय अन्वाचय इतरेतरयोग और समाहार। 

समुच्चय का अर्थ है जब दो (या अधिक) परस्पर निरपेक्ष वस्तुओं का समूह किसी तीसरे वस्तु में हो। 

जैसे ईश्वरं गुरुं च भजस्व = ईश्वर और गुरु को भजो।
यहाँ ईश्वर का और गुरु का इन दो वस्तुओं का भजन (तीसरी वस्तु) में एकत्रीकरण होता है। ईश्वर का भजन गुरु के भजन के सापेक्ष नहीं है। इसलिए ईश्वर का भजन करो, और गुरु का भजन करो, यह दो स्वतन्त्र वाक्य बन जाते हैं।
भजन क्रिया में दो द्रव्य ईश्वर और गुरु का समुच्चय हुआ है, उसको "च" ने बताया।।

और एक उदाहरण है।
● रक्तो घटः पटश्च। ●
इसमें रक्त एक रङ्ग है, यह गुण है। इस एक गुण में 2 वस्तुओं का समुच्चय है, घट (pot) और पट (cloth) का। घड़ा भी लाल है और कपड़ा भी, दोनों एक दूसरे से सापेक्ष होके लाल नहीं। 

रामः सुन्दरः धार्मिकः च। यहाँ पर सुन्दरता और धार्मिकता ये दो गुणों का समुच्चय राम इस तीसरे वस्तु में है। सुन्दरता धर्म से सापेक्ष नहीं। 

अन्वाचय का अर्थ है जहाँ एक प्रधान वस्तु के सापेक्ष अप्रधान वस्तु हो। 
जैसे ● भिक्षाम् अट गां चानय ● 
भिक्षाटन करो और गाय लेते हुए आना। 
इसमें भिक्षा के लिए घूमना प्रधान वस्तु है, उस बीच में मानलो गाय दिख जाए तो ले आना, ये अप्रधान है और भिक्षाटन के सापेक्ष है। अगर भिक्षाटन न होगा तो गाय को लाना भी संभव नहीं इसलिए। 

इतरेतर-योग। 
जब दो (या अधिक) परस्पर सापेक्ष वस्तुओं का एक साथ *एक साथ* सम्बन्ध बताना हो तब इतरेतरयोग होता है।।
यह भी समुच्चय का ही एक प्रभेद है लेकिन समुच्चय में परस्पर सम्बन्ध अपेक्षित नहीं। 

●धवखदिरौ छिन्धि● = धव और खदिर के पेड़ काटो। इसका विग्रह धवश्च खदिरश्च छिन्धि ऐसे दो च लगाके होगा। क्योंकि दोनों को एक साथ काटना है। 
ये दोनों का छेदन क्रिया (तीसरी वस्तु में) एक साथ जुड़ना (योग) अपेक्षित है। दो या अधिक वस्तुओं का समुच्चय तीसरे में हो रहा है अतः यह भी समुच्चय है, लेकिन सापेक्ष वस्तुओं का योग होने से अन्योन्ययोग समास हो जाएगा। 

समुच्चय में ईश्वर का भजन अलगसे और गुरु का अलगसे भी हो सकता है। 

लेकिन अगर इसे ही समास करके कह दिया जाय तो एक साथ करना अपेक्षित होगा = "गुर्वीश्वरौ भजस्व" इसका अर्थ गुरु और ईश्वर को साथमें भजो। यहाँ दोनों पदार्थ ईश्वर और गुरु परस्पर सम्बद्ध हैं। इसे खोलके बोलोगे तो दो च लगाने पड़ेंगे। 
ईश्वरं च गुरुं च भजस्व। 

समाहार भी समुच्चय का ही प्रभेद है। लेकिन यहाँ पर एक समाहार (1 unit) अपेक्षित है।

●जैसे इतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदः (छान्दोग्य उपनिषद्)।●
इतिहासपुराण पाँचवा वेदों का भी वेद है। यहाँ इतिहास और पुराण ये अलग अलग नहीं है एक ही समाहार (unit) हैं, यह बताना चाहता है वेद। 

"भेरीमृदङ्गं वादय" भेरिमृदङ्ग बजाओ। इधर भी भेरी वाद्य और मृदङ्ग वाद्य को अलग अलग न रखके एक समाहार करके बताया गया है। इसे बोलचाल में हम भी कहते हैं ढोलनगाड़ा बजा। 
तो ढोलनगाड़ा में एकवचन है। 

समाहार में हमेशा एकवचन ही होगा। और सदैव नपुंसकलिङ्ग होगा।

ये च के चार अर्थ थे।।

संस्कृतभाषा में आधारभूत किन्तु ध्यान रखने योग्य नियम:-

१) "मैं" के साथ उत्तम पुरुष का प्रयोग होता है।
We always use "Utama purusha" with I

१) अहं पठामि।
२) अहं लिखामि।
३) अहं गच्छामि।

२)"त्वम्" के साथ मध्यम पुरुष का प्रयोग होता है।
We use "Madhyam Purusha" With YOU.
१) त्वं पठसि।
२) त्वं लिखसि।
३) त्वं गच्छसि।

"त्वम्" के स्थान पर यदि भवान् शब्द का प्रयोग हो तो प्रथम पुरुष का प्रयोग होता है।
If you are using भवान् instead of त्वम् then there will be "Prathma purusha" 

१) भवान् पठति।
२) भवान् लिखति।
३) भवान् गच्छति।

३) "अहम्"या "त्वम्"के अलावा किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु के लिए प्रथम पुरुष का प्रयोग होता है।
There will be "Prathama Purusha" For every person or thing except अहम् and त्वम्

१) सः पठति।
२) सः लिखति।
३) सः गच्छति।

Don't get Confused between similar Words like:-

भवान् - आप
भवत: - आपका
भवन्तः - आप सब
भवतां - आप सबका
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विष्णु शब्द और व्याकरण।।

विश्वं वेवेष्टि व्याप्नोति इति विष्णुः - करके ये वाला एक विष्णु। ये विष्लृ व्याप्तौ धातु औणादिक नु प्रत्यय से बना है। जो सब जगह व्याप्त है वो विष्णु। इसे अन्तर्यामी भी कहते हैं।

यद्वा विशति देहिमात्रे (अहम् आत्मात्मनां धातः) - वाला एक विष्णु। 
जो सबके आत्मा के अन्दर वास करे वो विष्णु। इसे परमात्मा कहते।

विष्णाति विप्रयुनक्ति संसाराद् भक्तान् इति विष्णुः - ये वाला एक विष्णु। यानि जो संसार से भक्तों को मुक्त करे अथवा वेवेष्टि व्यापयति (फैलाता है) 

स्वरूपानन्दं भक्तहृदयेषु इति विष्णुः अन्तर्भावितण्यर्थः। - जो भक्तों में आनन्द फैलाए।  

लेकिन सबसे ज्यादा मजा इसमें है =
विषु सेचने वेषति सिञ्चतीति विष्णुः। स्वस्यानान्दरूपत्वाद् भक्तान् स्वभजनानन्देन सिञ्चतीति विष्णुः 
यानि जो अपने स्वरूपानन्द से सबकुछ सींच दे वो विष्णु। 

ऐसे व्याकरण से एक विष्णु के भिन्न अर्थ रूप और भिन्न रूप समझ सकते हैं।।कितनी विष्णु (व्यापक) हमारी संस्कृत भाषा है देखो।

व्याकरण समास से योग और गुणन की संक्रिया-

द्वौ च दश च इति द्वादश अर्थात् 2+10=12
द्विर्दश इति द्विदशाः अर्थात् 2×10=20

द्वौ च दश च , द्व्यधिका दशेति वा द्वादश, द्व्यष्टनः संख्यायामबहुव्रीह्यशीत्योः--६/३/४७,,
द्विरावृत्ता दश द्विदशाः-- संख्ययाऽव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये--२/२/२५,

संस्कृत में अर्थ चमत्कार।।

पतन्त्यधोनादृतयुष्मदङ्घ्रयः 

इसके दो अर्थ हैं। 
पतन्ति अधः, अनादृतयुष्मदङ्घ्रयः = गिरते हैं नीचे, जिनने तेरे चरण (अङ्घ्रि) का अनादर किया। 

पतन्ति अधः न, आदृतयुष्मदङ्घ्रयः
गिरते नहीं नीचे, जिनने तेरे अङ्घ्रि का आदर किया। 
__

समास = न आदृता इति अनादृताः नञ्तत्पुरुष। 
तव अङ्घ्रयः = युष्मदङ्घ्रयः,षष्ठी-तत्पुरुष।
अनादृता युष्मदङ्घ्रयः यैः ते अनादृतयुष्मदङ्घ्रयः (अनादृत हैं तेरे अङ्घ्रि जिनके द्वारा वे अनादृतयुष्मदङ्घ्रयः)

आदृता युष्मदङ्घ्रयः यैः ते आदृतयुष्मदङ्घ्रयः (आदृत हैं तेरे अङ्घ्रि जिनके द्वारा वे आदृतयुष्मदङ्घ्रयः)। 

अधो और ना में 'अ' मानने पर अधोSना और 'अ' न मानने पर अधो ना रूप बनेगा।

#Gita1 (15)

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ।।१५।।

pāñchajanyaṁ hṛiṣhīkeśho devadattaṁ dhanañjayaḥ
pauṇḍraṁ dadhmau mahā-śhaṅkhaṁ bhīma-karmā vṛikodaraḥ

Hindi 👇
उनमें श्रीकृष्ण महाराजने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुनने देवदत्त नामक (और) भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्रनामक महाशङ्ख बजाया।

English 👇
1.15
Hrishikesh blew his conch shell, called Panchajanya, and Arjun blew the Devadutta. Bheem, the voracious eater and performer of herculean tasks, blew his mighty conch, called Paundra.

शब्दार्था: 
pāñchajanyam—the conch shell named Panchajanya,  hṛiṣhīka-īśhaḥ—Shree Krishna, the Lord of the mind and senses, devadattam—the conch shell named Devadutta, dhanam-jayaḥ—the winner of wealth(Arjun), pauṇḍram—the conch named Paundra, dadhmau—blew, mahā-śhaṅkham—mighty conch, bhīma-karmā—one who performs herculean tasks, vṛika-udaraḥ—the voracious eater(Bhima)
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क्या संस्कृत व्याकरण से और कठिन नियमों से संस्कृत का नाश हो रहा है?

जी नहीं। संस्कृत भाषा तो आज उसके सटीक और सुघटित व्याकरण की वजह से ही जिन्दा है। 

क्या आप जानते हैं व्याकरण और नियमों के अभाव में क्या होता है? भाषा में बहुत से लोगों का प्रवेश हो सकता है, व्यापक स्तर पे बोली जा सकती है और प्रचार भी सरल है। इस लचीले स्वभाव से अवश्य काफी मदद मिलेगी। 

लेकिन इसका दुष्परिणाम है कि भाषा में बड़े बदलाव आएँगे प्रान्त प्रान्त के हिसाब से। देख लीजिए आज एक बिहारी गुजराती मराठी या पञ्जाबी सबकी हिन्दी अलग प्रकार की है। ऐसे में बदलाव 50-60 साल में एक भाषा की अनेक बोलियाँ बनती हैं, फिर उसमें से एक नयी निकट की भाषा बन जाती है। और फिर कुछ हजार दो हजार साल बाद जो मूल भाषा है उसका क्या स्वरूप था बताना असम्भव हो जाएगा। 

कह सकते हो कि प्राचीन साहित्य को देखके अन्दाज लगा लिया जाए। हाँ जैसे पुरानी अंग्रेजी आज नयी अंग्रेजी काफी फर्क है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति जो उस भाषा को सीखना चाहेगा, को अपने मनसे उसके नियम का अनुमान लगाना होगा। कई बार सही लगेगा कई बार गलत। और उसमें भी एक भाषा में करोड़ों नियम होते हैं पूरी भाषा के नियम सीखना असम्भव हो जाएगा।

आज लैटिन का येही हाल है। प्राचीन साहित्य है किन्तु पढ़ना सीखना बड़ा कठिन। कोई निबद्ध व्याकरण ग्रन्थ नहीं। सब विद्वान् बैठके हिसाब लगा लगा के उसके नियम निबद्ध कर रहे हैं। उसमें भी जिस तरह से प्राचीन लोग सोचते होंगे वैसा नवीन न सोचें और साहित्य भी 2000 साल बाद थोड़ा ही मिलेगा, उसमें से जितना अन्दाज लगा सको उतना सही। भाषा आ भी गयी तो भी उसका चाल चलन कोई देशी native बोले और बाहर का आके सीखे तो चाल चलन में जमीन आसमान का फर्क होता है। हम अंग्रेजी कितनी ही अच्छी बोलें या लिखें, हमारा चाल चलन अंग्रेजी मूल चाल चलन जैसा नहीं है।

आज सोचो पाणिनि भगवान् का कितना महान् उपकार है संस्कृत को। उन्होंने इतनी बड़ी भाषा को, जिसमें पृथक् पृथक् देखने जाओ तो करोड़ो नियम हैं, उसको मात्र आठ अध्याय की पुस्तक में समा दिया। यह सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण  चार से पाँच साल में हो सकता है और अगर ऊपरी हिस्सा चाहिए तो 1 साल में ही। आज इतने सारे लोग संस्कृत बोल रहे हैं, और संस्कृत की मौलिकता originality आज भी विद्यमान है उसमें बहुत बडा कारण व्याकरण का है।

चाल चलन में फर्क अवश्य आया है लेकिन व्याकरण सीखने वाले लोग उसी प्राचीन रीतसे संस्कृत बोलने लिखने में सक्षम हैं, दूसरी किसी भाषा में वह सम्भव नहीं। इसलिए व्याकरण का भला मानों मित्रों और पाणिनि भगवान् की दूरदर्शिता और उपकार को समझो जिससे पहले कि व्याकरण को कुछ कहो। 🙏
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मूलतः परमात्मा एक

इन्द्रं मित्रम्.......
एकं सद्विप्रा......मातरिश्वानमाहुः।। 

           - ऋग्वेद १.१६४.४६

एक ही सत् स्वरूप (सत्य) परमात्मा को विद्वज्जन (गुणों एवं स्वरूप के आधार पर) विविध प्रकार से वर्णन करते हैं। उसी परमात्मा को ऐश्वर्य- सम्पन्न होने से 'इन्द्र', हितकारी होने से मित्र वरण-योग्य होने से 'वरुण'  तथा प्रकाशक होने से अग्नि कहा गया है। भली प्रकार पालनकर्ता होने से वही सुपर्ण तथा गुरुत्मान् है।

Sanatana Dharma has 1 Supreme Soul, परमात्मा He is one which always exists, He is Absoulte Reality on which everything including Time and Space depend. When everything, even Time and Space is dissolved into "Sat", what remains is "Sat", hence "Sat" is Absolute Reality.

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संस्कृत की प्रसिद्ध लोकोक्तियाँ।।

1. संघे शक्ति: कलौ युगे। – एकता में बल है।
2. अविवेक: परमापदां पद्म। – अज्ञानता विपत्ति का घर है।
3. कालस्य कुटिला गति:। – विपत्ति अकेले नहीं आती।
4. अल्पविद्या भयंकरी। – नीम हकीम खतरे जान।
5. बह्वारम्भे लघुक्रिया। – खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
6. वरमद्य कपोत: श्वो मयूरात। – नौ नगद न तेरह उधार।
7. वीरभोग्य वसुन्धरा। – जिकसी लाठी उसकी भैंस।
8. शठे शाठ्यं समाचरेत् – जैसे को तैसा।
9. दूरस्था: पर्वता: रम्या:। – दूर के ढोल सुहावने लगते हैं।
10. बली बलं वेत्ति न तु निर्बल : जौहर की गति जौहर जाने।
11. अतिपर्दे हता लङ्का। – घमंडी का सिर नीचा।
12. अर्धो घटो घोषमुपैति नूनम्। – थोथा चना बाजे घना।
13. कष्ट खलु पराश्रय:। – पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।
14. क्षते क्षारप्रक्षेप:। – जले पर नमक छिड़कना।
15. विषकुम्भं पयोमुखम। – तन के उजले मन के काले।
16. जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट:। – बूँद-बूँद घड़ा भरता है।
17. गत: कालो न आयाति। – गया वक्त हाथ नहीं आता।
18. पय: पानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम्। – साँपों को दूध पिलाना उनके विष को बढ़ाना है।
19. सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्य​जति पण्डित:। – भागते चोर की लंगोटी सही।
20. यत्नं विना रत्नं न लभ्यते। – सेवा बिन मेवा नहीं।